वर्ष 1971 की घटना है. मैं सुबहसुबह चंडीगढ़ से मनाली जाने वाली बस, जो 6 बजे चलती थी, में सामान रख रहा था कि अचानक मेरी नजर पिछली सीट पर बैठे एक दाढ़ी वाले व्यक्ति पर पड़ी. वह सीट से एक कंबल उठा रहा था. जैसे ही उस ने मुझे देखा उस ने कंबल वहीं रख दिया व मुझ से कहा, ‘‘आप कंबल का ध्यान रखना, मैं टिकट ले कर आता हूं.’’ मैं ने समझा शायद कोई सवारी है.

मैं ने अपनी जेब से 100 रुपए का नोट निकाल कर उसे थमा दिया यह कह कर कि एक मेरा टिकट भी सुंदरनगर का ले आना. गाड़ी का समय भी हो गया परंतु वह व्यक्ति लौट कर नहीं आया.

जब गाड़ी के चलने का समय हो गया तब मैं ने सारी बात कंडक्टर को बताई. फिर मैं टिकट खिड़की के पास भी गया. परंतु वह व्यक्ति रफूचक्कर हो चुका था. मैं असमंजस में फंस गया क्योंकि मेरी जेब में पैसे नहीं थे. मेरी आंखों से मजबूरी के आंसू निकलने लगे.

डा. आर के गुप्ता, मंडी (हि.प्र.)

बात कुछ वर्ष पहले की है. हम किराए के जिस मकान में रहते थे वहां सामने बड़ा सा आंगन था. मेरे घर में काफी पुराने अखबार जमा हो गए थे. एक दिन मैं ने एक रद्दी वाले को आवाज लगाई. रद्दी लेने वाले 2 कम उम्र के बच्चे थे. मैं ने सारे अखबार ला कर आंगन में रखे और उन बच्चों से तोलने के लिए कहा.

उन बच्चों ने अखबार तोले और बताया कि 5 किलो हैं. 5 रुपए प्रति किलो के हिसाब से 25 रुपए उन्होंने मुझे दिए. उन को कम उम्र में यह काम करते देख कर मुझे दया आ गई. मैं ने उन्हें पीने के लिए पानी दिया और बिस्कुट भी दिए. फिर मैं ने उन से कहा कि ये सब बाहर ले जाओ और थोड़ी देर में वे चले गए.

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