हम लोग माउंट आबू घूमने गए थे. वहां एक अच्छे होटल में ठहरे थे. गरमी में माउंट आबू हिल स्टेशन जनजीवन एवं सौंदर्य से भरपूर होता है. होटल में अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई. डाक्टर ने केवल मूंग की दाल व पतली रोटी खाने को कहा. हम परेशान थे कि इतने बड़े होटल में यह खाना कैसे मिलेगा. हमारी परेशानी देख कर होटल का केयरटेकर, जो हमारे कमरे में सभी सामान इत्यादि पहुंचाता था, बोला, ‘‘साहब, आप परेशान न हों. मेरा खाना घर से आता है. अब से मूंगदाल और रोटी आएगी. जो आप खाएंगे वही मैं भी खा लूंगा.’’ उस ने निस्वार्थ भाव से हमें 5 दिन खिलाया. चलते समय हम उसे खाने के अतिरिक्त पैसे देने लगे तो वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘साहब, क्यों शर्मिंदा करते हैं. वह घर का खाना था जो हमारे अपनों ने खाया. हमें तो प्रसन्नता है. आप मेरी इस प्रसन्नता को कम न कीजिए.’’ उस ने हमें निरुत्तर कर दिया.

डा. मनोरमा अग्रवाल, बांदा (उ.प्र.)

*

मेरा बेटा आरंभ से ही बहुत ही जिज्ञासु व तेज प्रवृत्ति का था. जब देखो तब पढ़ाई करता रहता. मुझे कभी भी मौका नहीं मिला कि उस से पढ़ने के लिए या फिर अधिक अंक लाने के लिए कहूं. कम अंक आने से वह खुद ही इतना दुखी होता कि घर के सारे सदस्य चुप्पी साध कर बैठ जाते. पहली कक्षा से ले कर स्नातक तक उस ने प्रथम स्थान ही प्राप्त किया. शिक्षक बनने की इच्छा देख मैं ने उसे बीएड करा दिया.

संयोग से उसी वर्ष बिहार में 1 लाख से भी अधिक शिक्षकों की नियुक्ति हेतु शिक्षक योग्यता परीक्षा हुई जिस में मेरे बेटे ने भाग लिया. परिणाम घोषित हुआ तो उस में सारे अनट्रेंड लोगों की नियुक्ति हो गई. बेटे का उस में नाम न देख हम लोगों का जो हाल हुआ, सो हुआ, हम ने अपने बेटे को तसल्ली देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर महल्ले वालों का क्या, उन लोगों को तो मौका मिलना चाहिए. बस, कह दिया कि आप के बेटे की ट्रेनिंग बेकार हो गई. उसे शिक्षक की नौकरी नहीं मिलेगी. एक तरफ मेरा दुखी परिवार और एक तरफ मेरा सुयोग्य बेटा. मैं ने भी गुस्से में कह दिया, ‘‘सरकार ने ट्रेनिंग की अनिवार्यता हटाई है, मान्यता नहीं.’’ मैं ने बेटे के आत्मविश्वास को जगाए रखने की पूरी कोशिश की कि एक दिन अचानक मेरे बेटे को केंद्रीय विद्यालय संगठन का नियुक्तिपत्र मिला. उस दिन मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैं ने पूरे गांव वालों के साथ अपनी खुशियां बांटी.

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