गर्व की राजनीति
हर एक औसत भारतीय की तरह राहुल गांधी को भी हक है कि वे अपने पूर्वजों व परिवार के साथ अपने गोत्र तक पर भी गर्व करें. राजस्थान के चूरू में राहुल ने बड़े इमोशनल अंदाज में कहा कि ‘उन्होंने’ मेरी दादी व पिता को मार डाला. मैं भी मौत से घबराता नहीं हूं. सार्वजनिक रूप से व्यक्त किए गए इस गर्व व त्याग का मतलब साफ था कि इस के बदले हमें वोट दो.
आजकल जनता पहले सी भावुक नहीं रही. उस के सामने बड़ी झंझटें हैं. प्याज खरीदना तक रोजमर्राई चुनौती बन गई है. ऐसे में गांधी परिवार की शहादत पर गर्व करने में आंसू आएं न आएं, आंखें तो भर ही आती हैं. लोग भोर से ले कर देर रात तक कमाने में लगे हैं, बचाखुचा वक्त टीवी खा जाता है. यानी फख्र करने के लिए भी वक्त का टोटा है. फिर भी राहुल अपनी खानदानी कुर्बानी की याद दिलाने में कामयाब रहे. असर भले ही चंद घंटे रहा हो, क्या फर्क पड़ता है.


कानूनी प्रतिशोध
तथाकथित बड़े लोगों की बेइज्जती भी बड़ी होती है. वरिष्ठ भाजपाई नेता और अधिवक्ता राम जेठमलानी को मई के महीने में भाजपा ने बाहर किया था. उन पर आरोप अनुशासनहीनता का था. यह निष्कासन, दरअसल, अपमान है, इस की अनुभूति 5 महीने बाद जेठमलानी को अक्तूबर के तीसरे हफ्ते में हुई. उन्होंने आव और ताव दोनों देख कर भाजपा संसदीय बोर्ड पर 4.5 करोड़ रुपए का मानहानि का मुकदमा ठोंक दिया.
12 सदस्यीय बोर्ड में से जेठमलानी ने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को शायद सीनियर सिटीजन होने का डिस्काउंट दे दिया और नरेंद्र मोदी को इसलिए बख्श दिया कि उन्होंने ही उन के हक में सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के खिलाफ बयानबाजी की थी. मामला दिलचस्प है. अदालत शायद ही किसी राजनीतिक दल के संविधान में दखल देना पसंद करे और दिया तो आइंदा किसी
को पार्टी से निकालने से पहले उन अधिवक्ताओं की राय महत्त्वपूर्ण हो जाएगी जो बैठेठाले मुकदमामुकदमा का प्रिय खेल वक्त गुजारने के लिए खेला करते हैं.

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