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‘दादासाहब फाल्के’ के जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें

हम भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहब फाल्के की बात कर रहे हैं. वही दादासाहब फाल्के, जिन्होंने पहली भारतीय फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई थी. आज हम दादासाहब फाल्के के जीवन से जुड़ी कुछ ऐसी ही बातें लेकर आये हैं, जिनसे शायद आप अब तक अंजान हैं.

जिस समय भारत अंग्रेजों के खिलाफ अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, उस समय एक व्यक्ति भारत का एक नया अध्याय लिख रहा था. इस अध्याय को लिखते समय उसके साथियों ने उसका मज़ाक उड़ाया और समाज ने उसे पागल करार दिया, पर बिना किसी की भी परवाह किये बिना वे अपने आप में लगे रहे और उन्होंने भारत के उस सुनहरे भविष्य की नींव रखी, जिस पर आज भारतीय सिनेमा टिका हुआ है.

कल दादासाहब फाल्के यानि कि भारतीय सिनेमा के पिता का जन्मदिन था. जानिए उनके जीवन से जुड़ी वो बातें, जो उन्हें वाकई में सिनेमा का जनक बनाती हैं.

कौन थे दादा साहब फाल्के

दादासाहब फाल्के का जन्म एक देशस्थ ब्राह्मण मराठी परिवार में 30 अप्रैल 1870 में नासिक के त्र्यम्बकेश्वर में हुआ था. क्या आप जानते हैं अपने कॉलेज के शुरुआती दौर में दादासाहब ने मूर्तिकला, पेंटिंग और फोटोग्राफी पर हाथ आजमाये. एक फोटोग्राफर के रूप में ही उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने खुद का प्रिंटिंग प्रेस खोला और उन्हें राजा रवि वर्मा के साथ काम करने का मौका मिला.

हिन्दी सिनेमा का नया अध्याय

फाल्के के जीवन में फिल्म निर्माण से जुड़ा रचनात्मक मोड़ फिल्म 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' देखने के बाद आया. इसी से उन्हें फिल्म निर्माण की प्रेरणा मिली अपने फिल्मी करियर की शुरुआत करने से पहले दादासाहब ने फिल्मों का गहन अध्ययन किया और 5 पाउंड में कैमरा खरीद कर उस पर 20 घंटे से ज्यादा समय तक अभ्यास किया.

जिस समय उन पर फिल्म बनाने का जुनून सवार था, उन दिनों वे आर्थिक तंगियों से गुजर रहे थे. इस कठिन समय में उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया और तमाम सामाजिक तानों के बावजूद अपने पति के साथ खड़ी रहीं. साल 1912 में फिल्म निर्माण का काम सीखने के लिए दादासाहब विदेश भी गए और वहां फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखीं.

भारत लौटकर उन्होंने अपनी पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चन्द्र का निर्माण कर देश को एक नया सपना दिया. उस ख्वाब को हम आज बॉलीवुड के नाम से जानते हैं.

ये बात आप में से बहुत कम लोग जानते होंगे कि साल 1913 में जब फिल्म बनाने की बारी आई, तो उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वे फिल्म को कागज पर भी उतार पाते. ऐसे कठिन समय में उन्हें फिर अपनी पत्नी का साथ मिला. दादासाहब की कोशिशों से ही 1913 में पहली भारतीय मूक फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बन कर तैयार हुई. 21 अप्रैल 1913 को ये फिल्म दिखाई गई. इस फिल्म के लेखन से ले कर फोटोग्राफी और सम्पादन का काम खुद दादासाहब ने किया.

अपने 19 साल के फ़िल्मी करियर में कुल 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाई. साल 1937 में उन्होंने फिल्मों से सन्यास ले लिया. इस दौरान उन्होंने अंतिम फिल्म 'गंगावतरण' बनाई. भारतीय फिल्म का अध्याय लिखने वाले दादासाहेब फाल्के 74 वर्ष की उम्र में 16 फरवरी 1944 को अपनी कहानियां हमारे बीच छोड़ गए और इस जगत को अलविदा कहा.

उनके नाम पर भारत सरकार ने 1969 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की घोषणा की.

अवार्ड से जुड़ी खास बातें-

1. दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का पिता कहा जाता है और उनके नाम पर ही अवॉर्ड की शुरुआत साल 1969 में हुई थी.

2. इस सम्मान के तहत सम्मानित होने वाले व्यक्ति को एक स्वर्ण कमल मेडल और रुपये दिए जाते हैं.

3. सबसे पहला दादा साहेब फाल्के सम्मान देविका रानी को दिया गया था.

4. इसके बाद पृथ्वीराज कपूर, सुलोचना, दुर्गा खोटे, नौशाद, अशोक कुमार, सत्यजीत रे, वी शांताराम, लता मंगेशकर, भूपेन हजारिका, दिलीप कुमार, मजरूह सुल्तानपुरी, कवि प्रदीप, बीआर चोपड़ा, ऋषिकेश मुखर्जी, आशा भोसले, यश चोपड़ा, देव आनंद, श्याम बेनेगल, मन्ना डे समेत समेत कई हस्तियों को इस सम्मान से नवाजा गया.

अपने यादगार फिल्मी सफर के तकरीबन 25 वर्षो में उन्होंने 'राजा हरिश्चंद्र' के अलावा सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्रीकृष्ण जन्म (1918), कालिया मर्दन (1919), कंस वध (1920), शकुंतला (1920), संत तुकाराम (1921), और भक्त गोरा (1923) सहित कई सराहनीय और यादगार फिल्में बनाईं.

..तो इन्होंने विराट को फर्श से अर्श तक पहुंचाया

टीम इंडिया के कप्तान कोहली को विराट बनाने के पीछे उनकी फिटनेस का बहुत बड़ा हाथ है. विराट रोजाना एक्सरसाइज करते हैं और अपने खान-पान का खासा ध्यान देते हैं. आरसीबी के स्ट्रेंथ और कंडिशनिंग कोच शंकर बासू के साथ खास इंटरव्यू में विराट कोहली ने अपनी डाइट और मनपसंद एक्सरसाइज का खुलासा किया है. विराट ने बताया कि कैसे फिटनेस ने उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचा दिया.

