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तालतलैयों का शहर ‘भोपाल’

अब से कोई 25 साल पहले तक भोपाल घूमने आना पर्यटकों के लिए आखिरी 5 विकल्पों में से एक हुआ करता था लेकिन अब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल शहर घूमने आना शुरुआती 5 प्राथमिकताओं में से एक होने लगा है. इस बदलाव की वजह महज यह नहीं है कि देश के किसी भी हिस्से से रेलमार्ग द्वारा आना यहां सुविधाजनक और सहूलियत वाला काम है, बल्कि यह है कि यहां वाकई पर्यटन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य व विकास हुए हैं जिस का श्रेय राज्य के पर्यटन विकास निगम को भी जाता है.

तालतलैयों वाला भोपाल, झीलों वाला भोपाल, नवाबों वाला भोपाल, बाबुओं वाला भोपाल, जरदापरदा और गरदा वाला भोपाल व गैस त्रासदी वाला भोपाल अब काफी बदल गया है. दूसरे शहरों की तरह भोपाल भी चारों तरफ बढ़ा है. लेकिन अच्छी बात यह है कि यहां ऐसा हरियाली खोने या उजाड़ने की शर्त पर नहीं हुआ है. नए भोपाल की चौड़ी सड़कों के इर्दगिर्द झूमती हरियाली, बागबगीचे और जगहजगह बने पार्क पर्यटकों को एहसास कराते हैं कि क्यों और कैसे भोपाल दूसरे शहरों से भिन्न है.

राजा भोज द्वारा बसाए गए शहर भोपाल का नाम पहले भोजपाल था, फिर अपभ्रंश में इसे भोपाल कहा जाने लगा.  मुगल शासकों का यहां लंबे वक्त तक राज रहा, उस में भी दिलचस्प बात यह है कि अधिकांश वक्त शासन बेगमों ने किया.

आजादी के बाद भोपाल का विकास शुरू हुआ, तब एक नए भोपाल ने आकार लिया. नतीजतन, यह भी 2 हिस्सों में बंट गया. पुराना भोपाल और नया भोपाल.  राजधानी बनने के बाद तो यहां ताबड़तोड़ निर्माण कार्य हुए मगर 70 के दशक में बने न्यू मार्केट ने मानो भोपाल का कायाकल्प कर दिया. न्यू मार्केट न केवल व्यापारिक गतिविधियों का एक बड़ा केंद्र है बल्कि पर्यटकों के लिए शौपिंग का एक अलग अनुभव भी है. दर्जनों तंग और छोटी गलियों से हो कर जब आप बाहर निकलते हैं तो एक भोपाली जज्बा भी आप के साथ होता है. नए और पुराने भोपाल को बांटते न्यू मार्केट की ख्ूबी है कि आप किसी भी तरफ चले जाइए, कोई न कोई पर्यटन स्थल आप का स्वागत कर रहा होगा.

साहित्य और कला में रुचि रखने वालों में से शायद ही कोई भारत भवन के नाम से वाकिफ न होगा. झील के किनारे बसे भारत भवन को कला और संस्कृति प्रेमियों का पसंदीदा अड्डा माना जाता है, जहां हर वक्त कोई न कोई आयोजन हो रहा होता है. यहां शासकीय पुरातत्व संग्रहालय और गांधी भवन भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं. भदभदा रोड पर पर्यटन विकास निगम द्वारा विकसित किया गया पिकनिक स्पौट का सैरसपाटा भी लोगों को अपनी तरफ खीचता है, जहां पार्क, बगीचा, हरियाली और रेस्तरां के अलावा बच्चों के मन बहलाने के तमाम साधन मौजूद हैं.

