29 और 30 नवंबर को देशभर के किसान दिल्ली में जमा हो कर संसद तक मार्च करेंगे और कृषि संकट के सवाल पर तीन सप्ताह का विशेष संयुक्त संसदीय सत्र बुलाने की मांग करेंगे. किसान मुक्ति मार्च नाम के जुलूस का आयोजन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति कर रही है. जून 2018 में गठित यह समिति 130 किसान संगठनों का फोरम है. इस दो दिवसीय आयोजन में एक लाख से अधिक किसानों के अलावा मिडिल क्लास की भागीदारी की आशा है.

दशकों से भारतीय किसान कर्ज, सूखा और अत्महत्या की मार झेल रहा है. 2004 में सरकार ने एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था. 2004 और 2006 के बीच आयोग ने छह रिपोर्ट जमा की लेकिन किसी को भी लागू नहीं किया गया.

हाल के वर्षों में किसाने ने एक होकर विरोध जताना आरंभ किया है. इस साल मार्च के महीने में किसानों ने नासिक से मुंबई तक की 182 किलोमीटर की पैदल यात्रा की. इसी को आगे ले जाते हुए किसान मुक्ति मार्च का लक्ष्य भारतीय किसानों की चिंताओं से नीति निर्माताओं को अवगत कराना है.

किसान मार्च के पहले दी कारवां की रिपोर्टिंग ​फेलो आतिरा कोणिकर ने पीपुल्स आर्काइव फॉर रूरल इंडिया के संस्थापक संपादक पी. साईनाथ से बात की और किसानों के इस नए तेवर और उसे प्राप्त हो रहे मिडिल क्लास के समर्थन के बारे में जानना चाहा.

आतिरा कोणिकर: क्या आप को लगता है कि महाराष्ट्र में हुए बड़े किसान मार्च (जुलूस) ने किसानों को संसद मार्च को प्रेरणा दी?

साईनाथ: महाराष्ट्र के किसान लांग मार्च ने बहुत लोगों को प्ररित किया. मुंबई के जुलूस के कुछ दिनों बाद अप्रैल में मैं पंजाब गया. मुक्तसर, बठिंडा, संगरूर जैसे छोटे गांवों में किसान मुझ से पूछते थे, “हमे नासिक-मुंबई यात्रा के बारे में बताएं.” सभी ने इसके बारे में सुन रखा था, इससे प्रेरित थे.

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