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औस्ट्रेलिया के खिलाफ मिताली राज को सौंपी गई भारतीय टीम की कमान

औस्ट्रेलिया के खिलाफ तीन वनडे मैचों की सीरीज के लिए भारतीय महिला टीम का एलान कर दिया गया है. इस सीरीज के लिए 15 सदस्यीय भारतीय महिला टीम की कमान सलामी बल्लेबाज मिताली राज के हाथों में सौंपी गई है. मिताली राज औस्ट्रेलिया के खिलाफ वडोदरा में 12 से 18 मार्च तक होने वाली तीन मैचों की एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला में भारतीय महिला टीम की अगुआई करेंगी.

भारत और औस्ट्रेलिया के बीच पहला वनडे 12 मार्च को होगा जबकि अगले दो मैच 15 और 18 मार्च को खेले जाएंगे. इसके बाद टी20 ट्राई सीरीज खेली जाएगी. इस ट्राई सीरीज में भारत और औस्ट्रेलिया के अलावा इंग्लैंड तीसरी टीम होगी. इस ट्राई सीरीज में राउंड रोबिन सिस्टम के आधार पर दो टीमें फाइनल में पहुंचेंगी. इस सीरीज के सारे मुकाबले 22 से 31 मार्च तक मुंबई के ब्रेबोर्न स्टेडियम में खेला जाएगा.

बीसीसीआई के कार्यवाहक सचिव अमिताभ चौधरी ने कहा, ‘‘अखिल भारतीय महिला चयन समिति ने औस्ट्रेलिया के खिलाफ एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला के लिए भारत की महिला टीम का चयन किया है. वडोदरा में होने वाली तीन मैचों की श्रृंखला आईसीसी महिला चैंपियनशिप (2017-2020) का हिस्सा होगी.

बीसीसीआई ने विज्ञप्ति में कहा, ‘‘एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला के बाद टी20 अंतरराष्ट्रीय त्रिकोणीय श्रृंखला खेली जाएगी और इसके लिए टीम की घोषणा बाद में होगी.’’

उल्लेखनीय है कि भारतीय महिला टी20 टीम की कप्तान हरमनप्रीत कौर का कहना है कि दक्षिण अफ्रीका दौरा अच्छी खिलाड़ियों के खिलाफ अच्छा दौरा था. अच्छी चीज यह है कि टीम एक या दो खिलाड़ियों पर निर्भर नहीं है और सभी प्रदर्शन कर रहे हैं.

भारतीय महिला एकदिवसीय टीम इस प्रकार है : मिताली राज (कप्तान), हरमनप्रीत कौर, स्मृति मंधाना, पूनम राउत, जेमिमा रोड्रिगेज, वेदा कृष्णमूर्ति, मोना मेशराम, सुषमा वर्मा, एकता बिष्ट, पूनम यादव, राजेश्वरी गायकवाड़, शिखा पांडे, सुकन्या परिदा, पूजा वस्त्रकार और दीप्ति शर्मा.

गौरतलब है कि भारतीय महिला क्रिकेट टीम की सीनीयर तेज गेंदबाज झूलन गोस्वामी द. अफ्रीकी दौरे पर चोटिल हो गईं थी और इस वजह से वो इस टूर्नामेंट में शामिल नहीं हो पाएंगी. उनकी जगह टीम में 24 वर्षीय औलराउंडर सुकन्या परिदा को शामिल किया गया है. सुकन्या को नवंबर 2016 के बाद टीम में मौका मिला है.

मिताली पिछले वर्ष खेले गए महिला विश्व कप में भी टीम की कप्तान थीं और इस टीम ने फाइनल तक का सफर तय किया था. भारतीय महिला टीम ने हाल ही में दक्षिण अफ्रीका के उसकी धरती पर तीन वनडे मैचों की सीरीज में 2-1 से और पांच टी20 मैचों की सीरीज में 3-1 से हराया था. चौथा टी20 मुकाबला बारिश की वजह से नहीं खेला जा सका था.

देश के सभी फाइव स्टार होटलों से हट जाएंगे बाथटब, ये है वजह

अधिकतर फाइव स्टार होटल बाथटब की सुविधा अपने लग्जीरियश कैटेगरी को दिखाने के रूप में लोगों को देते हैं. लेकिन देश के सभी फाइव स्टार होटलों से जल्द बाथटब गायब हो सकते हैं. भारत में यह बदलाव ग्लोबल ट्रेज को देखते हुए किया जा रहा है. वहीं बाथटब हटने से जल संरक्षण भी होगा.

एक आंकडे के मुताबिक, बाथटब में एक व्यक्ति के नहाने में लगभग 370 लीटर पानी लगता है, जोकि शावर बाथ (70 लीटर) के पांच गुने से भी ज्यादा है. इसलिए अब होटलों में बाथटब नहीं सिर्फ शावर बाथ की सुविधा होगी. अभी तक बाथटब फाइव स्टार होटलों में अनिवार्य सुविधा है. होटल कारोबार से जुड़े लोगों का कहना है कि बाथ टब हटने से बाथरूम में काफी जगह बचेगी. इससे बाथरूम को और आधुनिक बनाया जा सकेगा.

नोवोटेल, सोफिटेल और इबिस जैसे ब्रांड संचालित करने वाले एक्कोर होटल के भारत में वाइस प्रेसीडेंट शिव कश्यप ने कहा कि बाथटब को बाहर करने का निर्णय कई चीजों को मद्दनेजर रखते हुए लिया जा रहा है. बाथटब होटल ब्रांड और मेहमानों की रुचि पर ही उपलब्ध होंगे.

खबरों के मुताबिक, ताज, ओबेराय,आइटीसी से लेकर फाइव-स्टार होटल के सभी बड़े ग्रुप अपने होटलों में बाथटब की सुविधा की समीक्षा कर रहे हैं. वहीं शावर सुविधा का रुझान मोटे तौर पर बेंगलुरु के नोवेटेल, मुंबई के काज, विवांता आदि में देखा जा रहा है. मैरियट और हिल्टन जैसे होटलों ने बाथटब जैसी सुविधाएं बंद कर दी हैं. हालांकि जयपुर के फेयरमोंट और केरला के ताज कुमारकम जैसे लग्जरी जगहों पर बाथटब की सुविधा मिलती रहेगी.

ओबेराय ग्रुप के मुताबिक उसके होटलों मे दस प्रतिशत से भी कम में बाथटप का उपयोग होता है. ओबेराय ग्रुप की एक प्रवक्ता का कहना है कि भविष्य में हम बाथटप की उपयोगिता का नए सिरे से मूल्यांकन कर रहे हैं. अब होटलों में बाथटब खत्म कर बाथरूम को नए सिरे से डिजाइन करने की तैयारी चल रही है. होटल में मालिश, रंगीन रोशनी आदि की व्यवस्था हो रही है.

मौत के बाद खुल रहे हैं श्रीदेवी-बोनी की निजी जिंदगी से जुड़े कई राज

दुबई में शनिवार को हुई बौलीवुड की मशहूर अदाकारा श्रीदेवी की मौत के बाद से उठ रहे सारे सवालों पर विराम लग गया है. सरकारी वकील की ओर से केस बंद कर दिया गया है, केस के बंद होते ही 54 वर्षीय अभिनेत्री का शव कल (27 फरवरी) देर रात मुंबई पहुंचा. इन सब के बीच फिल्म डायरेक्टर रामगोपाल वर्मा ने ट्वीट कर श्रीदेवी को दुनिया की सबसे नाखुश महिला बताया.

दरअसल, श्रीदेवी की निजी जिंदगी हमेशा से ही विवादों में रही है इसकी वजह उनके पति बोनी कपूर की पहली पत्नी और उनके बच्चें हैं, क्योंकि उनके पति बोनी कपूर जब भी अपनी पहली पत्नी या उनके बच्चों से मिलते थे तो श्रीदेवी चिढ़ती थीं. शादी के बीस सालों बाद भी श्रीदेवी के मन में फंसी फांस कभी नहीं निकल पाई. कई बातों पर वो सामान्य नहीं हो पाईं.

वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म स्तंभकार भारती ए. प्रधान ने करीब दो साल पहले अपने एक कौलम में इस बात का खुलासा किया था. उन्होंने अपने कौलम में लिखा कि किस तरह बोनी को श्रीदेवी के गुस्से का सामना करना पड़ा, जब वह पहली पत्नी मोना कपूर की मां और जानी मानी फिल्म निर्माता सत्ती शौरी के अंतिम संस्कार और प्रार्थना सभा में गए.

नहीं भूल पाईं थीं सत्ती के उस व्यवहार को

दरअसल श्रीदेवी 1996 में सत्ती शौरी द्वारा उनसे किए गए व्यवहार को इतने सालों बाद भी भूल नहीं पाईं थीं. उस समय तक बोनी और मोना पति-पत्नी थे और श्रीदेवी दूसरी महिला. तब तक बोनी और श्रीदेवी के नजदीकियों की खबरें आने लगी थीं. तभी ये भी खबरें आईं कि वो गर्भवती हैं. बोनी की पहली बीवी मोना को इससे झटका लगा. उन्होंने चुपचाप खुद ब खुद बोनी से दूरियां बना लीं. लेकिन ये बात मोना की मां सत्ती शौरी को चुभ चुकी थी.

एक रोज जब सत्ती को यह मालूम हुआ कि बोनी-श्रीदेवी के साथ मुंबई के एक फाइव स्टार होटल में मौजूद हैं तो वहां पहुंचकर उन्होंने जमकर हंगामा खड़ा कर दिया. उन्होंने श्रीदेवी के पेट पर मारने की कोशिश की, जिसके कुछ महीनों बाद श्रीदेवी ने अपनी पहली बेटी जान्हवी को जन्म दिया. सत्ती शौरी द्वारा उनसे किए गए व्यवहार को इतने सालों बाद भी श्रीदेवी कभी भूल नहीं पाईं.

बोनी का वहां जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा

जब सत्ती का निधन हुआ तो पूरा कपूर परिवार अंतिम संस्कार में पहुंचा. बोनी भी इसमें गए. पति का वहां जाना श्रीदेवी को अच्छा नहीं लगा. जिसके बाद उन्हें श्रीदेवी के गुस्से का शिकार भी होना पड़ा था.

मोना के अंतिम दर्शन के लिए बस वही नहीं गईं

वहीं जानी मानी लेखिका और कौलमिस्ट शोभा डे ने हाल में लिखा, “जब मोना कपूर (बोनी की पहली पत्नी और अर्जुन कपूर की मां) का निधन हुआ तो हर कोई उनके अंतिम दर्शन के लिए पहुंचा. मगर श्रीदेवी नदारद थीं. उनकी दोनों बेटियां भी अंतिम दर्शन में शामिल नहीं हुई थीं. जबकि एक जमाने में मोना और उनके बीच अच्छी दोस्ती थी.”

तब काफी नाराज हो गईं थीं श्रीदेवी

एक एंटरटेनमेंट वेबसाइट के अनुसार एक बार बोनी पहली पत्नी से मिलने के बाद अपने दोनों बच्चों अर्जुन और अंशुला को लेकर पिकनिक पर चले गए थे तो लौटने पर श्रीदेवी उनसे काफी नाराज थीं. शायद यही कसक अब तक अर्जुन कपूर के दिल में हैं. पिछले दिनों ही उन्होंने टीवी पर साफ कहा था कि श्रीदेवी से उनके रिश्ते कभी सामान्य नहीं होंगे. वे केवल मेरे पिता की बीवी हैं और कुछ नहीं. हालांकि श्रीदेवी की मौत की खबर सुनते ही वे अपनी बहनों से मिलने पहुंचे थे.

