मैं अपनी बेटी के यहां दिल्ली गई. 25 दिसंबर को उस का जन्मदिन होता है. जन्मदिन की पार्टी के लिए दामाद सामान लेने बाजार गए. उन्होंने सामान खरीदा और जितना बिल बना था, दुकानदार को पैसा दिया. दुकानदार ने पैसे ले कर बाकी के 400 रुपए उन को लौटाए. उन्होंने उन रुपयों को अपनी जैकेट की साइड की जेब में रख लिया और आगे जाने लगे. जब वे जा रहे थे तो एक बच्चा उन से टकराया. उन्हें दुख हुआ कि बच्चा टकरा कर गिर गया. कुछ कहते किंतु तब तक वह लड़का जा चुका था. उन्हें कुछ और सामान लेना था. उन्होंने सामान खरीदा और जेब में रखे पैसे देने लगे तो हैरान रह गए, जेब में पैसे ही नहीं थे. तब वह दुकानदार बोला कि वह लड़का जो आप से टकराया था, ले गया होगा. ये ऐसे ही पौकेटमारी करते हैं.    

काशी चौहान, कोटा (राज.)

*

मैं शासकीय सेवा में हूं. इस बार भोपाल की अरेरा कालोनी में मुझे रहने के लिए क्वार्टर मिला. क्वार्टर पौश कालोनी के नजदीक है. एक बार एक लड़का दरवाजे पर आया और मुझे एक एलबम तथा एक लैटर दिखाया. एलबम में फोटो के अलावा विज्ञापन था जो राजस्थान के किसी संस्थान ‘विकलांग सेवा संस्थान’ का था और लैटर में विकलांग बच्चों के लिए स्वेच्छा से कुछ भी दान करने की मार्मिक अपील थी. देखा कि वह लड़का भी पोलियोग्रस्त था. मैं ने तुरंत ही 50 रुपए निकाले, दे दिए. यही नहीं, अपनी कालोनी में उस के साथ सहायता राशि भी एकत्र करवाई.

कुछ महीनों बाद इसी तरह एक और विकलांग लड़का मेरे घर पर आया और एलबम व लैटर दिखा कर मदद मांगी. मैं ने फिर मदद की. फिर 2 महीने बाद फिर एक और विकलांग लड़का आया तब मैं ने उस को कुछ नहीं दिया और उस से उस का नामपता नोट किया. मेरे घर के पास पुलिस थाना है. मैं ने उस से पुलिस थाना चलने को कहा तो उस ने डर के मारे सबकुछ बताया कि हम सभी लड़के, जो विकलांग हैं, एक संस्था में नौकरी करते हैं. अच्छी, बड़ी कालोनियों में जा कर विकलांगता के साथ एलबम, पत्र दिखा कर दान के नाम पर रुपए वसूलते हैं. इस के लिए हमें मासिक वेतन मिलता है. इस दान का उपयोग कहीं भी, किसी विकलांग सेवा संस्थान में नहीं होता.

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