मैं अपनी बेटी व उस के 2 बच्चों के साथ देहरादून ऐक्सप्रैस के स्लीपर क्लास से कोटा जा रही थी. दिल्ली स्टेशन पर कब मेरे पर्स की जिप खोल कर अंदर से मेरा छोटा पर्स निकाल लिया गया, मुझे पता ही नहीं चला. छोटे पर्स में पैसों के अलावा हमारे टिकट भी थे. जब ट्रेन में अपनी बर्थ का मिलान करने के लिए पर्स खोला तो हम सकते में आ गए. ट्रेन चल पड़ी थी. आसपास के सहयात्रियों को हमारे टिकट न होने का पता चल गया था. तभी टीटीई टिकट चैक करने आया. मैं ने उसे पूरी बात बताई तो वह  कहने लगा, ‘‘आप के टिकट खो गए हैं. दूसरा टिकट बन सके, इतने पैसे आप के पास नहीं हैं. इन बच्चों को न भी गिनें तो आप दोनों के देहरादून से टिकट बनाने होंगे.’’

हमें परेशान देख कर वह फिर बोला, ‘‘मेरे पास जो लिस्ट है, उस में मैं मार्क कर देता हूं कि टिकट चैक हो गए हैं. पर अगर काउंटर चैकिंग हो तो आप को कहना होगा कि टिकट चैक होने के बाद पर्स गुम हुआ है.’’ मैं ने शंका जताई कि ऊपरनीचे सब मुसाफिरों को मालूम है कि टिकट नहीं हैं. टीटीई ने फिर कहा, आप चिंता न करें और बैठ जाएं.’’

हमें अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था. अजीब सी उलझन लिए हम सकुशल घर पहुंचे. रेलवे वालों के करप्शन की कितनी ही बातें हमारे लिए झूठ साबित हुईं.   

मनोरमा दयाल

*

हम गरमी की छुट्टियों में मामा के घर तोशाम गए थे. एक दिन हमारे मामा के बच्चे ट्यूशन पढ़ने जा रहे थे, तब मेरी छोटी बहन, जो 3 साल की थी, चुपके से उन के पीछे चली गई. किसी को भी पता नहीं चला कि वह पीछे आ रही है. वे लोग तो अपनी जगह पर चले गए पर मेरी बहन रस्ता भटक गई. घर पर सब उसे ढूंढ़ढूंढ़ कर परेशान हो रहे थे. तभी 2 नवयुवक गली में आवाज लगाते हुए आए, ‘‘यह बच्ची किस की है?’’ हम ने आवाज सुन कर देखा तो पाया कि वह हमारी बहन थी. उन लोगों ने बताया कि यह उन्हें मंदिर में मिली, वह रो रही थी. उन लोगों ने मंदिर में कई लोगों से पूछा पर किसी ने बच्ची को नहीं पहचाना. इसलिए उन्होंने उसे ले कर पूरे शहर का चक्कर लगाने का फैसला लिया.

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