वीडियो : जब बेटी जाह्नवी के साथ बाइक पर घूमने निकली थीं श्रीदेवी

बौलीवुड एक्ट्रेस श्रीदेवी के निधन से उनका परिवार और पूरा देश सदमे में है. उनके निधन से जहां पति बोनी कपूर को गहरा धक्का लगा है. वहीं दोनों बेटियां जाह्नवी कपूर और खुशी कपूर मां के अचानक चले जाने से टूट चुकी हैं. जब श्रीदेवी का निधन हुआ तब इन दोनों में से कोई उनके पास दुबई में नहीं था.

वह अपनी दोनों बेटियों के काफी करीब थीं. उन्हें अक्सर पार्टियों में दोनों बेटियों के साथ देखा जाता था. दुनिया से उनके जाने के बाद अब हर कोई उनसे जुड़ी अपनी यादों को सोशल मीडिया के द्वारा शेयर कर रहा है. वहीं बड़ी बेटी जाह्नवी के साथ उनका एक वीडियो अब सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है.

यूं तो श्रीदेवी अपनी दोनों ही बेटियों के काफी करीब थीं, लेकिन बड़ी बेटी जाह्नवी से उनका खासा लगाव था. वह जाह्नवी को जानू और जान कहकर बुलाया करती थीं. अब सोशल मीडिया पर जाह्नवी के साथ उनका एक वीडियो काफी चर्चा में है. इस वीडियो में वह बेटी के साथ मोटरसाइकिल पर घूमती दिख रही हैं. वीडियो में जाह्नवी बाइक चला रही हैं जबिक श्रीदेवी बेटी को पकड़े पीछे बैठी नजर आ रही हैं.

जाह्नवी बाइक चलाना सीख रही हैं उन्होंने सेफटी के लिए हेलमेट और नी गार्ड भी पहना है जबकि श्रीदेवी ने हेलमेट भी नहीं पहना है. उनके आस-पास कुछ इंस्ट्रक्टर और गार्ड भी मौजूद नजर आए. वहीं जब जाह्नवी बाइक चलाती हैं तो पीछे से श्रीदेवी के चिल्लाने की आवाज भी आती है. उनका यह वीडियो अब एक खास याद बनकर रह गया है, जिसे देख हर कोई इमोशनल हो रहा है.

बेटी के साथ बाइक राइड कर रहीं श्रीदेवी जाह्नवी के कितने करीब थीं उसका अंदाजा इस वीडियो से ही लगाया जा सकता है. बेटी को बाइक चलानी सही से आती भी नहीं है और ऐसे में कुछ भी हो सकता है लेकिन इस सब को सोचे बिना वह जाह्नवी के पीछे बाइक पर बैठी दिख रही हैं.

वीडियो रात में शूट किया गया है. जब बाइक लड़खड़ाने लगती है तब गार्ड आकर बाइक संभाल लेते हैं. इस दौरान श्रीदेवी के चेहरे की मुस्कान देखते ही बन रही है. श्रीदेवी अपनी बेटी के बौलीवुड डेब्यू को लेकर काफी एक्साइटेड थीं. जाह्नवी की पहली फिल्म धड़क इसी साल जुलाई में रिलीज होनी है.

बात टौप की, बेहाल आलू किसान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश में ‘औपरेशन ग्रीन योजना’ की शुरुआत करना चाहते हैं. इस योजना को प्रधानमंत्री ने ‘टौप’ कहा है. खेती से जुड़ी इस योजना में टी यानी टमाटर, ओ मतलब ओनियन और पी मतलब पोटैटो को शामिल कर इसे टौप कहा गया है.

देश में इससे पहले श्वेतक्रांति और हरितक्रांति किसानों के लिए बनी थीं. श्वेतक्रांति में दूध और डेयरी को प्राथमिकता दी गई थी तो हरितक्रांति में अनाज उत्पादन पर जोर था. दोनों ही योजनाओं का प्रभाव यह पड़ा कि देश के किसानों ने अपनी मेहनत व लगन से इन को सफल बनाया. देश को अनाज और दूध के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया. देश के किसान की सब से बड़ी त्रासदी यह है कि जैसे ही वह पैदावार को बढ़ाता है, फसल के दाम घट कर माटी के मोल हो जाते हैं, जिस से उसे लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता है.

सरकार हर बार समर्थन मूल्य दे कर यह दिखाती है कि वह किसानों पर बहुत बड़ा उपकार कर रही है. समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार एक राजा के अंदाज में करती है जिस से लगता है कि वह किसानों पर उपकार कर रही है. सरकार के पास समर्थन मूल्य को घोषित करने का कोई फार्मूला नहीं है. समर्थन मूल्य लागू करने को लेकर कोई भी सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं करना चाहती.

भाजपा ने अपने चुनावी वादे में कहा था कि वह स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करेगी. किसानों को एक झुनझुना देने के लिए सरकार ने कहा कि साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी. यह एक ऐसी बात है जिसको न समझा जा सकता है, न समझाया जा सकता है.

केंद्र की भाजपा सरकार नारे देने में माहिर है. उसे पता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में किसानों की समस्याएं बड़ा मुद्दा होंगी. आलू, प्याज और टमाटर के किसान सब से अधिक परेशान हैं. किसानों के लिए ये ‘कैश क्रौप’ हैं. इन में भी अब किसानों को मुनाफा नहीं मिल रहा. ऐसे किसानों के लिए नरेंद्र मोदी का नया नारा टौप है. औपरेशन ग्रीन योजना के तहत इस को बढ़ाया जाना है. प्रधानमंत्री ने कहा कि इस के तहत फसल का डेढ़गुना समर्थन मूल्य देना ऐतिहासिक फैसला है. हाल के कुछ सालों में पूरे देश में प्याज, आलू और टमाटर उगाने वाले किसानों की संख्या तेजी से बढ़ी है. इन किसानों की परेशानियां कम करने के लिए यह नारा दिया गया है ताकि वे स्वामीनाथन आयोग की बातों को भूल जाएं.

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लागत से कम समर्थन मूल्य

सरकार लागत मूल्य को लेकर अपनी खूब वाहवाही करती है. जितना पैसा किसानों को राहत देने में नहीं लगता उस से अधिक योजना की वाहवाही बखान करने वाले विज्ञापनों व कार्यक्रमों में बरबाद हो जाता है. समर्थन मूल्य के खेल को समझने के लिए आलू की खेती की लागत को देखना जरूरी है. एक बीघा खेत में आलू की बोआई करने में किसान का करीब 23 हजार रुपया खर्च होता है. बहुत अच्छी फसल हो, तो 20 से 25 क्विंटल के बीच आलू की पैदावार होती है. सरकार का आलू पर समर्थन मूल्य 487 रुपए प्रति क्विंटल है. अगर एक खेत में 25 क्विंटल आलू की पैदावार मानें, तो 12 हजार रुपए आलू की पूरी फसल का सरकार से समर्थन मूल्य मिलेगा. ऐसे में किसान को 11 हजार रुपए प्रति बीघा का नुकसान साफ दिखता है. इस के अलावा सरकारी खरीद में तमाम तरह की परेशानियां हैं, सो अलग.

सरकारी क्रय केंद्रों पर केवल 30 से 55 एमएम का आलू ही खरीदा जाता है. कई बार अच्छी फसल होने से आलू का आकार बढ़ भी जाता है. खराब फसल होने पर आलू का आकार घट जाता है. ऐसे में आधी से अधिक फसल क्रय योग्य ही नहीं मानी जाती. यह भी किसानों की परेशानी की बड़ी वजह है. सरकार किसानों पर उपकार जताते हुए आलू को 300 किलोमीटर दूर से मंडी तक लाने के लिए 50 रुपए क्विंटल की छूट, मंडी शुल्क में 2 प्रतिशत और सेस में आधा प्रतिशत छूट देने की बात भी करती है. यह प्रक्रिया बेहद जटिल है, जिस की वजह से छोटे किसान को इस का लाभ नहीं मिलता है.

आलू की लागत और सरकार द्वारा दिए जा रहे समर्थन मूल्य की तुलना से साफ होता है कि 1 बीघा की आलू खेती में किसान को तकरीबन 11 हजार रुपए का नुकसान होता है.

पैदावार ज्यादा, नुकसान ज्यादा

आलू की लागत और बिक्री को देखने से साफ है कि टौप योजना का किसानों को क्या लाभ होने वाला है. इस योजना के तहत आने वाली तीनों फसलों टमाटर, प्याज, आलू की एक सी कहानी है. जब किसानों के खेत से इन की खरीदारी होती है तो वह बहुत सस्ती होती है. जब ये चीजें बाजार से उपभोक्ता तक पहुंचती हैं तो इन की कीमतें दोगुना से अधिक हो जाती हैं.

जिस आलू को सरकार 5 रुपए प्रतिकिलो के भाव से कम में खरीदती है वह उसी समय बाजार में 10 रुपए प्रतिकिलो से अधिक का बिक रहा होता है. कुछ समय के बाद यही आलू 20 से 30 रुपए प्रतिकिलो तक बिकता है. एक तरफ किसान कोल्डस्टोर में रखे अपने आलू को सड़क पर फेंकने को मजबूर होता है तो दूसरी तरफ किसान के पैदा किए आलू से ही बिचौलिया मालामाल होता है.

टमाटर और प्याज को ले कर भी यही कहानी है. ये फसलें इस तरह की हैं कि जिन को कुछ दिनों तक बाजार में जाने से रोका जा सकता है. जिस की वजह से बिचौलियों को इन के दाम बढ़ाने घटाने का मौका मिल जाता है. उत्तर प्रदेश में आलू सबसे अधिक पैदा होता है. गन्ना के बाद आलू किसानों के लिए सब से बड़ी ‘कैश क्रौप’ है. आलू के किसानों की बदहाली को सरकार सामने नहीं आने देना चाहती.

किसानों ने जब विरोधस्वरूप लखनऊ में विधानसभा रोड पर एक रात आलू फेंक कर सरकार का ध्यान अपनी परेशानी की ओर दिलाया तो सरकार ने आलू फेंकने वालों को जेल भेज दिया. उन के इस कदम को विरोधी पार्टी की साजिश करार दिया.

आलू, टमाटर और प्याज की खेती करने वाले किसानों की परेशानी यह है कि उन की पैदावार जितनी बढ़ती है, फसल की कीमत उतनी ही घटती जाती है. किसान फसल को रोके रखने की हालत में नहीं होता. वह किसी भी कीमत पर पैदावार को बेचने को मजबूर रहता है. इस का लाभ बिचौलिए उठाते हैं. वे किसानों से कम कीमत पर खरीद कर महंगी कीमत पर बाजार में बेचते हैं. प्रधानमंत्री की ‘औपरेशन ग्रीन योजना’ यानी टौप में इस को हल करने का कोई फार्मूला नहीं सुझाया गया है.

आलू का गणित

1 बीघा खेत में आलू की फसल के लिए

आलू का बीज :      1,200 रु.

2 बोरी डीएपी खाद : 2,500 रु.

पोटाश : 800 रु.

यूरिया  : 800 रु.

गोबर खाद : 2,000 रु.

बोआई के समय मजदूरी      : 2,000 रु.

दवा का खर्च : 1,500 रु.

सिंचाई       : 2,000 रु.

मजदूरी : 3,000 रु.

बोरी   : 500 रु.

कोल्ड स्टोर में आनेजाने का व्यय : 500 रु.

कोल्डस्टोर का किराया :      6,000 रु.

25 क्विंटल आलू की पैदावार में कुल खर्च : 23,200 रु.

487 रुपए प्रति क्विंटल की दर से सरकारी खरीद से

25 क्विंटल आलू का मूल्य   :      12,175 रु.

1 बीघा खेत से किसान को नुकसान होगा तकरीबन : 11,000 रु.

