मैं ने शिक्षक पद हेतु साक्षात्कार के लिए अपने पैतृक गांव से सिल्चर के लिए प्रस्थान किया. वर्ष 1993 में अगस्त का महीना था. असम में भयंकर बाढ़ आई हुई थी. ट्रेन सेवा ठप हो गई थी. यात्रियों की भीड़ थी. मैं किसी तरह बिहार पहुंचा. वहां से गुवाहाटी जाने के लिए बस पर सवार हुआ. बस के चलने में कुछ देरी थी. मुझे प्यास लग रही थी. मैं अपनी अटैची बस में छोड़ कर सामने एक नल पर पानी पीने गया. पानी पीने के बाद मैं ने बस की तरफ मुड़ कर देखा तो बस वहां नहीं थी. मेरे सारे मूल प्रमाणपत्र अटैची में ही थे. मुझे चिंता होने लगी कि मैं साक्षात्कार कैसे दे पाऊंगा. मैं चारों तरफ देख रहा था. बसों का रंग, आकार एकजैसा होने के कारण पहचान नहीं पा रहा था. अचानक आवाज सुनाई दी, ‘‘ए लड़के, इधर आ.’’ मैं ने मुड़ कर देखा, वह बस का कंडक्टर था. वह मुझ पर गुस्सा कर रहा था. मैं चुप रहा. उस ने कहा कि अब बस से नीचे उतरना तो ड्राइवर या कंडक्टर से पूछ लेना कि बस कितनी देर तक रुकेगी. मैं अपनी सीट पर बैठ गया. गुवाहाटी पहुंच गया. वहां से सिल्चर गया. सफलता मिली. आज मैं शिक्षक हूं. कंडक्टर की हिदायत अभी तक याद है. उस ने मुझे हिदायत दी थी कि कभी भी बस से ड्राइवर या कंडक्टर से पूछे बिना नहीं उतरना. उस दिन को नहीं भूलता. अब मैं यात्रा के दौरान बस या ट्रेन से उतर कर पानी पीने या कोई सामान खरीदने में बहुत सावधानी बरतता हूं.

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