सियासी भाईबहन
चचेरे, ममेरे, फुफेरे और मौसेरे भाईबहनों के साथ बचपन में गुजारा वक्त जिंदगीभर जेहन में महफूज रहता है. जिस में सिर्फ मीठी यादें, शरारतें और झूठमूठ की लड़ाइयां होती हैं. ये यादें मुसकराने की वजह भी होती हैं, इसलिए लोग अकसर कहते यह हैं कि बचपन कितना अच्छा होता है, और लौट कर क्यों नहीं आता. प्रियंका वाड्रा और वरुण गांधी की लड़ाई सियासी है जिस में वरुण शालीनता दिखाते हार कर भी जीत गए हैं. एक सधे नेता की तरह वे नपातुला बोले, धैर्य नहीं खोया और उकसावे में नहीं आए यानी बचपना नहीं दिखाया. रिश्तेदारों के बीच बैर के बीज हमेशा की तरह इस मामले में भी मांबाप के बोए हुए हैं, तो इस में इन वयस्क बच्चों का भला क्या दोष?
 
हवाई जीवन
नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी ने 45 से भी ज्यादा दिन हैलिकौप्टर और हवाई जहाजों में गुजारे, वहीं इन्होंने चायनाश्ता किया, लंचडिनर लिया, रणनीतियां बनाईं, चिंतनमनन किया और जहां भी उतरे, भीड़ के सामने चेहरे पर ओढ़ी मुसकराहट के साथ हाथ हिला कर उस का अभिवादन किया. भाषण दिया और दूसरे शहर की तरफ उड़ लिए. हवा में तो ये खूब रह लिए, अब बारी जमीन की है. यह जमीन किस के हिस्से में आती है यह तो समय ही बताएगा. दुनियाभर के लोग शाम ढले पक्षियों की तरह वापस घर आने को फड़फड़ाते हैं, जिस से नौकरी या कारोबार की थकान बीवीबच्चों, घर वालों के साथ बैठ कर उतार सकें. इन की दुनिया बहुत छोटी पर महत्त्वपूर्ण होेती है, जो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को अलगअलग वजहों के चलते नसीब नहीं है जिस की चर्चा प्रचार के दौरान अप्रिय तरीके से हुई भी.
 
कारोबार के गुर
लाखों लोगों को नौकरी देने वाले रिलायंस के मुखिया मुकेश अंबानी की 22 वर्षीय बेटी ईशा अंबानी अमेरिका की नामी कंसल्ंिटग कंपनी मेकेंजी में बतौर कंसल्टैंट नौकरी करेगी, इस खबर को जिस ने भी सुना, हैरानी से यही कहा कि भला मुकेश अंबानी की बेटी को नौकरी की क्या जरूरत. दरअसल, जरूरत अनुभव की, कर्मचारियों से काम निकालने और कारोबारी गुर सीखने की है. जो पिता और अपनी कंपनी से दूर रह कर ही हासिल किए जा सकते हैं. व्यावसायिक दुनिया बेहद क्रूर होती है. और यही क्रूरता सीखने के लिए ईशा मेकेंजी में है. खुद पढ़ाने के काबिल होते हुए भी मांबाप संतान को दुनियादारी सीखने के लिए स्कूल भेजते हैं, यही मुकेश कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि उन की बेटी अपने नाम से जानी और पहचानी जाए.
 
पितामह की भूमिका 
क्या सचमुच लालकृष्ण आडवाणी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर सहमत हो गए हैं, इस सवाल का सही जवाब 16 मई के बाद ही मिलेगा. वह भी उस सूरत में जब एनडीए बहुमत में आए. कल तक बातबात में बच्चों की तरह रूठ जाने वाले और मोदी के नाम पर नाकभौं सिकोड़ लेने वाले भाजपा के इस पितृ पुरुष के  दिल में दरअसल है क्या, इस का अंदाजा राजनीति के अच्छेअच्छे जानकार नहीं लगा पा रहे. आम और खास दोनों तरह के लोगों को आडवाणी का मोदीमय चरित्र न तो रास आ रहा है न ही गले उतर रहा है और न ही लोग इस पर भरोसा कर पा रहे हैं. इस से जाहिर है कि आडवाणी को आम जनता हलके  में नहीं लेती और उम्मीद कर रही है कि जरूरत पड़ने पर वे कोई धमाका जरूर करेंगे.
 

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