स्रोत : किसानों से की गई बातचीत के अनुसार.

सरकार के समर्थन मूल्य से किसानों को अपनी फसल की लागत नहीं मिल पाती, मुनाफा तो दूर की बात है.

केवल नारों से भला नहीं होगा

सरकार को किसानों की परेशानियों को जमीनी स्तर पर देखना चाहिए. केवल नारे देने से किसानों का भला नहीं होने वाला. सरकार को लागत के अनुपात में फसल का मूल्य किसानों को देना चाहिए. आज किसान महंगाई बढ़ने, छुट्टा जानवरों द्वारा फसल को बरबाद करने और बाजार में फसल की कम कीमत मिलने से परेशान हैं. घर बनाने से ले कर खेती के दूसरे प्रबंध करने तक में उसे महंगाई का सामना करना पड़ रहा है. बढ़ती महंगाई का असर किसानों पर भी पड़ता है. सरकार किसानों को महंगाई से बचाने के लिए कुछ नहीं कर रही है. एक के बाद एक नए नए नारे दे कर सरकार किसानों को केवल बरगलाने का काम कर रही है.

बेपटरी जिंदगी, लापरवाह अफसर और हादसों की लंबी फेहरिस्त

रेलवे की सुरक्षा और क्षमता बढ़ाने के लिए बजट में इस बार 1.48 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का प्रस्ताव रखा गया है.  इस पैसे का इस्तेमाल सुरक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर व रेलवे को हाइटैक बनाने में किया जाएगा. लेकिन, बजट के बाद संसद की लोकलेखा समिति की सदन में पेश की गई रिपोर्ट पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं.

मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता वाली लोकलेखा समिति ने रेलवे की कार्यप्रणाली की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि 150 खतरनाक चिह्नित पुलों, पटरियों तथा ट्रेनों की गति पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद रेलवे बोर्ड को 31 पुलों को मंजूरी देने में 213 महीने यानी 17 साल से अधिक का समय लग गया.

घटिया गुणवत्ता

लोकलेखा समिति ने रेलवे बोर्ड पर अपनी टिप्पणी में कहा है कि ब्रिटिश शासनकाल में बनाए गए कुछ पुल अच्छी स्थिति में हैं पर आजादी के बाद बनाए व मरम्मत किए गए पुल घटिया गुणवत्ता वाले हैं. रेल पटरियों का भी ऐसा ही हाल है. यह सब रेल अधिकारियों व ठेकेदारों की मिलीभगत से हुआ है. रिपोर्ट में कुशल कर्मचारियों की कमी पर भी सवाल उठाए गए हैं.

ऐसे में महज रेल बजट बढ़ा देने से क्या यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है? रेल दुर्घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है.

अव्यवस्था की मार

रेलयात्रा में लगातार जानमाल का खतरा बना हुआ है. रेल व्यवस्था राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और निकम्मे अधिकारियों, कर्मचारियों के चलते भारी अव्यवस्था के दौर से गुजर रही है लेकिन फिर भी बुलेट ट्रेन चलाए जाने का शोर है. यात्रियों की जान की सुरक्षा को ले कर कोई गंभीर नहीं है. सरकार और उस के मुलाजिम दोनों ‘मनसा वाचा कर्मणा’ चोर हैं. यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों से होने वाले रेल हादसों की अहम वजह स्टाफ का नकारापन रहा है, मगर सरकार द्वारा इन नकारे स्टाफ पर कोई कार्यवाही नहीं की गई है.

सरकार संसद के भीतर तो यह स्वीकार करती है कि रेल दुर्घटनाओं में रेलकर्मी दोषी हैं, मगर उन को गिरफ्तार करवाने, कठोर सजा दिलवाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाती. लगता है कि सरकार मरने वाले यात्रियों को पिछले जन्म का फल मान कर पौराणिक सोच को पोषित करना चाहती है, बस.

लापरवाही की हद

सरकारी आंकड़े खुद चीख रहे हैं कि रेल हादसों के लिए स्टाफ की लापरवाही जिम्मेदार है, फिर भी सरकार है कि उन दोषी रेल अधिकारियों, कर्मचारियों पर कोई आपराधिक कार्यवाही करने से बचती है. मात्र अनुशासनात्मक कार्यवाही कर अगली बार फिर मौत पर मातम मनाती है और आखिर में मौत के मुलाजिमों को मुक्त कर देती है. यही कारण है कि अब तक स्टाफ की कमी से हुई दुर्घटनाओं में कार्यवाही का कोई बड़ा उदाहरण स्थापित नहीं हो सका कि जिस से स्टाफ सहमा हो और रेल दुर्घटनाएं रुकी हों.

होते होते बचा हादसा

25 सितंबर, 2017 (एक ही ट्रैक पर आई 3 ट्रेनें) : इलाहाबाद के निकट एक ही ट्रैक पर आई दूरंतो ऐक्सप्रैस सहित 3 ट्रेनें एकसाथ टकराने से बालबाल बच गईं.

29 सितंबर, 2017 को बिना गार्ड के रवाना हुई ट्रेन :  उत्तर प्रदेश के उन्नाव में गंगा घाट रेलवेस्टेशन से मालगाड़ी को बिना गार्ड के ही रायबरेली के लिए रवाना कर दिया गया.

हादसों की वजह सिर्फ स्टाफ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में 3 वर्षों तक रेलमंत्री रहे सुरेश प्रभु के कार्यकाल में छोटे बड़े कुल 300 रेल हादसे हुए, जिनमें से सिर्फ साल 2017 में जनवरी से अगस्त तक 31 हुए. तब के रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने दुर्घटनाओं के बाबत नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की पेशकश की, जिस के बाद तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल को यह मंत्रालय मिला. मगर हादसे हैं कि अब भी थमने का नाम नहीं ले रहे.

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19 जुलाई, 2017 को संसद में सुरेश प्रभु ने रेलवे स्टाफ की लापरवाही की वजह से हुई दुर्घटनाओं के बाबत बताया था कि साल 2015-2016 में हुए कुल 107 हादसों में 55 और साल 2016-2017 में 85 हादसों में से 56 हादसे सिर्फ स्टाफ की लापरवाही से हुए. इसी तरह नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2012 से साल 2016-2017 तक प्रत्येक 10 रेल दुर्घटनाओं में से 6 स्टाफ की चूक की वजह से हुई हैं. नीति आयोग की ही एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2017 में 31 मार्च तक 104 विभिन्न दुर्घटनाओं में 66 दुर्घटनाएं स्टाफ की लापरवाही से हुई हैं.

गुनाहगारों को सजा नहीं

रेलवे की बड़ी दुर्घटनाओं में जांच के लिए संसद ने एक कानून बना कर रेलवे संरक्षा आयोग बनाया है. निष्पक्ष जांच के लिए इस आयोग को केंद्रीय नागरिक उड्यन मंत्रालय के अधीन रखा गया है. इस आयोग का मुखिया संरक्षा आयुक्त होता है, जो रेलवे के अलग अलग जोन का काम देखने वाले 5 आयुक्तों के साथ काम करता है. संरक्षा आयोग के पास इतना काम होता है कि लंबे अरसे तक जांच ही चलती रहती है. दूसरा, इस आयोग का इतिहास है कि इस के आयुक्त ज्यादातर रेलवे के ही लोग होते हैं, इस से भी जांच का कार्य काफी हद तक प्रभावित होता है.

यही कारण है कि बड़ी से बड़ी दुर्घटनाओं में दोषियों पर आज तक कोई ठोस कार्यवाही नहीं की जा सकी है, जिस से स्टाफ की लापरवाही से दुर्घटनाएं होती रहती हैं. फलस्वरूप, रेलयात्रियों की जान जाने पर दोषी सजा नहीं, मजा काटता है.

पानी में जनता की गाढ़ी कमाई

रेलवे के दोषी अधिकारियों, कर्मचारियों पर कोई कठोर कार्यवाही न करने के कारण दुर्घटनाओं के साथ साथ इन से होने वाला आर्थिक नुकसान भी बढ़ता चला जा रहा है, जो जनता की गाढ़ी कमाई है.

संसद में हुई बहस के दौरान जो आंकड़े बताए गए हैं (आशंका है कि सरकारी स्वभाव के अनुसार बहुतकुछ छिपा भी लिया गया हो), उन के अनुसार, रेल दुर्घटनाओं के कारण साल 2014-2015 में 70.07 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ है.

सुरक्षा के बजाय दूध, दवाई और वाईफाई का झांसा : मोदी सरकार अच्छे दिन के जुमले से सत्ता में तो आ गई मगर रेलयात्रा के दौरान होने वाले मौतरूपी मर्ज को जड़ से न दूर कर, ट्वीट करने पर दूध और दवाई मुहैया कराने की वाहवाही लूटने में लग गई. इस के साथ ही बुलेट ट्रेन चलाने का दावा, ट्रेन में वाईफाई उपलब्ध करवाने का दावा और अब तो ट्रेन में ही शौपिंग कराने का दावा करने में लगी है. जबकि यात्री सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंच पाएगा, यह सुनिश्चित नहीं है.

नियम है, नकेल नहीं

रेलवे के एक रिटायर्ड जनरल मैनेजर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि भारतीय रेलवे की नियम पुस्तिका के अनुसार, ट्रैक के रखरखाव हेतु प्रतिदिन 3-4 घंटे निर्धारित हैं, मगर ऐसा हो नहीं पाता. ज्यादातर नियम स्टाफ की लापरवाही की भेंट चढ़ जाते हैं. कभी कभी ट्रैक के खाली न होने या फिर ट्रेन के विलंब से चलने की वजह से भी ऐसा होता है. वे बताते हैं कि भारतीय रेल की प्रक्रिया बहुत अच्छी तरह से सुपरिभाषित, लिखित और वितरित की जाती है, यदि उसका सही से पालन हो जाए तो शायद ही कोई दुर्घटना हो.

सुरक्षा सुस्त, किराया चुस्त

हाल के दिनों में रेलवे ने टिकट में फ्लैक्सी रेट जैसे नए नए शिगूफे छोड़ कर जम कर आमदनी बढ़ाई है. अकसर रेलयात्री यह कहते हुए मिल जाते हैं कि प्रथम श्रेणी की यात्रा का खर्च उतनी ही दूरी के विमान यात्रा के खर्च के लगभग बराबर है.

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि जब मुसाफिर का मुख्य मकसद एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचना है तो क्या रेलवे उस स्थान तक सुरक्षित पहुंचाने की गारंटी भी गंभीरता से लेता है. जवाब है, नहीं. तथ्य यह है कि 1 रुपए में मात्र 7 पैसा ही रख रखाव के लिए लगाया जाता है, बाकी दूसरे कामों में इस्तेमाल हो जाता है. हालांकि, साल 2014-2015 के मुकाबले सुरक्षा पर खर्च होने वाली रकम को साल 2017-2018 में 42,430 करोड़ रुपए से बढ़ा कर 65,241 करोड़ रुपए कर दिया गया है.

लाइफलाइन नहीं, किलरलाइन

रेलवे देश की लाइफलाइन कहलाती है, मगर इस के राजनीतिकरण ने इसे लगभग ‘किलरलाइन’ में तबदील कर दिया है. देखने में आता है कि गठबंधन सरकारों में यह मंत्रालय किसी मजबूत दल की झोली में ही रहा और ज्यादातर काम राष्ट्रीय स्तर पर न हो कर, क्षेत्रीय स्तर पर ही किए गए. पूर्व में अलग से पेश होने वाले रेलवे बजट में पश्चिम बंगाल, बिहार, रायबरेली, अमेठी जैसे क्षेत्रों को खास सौगातें मिलती रही हैं.