विराट ने अपनी ट्रेनिंग पर खुलासा किया कि ‘साधारण ट्रेनिंग और पेशेवर ट्रेनिंग में खासा अंतर होता है. एक एथलीट को एथलीट की तरह ही ट्रेनिंग करनी चाहिए. अगर आपको क्रिकेट के तीनों फॉर्मेट खेलने हैं तो आपका शरीर उस लायक होना चाहिए, इसीलिए मैं कड़ी ट्रेनिंग करता हूं. फिटनेस ने मेरे खेल को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है. मुझे लगता है मैं मैदान पर कुछ भी कर सकता हूं, मैं बहुत ताकतवर महसूस करता हूं.’

आपको बता दें शंकर बासू ही वो शख्स हैं जिन्होंने विराट को फिट से सुपरफिट बनाया है. शंकर बासू आरसीबी के फिटनेस और कंडिशनिंग कोच हैं. विराट ने इंटरव्यू के दौरान अपनी फेवरेट एक्सरसाइज भी बताई, विराट ने कहा कि जिम में उनकी फेवरेट एक्सरसाइज पावर स्नैच है.

विराट बताते हैंं कि "पावर स्नैच से शरीर का हर हिस्सा मजबूत होता है. खासकर शरीर का पिछला हिस्सा. पावर स्नैच से आपकी गर्दन, कंधे, पैर खासे मजबूत होते हैं. पावर स्नैच से आपकी लोअर बैक मजबूत होती है. ये जिम में सबसे अच्छी और सबसे मुश्किल एक्सरसाइज है. अगर मुझे जिम में कोई एक एक्सरसाइज करने को कहे तो मैं पावर स्नैच के 3 सेट करूंगा."

वेज कबाब की बढती मांग

उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा मीट पर लगे प्रतिबंध के बाद होटलों में शाकाहारी कबाब की मांग बढती जा रही है. ऐसे में वेज कबाब को लेकर प्रचार प्रसार भी तेज हो गया है. बेज कबाब के बनाने में सोया बड़ी का सबसे बड़ा योगदान होता है.

ऐसे में लखनऊ की मशहूर शेफ पंकज भदौरिया ने न्यूट्रीला कबाब फेस्टिवल का आयोजन अपने हजरतगंज स्थित पंकज भदौरिया कलनरी एकेडमी में किया. इसमें पंकज भदौरिया ने न्यूट्रीला से तैयार सोया बोटी कबाब, सोया शामी कबाब और सोया सीक कबाब को बना कर दिखाया.

शाकाहारी लोगों को सबसे अधिक प्रोटीन सोया के द्वारा ही मिलता है. ऐसे में वह अपने खाने में सोया को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में शामिल कर शरीर को मजबूत कर सकते हैं.

पंकज भदौरिया जानी मानी शेफ हैं. वह कहती हैं सोया के द्वारा शरीर को सबसे अधिक प्रोटीन मिलता है. जब हम वेज कबाब की बात करते हैं तो सोया को उपयोग बेहद जरूरी हो जाता है. इसके जरीये हम वेज अवधी कबाब को तैयार कर लेते हैं. यह शरीर को मजबूती भी देने का काम करता है. सोया प्रोटीन को एनिमल प्रोटीन के विकल्प के तौर पर प्रयोग किया जाता है. सोया प्रोटीन सेचुरेटेड फैटस और कैलोस्ट्राल का भी विकल्प है. यह सबसे अच्छा शाकाहारी प्रोटीन होता है.

रूचि सोया के सीओओ सत्येन्द्र अग्रवाल ने कहा सोया को अलग अलग रूप में पेश करने का काम हमने किया है. जिससे किसी भी तरह के व्यंजन के रूप में इसका प्रयोग आसानी से किया जा सके और लोग इसका सेवन कर सके. लखनऊ कबाब के लिये मशहूर है. ऐसे में न्यूट्रीला सोया के प्रयोग यहा के कबाब बना कर दिखाये गये.

वेज कबाब का स्वाद ले रहे लोगों ने बताया कि कबाब के शौकीन लोग अब वेज कबाब को खा कर आनंद लेंगे. मीट को लेकर जिस तरह से बातें सामने आ रही है उससे तो यही लगता है कि मीट कबाब की जगह पर सोया से तैयार वेज कबाब का ही मजा लिया जा सके.

कैसे बदलें अपने गूगल सर्च पेज का बैकग्राउंड?

आप हर रोज कम्प्यूटर पर काम करते हैं और गूगल में सर्च करते समय रोज रोज एक ही जैसा बैकग्राउंड देखने में बोरियत होने लगती है इसलिए अगर आप चाहें तो अपने गूगल क्रोम के बैकग्राउंड को बदल सकते हैं.

ये उतना ही आसान है जितना कि आपके कम्प्यूटर डैस्कटोप का वॉलपेपर या बैकग्राउण्ड इमेज बदलना. गूगल क्रोम बैकग्राउंड को बदलने के लिए सबसे पहले…

गूगल क्रोम के टूल ऑप्‍शन में जाएं और एक्‍सटेंशन ऑपशन पर क्लिक करें, क्रोम एक्‍टेंशन में जाकर सेटिंग ऑप्‍शन चूज करें.

सेटिंग ऑप्‍शन में जाकर यहां सेटिंग पेज में आपके सामने, आपको दो ऑप्‍शन मिलेंगे

1. पहला अगर आप अपने डेस्‍कटॉप से कोई फोटो बैकग्राउंड में लगाना चाहते है तो उसे अपलोड कर दें

2. या फिर फिर गूगल सर्च की मदद से अपनी पसंद की फोटो सर्च करके सलेक्‍ट कर लें.

