पाकिस्तान से सटे राजस्थान के सीमावर्ती जिलों जैसलमेर, बाड़मेर व धार जिले के गांवों में मेहर मुस्लिम समुदाय में आज भी प्रथा के नाम पर बड़ी उम्र की लड़कियों व औरतों को आठ दस वर्ष की उम्र के बालकों या अपनी उम्र से आधी से भी कम उम्र के युवकों के संग शादी करनी पड़ रही है. इसी परंपरा के खिलाफ फिल्मकार देदिप्या जोशी एक फिल्म ‘सांकल’ लेकर आए हैं, जो कि पिछले एक वर्ष के दौरान करीबन 40 अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में अपनी उपस्थित दर्ज कराते हुए 30 पुरस्कार हासिल कर चुकी है. इस फिल्म में इस बात का चित्रण है कि परंपरा किस तरह आम जीवन में भीषण बदलाव लाती है.

फिल्म ‘सांकल’ की कहानी के केंद्र में राजस्थान के थार जिले के मेहर मुस्लिम बाहुल्य धानी (आठ दस परिवारों के साथ बसे इन गांवों को ‘धानी’ कहा जता है) की कहानी है, जहां पंचायत का कई दशक पुराना फरमान है. जहां पंचायत व सरपंच का निर्णय ही सर्वोपरि है. इस गांव में पुलिस भी बिना सरपंच के बुलावे के नहीं जाती. इस गांव में कई दशकों से कुछ परंपराएं चली आ रही हैं, जिन्हें तोड़ने का साहस कोई नहीं कर पाया. देश की आजादी से भी कई दशक पहले कई गांवों की ग्राम पंचायतों ने मिलकर एक अध्यादेश जारी किया था, जिसके अनुसार उनके समुदाय की लड़कियां दूसरे समुदाय या समाज में जाकर शादी नहीं कर सकती थी, मगर लड़को को दूसरे समुदाय की लड़की चुनकर लाने की आजादी दी गयी थी. इस अध्यादेश के पीछे उनका मकसद अपने खून की पवित्रता को बरकरार रखना था. इस नियम का विरोध करने वाले को अपनी जान चुकानी पड़ती.

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