ऐसे में हाल ही में हुई रेल दुर्घटनाओं के ऊपर अगर लालू प्रसाद यादव यह तंज कसते हैं कि खूंटा बदलने से नहीं, संतुलित आहार देने व खुराक बदलने से भैंस ज्यादा दूध देगी तो इसे महज एक राजनीतिक बयान नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि इस को समग्र परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. वास्तव में किसी मंत्री का मंत्रालय बदल देने से रेलवे का भला नहीं हो पाएगा. बेहतर होगा कि रेलवे में भ्रष्टाचार, गैरजिम्मेदाराना कार्यसंस्कृति समाप्त हो और रेलवे स्टाफ व मंत्रालय जनता के प्रति जवाबदेह बनें.

अब तक के जितने भी रेल मंत्री बने हैं, सभी ने रेल सुरक्षा पर बड़ी बड़ी बातें की हैं. फिलहाल वर्तमान रेल मंत्री पीयूष गोयल ने रेल की बदहाल स्थिति पर कोई सुधारात्मक कदम उठाया है, ऐसा तो लगता नहीं.

हाल में हुए प्रमुख रेल हादसे

हाल में स्टाफ के नकारेपन से कई दुर्घटनाएं हुईं. हद तो तब हो गई जब एक ही दिन में 4-4 रेल हादसे हुए और मोदी सरकार ने उन पर कोई कार्यवाही नहीं की.

24 नवंबर, 2017 : उत्तर प्रदेश के मानिकपुर में वास्कोडिगामापटना सुपरफास्ट ट्रेन की 12 बोगियां बेपटरी हो गईं, जिस से पितापुत्र समेत 3 यात्रियों की मौत हो गई और 9 यात्री घायल हो गए.

29 सितंबर, 2017 : मुंबई के एलफिंस्टन रोड उपनगरीय रेलवे स्टेशन के फुटओवर ब्रिज पर मची भगदड़ से 22 लोगों की मौत हो गई और 32 लोग घायल हो गए.

6 सितंबर, 2017 (एक ही दिन में 4 हादसे) : नए रेलमंत्री पीयूष गोयल की ताजपोशी के एक ही दिन बाद 4 रेल हादसे देश के अलगअलग हिस्सों में हुए. पहली घटना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में घटी जिस में शक्तिपुंज ऐक्सप्रैस के 7 डब्बे बेपटरी हो गए. दूसरी, नई दिल्ली के मिंटो ब्रिज स्टेशन के निकट रांचीदिल्ली राजधानी ऐक्सप्रैस का इंजन और पावरकार उतर गया. तीसरी, महाराष्ट्र में खंडाला के निकट मालगाड़ी पटरी से उतर गई. चौथी, फरुखाबाद और फतेहगढ़ के पास दिल्लीकानपुर कालिंदी ऐक्सप्रैस क्षतिग्रस्त होने से बच गई.

17 अगस्त, 2017 : उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के निकट खतौली में पुरीउत्कल ऐक्सप्रैस के हादसे में 23 लोगों की जानें गईं, जबकि 150 से ज्यादा लोग घायल हुए.

22 अगस्त, 2017 : उत्तर प्रदेश के औरैया में कैफियत ऐक्सप्रैस के डंपर से टकराने के कारण 9 कोच पटरी से उतर गए, दर्जनों यात्री घायल हो गए.

21 मई, 2017 : उत्तर प्रदेश के उन्नाव स्टेशन के पास लोकमान्य तिलक सुपरफास्ट ट्रेन के 8 कोच पटरी से उतर गए, जिस में 30 यात्री गंभीर रूप से घायल हो गए.

15 अप्रैल, 2017 : मेरठलखनऊ राजधानी ऐक्सप्रैस के 8 कोच रामपुर के पास पटरी से उतर गए. इस में लगभग 1 दर्जन यात्री घायल हुए.

धर्म, संस्कृति व जाति से परे अंतर्राष्ट्रीय विवाह

टैक्नोलौजी बूम के इस दौर में ग्लोबल विलेज में तबदील होती दुनिया में शादियां भी तेजी से ग्लोबल होती जा रही हैं. अब अंतर्धार्मिक, अंतर्जातीय, अंतर्सांस्कृतिक, अंतर्राष्ट्रीय हर तरह की जोडि़यां बन रही हैं. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 5 फरवरी, 2018 को एक मामले के फैसले में साफ कह दिया है कि 2 वयस्कों की शादी में किसी तीसरे का दखल गैरकानूनी है. हालांकि विश्व के अन्य देशों में ऐसे कानून पहले से ही लागू हैं.

यों तो अमेरिका में भारतीय वर्षों से बस रहे हैं पर 1990 के बाद आए टैक्नोलौजी बूम के बाद अमेरिका में काफी संख्या में भारतीय आने लगे हैं. पुराने बसे भारतीयों की पहली पसंद की बहू तो भारतीय लड़की ही होती थी. पर 1990 के बाद अमेरिका आने वालों में से कुछ ने यहीं शादी की है. इन्हें अपनी शादी से संबंधित कुछ समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है. विशेषकर जब वे दूसरे धर्म या समुदाय में शादी करना चाहते हैं.

मातापिता की मानसिकता

अमेरिका में बसे भारतीय मूल के मातापिता, जिन की शादियां दशकों पहले हो चुकी थीं, उन में अंतर्जातीय लवमैरिज विरले ही होती थीं. दूसरे धर्म में शादी तो दूर की बात है. उनकी अरेंज्ड मैरिज होती थीं और ज्यादातर सफल ही होती थीं. इन में से लाखों ने सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली और कुछ ने डायमंड जुबली भी मनाई होंगी. उनकी मानसिकता अभी भी वही है कि जब हम अरेंज्ड मैरिज निभा सकते हैं तो हमारे बच्चे क्यों नहीं.

उन्हें डर है कि समाज क्या कहेगा या यह परिवार पर एक कलंक सा है. उन्हें लगता है कि अगर कोई बेटा या बेटी लवमैरिज करती है तो बाकी और परिवार के छोटे बच्चों की शादी में मुश्किल होगी, वे अपने बच्चों से काफी उम्मीद लगाए रहते हैं. उन्हें यह भी डर रहता है कि इस तरह की शादी से उनकी आशाएं धूमिल हो जाएंगी.

उनकी समझ में नहीं आ रहा है या वे समझना ही नहीं चाहते कि जमाना काफी बदल गया है. पहले वे पत्नी पर जिस तरह का दबाव रखते थे, आजकल की पढ़ी लिखी, कमाऊ बहू उसे बरदाश्त नहीं करेगी. यहां तक कि खुद उनके बच्चे भी अब ज्यादा स्वतंत्र होना चाहते हैं और अपनी खुशी से ही जीवनसाथी चुनना चाहते हैं.

अगर मातापिता नहीं मानते तो वे बगावत पर उतर आते हैं. चूंकि वे वयस्क हैं, इसलिए वे उनकी इच्छा के विरुद्ध लवमैरिज कर लेते हैं और कानून इसे मान्यता देता है. इस से मातापिता और बच्चों सभी को मानसिक क्लेश होता है, इस में दो मत नहीं हैं.

ज्यादातर मामलों में मातापिता भी आगे चल कर इन्हें स्वीकार कर लेते हैं. बच्चों की खुशी के लिए मातापिता शुरू से ही समझदारी दिखाएं तो रिश्तों में खटास की नौबत ही नहीं आएगी.

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भावनात्मक लगाव में कमी

आधुनिकता और औद्दोगिकीकरण के युग में अभिभावक बच्चों को अपना ज्यादा समय नहीं दे पाते हैं. इसलिए बच्चों के साथ भावनात्मक रूप से उनके जुड़े होने में कमी आती है और बच्चे बड़े होकर अपने साथी में यह आत्मीयता ढूंढ़ते हैं और अमेरिका की तो बात ही कुछ और है.

जो युवा विदेश खासकर अमेरिका में बस गए हैं वे यहां के मुक्त और स्वच्छंद समाज में रहने के आदी हो गए हैं. इन के बच्चे तो बचपन से एलिमैंट्री स्कूल से लेकर कालेज की पढ़ाई और नौकरी तक अमेरिकी कल्चर में करते हैं. इन्हें अपनी पसंद में जाति, धर्म या नस्ल का कोई बंधन स्वीकार नहीं होता है.

देखा गया है कि अमेरिका में लगभग 28 से 30 प्रतिशत एशियन गैरएशियन से शादी करते हैं जिन में काफी भारतीय भी होते हैं.

मिक्स्ड मैरिज

अमेरिकी इंडियंस शिक्षा और कमाई दोनों मामलों में औसत अमेरिकी या किसी भी औसत एशियन (चीनी, जापानी, वियतनामी आबादी) से काफी ऊपर हैं. इसीलिए अगर इन्हें दूसरे धर्मों की लड़कियां पसंद करें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

अमेरिका में भारतीय मिक्स्ड मैरिज हो रही हैं. इन जोडि़यों को सामाजिक, धार्मिक, भावनात्मक और दार्शनिक वातावरण में सामंजस्य बिठाना होता है. शुरू में एडजस्ट करने की समस्या होती है और फिर उनके होने वाले बच्चे किस धर्म से जुड़ेंगे, इस की समस्या आती है.

एक ऐसा उदाहरण देखने को मिला जिसमें एक हिंदू लड़की मुसलिम लड़के से प्यार करती थी. दोनों काफी दिनों तक एक दूसरे से मिलते जुलते रहे थे और दोनों में प्यार भी था. पर जब शादी की बात आई तो लड़की पर लड़के के माता पिता द्वारा कई शर्तें थोपी गई थीं कि उसे मुसलिम धर्म अपनाना होगा. होने वाले बच्चों के मुसलिम नाम होंगे और उसे बुरका पहनना होगा, नौकरी छोड़ कर लड़के के साथ विदेश जाना होगा. बेचारी लड़की पर क्या गुजरी होगी, आप समझ सकते हैं. वह पूरी तरह टूट गई थी और काफी दिनों तक उसे डिप्रैशन में रहना पड़ा था. अंतर्धार्मिक प्रेम और शादी करने से पहले एक बार युवावर्ग को भी ठीक से सोचना चाहिए.

एक दूसरे मामले में एक हिंदू लड़के ने एक अफ्रीकी अमेरिकी से शादी की थी. लड़के के माता पिता को शुरू में काफी आपत्ति थी कि उनकी अगली पीढ़ी भी अमेरिका में ब्लैक अमेरिकी कहलाएगी और समाज उसे निम्न स्तर का मानेगा.

एक ऐसा भी उदाहरण है जहां एक दक्षिण भारतीय कट्टर हिंदू लड़के ने अपने मातापिता की अनुमति से ईसाई धर्म की अमेरिकी लड़की से शादी की. जब लोगों ने पूछा कि ऐसा क्यों किया तो लड़के के मातापिता ने कहा, ‘‘हमारे बच्चे का जन्म ही अमेरिका में हुआ था. शुरू से वह इसी संस्कृति में पला, तो हम उस से पुराने रीतिरिवाज की उम्मीद नहीं रखते हैं.

इतना ही नहीं, वे अपनी बहू से बहुत खुश हैं. उनके दोनों पोतों में एक का नाम हिंदू और एक का क्रिश्चियन है. परिवार में दोनों धर्मों के त्योहार मनाए जाते हैं.

अमेरिका में एक तरफ कुछ आप्रवासी भारतीय हिंदू भारतीय पत्नी को बेहतर चौइस मानते हैं. उनका कहना है कि भारतीय नारी कितनी भी पढ़ीलिखी और कमाऊ क्यों न हो,

वह पति के प्रति वफादार होती है और नौकरी करते हुए भी पारिवारिक जिम्मेदारियां बखूबी निभाती है. वहीं दूसरी तरफ, अमेरिका में जन्मी और पलीबढ़ी भारतीय मूल की लड़कियां अमेरिकी बौयफ्रैंड को बेहतर मानती हैं. उनका मानना है कि ज्यादातर भारतीय अभी भी पुरानी सोच वाले हैं जो पत्नी और बहू को दासी समझते हैं.