फोटो सलेक्‍ट करने के बाद आप चाहें तो इमेज की पोजीशन भी बदल सकते हैं जैसे उसे सेंटर में रखेंगे या फिर साइड में, सारी सेटिंग करने के बाद थीम को सेव कर दें.

जीनत अमान बनीं गायिका

भेड़चल के लिए मशहूर बॉलीवुड में इन दिनों हर कलाकार अभिनय के साथ साथ संगीत के क्षेत्र में भी कदम रख रहा है. जिसे देखो वही गायक बन रहा है. प्रियंका चोपड़ा, श्रद्धा कपूर, सोनाक्षी सिन्हा, परिणीति चोपड़ा, आयुष्मान खुराना, फरहान अख्तर यह सभी अभिनय के अलावा संगीत के क्षेत्र में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. तो फिर अपने जमाने की मशहूर अदाकारा जीनत अमान कैसे पीछे रह जाएं? वह भी अब गायक बन गई हैं.

जीनत अमान ने हाल ही में संगीतकार निखिल कामथ के निर्देशन में वेब सीरीज ‘‘लव लाइफ एंड स्क्रूअप’’ के लिए एक गाना अपनी आवाज में रिकॉर्ड किया है. यह एक फुटटैपिंग रेट्रो नंबर है, जिसके बोल हैं- ‘‘ये है जोआना..’’. इसे विमल कश्यप ने लिखा है.

जीनत अमान कहती हैं, ‘‘मैंने खुद इस गाने को अपनी आवाज में रिकॉर्ड करने के लिए निखिल से कहा. जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. वैसे मैं इस वेब सीरीज में अभिनय भी कर रही हूं’’.

नदी की सियासत पर तारीफों के पुल

उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मध्यप्रदेश के मंडला जिले के शहपुर कस्बे में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की चर्चित नमामि देवी नर्मदे यात्रा की तारीफ में जो कसीदे गढ़े उन्हें सुन लोगों का दिल भर आया कि लो हमारे यशस्वी सी एम इतने होनहार और विद्वान हैं और एक हम मूढ़ हैं कि सूबे की कानून व्यवस्था को कोसते रहते हैं.

अब जब सारी समस्याएं मां नर्मदा की पूजा, अर्चना, वंदना और आराधना से ही हल होना है तो बेकार के गिले शिकवे क्यों यह तो अधार्मिकता है. इससे बचना चाहिए और अब तो योगी जी तक कह रहे हैं कि शिवराज ने जो इतिहास गढ़ा वह बेमिसाल है अब यू पी में गंगा का उद्धार भी इसी तरह किया जाएगा. इस सेवा यात्रा की तारीफ करने विभिन्न क्षेत्रों की दर्जनों हस्तियां मध्य प्रदेश बुलाई जा चुकी हैं पर आदित्यनाथ की बात अलग हटकर थी वे जिज्ञासा का विषय हैं जिनकी मांग इन दिनों पीएम नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा है इसलिए उनके लिए खासतौर से भीड़ इकट्ठा की गई थी.

योगी तारीफ ही करेंगे इसका अंदाजा हर किसी को था पर हद से ज्यादा करेंगे यह कम ही लोगों ने सोचा था. नर्मदा किनारे तारीफों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है अपनी तारीफ सुनने शिवराज सिंह जनता का करोड़ों रुपया फूंक चुके हैं फिर भी उनका जी नहीं भर रहा है तो लग ऐसा रहा है कि जब तक खुद नर्मदा मैया मानव अवतार में प्रकट होकर अपने इस पुत्र को चिर काल तक राज करने का आशीर्वाद नहीं दे देंगी वे मानेंगे भी नहीं. यह और बात है कि आजकल ऐसे चमत्कार होते नहीं अब शिवराज की भक्ति और आस्था यह भी कर डाले तो किसी को खास हैरानी भी नहीं होगी.

आदित्यनाथ योगी हैं, वे बेहतर समझते हैं कि धर्म और पंडे पुजारियों का धंधा नदी पहाड़ के इस खेल से ही फलता फूलता है इसलिए शिवराज ठीक कर रहे हैं और भाजपा की सवर्णों और दलितों को एक साथ साधने की राजनीति के लिए यह जरूरी भी है कि अम्बेडकर जयंती भी धूम धाम से मनाई जाये और परशुराम जयंती भी जिससे चारों वर्णों के लोग खुश रहें. आधा घंटे शिवराज, नर्मदा और मध्य प्रदेश की कल्याणकारी योजनाओं की आरती के बाद योगी ने यू पी की पूर्ववर्ती सरकार को कोसा कि वह बड़ी निकम्मी और भ्रष्टाचारी थी इसलिए अब जनता ने उन्हें चुना. उन्होंने फिर एक जरूरी काम, नरेंद्र मोदी की तारीफ किया जिसके बगैर इन दिनों कोई भी भाजपा जलसा इन दिनों मान्य नहीं होता.

आदित्यनाथ, शिवराज सिंह से जूनियर हैं इस बात का उन्होंने पूरा ध्यान रखा. खुद को शिवराज का छोटा भाई वे अप्रत्यक्ष बताते रहे पर यू पी को एम पी का बड़ा भाई बताया. भाईचारे और तारीफ पर तारीफ का खेल खत्म हुआ तब जानकारों को समझ आया कि आदित्यनाथ अभी शिवराज के मुकाबले कच्चे खिलाड़ी हैं और भाषण कला में भी पिछड़े हैं. ये कमजोरियां ऐसे ही समारोहों से दूर होंगी. महकौशल इलाके में हास परिहास इस बात पर भी हुआ कि यह तो भाजपा के कांग्रेसी करण की शुरुआत है अगर ये दोनों भाई वाकई एक हो गए तो पार्टी के कई दादाओं की मुश्किल हो जाएगी.

