‘हम ने देखी हैं इन आंखों की महकती खुशबू
हाथ से छू के इसे रिश्तों का इलजाम न दो
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो...’
फिल्म ‘खामोशी’ का यह गीत उस कवि की प्रतिभा का दर्शाता है जिस ने अपने गीतों से फिल्मी दुनिया में बतौर लेखक अपना अलग मुकाम हासिल किया. ‘प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज नहीं इक खामोशी है, सुनती है, कहा करती है...’ कुछ ऐसे ही एहसास की बर्फ अपने हाथ पर रख एक इंसान विभाजन के पहाड़ को छाती पर ले कर पाकिस्तान से रावी नदी के उस पार से यहां आया और जिंदगीभर उस विभाजन की सारंगी बजाता रहा, गुनगुनाता रहा.
पूरा नाम : संपूरन सिंग
मूल गांव : दीना (पाकिस्तान)
जन्म : 18 अगस्त, 1936
नया नाम : गुलजार
दीना से दिल्ली और दिल्ली से मुंबई. मुंबई का खालसा कालेज, एक मोटर गैरेज, फिर संस्था ‘इप्टा’ के माध्यम से सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, फैज अहमद फैज और बाद में कवि शैलेंद्रजी से पहचान और फिर साक्षात बिमल राय जैसे पितासमान निर्देशक के साथ जीवन सफर. लेकिन यह तो केवल बुनियाद थी. बड़े होने के लिए ऐसे लोगों का जीवन में आना बहुत ही जरूरी है. अपने पूरे परिवार के साथ रिश्ता टूटने की दरार मन में रखने वाले गुलजार के रुपहले परदे का सफर सुहाना, सराहनाभरा होने के बावजूद उन के दिल का दर्द इस तरह टीसता रहा : ‘दिल बहल तो जाएगा इस खयाल से हाल मिल गया तुम्हारा अपने हाल से रात ये करार की, बेकरार है ...तुम्हारा इंतजार है... ...उं हूं... तुम पुकार लो...’ जैसे गुलजार उम्रभर किसी की राह देखते रहे, रावी नदी पार करते वक्त जैसे उन का दिल लहूलुहान हो गया. बंटवारे के घाव से, करीबी लोगों के इंतकाल से गुलजार बाहर से ‘खामोश’ और अंदर से झुलसते रहे.