एक और अमेरिकी भारतीय हिंदू लड़की, जिसका पति अमेरिकी क्रिश्चियन है, भी अपने पति से बहुत खुश है. उस ने हिंदू और क्रिश्चियन दोनों रीतियों से शादी है. उस के बच्चों के हिंदू नाम हैं. उस का पति भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म का बहुत आदर करता है. वह भी अमेरिकन सोसाइटी की उतनी ही इज्जत करती है.

नई पीढ़ी के कुछ भारतीय बच्चों से जब पूछा कि आप के मातापिता को जब गैरभारतीय बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड पसंद नहीं हैं तो आप क्यों नहीं कोई भारतीय साथी चुनते हो तो उनका निर्भीक उत्तर था, ‘‘उन्होंने अपनी खुशी और कैरियर के लिए देश क्यों छोड़ दिया था. भारतीय संस्कृति की इतनी चिंता थी, तो हमें भी वहीं पैदा किया होता. अब जब हमारी खुशी का मौका आया तब वे दखल दे रहे हैं. आप उन्हें समझाएं, हमें नहीं.’’

समानता की सोच

अमेरिका में रहने वाली मैरी कोल्स बताती है कि उस का हैंडसम, ब्राइट और दिलफेंक भाई स्टीव एक बंगाली युवती शेफाली से शादी कर रहा है जो कालेज में उस की जूनियर थी.

दोनों की एक फोटो दिखाते हुए मैरी ने बताया कि कैसे पुराना परिचय दोस्ती में बदला, फिर डेटिंग शुरू हुई और सालभर के भीतर ही मंगनी के बाद दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया.

मैरी ने बताया, स्टूडैंट वीजा के बाद 2 वर्षों के वर्क वीजा पर नौकरी करते हुए अमेरिकी नागरिक से शादी करके ओ ग्रीनकार्ड मिल जाएगा तो वापस भारत नहीं लौटना पड़ेगा. उच्चशिक्षा के लिए अमेरिका आने वाले बहुत से युवा ऐसा करने के बाद कालांतर में अमेरिकी नागरिक बन जाते हैं.

शेफाली के निर्णय के पीछे उस के जो भी निजी कारण रहे हों, अमेरिका में भारतीय मूल के अधिकांश परिवारों की बेटियां भी अमेरिकी वर चुनती हैं अपवाद की बात अलग. लेकिन पुरुषप्रधान आम भारतीय परिवारों की गृहिणी को ही गृहस्थी का अधिक बोझ उठाते देख कर शिक्षित और प्रोफैशनल रूप से महत्त्वाकांक्षी बेटी को अमेरिकी या अमेरिकी मानसिकता वाले युवक में वांछित जीवनसाथी दिखता है. ऐसा जीवनसाथी जो घर के हर छोटेबड़े काम में स्वेच्छा से बराबर का साझेदार होगा.

स्थायित्व की संभावना

विदेशों में बसने वाले भारतीय युवाओं को लगता है कि विदेशी पत्नी होने से वहां के समाज में उन्हें और उनकी संतान को प्रतिष्ठा मिलेगी.

फूड साइंटिस्ट डा. त्रिवेणी शुक्ला और उनकी पत्नी गिरिजा अमेरिका में अपने दशकों पुराने प्रवास के दौरान पूर्वी और पश्चिमी संस्कारों में सुंदर सामंजस्य स्थापित करते  रहे.

अन्य भारतीय परिवारों की तरह शुक्ला दंपती की अपने बच्चों से भी यही उम्मीद थी. उनकी दोनों बेटियों और पुत्र ने अमेरिकी जीवनसाथी चुने तो मित्रों और स्वजनों में भारी आलोचना स्वाभाविक थी.

कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एमबीए करने के बाद बड़ी बेटी रेखा ने सोच रखा था कि वह अपनी शैक्षिक और प्रोफैशनल महत्त्वाकांक्षा को विवाह जैसे अहम निर्णय पर हावी नहीं होने देगी. आज 2 दशकों बाद शुक्ला परिवार के शुभचिंतक इस विवाह को आदर्श मानते हैं.

पौलिसी राइटर रेणु शुक्ला और फाइनैंस डायरैक्टर एरिक जरेट््स्की अमेरिकी मुख्यधारा की 2 उच्छवल तरंगें मिल कर सशक्त प्रवाह बनीं.

उत्तर प्रदेशीय ब्राह्मण परिवार में जन्मी और पलीबढ़ी सुकन्या के संस्कार परंपराबद्ध से अधिक बौद्धिक हैं. वर्षों पहले हिंदू परिवार में जन्मे एक नवयुवक से परिचय भी हुआ था किंतु वैचारिक परिपक्वता के स्थान पर केवल धर्म और संस्कारों की समानता मेलजोल बढ़ाने का कारण न बन सकी.

पीस कोर के लिए वौलंटियर करने के दौरान एरिक जरेट्स्टकी की भी दोस्ती एक भारतीय युवती से हुई थी लेकिन वैचारिक अनुकूलता का अभाव था. यहूदी परिवार के पुत्र एरिक और ब्राह्मण पुत्री रेणु में समान बौद्धिक स्तर प्रथम आकर्षण का कारण बना और दोस्ती प्यार में बदली, प्यार विवाह में. यहूदी धर्मगुरु और ब्राह्मण पिता ने मिल कर विवाह संपन्न करवाया. दोनों के परिवार व बच्चे एकदूसरे के कल्चर को लेकर सम्मान का भाव रखते हैं.

कुछ ऐसी ही कहानी राजन शुक्ला और विक्टोरिया की है. राजन शुक्ला ने बताया कि विक्टोरिया से अधिक उन्हें उस के पिता ने प्रभावित किया था. राजन के सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण और जिंदादिली ने विक्टोरिया का दिल जीत लिया था. विवाह के निर्णय से पहले दोनों के ही मन में असंख्य सवाल थे जिन्हें दोनों ने ताक पर रख दिया.

त्रिवेणी शुक्ला हंस कर कहती हैं कि विवाह बेटेबेटियों का ही नहीं, शुक्ला विक्टर और जरेट्स्की परिवारों का भी हुआ है. जब भी सब जुटते हैं, यूनाइटेड नैशंस बन जाता है.

आंचलिक विस्कौन्सिन के प्रबुद्ध मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी जेसिका एक नामी बुकस्टोर में पार्टटाइम काम कर रही थी. भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रणेता परिवार के पुस्तकप्रेमी प्रपौत्र विष्णु की पोस्ंिटग निकटवर्ती उपनगर में थी और वह नियम से बुक्स्टोर में आता था. जेसिका से उस का परिचय हुआ और परवान चढ़ी. परिचयसूत्र में बंधने के बाद नौकरी के सिलसिले में दोनों जापान, फिनलैंड और फिर अमेरिका में कुछ वर्ष रहे.

जेसिका को आभास हुआ कि सास के हृदय में अपनी जगह बनाने के  लिए उसे पहल करनी पड़ेगी. उस की सास महिला अधिकारों की प्रबल समर्थक रहीं और भारतीय प्रशासनिक सेवा से रिटायर हुईं. जेसिका ने हर वर्ष अकेले भारत जा कर कुछ समय ससुराल में बिताने का निश्चय किया.

जेसिका के दूसरे बेटे का जन्म विष्णु की  भारत में पोस्टिंग के दौरान हुआ जहां वे मातापिता के निकट घर लेकर रहे. छोटे पौत्र के जन्म के बाद सास ने हफ्तेभर नवप्रसूता को अपने पास रख कर देखभाल की. जेसिका को गर्व है कि उनकी सास अपने साथ एक अलग तरह का संबंध जोड़ने के  लिए पूरा श्रेय उसे देती हैं. विष्णु की तरह बहुत कम पति मां और पत्नी के बीच बंटने की दुविधा से मुक्त रह पाते हैं विशेषकर तब, जब विवाह अंतर्जातीय ही नहीं, अंतर्सांस्कृतिक भी हो.

दादी में अल्जाइमर्स के लक्षण दिखने लगे तो पतिपत्नी से साहस जुटा कर बड़े बेटे को पिछले साल क्रिसमस की छुट्टियों में दादी के पास रहने के लिए अकेले भारत भेजा, इस विचार से कि बालक पीढ़ी बुजुर्गों की सुखद स्मृतियां भरसक संजो सके.

क्याक्या समस्याएं

वैसे तो अपने देश में अरेंज्ड मैरिज में शुरू में एडजस्टमैंट में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर मिक्स्ड मैरिज में कुछ ज्यादा एडजस्टमैंट की आवश्यकता है. मातापिता को डर रहता है कि अब परिवार का संस्कार, रीतिरिवाज खतरे में पड़ जाएंगे. हर परिवार की एक अलग परंपरा, लाइफस्टाइल, संस्कार होते हैं जिन का सम्मान दोनों को करना है.

मिक्स्ड मैरिज के बाद अकसर दोस्त, परिवार और समाज से दूरी या बहिष्कार का भय रहता है. कभीकभी एकदूसरे के त्योहारों व बच्चों की परवरिश को लेकर झगड़े होने लगते हैं जो तलाक तक पहुंच जाते हैं और इनका खमियाजा मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है. इसके लिए एक पक्ष अगर आक्रामक है तो दूसरे पक्ष को संयम बरतना चाहिए और यथासंभव रिश्तों को टूटने से बचाना चाहिए.

मातापिता को ऐसी मिक्स्ड मैरिज को सहर्ष स्वीकार करना सीखना होगा. विश्व ग्लोबल विलेज बन रहा है तो इसके वासियों की मानसिकता भी वैश्विक होनी चाहिए. वैचारिक परिपक्वता और पारिवारिक मूल्य ही दीर्घ व सुखी दांपत्य के स्रोत हैं.

कितने निभते हैं अंतर्राष्ट्रीय विवाह

पिंरसटन के रहने वाले जौर्ज दंपती ने 30 वर्षों से वहां रहने वाले परमविंदर भाटिया की बेटी शिवांगी से अपने बेटे सैम की शादी बड़ी धूमधाम से की. एमबीए शिवांगी ने अपनी सहूलियत से ऊपर उठकर उनसे निभाना चाहा पर वे हमेशा उसके खानपान व क्रिकेट प्रेम की आलोचना बड़ी कटुता से करते हुए उसकी निजता पर प्रहार करते रहे. आखिर शिवांगी ने अलग होने का फैसला ले लिया. ऐसी भी शादी क्या, जहां उस के कल्चर का मजाक उड़ाया जाए.

न्यू जर्सी के फ्रैंकलिन स्ट्रीट में रहने वाले केरलवासी गिरीश दंपती के बड़े बेटे ने अमेरिकी लड़की से शादी तो करली पर कटु आलोचनाओं से बचने के लिए वह घर से थोड़ी दूर पर ही दूसरे फ्लैट में रहने लगा. लेकिन छोटा बेटा जिसने एफ्रो अमेरिकी लड़की से शादी की थी, उन्हीं लोगों के साथ रह रहा था. एक दिन मिसेज गिरीश की अपने बहूबेटे के साथ बहुत कहासुनी हुई. बहू ने पुलिस को खबर कर दी. दोनों मांबेटे को पुलिस पकड़ कर ले गई. रातभर लौकअप में रखा. बात इतनी सी थी कि बेटेबहू ने अपने कुछ दोस्तों को बुला कर घर में पार्टी रखी थी. होहल्ला को वे बरदाश्त नहीं कर पाए और तूतूमैंमैं कर बैठे.