अब इस सेवा यात्रा के समापन के लिए 15 मई को नरेंद्र मोदी का आना बांकी है जो योगी की हर गतिविधि पर बेहद बारीक नजर रखे हुये हैं क्योंकि यू पी में वोट उनके नाम पर मिला है, आदित्यनाथ के नाम पर नहीं. उलट इसके एम पी वोट शिवराज के नाम पर डलते हैं और उन्हीं के नाम पर डलते रहें नमामि देवी नर्मदे इसी मुहिम का नतीजा है. एम पी के संक्षिप्त प्रवास से योगी आदित्यनाथ को यह मंत्र जरूर मिल गया है कि कुर्सी पर जमे रहने प्रोपोगेंडा जरूरी है फिर चाहे वे गंगा के नाम पर हो या गाय के नाम पर जिनका मकसद लोगों को उलझाए रखना होता है. अब देखना दिलचस्प होगा कि वे धर्म का कौन सा तत्व चुनते हैं.

बीमा पॉलिसी के प्रीमियम लैप्स से बचिए

अक्सर देखा गया है कि जीवन बीमा का प्रीमियम भरने के लिए लोग एजेंट का सहारा लेते हैं. एक एजेंट के पास कई लोगों के प्रीमियम भुगतान की डिटेल होती है. मान लीजिए कि किसी कारणवश आपका एजेंट प्रीमियम भुगतान की तारीख भूल जाता है तो आप की सारी मेहनत पर एक बार में ही पानी फिर सकता है.

बीमा कंपनिया देती हैं विकल्प

जीवन बीमा के प्रीमियम का भुगतान साल में केवल एक बार ही करना होता है. वार्षिक भुगतान में एक बात का डर हमेशा बना रहता है कि कहीं पॉलिसी लैप्स ना हो जाए. इस समस्या से पार पाने के लिए लाइफ इंश्योरेंश कंपनी अपने ग्राहकों को प्रीमियम का समय पर भुगतान करने के लिए कई विकल्प देती है.

इन विकल्पों में से कोई भी एक विकल्प अपनाकर आप अपनी पॉलिसी का भुगतान समय पर कर सकते हैं.

ऑनलाइन भुगतान

लाइफ इंश्योरेंस के प्रीमियम का भुगतान ऑनलाइन भी किया जा सकता है. इसके लिए आपको बीमा कंपनी की वेबसाइट में लॉगिन करना होगा. वेबसाइट में लॉगिन करने के बाद आप अपने प्रीमियम की डिटेल देख सकते हैं साथ ही अगले प्रीमियम भुगतान की तारीख के बारे में भी जान सकते हैं. इसी में आपको पेमेंट का विकल्प मिलेगा जहां से आप अपने प्रीमियम का भुगतान नेट बैंकिंग, क्रेडिट या फिर डेबिट कार्ड के जरिए कर सकते हैं.

ऑटो डेबिट के जरिए भुगतान

इस सुविधा में आपको दो भुगतान के लिए नेशनल ऑटोमेटेड क्लियरिंग हाउस यानि NACH का इलेक्ट्रॉनिक क्लियरिं सर्विस यानि ECS का विकल्प मिलता है. इसमें रजिस्ट्रेशन के बाद आप बीमा का ऑटो डेबिट के लिए जरूरी निर्देश दे सकते हैं. इस प्रक्रिया में क्रेडिट कार्ड का होना जरूरी है. क्रेडिट कार्ड के जरिए ही ECS NACH रजिस्टर होता है. इस प्रक्रिया में एक बार रजिस्ट्रेशन हो जाने के बाद आपके प्रीमियम का भुगतान अंतिम तारीख से पहले अपने आप हो जाता है.

फोन से भुगतान

बीमा कंपनिया आईवीआर की सुविधा भी देती हैं. आईवीआर यानि इंटरेक्टिव वॉयस रेस्पांस सिस्टम के जरि भी प्रीमियम का भुगतान भी कर सकते हैं. इस भुगतान प्रक्रिया में आपको बीमा कंपनी के दिए गे नंबर पर कॉल करना पड़ता है फिर बताए गए निर्देशों का पालन करते हुए प्रीमियम का भुगतान करना होता है. इस भुगतान विकल्प के लिए क्रेडिट कार्ड होना आवश्यक है.

यह बात भी ध्यान रखें

प्रीमियम का ऑनलाइन भुगतान करने के बाद इस बात का ख्याल रखें कि जो इलेक्ट्रॉनिक रिसीट जेनरेट हो रही है उसे जरूर सेव कर लें ताकि बाद में आपको किसी तरह की परेशानी का सामना ना करना पड़े.

हेमंत बिर्जे की बेटी भी बनी अभिनेत्री

बौलीवुड में स्टार पुत्रों व स्टार पुत्रियों का तेजी से आगमन होता रहता है. मगर कुछ स्टार पुत्र या स्टार पुत्री ऐसी होती हैं, जिन्हें बौलीवुड में आपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती है. ऐसी ही एक स्टार पुत्री हैं – फिल्म ‘‘टार्जन’’ फेम अभिनेता हेमंत बिर्जे की बेटी सोनिया बिर्जे, जो कि खूबसूरत, ग्लैमरस और सैक्सी हैं. वे भी अभिनेत्री बन चुकी हैं, पर उनका संघर्ष अब भी चल रहा है. सोनिया बिर्जे ने एक हिंदी और एक दक्षिण भारत की फिल्म में बतौर हीरोईन अभिनय किया है, मगर दुर्भाग्यवश यह दोंनों ही फिल्में सिनेमा घरों में नहीं पहुंच पायी, परिणामतः सोनिया बिर्जे का फिल्मी करियर उड़ान नहीं भर पाया.

मगर अब वे तमाम सुपर हिट टीवी सीरियलों के लेखक मीर मुनीर लिखित हास्य नाटक ‘‘हलो डार्लिंग’’ में बिंदू दारा सिंह, शीबा, पायल गोगा कपूर और साध रंधावा के संग अभिनय कर रही हैं. इस नाटक का पहला शो सात मई को शाम साढ़े सात बजे मुंबई में बांदरा स्थित ‘‘रंग शारदा ऑडीटोरियम’’ में होगा. इस नाटक में निर्माता व निर्देशक हैं योगेष संघवी. इस नाटक में सोनिया बिर्जे एक ग्लैमरस लड़की के किरदार में हैं.

