अमेरिका किसी का मित्र नहीं हो सकता. वह सिर्फ उसी का है जो कठपुतली बन, उस के हितों को साधते हुए, उस के इशारों पर काम करे. भारत का वह अच्छा और निर्द्वंद्व हितकारक मित्र हो ही नहीं सकता. अमेरिका के बारे में पत्रकारिता की शुरुआत से दक्षिणपंथी और वामपंथी या अन्य विचारों के पत्रकारों से यह बात सुनता रहा हूं.

कुवैत के विशाल तेल भंडार की चाहत में बुश प्रथम शासन ने जिस तरह से इराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को निशाना बनाया और इराक पर कब्जे का प्रयास किया, यह देख कर मुझे उन वरिष्ठ पत्रकारों की बात सौ फीसदी सही लगी और मेरी भी प्रबल अवधारणा बनी कि अमेरिका वैश्विक वर्चस्व के अपने खेल को संतुलित करने के लिए बाकी देशों का इस्तेमाल करता है.

हाल के कुछ वर्षों में देखा गया कि भारतयात्रा करने वाले उस के मंत्री दिल्ली में कुछ और इसलामाबाद में उस के विपरीत बात करते हैं. यह गुणहीन और बेशर्म कारोबारी का चरित्र होता है. इधर हाल ही में वह ईरान के पीछे पड़ गया है. वहां के तेल भंडार को वह हड़पना चाहता है, इसलिए इराक की तरह परमाणु बम की आड़ में उस पर प्रतिबंध लगाने का खेल कर रहा है. उस ने भारत सहित तमाम देशों से ईरान से तेल नहीं खरीदने को कहा है. ईरान पर उस ने प्रतिबंध लगा रखा है और इस साल के अंत तक उस से तेल आयात को शून्य करने के लिए उस ने दुनिया के देशों को फरमान जारी कर दिया है. उस ने हुक्म दिया है कि हिदायत का पालन नहीं करने वाले देशों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाएगी.

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