हवाई अड्डे को शहर से जोड़ती वीआईपी रोड रोज शाम को आबाद होती है तो देररात तक यहां चहलपहल रहती है. हाल ही में तालाब में भोज की विशाल प्रतिमा लगाई गई है. वीआईपी रोड के पुल पर खड़े हो कर तालाब के दूसरी तरफ बोट क्लब के नजारे चाह कर भी लोग नहीं भूल पाते, जहां से तालाब के सीने पर चलती मोटरबोट और क्रूज दिखते हैं. चप्पू वाली नावों या पैडल बोट में बैठ कर नौकायान का लुत्फ भी लोग उठाते नजर आते हैं.

निराली है शान

पुराने भोपाल की भी शान निराली है जहां पर्यटक एशिया की सब से बड़ी मसजिद ताजुल मसाजिद की शान और वास्तु दोनों निहारते हैं. इस के निर्माण में संगमरमर का इफरात से इस्तेमाल हुआ है.  पुराने भोपाल में ही गौथिक शैली में निर्मित शौकत महल भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहता है. ऐतिहासिक महत्त्व की एक और इमारत गौहर महल भी देखने काबिल है.

मछलीघर, और श्यामला हिल्स स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय सहित ये सभी पर्यटन स्थल एक दिन में आसानी से घूमे जा सकते हैं. किराए की टैक्सी से भोपाल घूमने में लगभग 1,200 रुपए का खर्च आता है. पर्यटकों को खानपान के मामले में भी भोपाल सस्ता या किफायत वाला शहर महसूस होता है.

पर्यटन स्थलों पर घूमतेघूमते बीच में कभी न कभी व्यापारिक क्षेत्र एमपी नगर आता है, जहां ठहरने के लिए सुविधाजनक होटल और घूमने के लिए मौल हैं. भोपाल अगर देश का प्रमुख पर्यटन स्थल बना तो इस की एक वजह इस का एजुकेशन हब बन जाना भी है. 100 से भी ज्यादा इंजीनियरिंग कालेज शायद ही देश के किसी एक शहर में हों.

भोपाल शहर के बाहर होशंगाबाद रोड से होते भोजपुर का शंकर मंदिर भी दर्शनीय है, जहां से 20 किलोमीटर दूर भीमबैठका की गुफाएं हैं. इन गुफाओं के भित्ति और  शैलचित्र आदिम युग और मानव इतिहास की जीतीजागती मिसाल हैं.  पुरातत्वविदों और इतिहास- प्रेमियों को भीमबैठका की गुफाएं जरूर देखना चाहिए. भोपाल से 35 किलोमीटर दूर विश्वविख्यात बौद्ध तीर्थस्थल सांची है जिस के स्तूप सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए थे. बुद्ध के उपदेश, जातक कथाएं और उन से जुड़ी कुछ धरोहरें सांची में सलामत हैं. पिछले 5 सालों में भोपाल में फिल्मी कलाकारों का आनाजाना बढ़ा है. अब यहां सालभर किसी न किसी फिल्म या फिर टीवी सीरियल की शूटिंग चलती रहती है.  मध्य प्रदेश सरकार भी फिल्म निर्माताओं को खूब प्रोत्साहन दे रही है.

भोपाली बटुआ

खरीदारी के लिए हस्तनिर्मित जो आइटम देशभर में मशहूर हैं उन में भोपाली बटुआ प्रमुख है. भोपाल सालभर कभी भी आया जा सकता है लेकिन मई-जून में यहां अब तेज गरमी पड़ने लगी है. नवंबर से मार्च तक का मौसम काफी सुहाना रहता है.  रात में मौसम चाहे कोई भी हो, वीआईपी रोड के पास पुराने भोपाल के चौक बाजार की रौनक शबाब पर होती है.  चौक की गलियों में चाट और खानपान का लुत्फ उठाने के साथ कपड़ों व ज्वैलरी की खरीदारी भी की जा सकती है.

चटोरी गली

पुराने भोपाल के सुल्तानिया रोड स्थित चटोरी गली में आप को सभी प्रकार के नौनवेज आइटम की तरहतरह की वैरायटियां मिल जाएंगी जिन के जायके देशभर में मशहूर हैं. अगर कुछ चटपटा खाने का मन हो तो चटोरी गली उस के लिए एक बेहतर जगह है.