जब सोनिया बिर्जे से हमारी बात हुई, तो सोनिया बिर्जे ने कहा- ‘‘नाटकों में अभिनय करने से अभिनय में निखार आता है. नाटक में रीटेक की गुंजाइश नहीं होती है. दर्शक नाटक देखते वक्त तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देता है, जिसके आधार पर आप अपने अभिनय में सुधार ला सकते हैं.’’

सोनिया बिर्जे सिर्फ नाटक में ही काम नहीं कर रही हैं. वे बताती हैं- ‘‘मेरी दो फिल्में अभी तक प्रदर्शित नहीं हो पायीं हैं. मगर मैंने एक नई हिंदी फिल्म अनुबंधित की है, जिसकी शूटिंग जून माह में शुरू होने वाली है. मैं तो नारी प्रधान फिल्मों के साथ साथ हर जोनर की फिल्में करना चाहती हूं.’’

प्रतिष्ठा की प्रतीक नहीं शवयात्रा की भीड़

विनोद खन्ना निसंदेह एक खूबसूरत, कामयाब और प्रतिभाशाली अभिनेता थे पर वे बहुत ज्यादा मिलनसार और सामाजिक व्यक्ति नहीं थें. अंतर्मुखी स्वभाव के विनोद खन्ना की शवयात्रा में फिल्म इंडस्ट्री के जूनियर कलाकारों की गैर मौजूदगी चर्चा का विषय रही क्योंकि जब उनकी अंतिम यात्रा निकल रही थी तब कई जूनियर कलाकार अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा की पार्टी में शिरकत कर रहे थें. इस बात पर अभिनेता ऋषि कपूर भड़के तो इससे उजागर सिर्फ एक सच हुआ कि नई पीढ़ी चाहे वह फिल्म इंडस्ट्री की हो या आम मध्यम वर्ग की रोने धोने और अनावश्यक औपचारिकताओं को निभाने में यकीन नहीं करती और इस बाबत उसे विवश भी नहीं किया जा सकता.

अपनी भड़ास में ऋषि कपूर ने यह भी जोड़ा कि उन्हें कंधा देने भी लोग (कलाकार) नहीं आएंगे तो यह अकेले उनके नहीं बल्कि देश भर के बुढ़ाते लोगों की व्यथा है जो शवयात्रा की भीड़ को प्रतिष्ठा, धर्म और सामाजिक शक्ति से जोड़ कर देखते हैं. मुमकिन यह भी है कि ऋषि कपूर की एक चिंता फिल्म इंडस्ट्री की एकता की रही हो जिसका बड़ा पैमाना उसकी सुबह तक चलने वाली पार्टियां और ऐसे शोक के मौके भी रहते हैं जो विनोद खन्ना की शवयात्रा में नहीं दिखे तो वे गुस्सा उठे.

ऋषि कपूर की इस व्यथा को दूसरे नजरिए से देखा जाना भी जरूरी है कि उनके पिता शो मैन राजकपूर पार्टियों के बेहद शौकीन थें और उनकी होली पार्टी में फिल्म इंडस्ट्री के छोटे बड़े सभी कलाकार शामिल होने को अपना सौभाग्य समझते थे. यह वह दौर था जब ऋषि कपूर बच्चे थे और अपने घर जमा भीड़ को ही समाज समझते थे हालांकि यह बात गलत भी नहीं पर अब दुनिया और जमाना कितना बदल गया है यह उन्हें विनोद खन्ना की शवयात्रा से समझ आ गया है लेकिन वे इस बदलाव को पचा नहीं पा रहे हैं तो यह जरूर उनकी ही गलती है.

प्रतिष्ठा का पैमाना

दिक्कत तो यह है कि सुनहरे पर्दे पर आम लोगों के किरदार निभाने वाले कलाकारों को भी यह मालूम नहीं रहता कि इन दिनों समाज का सच क्या है वे तो डायरेक्टर के इशारे पर नाचने वाले पैड आर्टिस्ट रहते हैं जो साउंड, म्यूजिक, एक्शन, री-टेक ओके और पैक अप वाली भाषा के आदी हो जाते हैं. शवयात्रा में भीड़ की तादाद हर वर्ग के लोगों के लिए प्रतिष्ठा की बात हर दौर में रही है. जिसकी अंतिम यात्रा में जितनी ज्यादा भीड़ रहती है उसे ज्यादा लोकप्रिय और इज्जतदार मान लिया जाता है.

70 -80 के दशक तक शवयात्राओं में शामिल होना एक सामाजिक अनिवार्यता हुआ करती थी तब शहरीकरण की शुरुआत हुई थी दूसरे लफ्जों में कहें तो आज जितनी कथित संवेदनहीनता नहीं आई थी. शहर छोटे छोटे थे और लोगों के बीच बिना किसी सोशल मीडिया के एक सतत संपर्क और संवाद बना रहता था जिसे याद कर आज भी ऋषि कपूर की उम्र के लोग अतीत के मोह में खो जाते हैं कि वे भी क्या दिन थे जब किसी भी शवयात्रा में पूरा गांव या शहर उमड़ पड़ता था. हालांकि पूरा सच यह है कि शवयात्राओ में भीड़ मृतक की प्रतिष्ठा, जाति, पद,  व्यवसाय और रईसी बगेरह देख कर ही उमड़ती थी और इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि मृतक के वारिसों की भी उपयोगिता भी देखी जाती थी.

