खुले में शौच और घर के अंदर शौचालय का न होना एक ऐसी सामाजिक समस्या है, जिस पर हम खुलकर बातें नहीं करते हैं. इस समस्या पर एक बेहतरीन हास्य व्यंग युक्त फिल्म बन सकती थी. मगर पटकथा लेखकों व निर्देशक की अपनी कमियों के चलते वह बात नहीं बन पायी, जिसकी हमें उम्मीद थी. फिल्म की शुरुआत अच्छी होती है, मगर धीरे धीरे शौचालय या खुले में शौच का मुद्दा गौण हो जाता है. परिणामतः शौचालय का मुद्दा दिल को नहीं छू पाता.

मंगल दोष निवारण के लिए भैंस के साथ विवाह की एक नई जानकारी फिल्मकार ने दी है. पता नहीं उन्हे किस धार्मिक ग्रंथ या पोंगा पंडित से यह जानकरी मिली. हकीकत यह है कि एक बेहतरीन विषय वाली फिल्म नीरस बनकर रह जाती है. लेखक व निर्देशक को शायद पता ही नहीं है कि भारत में मोहनजोदाड़ो सभ्यता में भी शौचालय होने के चिन्ह मिले हैं. ऐसे में फिल्म में मनुस्मृति का जिक्र बकवास लगता है. इस तरह की बातें टीवी चैनलों पर बहस में ही अच्छी लगती हैं, फिल्म की बेहतरी के लिए नहीं. शौचालय हर इंसान की जरुरत व समस्या है, जिस पर एक अति बेहतरीन हास्य व्यंग युक्त फिल्म बन सकती थी.

यह कहानी है मथुरा के पास के नंदगांव निवासी 36 वर्षीय अविवाहित केशव (अक्षय कुमार) की. उनके परिवार की राधो सायकल नामक दुकान है. केशव को प्रेमिकाएं मिल जाती हैं, पर वह भी उनका साथ छोड़ कर अन्य लड़के के संग विवाह रचा लेती हैं. क्योंकि केशव अपने पिता के सामने हमेशा डरे व दबे रहते हैं. केशव के पिता पंडितजी (सुधीर पांडे) का मानना है कि केशव की कुंडली में मंगल दोष के अलावा अग्नि दोष है. मंगल दोष दूर करने के लिए केशव को एक भैंस के संग शादी करनी पड़ती है.

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