प्रताड़ना का पेंच

40 वर्षों से एडीसन में रहते पटेल दंपती की बेटी डा. प्रिया ने जौन से प्रेमविवाह किया था. दोनों न्यू जर्सी के प्रख्यात अस्पताल रौबर्ट वुड में साथसाथ काम करते थे. जौन का व्यवहार दूसरी महिला कर्मचारियों के साथ बड़ा ही उन्मुक्त था. जब भी प्रिया जौन को महिलाओं से दोस्ती की सीमाएं बताती, वह नाराज होकर भारतीय संस्कृति, परंपराओं, रहनसहन, खानपान का मखौल उड़ाने पर उतर आता था. मानसिक रूप से प्रताडि़त करने के बाद जब जौन शारीरिक हिंसा पर उतर आया तो प्रिया अपनी सोच पर प्रहार नहीं झेल पाई और उस से अलग हो गई. उनका 3 साल का बेटा शेरील प्रिया के पास रहता है क्योंकि वहां, भारत के विपरीत, बच्चों की गार्जियन मां ही होती है.

जमशेदपुर, झारखंड की रहने वाली वीणा पाठक की अमेरिकन बहू एलिस को 3 बच्चे, 2 लड़के और 1 लड़की एकसाथ हुए तो वह उखड़ गई. हैरिसन स्ट्रीट में रहते भारतीय परिवारों से वे जब भी, जहां भी मिलती, यह कहने से नहीं चूकती, ‘‘पता नहीं ये अमेरिकन लड़कियां खाती क्या हैं कि राक्षस की तरह 3-4 बच्चे एकसाथ पैदा कर लेती हैं. अंडा, मछली, गाय, भेड़, बकरी, सूअर सब के कलेजे खाती हैं. मुझे तो यहां पानी पीने से भी वितृष्णा होती है. पता नहीं, मेरे बेटे को यह कैसे भा गई. मैं तो जाने के दिन गिन रही हूं.’’

अमेरिका में रहने वालों के लिए यह कोई नई बात नहीं है. वहां फैशन के कपड़ों की तरह अपनी सहूलियत के अनुसार जीवनसाथी बदले जाते हैं. अलग होने की कानूनी प्रक्रिया भारत की तरह जटिल व उबाऊ नहीं है.

अगर अमेरिकन अंगरेजी में ताना मारते हैं तो भारतीय भी मुंह से हिंदी अंगरेजी दोनों में उस से बढ़कर आग उगलने से नहीं चूकते हैं. इन की सोच के तरकश में घृणा से बुझे शब्दों के ऐसे तीर होते हैं कि मन छलनी हो जाता है. चूंकि उस देश में कानून दूसरे देशवासियों के लिए भी समान है, सो, उसका लाभ भारतीय भी कम नहीं उठाते.

सुखी वैवाहिक जीवन

इसके विपरीत कितने ही अमेरिकन परिवारों की भारतीय बहुओं के साथ अच्छी निभ रही है. पेनसिल्वेनिया के डा. शिशिर प्रसाद की बेटी मेघा थौमसन परिवार की बहू है. प्रजनन संबंधी जटिलताओं के कारण जब वह मां नहीं बन सकी तो उसने भारत आ कर पुणे के एक अनाथालय से जुड़वां बच्चियों को गोद लिया. कानूनी कार्यवाही के लिए उसे न जाने कितनी बार भारत आना पड़ा. पति अलबर्ट, जो वहां साइंटिस्ट हैं, का पूरा साथ था कि यहां की जटिल कानूनी प्रक्रियाओं का सामना करके यहां से बच्चियों को वह अमेरिका ले जा सकी. आज दोनों बच्चियां 18 साल की हो गई हैं और मां से ज्यादा अपने डैडी से घुलीमिली हुई हैं. इसी को नियति कहते हैं.

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मिलबर्न स्ट्रीट में रहने वाले फिजिक्स के साइंटिस्ट डा. सतीश प्रसाद, जो मेघा के चाचा हैं, ने अपनी तीनों बेटियों की शादियां अमेरिकन परिवारों में की हैं. तीनों लड़कियों का वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखी है. 2 वर्षों पहले सभी भारत आए थे. वहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं और अपनी सुविधानुसार ही रहते हैं, लेकिन अवसरों पर वे एकदूसरे के फैमिली मैंबर से प्रेमपूर्वक अवश्य मिलते हैं.

सालों से न्यूयौर्क में रहते डा. सुधांशु की बेटी रिया ने पीटर से प्रेमविवाह किया और आज उनके 2 बच्चे हैं. हर साल क्रिसमस में पीटर का पूरा परिवार नए साल के आगमन तक न्यूयौर्क में ही अपनी बहू के यहां रह कर वहां के सैलिब्रेशंस का आनंद उठाते हैं. डाक्टर के बेटेबहू निसंतान हैं. वे रिया के दोनों बच्चों को बहुत प्यार करते हैं.

होबोकन में  रहते डा. रीता प्रसाद और डा. सुधीर प्रसाद की बहू और दामाद दोनों अमेरिकन हैं. उन से मिल कर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि 2 विपरीत सभ्यताओं और संस्कृतियों का मिलन है. सभी पेशे से डाक्टर हैं और मिलजुल कर रहते हैं. अमेरिकन और इंडियन परिवारों, जहां ऐसे रिश्ते बने हैं, से मिलने पर यही निष्कर्ष निकला कि ऐसे रिश्तों को निभाने में अमेरिकियों से ज्यादा इंडियन असहनशील हैं.  अमेरिकियों को भारतीय सभ्यता संस्कृति से जुड़े सारे रिवाज बहुत भाते हैं. वे हर त्योहार, पहनावे, खानपान का लुत्फ उठाते हुए उत्सुकता के साथ खुशी से मनाते हैं

देसी बनाम विदेशी शादियां

जहां एक ओर भारतीय युवतियां विदेशी युवाओं से शादी कर खुश नजर आती हैं वहीं भारतीय युवाओं की शादियां विदेशी युवतियों के साथ असफल नजर आईं. अपना नाम और पता गुप्त रखने की शर्त पर गुरुग्राम के भरत (बदला हुआ नाम और स्थान) ने लिथुआनियन लड़की से विदेश में बस जाने की चाह में अपने मातापिता की मरजी से उनकी उपस्थिति में शादी की, लेकिन एक साल के भीतर ही उसका तलाक हो गया जबकि उस की एक नन्ही बच्ची भी है.

दिल्ली के पश्चिमपुरी के विजय (बदला हुआ नाम और स्थान) की भी ऐसी ही कहानी है. इन्होंने भी लिथुआनियन लड़की से विदेश में बस जाने की चाह में 10 साल पहले शादी की थी. इन के 7 और 9 साल के 2 बेटे हैं, लेकिन अब वे तलाक लेना चाहते हैं.

इन दोनों भारतीयों की शादी असफल होने के कारण एकजैसे ही हैं. इन्होंने बताया कि विदेशी लड़कियां शादी के बाद न तो परिवार के लोगों को अपनाना चाहती हैं और न ही भारत आना चाहती हैं. इसके अतिरिक्त अपना पैसा, अपना खर्च, अपना काम जैसा विभाजन कर घर चलाने और उनकी जीवन जीने की स्वछंद शैली से आएदिन घर में कलह का माहौल बनता है, जिस से आखिरकार तलाक की नौबत आ जाती है.

श्रुति के पिता कमलजीत सिंह चौहान से बातचीत

आप की बेटी श्रुति चौहान कहां रहती है, उस की शिक्षा कहां से हुई थी?

हमारी बेटी इटली में रहती है. उस ने दिल्ली के गार्गी कालेज से बीए औनर्स वर्ष 2003 में किया था.

वह विदेश कैसे गई थी?

उस ने वर्ष 2003 में मिस इंडिया कौन्टैस्ट में भाग लिया था और वह कौन्टैस्ट के अंतिम चरण के 5वें नंबर पर चुनी गई थी. इन्हीं दिनों उसे फ्रांस दूतावास ने कल्चरर्स ऐक्सचेंज के तहत फ्रांस आने का निमंत्रण दिया और वह फ्रांस चली गई. उस का झुकाव शुरू से मौडलिंग की ओर था. उसे इटली की एक कंपनी से वहां मौडलिंग का औफर मिला और वह वहां से इटली चली गई. इटली में उस ने मैनेजमैंट औफ लग्जरी गुड्स में पोस्टग्रेजुएट की शिक्षा प्राप्त की.

श्रुति की शादी किससे और कहां हुई, क्या यह शादी परिवार की सहमति से हुई है?

श्रुति की शादी इटली के मिस्टर जिवोनी कोसोलीटो से हुई है. इटली के मिलान शहर में उन दोनों की दोस्ती हुई. पहले हम उस के साथ कल्चरल डिफरैंस के चलते शादी के खिलाफ थे.

आप लोग हिंदू हैं, क्या धर्म से संबंधित कोई परेशानी श्रुति को शादी के बाद झेलनी पड़ी?

श्रुति की शादी एक रोमन कैथोलिक ईसाई परिवार में हुई है, लेकिन न तो कभी लड़के ने और न ही कभी उस के परिवार वालों ने उसे धर्म परिवर्तन के लिए दबाव डाला. श्रुति तो दोनों धर्मों के त्योहार अपनी ससुराल वालों के साथ मनाती है. उस का एक बेटा भी है और वह इस विदेशी परिवार के बीच बेहद खुश है. मैं और मेरी पत्नी उस के पास कभी 6 महीने, कभी सालभर रह कर आते हैं.

मोयना की मां लीना से बातचीत

आप की बेटी कहां रहती है, वह विदेश कैसे गई थी?

मेरी बेटी आजकल लंदन में है. वह उच्चशिक्षा के लिए ब्रिटेन गई थी. उस ने पहले एडनबरा से एमए (इंग्लिश) किया, फिर लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स से मीडिया ऐंड कम्युनिकेशंस की शिक्षा प्राप्त की.

मोयना की शादी किस से और कहां हुई, क्या यह शादी परिवार की सहमति से हुई है?

मोयना की शादी ईसाई परिवार के ब्रिटिशमूल के नागरिक से हुई है. शादी से पहले लंदन में एक ही कंपनी में कार्य करने के दौरान इन की दोस्ती हुई थी. फिर दोनों परिवारों की सहमति से इन की शादी हुई है.

आप लोग हिंदू हैं, क्या धर्म से संबंधित कोई परेशानी मोयना को शादी के बाद झेलनी पड़ी?

मोयना को कभी भी किसी ने धर्म बदलने के लिए दबाव नहीं डाला और न ही उस ने अपना धर्म बदला है. परिवार के सभी सदस्य छुट्टियों के दौरान आपस में मिलतेजुलते हैं. हम भी लंदन उनके परिवार से मिलने अकसर जाते हैं और उनके परिवार के लोग भी भारत हमारे पास आते रहते हैं. मोयना इस परिवार में शादी कर बेहद खुश है.

आप्रवासी भारतीय शादियों में धर्म का धंधा

आप्रवासी भारतीयों के विवाह में धर्म ने पीछा नहीं छोड़ा है. विदेशों में बसे भारतीय परिवार बड़ी संख्या में दूसरे समाजों में शादी रचा रहे हैं. भारतीय हिंदू युवकयुवतियां विदेशी ईसाई, यहूदी, मुसलिम धर्म में विवाह तो कर लेते हैं पर दोनों अपनेअपने धर्म,  आस्था को छोड़ नहीं पाते. आप्रवासी शादियों में अलगअलग सामाजिक, धार्मिक वातावरण के बावजूद धर्म की मौजूदगी देखी जा सकती है. ये परिवार धार्मिक अंधविश्वासों को नहीं छोड़ पाते.