बदलाव ये आए हैं कि अब सिर्फ इन वारिसों की उपयोगिता ही देखी जाती है. हालत यह है कि किसी शहर के पार्षद का पिता भी मरता है तो लोग मुंह लटकाए उसकी शवयात्रा में घुस जाते हैं और उसे अपना लटका मुंह दिखाने की ऐसी कोशिश करते हैं जैसे खुद उनका कोई सगे वाला नहीं रहा हो. यहां यह बात कोई मायने नहीं रखती कि मृतक से उनका कोई वास्ता ही कभी नहीं रही था. फिर विधायक, सांसद या किसी दूसरे अहम राजनैतिक पद पर आसीन व्यक्ति का कोई सगे वाला मरता है तो भीड़ भी उसी तादाद में बढ़ती जाती है. सरकारी अधिकारियों के घर हुई मौतों की शवयात्राओं में भी भीड़ उसके पद के हिसाब से उमड़ती है. उलट इसके व्यापारी वर्ग की हालत थोड़ी अलग है जो अपने व्यापारिक सम्बन्धों को निभाने आम तौर पर छोटे बड़े में कम ही भेदभाव करते हैं.

बढ़ते शहर सिमटती भीड़

अब शहर बड़े होते जा रहे हैं ऐसे में भीड़ हर किसी की शवयात्रा में उल्लेखनीय नहीं रहती तो इस पर समाज और संवेदनाओं को कोसना कतई तुक की बात नहीं बल्कि लोगों की मजबूरियां समझने की है कि एक शवयात्रा में शामिल होने का मतलब है एक कार्य दिवस का नुकसान उठाना, दूसरे घरों में पहले से सदस्य भी नहीं हैं जो शवयात्रा में शामिल होकर सामाजिक शिष्टाचार निभा सकें.

मिसाल भोपाल शहर की लें तो 5 किलोमीटर दूर भी मृतक के घर आने जाने वालों को हजार बार सोचना पड़ता है कि जाएं कि नहीं और जाना जरूरी हो तो घर के इंतजाम कैसे करें. किसी के यहां खुद बीमार मां बाप हैं तो किसी के बच्चों को स्कूल से लाने ले जाने वाला कोई नहीं, किसी की कामकाजी पत्नी दफ्तर में होती है तो किसी को अपने ही दफ्तर या कारोबार के जरूरी कामकाज निबटाना होते हैं. दूसरी दिक्कत श्मशान घाटों का दूर दूर होना भी है जहां आजकल लोग सीधे पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन जिनके पास अपने वाहन नहीं है वे तो घाटों तक पहुंच ही नहीं पाते और टैक्सी या ऑटो रिक्शा करें तो खर्च तीन चार सौ रुपये से कम नहीं बैठता जाहिर है जिसके पास अपना वाहन नहीं होगा वह यह राशि एक शवयात्रा में शामिल होने खर्च नहीं कर सकता.

बी श्रेणी के शहरों की हालत यह हो चली है कि कई लोगों को तो अपने यहां हुई मौत का दुख मनाने से पहले दस लोगों को जुटाना मुश्किल हो जाता है फिर तो और बड़े शहरों की तो बात ही और है. बेंगलुरु की एक सॉफ्टवेयर कंपनी के एक इंजीनियर अर्पित अपने पिता को साथ ले गया था जहां हार्ट अटेक से उनकी मौत हुई तो वह दुख में कम बेबसी पर ज्यादा रोया था.

अर्पित बताता है, पड़ोस के फ्लैट वाले भी नहीं आए जबकि उन्हें मालूम था, कंपनी के सह कर्मियों को फोन किया तो उन्होने कहा पहुंचने में ही 2 घंटे लग जाएंगे तुम डैड की बॉडी लेकर श्मशान घाट पहुंचो हम वहीं मिलेंगे. भारी भरकम भुगतान पर ही सही शांति वाहन अपार्टमेंट के नीचे आकर खड़ा तो हो गया था पर समस्या शव को नीचे ले जाने की थी. मध्य प्रदेश में रह रहे रिश्तेदार तो पहले ही इतने जल्दी बेंगलुरु पहुंचने में स्वभाविक असमर्थता जता चुके थे.  शव की हालत भी ऐसी नहीं थी कि उसे घर भोपाल ले जाया जा सके जैसे तैसे पत्नी और सिक्योर्टी गार्डों की मदद से वह शव श्मशान घाट तक ले गया और 5 सह कर्मियों की सहायता से पिता का विद्धुत शवदाह गृह में अंतिम संस्कार किया. बाद में अर्पित को मालूम हुआ कि आजकल हर बड़े शहर में कुछ एजेंसियां अंतिम संस्कार की जिम्मेदारियां लेने लगी हैं पर उसके साथ जो हुआ उसे वह शायद ही कभी भूल पाये.

धार्मिक आडंबर भी जिम्मेदार

शवयात्रा की भीड़ को प्रतिष्ठा या संवेदनाओं से जोड़ कर देखने वाले ऋषि कपूर जैसे लोगों की मानसिकता दरअसल में धार्मिक पाखंडों में जकड़ी होती है जिसके तहत यह माना जाता है कि शवयात्रा में शामिल होने से पुण्य मिलता है. होता यह है कि पहले रोने धोने के बाद शव के साथ भी इतने कर्मकांड किए जाते हैं कि शवयात्रा में शामिल होने आए लोग बार बार अपनी घड़ी देख दुख में नहीं बल्कि हो रही देरी पर रो पड़ते हैं. हिम्मत वाले यानि व्यावहारिक लोग ही वहां से खिसक लेने की हिम्मत जुटा पाते हैं. चिलचिलाती धूप हो या घुमड़ते बादल हों या फिर कडकड़ाती ठंड हो मृतक के परिजनों को दुख की इस घड़ी में साथ देने आए शुभचिंतकों की परेशानियों से ज्यादा चिंता कर्मकांडों की रहती है.

