साहित्य के क्षेत्र में गुलजार का नाम किसी पहचान का मुहताज नहीं है जो आमतौर पर चलताऊ जनवादी और परिपक्व रूमानी गीत लिखने के लिए जाने जाते हैं. गुलजार घोषित तौर पर कोई साहित्यिक मठ नहीं चलाते और न ही उन पर किसी पंथ या विचारधारा का अनुयायी या प्रतिनिधि होने का आरोप कभी लगा है. बीते दिनों वे बेंगलुरु के एक कवि सम्मेलन में थे. इस के इतर उन्होंने एक ध्यान खींचने वाली बात

यह कही कि देश ने सांस्कृतिक नहीं, राजनीतिक आजादी हासिल की है. गुलजार की मंशा समझ से परे उस वक्त और हो गई जब उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अगर कालेजों में ‘पैराडाइज लास्ट’ जैसी कृतियों को पढ़ाया जा सकता है तो कालिदास, युधिष्ठिर और द्रौपदी को क्यों नहीं पढ़ाया जा सकता. ये कृतियां हमारी संस्कृति के ज्यादा नजदीक हैं. इकलौती अच्छी बात यह रही कि गुलजार ने वेदपुराणों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की वकालत नहीं की.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...