भारतीय ही नहीं, हर देश की विवाह संस्था में धर्म एक जरूरी हिस्सा है. अकेले अमेरिका में लगभग 20 लाख प्रवासी भारतीय हिंदू आश्रमों, मंदिरों, गुरुद्वारों की जीवनशैली अपनाए हुए हैं. प्रवासी भारतीय दूसरे धर्म, संस्कृति में विवाह तो कर लेते हैं पर उनकी विचारधारा, विश्वास, रीतिरिवाज, सामाजिक पद्धति के भेद दृढ़ता के साथ अपनी जगह मौजूद रहते हैं. वे इन्हें छोड़ नहीं पाते.

विदेशों में इस तरह के अंतर्धार्मिक विवाह अकसर चर्चों या धर्मस्थलों में संपन्न होते हैं और इन शादियों में पादरी, मुल्लामौलवी, पंडित की उपस्थिति जरूर रहती है. अमेरिका, यूरोप में अधिकांश विवाहों में पादरी, भारतीय पंडे, मौलवी विवाह के लिए विधिवत रूप से नियुक्त होते हैं. कुछ अन्य कानूनी अधिकारी भी होते हैं पर धर्म के इन बिचौलियों के कहने से ही विवाह की रस्में निभाई जाती हैं.

विवाह 2 व्यक्तियों के कानूनी रूप से एकसाथ रहने केलिए सामाजिक मान्यता है पर धार्मिक रीतिरिवाज से किए गए विवाह को अधिक सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है, कानूनी विवाहों को इतनी नहीं होती. प्राचीन यूनान, रोम, भारत आदि सभी सभ्य देशों में विवाह को धार्मिक कर्तव्य बताया गया है. विवाह का धार्मिक महत्त्व प्रचारित करने से ही अधिकांश समाजों में विवाह विधि धार्मिक संस्कार मानी जाती रही है.

इस तरह से आप्रवासी धर्म का धंधा चला रहे हैं. भारत से गए कुछ लोगों ने लिखा भी है कि भारत से आने वाले परिवार कुछ सामान, जरूरी चीजों के साथ रामायण, गीता साथ लाए थे यानी विदेशों में बसे भारतीय धर्म की पूरी गठरी ले गए थे और अपनी अलग धार्मिक पहचान बनाने में जुटे रहे.

हालांकि अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में विवाह के लिए कानून बहुत उदार हैं और मैरिज अफसर के पास जा कर सीधे शादी कर सकते हैं, लेकिन फिर भी विवाह करने वाले दंपती और उनके परिवार धर्म की शरण में जाना अनिवार्य समझते हैं. रोमन कैथोलिक चर्च अब तक विवाह को धार्मिक बंधन समझता है.

यहूदियों की धर्मसंहिता के अनुसार, विवाह से बचने वाला व्यक्ति उनके धर्मग्रंथ के आदेशों का उल्लंघन करने के कारण हत्यारे जैसा अपराधी माना जाता है. रोमनों का भी यह विश्वास था कि परलोक में मृत पूर्वजों का सुखी रहना इस बात पर निर्भर करता है कि उनका विवाह संस्कार धार्मिक विधि से हो तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए उन्हें अपने वंशजों की प्रार्थनाएं, भोज और भेंटें यथासमय मिलती रहें. इस तरह मिश्रित विवाहों में धर्म का धंधा खूब कामयाब है.

धर्म का भेद बुनियादी है और इसी से समस्याएं पैदा होती हैं. जोडि़यां अलगअलग धार्मिक, सामाजिक वातावरण से आती हैं. यूथ अपनी अलग संस्कृति में रगेपगे होते हैं. विवाह के लिए वे धर्म के रिवाजों का दामन थामे रखते हैं.

शिक्षा, सूचना, प्रौद्योगिकी, विज्ञान व उद्योग के क्षेत्र में बड़ी प्रगति के बावजूद प्रवासी समाज अभी भी दकियानूस बना हुआ है. दकियानूसी आप्रवासियों के बल पर विदेश में धर्म का धंधा चलता रहता है.

विक्टोरिया फ्रैंक और राजन शुक्ला के विवाह ने 2 भिन्न परिवारों, संस्कृतियों को मिला कर नई मौलिकता दिखाई.

दुनियाभर के प्रवासियों में भारतीय नंबर वन

करीब 3 करोड़ से भी अधिक प्रवासी भारतीय दुनिया के कोनेकोने में सफलतापूर्वक व्यवसाय व नौकरी कर अपने परिवार के साथ रह रहे हैं. अपनी मेहनत, अनुशासन, कानून अनुसरणता और शांत स्वभाव के चलते विदेशों में रह रहे भारतीयों को अन्य आप्रवासी समुदायों के लिए रोल मौडल की तरह पेश किया जाता है.

यह संख्या अन्य देशों के प्रवासियों के मुकाबले सब से ज्यादा है. सबसे अधिक संख्या में पंजाबी, गुजराती, बिहारी, तमिल, तेलुगू समुदायों और उत्तर प्रदेश के लोगों ने विदेशों में पलायन किया है.

आज भारतीय लोग मुख्यरूप से यूके, यूएसए, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशो में जा कर बसना पसंद कर रहे हैं. यूएसए, यूके, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, यूएई, कतर, सिंगापुर, फिजी, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, केन्या, मौरीशस, सेशल्स, मलयेशिया में फैले भारतीय प्रवासी अन्य प्रवासियों से आंकड़ों के लिहाज से सबसे ऊपर हैं. सिर्फ बड़े देशों में ही नहीं, बल्कि कुक आइलैंड, किरिबाली, समोआ, पोलिनेसिया व माइक्रोनेसिप जैसे अपेक्षाकृत कम चर्चित देशों में भी भारतीय प्रवासियों की तादाद खासी है.

दुनिया के करीब 208 देश ऐसे हैं जहां भारतीय आबादी है. विदेश मंत्रालय, विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक, 3 करोड़ 8 लाख 40 हजार भारतीय 208 देशों के या तो स्थायी निवासी हैं या वहां रह रहे हैं. यह संख्या भारत में कई बड़े राज्यों की कुल आबादी से भी अधिक है. दिलचस्प बात तो यह है कि भारत समेत 45 देश ही ऐसे हैं जिन की कुल जनसंख्या विदेशों में बसे भारतीयों से ज्यादा है.

आकर्षक रोजगार और बेहतर भविष्य की संभावनाएं जहां ज्यादा दिखती हैं, भारतीय वहां बस जाते हैं. शायद इसीलिए सर्वाधिक यानी 86 लाख 40 हजार भारतीय पश्चिम एशियाई देशों और 60 लाख 30 हजार लोग दक्षिणपूर्व एशिया में हैं. दक्षिण एशिया के देशों में भी भारतीयों की संख्या 23 लाख 20 हजार है. दक्षिण एशिया के देशों में रहने वाले ज्यादातर भारतीय लेबर क्लास के हैं, जबकि उत्तरी अमेरिका में टैक्निकल लोगों की खासी मांग है और इस मांग को पूरा करने में 54 लाख 80 हजार भारतीय हिस्सेदारी निभा रहे हैं.

यूरोपीय देशों की बात करें तो रिपोर्ट बताती है कि उत्तरी यूरोप के देशों में करीब 19 लाख 10 हजार भारतीय हैं तो पश्चिमी यूरोप में उनकी संख्या 5 लाख 40 हजार और दक्षिण यूरोप में 3 लाख 40 हजार है. पूर्वी यूरोप के देशों तक में 50 हजार भारतीय प्रवास कर रहे हैं, जबकि अफ्रीकी देशों में भी भारतीयों की संख्या 31 लाख से ज्यादा है. लैटिन अमेरिका व कैरेबियाई देशों में 12 लाख 10 हजार भारतीय हैं.

अपना देश छोड़ कर दूसरे देशों में रहने वालों में सब से ज्यादा भारतीय हैं. इसके बाद मेक्सिको, रूस, चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान, फिलीपींस, अफगानिस्तान, यूके्रन तथा ब्रिटेन शीर्ष 10 में हैं.

एक और दिलचस्प रिपोर्ट आई है जिस के मुताबिक दुनिया के देशों में इंडियन सिर्फ आबादी में ही सब से आगे नहीं हैं बल्कि प्रवास के दौरान अपने देश में पैसा भेजने में भी अव्वल हैं. विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि प्रवासी भारतीयों ने वर्ष 2017 में करीब 72 अरब डौलर भारत भेजे. 64 अरब डौलर के साथ चीन के प्रवासी दूसरे स्थान और फिलीपींस (30 अरब डौलर) के साथ तीसरे?स्थान पर हैं.

यह अलग बात है कि आज भी प्रवासी भारतीयों के साथ नस्लभेद की घटनाएं सुनने को मिलती रहती हैं. आस्ट्रेलिया में जहां भारतीय स्टूडैंट्स को पीटा जाता है वहीं अमेरिका में रैड डौट रेसिस्ट गु्रप का काला इतिहास है.

और तो और, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी भारतीय आईटी पेशेवरों की राह में एच-1 वीजा की आड़ में मुश्किलें पैदा कर रहे हैं. रंग और नस्लभेद की तमाम रुकावटों को पार करते हुए भारतीय आज दुनियाभर में अगर सीना तान कर जीवनयापन कर रहे हैं, तो वह उनकी अपनी मेहनत है.

  • शकुंतला सिन्हा के साथ इंदिरा मितल, सुरेश चौहान, जगदीश पंवार, राजेश कुमार और रेणु श्रीवास्तव.

वैवाहिक विज्ञापन वर चाहिए : व्हाट्सऐप और फेसबुक की फैन है बेटी

मेरी 25 वर्षीय बेटी कौन्वैंट एजुकेटेड डिगरीधारी है. एक एमएनसी यानी मल्टीनैशनल कंपनी के मैनेजिंग डायरैक्टर की पर्सनल सैक्रेटरी है. उस का सालाना पैकेज 15 लाख रुपए है. रंग गोरा, सुडौल, कदकाठी आकर्षक नयननक्श, कद 5 फुट 5 इंच के लिए गृहकार्य में दक्ष, सरकारी नौकरी करने वाला (प्राइवेट नौकरी वाले कृपया क्षमा करें), पढ़ालिखा, आधुनिक विचारों वाला, सहनशील, गौरवर्ण और कम से कम 5 फुट 9 इंच कद वाला आज्ञाकारी वर चाहिए. जो निम्न शर्तें पूरी करता हो वही संपर्क करें :

•     मेरी बेटी को देररात तक अपने पसंदीदा सीरियल देखने की आदत है. उसे ऐसा करने से रोका न जाए. रविवार या छुट्टी के दिन उसे जीभर कर सोने दिया जाए और उसे डिस्टर्ब न किया जाए.

•     पति स्वयं सुबह की गरमागरम चाय बनाने के बाद ही उसे जगाए.

•     जब वह निवृत्त हो कर बाथरूम से डैसिंगरूम में जाए तो डायनिंग टेबल पर  नाश्ता सर्व करना शुरू कर दिया जाए.

•     नाश्ता करने के बाद औफिस जाते समय उसे लंचबौक्स तैयार मिलना चाहिए.

•     औफिस में बहुत काम होते हैं, इसलिए वापसी में देर होने पर पूछताछ न की जाए.

•     उस का वेतन उस का अपना है, उस पर किसी तरह का अधिकार न जमाया जाए. साथ ही, पति अपना पूरा वेतन उस के हाथ में ला कर देगा क्योंकि पति के वेतन पर पत्नी का ही अधिकार होता है, अन्य किसी का नहीं.