पहले शव को स्नान कराया जाता है फिर तरह तरह की दूसरी रस्में अदा की जाती हैं यह प्रक्रिया शमशान घाट में भी चलती है आग और दाग देने के पहले मुंडन होते हैं. पंडित तरह तरह के मंत्रोच्चार करता है फिर कहीं जाकर अग्नि दी जाती है जिसके लिए लोग आए होते हैं. ये 4-6 घंटे भूखे प्यासे गुजारना कई लोगों पर इतना भारी पड़ता है कि वे शव यात्राओं मे जाने से कतराने लगते हैं तो इसमें हैरानी की क्या बात.

बात श्मशान घाट में ही खत्म नहीं हो जाती बल्कि वहां से घर लौटने पर खुद नहाना भी एक धार्मिक वाध्यता है. क्यों है इसका तार्किक जबाब किसी के पास नहीं सिवाय इसके कि चूंकि सूतक लगे होते हैं इसलिए नहाया जाता है और तब तक कुछ खाना पीना निषिद्ध होता है. बेवकूफी की यह इंतहा ही है कि जब किसी दूसरे के यहां जाते हैं तो ये बातें लोगों को पाखंड लगती हैं पर खुद करते हैं तो धर्म लगने लगती हैं.

ध्यान रखें

सम्बन्ध निभाने की हर मुमकिन कोशिश हर कोई करता है और करना भी चाहिए खासतौर से दुख की घड़ी में लेकिन इन्हें बहुत बड़े नुकसान की शर्त या परेशानियां ढोते निभाना कतई बुद्धिमानी की बात नहीं. किसी की भी शवयात्रा में जाने से ज्यादा अगर कोई दूसरा जरूरी काम घर, दफ्तर, दुकान या कारोबार में है तो उसे प्राथमिकता से करना चाहिए, मृतक के यहां बाद में कभी भी अपनी सुविधानुसार जाया जा सकता है. जिन धार्मिक पाखंडो को हम दूसरे के यहां होते देख उन्हें कोसते हैं उन्हे अपने यहां होने से रोकने की हिम्मत करें तो यह एक अनुकरणीय पहल होगी. मृत्यु भोज के मामले में ऐसा होने भी लगा है.

मध्यम वर्ग की यह बीमार मानसिकता है कि वह शवयात्रा की भीड़ को प्रतिष्ठा मानता है और हालत यह है कि यह भी ध्यान रखता है कि जो हमारे यहां नहीं आया हम भी उसके यहां नहीं जाएंगे यानि शव यात्रा भी सामाजिक बैर का शिकार हो चली है इससे कम से कम खुद को तो बचाया ही जा सकता है संभव है जो आपके यहां नहीं आया उसकी कोई मजबूरी रही हो. रही बात राजनैतिक और फिल्मी शवयात्राओं की तो वे अपवाद हैं लोग उनमे जुनून और जज्बातों के चलते ज्यादा जाते हैं लेकिन ऋषि कपूर जैसे अभिनेता इस पर भी तिलमिलाने लगे हैं तो जाहिर है वे स्टारडम को लेकर पूर्वाग्रह और कुंठा के शिकार हैं.

बाहुबली 2 : बेहतरीन पटकथा, निर्देशन व अभिनय से सजी फिल्म

फिल्म ‘बाहुबली 2 : कंकल्यूजन’ की वापसी इस सवाल के साथ हुई है कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? इसी के साथ यह सवाल भी है कि राजमाता शिवागामी (रमैया कृष्णन) ने भल्लाल देव (राणा डग्गूबटी) की बजाय अमरेंद्र बाहुबली (प्रभास) को महिस्पति के राज सिंहासन पर बैठाने के निर्णय क्यों बदला?

राज सत्ता का सुख भोगने की लालसा में धर्म व अधर्म की व्याख्या बदलने व राजनीतिक साजिशों, इंसानी छल कपट, स्वार्थपूर्ति के लिए अपने भाई के खून के प्यासे इंसान की कहानी है ‘‘बाहुबली’’. इसे आधुनिक युग में ‘महाभारत’ की व्याख्या भी कह सकते हैं. ‘महाभारत’ में पुत्र मोह से ग्रसित धृष्टराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन की कपट व साजिशों को न समझकर हस्तिनापुर के सर्वनाश का असली कारण बनते हैं. जबकि ‘बाहुबली’ में महिस्पति की राजमाता शिवागामी अपने पति बिज्जल देव तथा अपने बेटे भल्लाल देव के कपट व साजिश को नहीं समझ पाती है और जब उन्हें इस सच का एहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.

फिल्म शुरू होती है गाने के साथ. गाने के साथ ही परदे पर चित्रों के माध्यम से बाहुबली एक की कथा बयां हो जाती है. अब कई दृश्यों से बाहुबली की वीरता के अलावा उनका राजमाता शिवागामी के प्रति प्यार व समर्पण और महिस्पति राजसिंहासन की सुरक्षा का भाव प्रकट होता है. विजयादशमी को अमरेंद्र बाहुबली का राजतिलक होने से पहले प्रजा के सुख दुख को समझने के लिए अमरेंद्र बाहुबली राज माता के आदेश से कटप्पा (सत्यराज) के साथ देश भ्रमण पर निकलते हैं. और कुंतल राज्य की राजकुमारी देवसेना (अनुष्का शेट्टी) की वीरता पर लट्टू हो मामा भांजे आम इंसान की तरह उनके साथ हो जाते हैं. इधर भल्लाल देव के जासूस यह खबर उसे देते हैं तो वह राजमाता से पत्नी के रूप में देवसेना की मांग कर देता है. राजमाता कुंतल राजा के पास प्रस्ताव भेजती है, पर राजकुमारी देवसेना उनके प्रस्ताव को ठुकरा देती हैं.

