जब मैं कक्षा 4 में थी तब मैं ने अपने पापा से नई साइकिल की मांग की. मेरे पापा ने कहा, ‘‘अगर तुम इस बार कक्षा में प्रथम आईं तो नई साइकिल दिलवा दूंगा.’’ मैं ने खूब मेहनत की और वार्षिक परीक्षा में मैं प्रथम आई. मेरे पापा को भी शायद यकीन न था कि मैं उन की यह शर्त जीत जाऊंगी. उन्होंने नई साइकिल खरीद कर देते हुए कहा, ‘‘यह जनून जीवनभर रखना.’’ उन की यह बात मेरी प्रेरणा बनी. सच ही तो कहा मेरे पापा ने कि आदमी अपनी लगन से क्या कुछ नहीं कर सकता.

सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)

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मैं 5 भाईबहनों में तीसरी हूं. सब से छोटा भाई है. हमारा परिवार सामान्य आर्थिक स्थिति वाला था. ऐसे में एक छोटे शहर की मानसिकता के साथ कभीकभी कच्ची उम्र की कुंठा भी मन में घर करती थी. बात तब की है जब मैं उम्र के 15वें साल से गुजर रही थी. मैं बाबूजी के पास बैठी थी. उन्होंने कहा, ‘‘मेरे जैसा बदनसीब कौन होगा, जिस की 4 बेटियां हैं.’’ ऐसा सुनते ही मेरे चेहरे पर हीनभावना, डर और उपेक्षा के भाव एकसाथ उभर आए परंतु बाबूजी की बात अभी जारी रही, ‘‘ऐसा इसलिए कह रहा हूं बेटा, क्योंकि इतनी प्यारी बेटियों को शादी कर के दूर भेजना है और मुझे 4 बार हृदयाघात जैसा कष्ट सहना है.’’ मेरे मनोभाव तुरंत बदल गए और अपने पिता की स्नेहसिक्त बातों से न सिर्फ उन के लिए श्रद्धा बढ़ गई बल्कि मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ गया.

सीमा ओझा, बक्सर (बिहार)

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मेरे पापा अपने पूरे परिवार में पहले युवक थे जिन्होंने मैट्रिक पास की थी और उन्हें तुरंत बैंक में नौकरी भी मिल गई. हमारे परिवार वाले राजस्थान के एक गांव में रहते थे और खेतीबाड़ी करते थे. उस जमाने में पढ़ाईलिखाई का इतना चलन नहीं था. लेकिन पापा को शौक था इसलिए उन्होंने अपने बच्चों यानी हम पांचों भाईबहनों को खूब पढ़ाया. पढ़ाई के अलावा उन्होंने हम सभी को अच्छी पुस्तकें, पत्रिकाएं, अखबार पढ़ने को भी प्रेरित किया.

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