कोयले की आग

पूछताछ पुलिसिया हो या किसी भी सरकारी एजेंसी की, अच्छी तो कतई नहीं होती और अगर  यह पुचकार से शुरू हो तो हर कोई समझ जाता है कि अब आगे क्याक्या होगा. कोयला घोटाले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उन के घर जा कर सीबीआई अधिकारियों ने कथित तौर पर पूछताछ नाम की रस्म निभाई तो तय है कि इस चर्चित घोटाले का अंत बड़ा विध्वंसक व नाटकीय होगा. आमतौर पर चुप रहने में भरोसा करने वाले सज्जन व्यक्ति मनमोहन सिंह भी समझ रहे हैं कि उन पर शिकंजा कसा जा रहा है, अब बात और हालात पहले जैसे नहीं रहे. उन की राजनीतिक अभिभावक सोनिया गांधी खुद दामाद के भूमिप्रेम को ले कर संकट में हैं. ऐसे में सीबीआई के कदमों का उन के घर पर पड़ना शुभ संकेत तो कतई नहीं, जिस के जिम्मेदार पूर्व कोयला सचिव पी के पारेख हैं जिन्होंने एक कायदे की बात यह कह दी थी कि जो भी था, आखिरी फैसला तो प्रधानमंत्री ने लिया था. अब तो छानबीन इस पर हो रही है कि पहला फैसला किस ने लिया था.

चिंता या चेतावनी

तकरीबन 5 दशक राजनीति कर चुके राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की चिंता वाजिब है कि अध्यादेशों के जरिए कानून बनाना ठीक नहीं है. बात एकतरफा या पूर्वाग्रही न लगे, इस बाबत उन्होंने सभी दलों की संयुक्त खिंचाई की. अध्यादेश कांग्रेस सरकार के जमाने में भी आते थे और खूब कानून भी उन के जरिए बने. भाजपा सरकार ने तो अभी यह खेल खेलना शुरू ही किया है. जैसे सरकारी दफ्तरों में बाबुओं और साहबों की टेबलों पर फाइलों का अंबार लगा रहता है वैसे ही संसद से राष्ट्रपति भवन तक अध्यादेशों का कागजी पहाड़ खड़ा रहता है. इन फाइलों की तरह अध्यादेश बताते हैं कि सरकार काम कर रही है. सभी ने प्रणब मुखर्जी की चिंता का स्वागत कर उसे खारिज कर दिया. अब अध्यादेश रहित संसद की कल्पना कोई कैसे करे.

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