•     हमारी लाड़ली बेटी को खाना बनाना नहीं आता है, इसलिए वह खाना नहीं बनाएगी. उसे खाना बनाने की कला सिखाने के लिए भी बाध्य न किया जाए. वहीं, यह ध्यान रखें कि घर में खाना उसी की पसंद का बनाया जाए.

•     साफसफाई का घर में पूरा ध्यान रखा जाए क्योंकि उसे गंदगी से सख्त नफरत है.

•     उस का बाथरूम कोई अन्य इस्तेमाल न करे. यदि प्रयोग किया है तो उसे पूरी तरह वायपर से रगड़ कर और पोंछा लगा कर साफ किया जाए.

•     हमारी बेटी व्हाट्सऐप और फेसबुक की फैन है. फोन पर व्यस्त रहते समय उसे बिलकुल भी डिस्टर्ब न किया जाए. उस की स्किल के कारण ही सैकड़ों लोग फ्रैंडरिक्वैस्ट भेज रहे हैं और उस की मित्रता पाने को तरस रहे हैं.

•     भूल कर भी उस के मोबाइल फोन को कोई हाथ न लगाए वरना दुष्परिणाम भुगतने के लिए परिवार को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा.

•     वह जो भी सूट या साड़ी पसंद करे उसे पति ही खरीद कर देगा. कोई नानुकुर सहन नहीं होगी.

•     जब भी कभी वह बच्चे को जन्म देगी तो बच्चे के लालनपालन की जिम्मेदारी बच्चे के पिता की ही होगी, मसलन नहलाना, डायपर्स बदलना, कपड़े पहनाना, दूध पिलाना, झूले पर झुलाना आदि. रात के समय बच्चे के रोने के कारण यदि उस की नींद डिस्टर्ब होगी तो इस के लिए सीधेसीधे बच्चे का पिता जिम्मेदार होगा और उसे ही कोपभाजन का शिकार होना पड़ेगा.

•     सास या ननद को उस की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा.

•     परिवार के किसी भी सदस्य को उस से जिरह करने और किसी तरह का ताना देने का हक नहीं होगा.

शेष शर्तें लड़का पसंद आने पर बता दी जाएंगी.

नोट : हम ने अपनी बेटी को राजकुमारी की तरह पाला है और साथ ही, आधुनिक संस्कार भी दिए हैं. हम दावा तो नहीं करते लेकिन वादा जरूर करते हैं कि यह जिस घर में भी जाएगी वह परिवार ऐसी संस्कारवान वधू पा कर धन्य हो जाएगा.

रामराज्य : इस के आविष्कारकों को शतशत नमन कीजिए

बाड़मेर के किसान छात्रावास में छात्राओं द्वारा हवनयज्ञ करते हुए देख कर आप को मान लेना चाहिए कि अब रामराज्य का आगाज हो गया है. अब स्कूलों में किताबकौपियों का भारी थैला कंधे पर लाद कर बच्चों को नहीं ले जाना पड़ेगा.

इस देश के बड़ेबड़े शिक्षाविद व बुद्धिजीवी काफी समय से गंभीर चिंता जता रहे थे कि नन्हेनन्हे कंधों पर ज्यादा बोझ ठीक नहीं है, लेकिन वे इस का समाधान नहीं खोज पाए.

हमें रामराज्य के आविष्कारी पुरोधाओं का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि अब छात्रावासों में रातरातभर आंखें फाड़ कर बच्चों को पढ़ने की जरूरत नहीं होगी, सिर्फ एक साप्ताहिक यज्ञ किया और बन गए एकदम वैज्ञानिक टाइप समझदार प्रोफैशनल. न किताबों का खर्च, न कौपियों का खर्च. पंडितजी एक शास्त्र ले कर आएंगे और हवनकुंड से निर्मित विशेष चक्रीय वातावरण में बच्चों को बैठा कर उन के दिमाग में डेटा ट्रांसफर कर देंगे.

स्कूलों में तो बचपन में हम ने भी खूब चिल्लाचिल्ला कर सरस्वती वंदना की थी. अगर गुरुजी को होंठ हिलते नहीं दिखते थे तो डंडों की बौछार हो जाती थी और अगर जोर से गुरुजी को आवाज सुनाई दे जाती तो वे मुसकरा देते थे. ऐसा लगता जैसे सरस्वती का स्वर व विद्या हमारे बदले गुरुजी के दिमाग में घुस रही हो और गुरुजी को ठंडेठंडे नवरत्न तेल वाली कूलिंग का अनुभव हो रहा हो.

अभी कुछ दिनों पहले बाड़मेर के ही एक स्कूल की प्रार्थना का वीडियो देख रहा था, जिस में गुरुजी हारमोनियम बजा रहे थे.

दिल को ऐसा सुकून मिल रहा था कि भई, भाड़ में जाए संविधान व धर्मनिरपेक्षता. हमें तो रामराज्य ही चाहिए. आप खुद सोचो कि छोटेछोटे बच्चे उठ कर हनुमान चालीसा पढ़ें, स्कूलों में तुलसीदास की चौपाइयां गाते लड़केलड़कियां नाचते रहें, शांत फिजाओं में वानर एकाएक उड़ने लग जाएं, बीचबीच में पुष्पक विमान के करतब दिखते रहें, हम घर से बाहर निकलें और आदमी के शरीर पर हाथी का सिर लगे विशेषटाइप के इंसान घूमते नजर आएं तो हमें और क्या चाहिए.

क्या करेंगे वैज्ञानिक शिक्षा से. हर जगह महंगाई का रोना. गाडि़यों के लिए महंगे पैट्रोलडीजल के चक्कर में हमारा तेल निकला जा रहा है. ऐसे में बिना ईंधन के पुष्पक विमान दोबारा उड़ने लगेंगे तो कितनी खुशी की बात होगी.

नदियों समुद्रों को पार करने के लिए वानरभालू हम इंसानों के लिए पुल बनाएंगे. ग्लोबल वार्मिंग से मुक्ति के लिए हनुमानजी को बोल दें, वे 4-5 दिनों के लिए सूरज को ही गटक जाएंगे.

मालगाडि़यों व ट्रकों में बेतहाशा ईंधन फूंका जा रहा है, सड़कों पर पैसे बरबाद किए जा रहे हैं. आप सोचो, एक हाथ से द्रोणगिरि पर्वत को उठा कर उड़ने वाले हनुमानजी अकेले ही मालढुलाई का काम नहीं कर देंगे. सर्जिकल स्ट्राइक, सर्जिकल स्ट्राइक चीखने की अब जरूरत ही नहीं रहेगी. हनुमानजी अकेले ही इसलामाबाद को आग लगा कर फूंक आएंगे.

हथियारों की होड़ में देश का अकूत धन फूंका जा रहा है जबकि हमारे पास महामृत्युंजय जाप से दुश्मनों को खत्म करने वाले पंडितों की भरमार है. इन का उपयोग करेंगे तो पैसों की बचत होगी व हंगर इंडैक्स में शतक मारने की जलालत से इस देश को मुक्ति मिल जाएगी.

रोज मीडिया को हम गालियां देते हैं कि ये बिके हुए लोग हैं. तो सोचो, मीडिया का काम खुद नारदमुनि करने लगेंगे तो विश्वसनीयता में चारचांद लगेंगे कि नहीं. महाभारत वाला संजय बिना डिश के खर्चे के घटनाओं का लाइव टैलीकास्ट करेगा तो कितना मजा आएगा. तोड़नेमरोड़ने और एडिटिंग के सारे आरोपों से मुक्ति मिल जाएगी.

बिगड़ते लिंगानुपात से जूझते देश में जब मिट्टी के घड़ों से लड़कियां निकलने लगेंगी तो एक तो हर कुंआरे के लिए पत्नी का इंतजाम हो जाएगा, दूसरा, मेरे जैसे ठालेबैठे व फोन में माथा मार रहे युवा लोग हल ले कर खेतों में जाएंगे तो किसानों की आय दोगुनी तो क्या, दसगुनी हो जाएगी.

अब बाड़मेर वाले गुरु ही इस देश को विश्वगुरु बनाएंगे. दिल्ली ने तो अकर्मण्यता की चादर ओढ़ ली है. ऐसे में वीरों की धरती वाले मरुस्थल के महापुरुष ही इस देश का कल्याण करेंगे.

विदेशी धरती पर भारतीय युवाओं का दमखम

औफ स्टंप के बाहर गिरने के बाद यजुवेंद्र चहल की वह गेंद इस तरह अंदर आई कि निचले क्रम के दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाज मौर्ने मौर्केल को समझ नहीं आया और गेंद उन के पैड पर लगते ही भारत ने इतिहास रच दिया. टीम इंडिया को दक्षिण अफ्रीका का दौरा करते हुए 25 साल हो गए पर वह कोई भी एकदिवसीय सीरीज नहीं जीत पाई थी. विराट कोहली की अगुआई में टीम इंडिया ने पोर्ट एलिजाबेथ में एकदिवसीय मैच जीत कर दक्षिण अफ्रीका में एकदिवसीय सीरीज जीतने वाली पहली भारतीय टीम बन गई.

भारत को इस के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा. भारत ने वर्ष 1992 में दक्षिण अफ्रीका का पहला दौरा किया था. उस समय मोहम्मद अजहरुद्दीन कप्तान थे. टीम इंडिया को उस समय 7 एकदिवसीय मैचों में 2-5 से हार मिली थी. वर्ष 1996-97, 2000-01, 2010-11, 2013-14 में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा.

अभी तक टीम इंडिया के बारे में बारबार कहा जाता है कि भारत में शेर और विदेशों में ढेर. लेकिन दक्षिण अफ्रीका को जिस तरह से टीम इंडिया ने पटकनी दी उस से लगता है कि टीम इंडिया अब विदेशी पिचों पर टिकने लायक हो गई है.

दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाज पूरी सीरीज के दौरान चहल और कुलदीप की गेंदों को समझ नहीं सके. टीम इंडिया के लिए यह अच्छी बात है कि गेंदबाजी में भी अब धीरेधीरे सुधार हो रहा है, क्योंकि टीम इंडिया की कमजोरी हमेशा से गेंदबाजी रही है. हर मैच में मध्यम क्रम में कमजोर रही है. अच्छी स्थिति होने के बावजूद मध्यम क्रम के बल्लेबाजों ने निराश किया है. महेंद्र सिंह धौनी को 7वें नंबर पर खिलाने का औचित्य समझ नहीं आता. इतने अच्छे बल्लेबाज से ऊपर के क्रम में बल्लेबाजी करानी चाहिए.

अजिंक्य रहाणे, केदार जाधव, श्रेयस अय्यर, हार्दिक पांड्या जैसे युवा बल्लेबाजों को मौकों को भुनाना सीखना होगा. उन्हें धैर्य से खेलने की जरूरत है. यों ही विकेट गंवाने से टीम को जो मजबूती मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पाती है.

टीम इंडिया अधिकतर मौकों पर फिसड्डी ही साबित हुई है. कई बार तो ऐसा लगता है कि विदेशी धरती पर भारतीय टीम कोई नौसिखिया है और उसे बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा है. खेल में हारजीत लगी रहती है पर हार सम्मानजनक हो, टीम का जुझारूपन दिखाई दे, विपक्षी टीम के आगे घुटने नहीं टेके.

टीम इंडिया ने दक्षिण अफ्रीकी टीम के आगे इस बार घुटने नहीं टेके, खेल में जुझारूपन दिखाई दिया और सीरीज जीतने में कामयाब रही.

हालांकि भारतीय टीम अभी भी तेज पिचों पर सही से खेल नहीं पाती. इसलिए दक्षिण अफ्रीका में टैस्ट मैचों में निराश होना पड़ा था पर उस की भरपाई टीम इंडिया ने एकदिवसीय सीरीज जीत कर पूरी कर ली.

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