भल्लाल देव की सलाह पर राजमाता, अमरेंद्र बाहुबली के पास देवसेना को बंदी बनाकर लाने का संदेश भेजती हैं. इधर कुंतल राज्य को शत्रुओं से बचाकर अमरेंद्र, देवसेना के दिल में जगह बना लेते हैं. तभी उन्हें राजमाता का संदेश मिलता है. वह देवसेना को मरते दम तक साथ देने व उनके मान सम्मान की रक्षा का वचन देता है. जब वह महिस्पति राज्य वापस पहुंचते हैं तो राजमाता अमरेंद्र के निर्णय से नाखुश होकर उनकी जगह भल्लाल देव को राजा और उन्हें सेनापति बना देती है. भल्लाल देव का राजतिलक हो जाता है. उसके बाद भल्लाल देव अपनी कुटिल राजनीतिक साजिश चलकर अमरेंद्र को सेनापति और फिर राज्य से बाहर करवा देता है. उसके बाद राजा भल्लाल देव साजिश रचकर अमरेंद्र की हत्या व देवसेना को बंदी बना लेते हैं.

कटप्पा महिस्पति राज सिंहासन से बंधे हुए हैं. कटप्पा के पुर्वजों ने शपथ ली थी कि वह आजीवन महिस्पति के सिंहासन के प्रति वफादार रहेगें. कटप्पा भी उस शपथ से बंधे हुए हैं. महिस्पति राज सिंहासन से बंधे होने के ही कारण कटप्पा को भ्ज्ञी कुछ कदम अनचाहे उठाने पड़ते हैं.

जबकि राजमाता शिवागामी, अमंरेंद्र के बेटे महेंद्र बाहुबली को राजा घोषित कर उसकी जान बचाते हुए मौत में समा जाती हैं. अब 25 साल बाद महेंद्र बाहुबली वापस कटप्पा के मुंह से सच जानकर भल्लाल देव की हत्या कर महिस्पति का राजसिंहासन संभलता है.

इस बार प्रभास की वापसी जबरदस्त हुई है. प्रभास ने अपने दमदार अभिनय से साबित कर दिया कि इस तरह के चुनौतीपूर्ण किरदार के साथ उनके जैसे बिरले कलाकार ही न्याय कर सकते हैं. वह शानदार अभिनेता हैं. इसमें कोई दो राय नहीं. उन्होंने विविधतापूर्ण अभिनय क्षमता का परिचय दिया है, तो वहीं क्रूरता के दृश्यों में भी वह जमे हैं.

देवसेना के किरदार में अनुष्का शेट्टी ने भी बेहतरीन अभिनय किया है. वास्तव में फिल्म का इंटरवल से पहले का भाग तो बाहुबली और देवसेना की प्रेम कहानी के ही इर्द गिर्द घूमता है. भल्लाल देव के किरदार में राणा डग्गूबटी और राजमाता शिवागामी के किरदार में रमैया कृष्णन ने जान डाल दी है. कटप्पा के किरदार के लिए सत्यराज की जितनी तारीफ की जाए, कम है.

जहां तक कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा सवाल का है? तो फिल्मकार एस एस राजामौली ने फिल्म में इस सवाल का जवाब बहुत बेहतर तरीके से दिया है. एस एस राजामौली ने ही फिल्म की पटकथा भी लिखी है, इसलिए एक बेहतरीन पटकथा लिखने के लिए उनकी प्रशंशा की जानी चाहिए.

फिल्म कुछ लंबी हो गयी है. इसे एडीटिंग टेबल पर इंटरवल से पहले कसा जा सकता था. इंटरवल से पहले बाहुबली और देवसेना की प्रेम कहानी बहुत खूबसूरत अंदाज में पात्रों की हैसियत को ध्यान मे रखते हुए रचा गया है. जब इंटरवल के बाद जब कहानी कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा का सवाल ढूढ़ना शुरू करती है, तो रोचक ज्यादा आ जाती है. इसके लिए फिल्म की पटकथा लेखक व निर्देशक एस एस राजामौली बधाई के पात्र हैं.

एस एस राजामौली ने साबित कर दिखाया कि हमारे देश में हमारी संस्कृति में खूबसूरत कहानयों का जखीरा है, यदि हम उन पर काम करके फिल्म बनाएं, तो दर्शकों के दिलों में आसानी से जगह बना सकते हैं. इस फिल्म को देखते समय दर्शकों को ‘महाभारत’ के कुछ पात्र व कुछ घटनाएं याद आ जाए, तो उसमें आश्चर्य वाली कोई बात नही होनी चाहिए. मसलन जिस तरह कौरव यानी कि दुर्योधन के चलते पांडवों की जिंदगी में 12-13 साल गुजरते हैं, उसी तरह से राजा भल्लाल देव की वजह से अमरेंद्र बाहुबली को भी आम प्रजा के साथ उन्ही की तरह रहना पड़ता है.

जहां तक वीएफएक्स व साल गुजरेतयुद्ध के दृश्यों का सवाल है, तो ‘बाहुबली एक’ के मुकाबले ‘बाहुबली 2’ कमतर है. युद्ध रणनीति वगैरह पर इस बार निर्देशक का ध्यान कम रहा है. कुछ युद्ध दृश्य ज्यादा रोचक नहीं बन पाए. फिर भी यह फिल्म साबित करती है कि हम अपने देश में हॉलीवुड से ज्यादा बेहतर काम कर सकते हैं. और उन्हें चुनौती दे सकते हैं. फिल्म का गीत संगीत भी बेहतर है.

भव्यता के स्तर पर कोई कमी नहीं है बल्कि भव्यता के स्तर पर अति श्रेष्ठ फिल्म है. बेहतरीन सेट है. कैमरामैन के सेंथिल कुमार की केमरे की करतब गीरी फिल्म में चार चांद लगाती है. 

दो घंटे 48 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘बाहुबली 2 : द कंकलूजन’ के निर्माता शोबू यारलागद्दा व प्रसाद देवीनेनी, निर्देशक एस एस राजामौली, संगीतकार एम एम कीरवानी, कैमरामैन के के सेंथिल कुमार, कहानीकार के वी राजेंद्र प्रसाद हैं. साथ ही कलाकार हैं प्रभास, राणा डगुबट्टी, अनुष्का शेट्टी, रमैया कृष्णन,तमन्ना भाटिया व अन्य.

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