नोबेल में तिनका

हमारे देश में समाजसेवियों की छवि एक ऐसे आदमी की है जिस के कंधे पर टैगोर छाप झोला हो, बड़ी खिचड़ी दाढ़ी हो और जो खादी का मैला कुरतापजामा पहनता हो. नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने इस छवि को तोड़ते हुए साबित किया कि समाजसेवा एक पूर्णकालिक व्यवसाय है जिस में तमाम तरह के त्याग करने में समाजसेवी हिचकता नहीं, वह भी सूटबूट और चमकदमक का हकदार होता है. इसे समाजसेवा में भी पसरी गिरोहबाजी कह लें या षड्यंत्र, कैलाश का चैरिटेबल ट्रस्ट मुक्ति प्रतिष्ठान शक के दायरे में है, 1997 से एक मुकदमा अदालत में चल रहा है जिस में नोबेल विजेता पर आरोप है कि उन्होंने व्यक्तिगत सुविधाओं व जरूरतों के लिए ट्रस्ट के पैसों का हेरफेर किया जिस के रिकौर्ड गायब हैं. आरोप गंभीर है और इस पर आज नहीं तो कल कैलाश सत्यार्थी को सफाई देनी ही पड़ेगी, वरना खामोशी हमेशा से ही स्वीकारोक्ति समझी जाती रही है.

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राजनीति का खेल

आर्य लड़ने की अपेक्षा लड़ाने में बड़े पारंगत थे. बालिसुग्रीव, रावणविभीषण, युद्ध कौशल और युद्ध कला के उदाहरण हैं, जिन्हें अपनों से दगाबाजी करने के एवज में रामचंद्र ने राजपाट दिया. यही बिहार में हुआ, चूंकि यह लोकतंत्र है इसलिए यहां यह खेल लोकतांत्रिक तरीके से हुआ. फर्क बस इतना था कि भाजपा ने जीतनराम मांझी का साथ देने से इनकार कर दिया क्योंकि उस के पास पहले से ही रामविलास पासवान जैसे राजा मौजूद हैं. नीतीश के दोबारा सीएम बनने से पासवान कुछ तो दुखी और शर्मिंदा हुए होंगे जिसे आधुनिक सामाजिक भाषा में ‘गिल्ट’ कहा जाता है. राजनीति में जाति का तड़का न हो तो वह मूंग की दाल जैसी बेस्वाद लगती है जिसे मजबूरी में पासवान ने निगला.

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