 

 

बीमारी और गम

अस्वस्थता के चलते विधानसभा चुनाव प्रचार नहीं कर पाईं कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की इच्छा अब बिस्तर से उठने की हो भी नहीं रही होगी. उन की असल चिंता जाहिर है देश कम, बेटा ज्यादा होगी, जिसे सोशल मीडिया के खिलाडि़यों ने यों व्यक्त किया कि वह न तो बहू ला रहा है और न ही बहुमत.

उत्तर प्रदेश में जो हुआ, उस से राहुल गांधी की भद्द पिटी है जिस से उबरने के लिए दिग्विजय सिंह ने उन्हें कुछ बुनियादी फैसले लेने का मशवरा दिया है. पकी उम्र में दूसरा विवाह कर चुके दिग्विजय सिंह अब साफसाफ तो कह नहीं सकते कि राहुल गांधी को भी अब शादी कर घरगृहस्थी बसा लेनी चाहिए, शायद उस में सफल हो जाएं.

गुरु बिन सत्ता कहां

आम आदमी पार्टी यानी आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल को पंजाब और गोआ के नतीजे देख फिर से एक अदद गुरु की सख्त जरूरत महसूस हो रही होगी. उन्हें दिल्ली की गद्दी कभी अन्ना हजारे के आंदोलन के चलते मिली थी. अब अन्ना आएदिन नरेंद्र मोदी की तारीफ करने लगे हैं यानी गलत नहीं कहा जाता कि काबिल गुरु को भी काबिल चेले की जरूरत होती है.

हालांकि अरविंद केजरीवाल की गांठ से कुछ नहीं गया है पर पंजाब और गोआ को ले कर आप के बारे में जो हल्ला मचा था वह टूटी उम्मीद भी किसी घाटे से कम नहीं कही जा सकती. आप न तो राष्ट्रीय पार्टी बन पाई, न ही केजरीवाल राष्ट्रीय नेता बन पाए, जो आगे चल कर कभी प्रधानमंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त करता. ऐसे में गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित राज्यों पर निगाहें गड़ाए बैठे केजरीवाल को दिल्ली पर ध्यान देते गंभीरता से सोचना चाहिए कि उन के पास जमीनी नेता और संगठन की कमी है जिस के चलते पंजाब व गोआ दोनों हाथ से फिसल गए.

आज मिल कर

चलो आज मिल कर

एक जख्म कुरेदा जाए

और यादों को

बक्से से निकाला जाए

नया कोई रंग फिर

तेरी तसवीर पर डाला जाए

और उस ख्वाब के

माने निकाले जाएं

समय नापने को

सिक्के उछाले जाएं

बहकने दो खुद को

आज न संभाला जाए

तुम्हें पा लेने की जो

हसरतें की थी हम ने

आज उन हसरतों को

प्रेमरस में डुबोया जाए

एक लमहे को फिर से

थामा जाए

एक उम्र को

फिर से बिताया जाए

सांस में सांस मिला कर

जो गीत बने

उन गीतों को मिल के

गुनगुनाया जाए

फिर से उलझाई जाए

माथे की लट तेरी

फिर उंगलियों से

बारबार सुलझाया जाए.

– अमरदीप

दिल मेरा बेकरार

तुम्हारी हया ने, शोखियों ने

हम पर कहर ढाया है

फिर भी तेरी बेरुखी पर

हम को प्यार आया है

जब से मुलाकातों का सिलसिला

जिंदगी में शुरू हुआ था

कदमकदम पर एकदूसरे को

भावनाओं ने छुआ था

मोहब्बत परवान चढ़ने वाली थी

हर सांस ने कसम खाई थी

कुछ भी करगुजरने की

कसम खाई थी

अधर बोलते, उस से पहले ही

नयनों ने सबकुछ बोल दिया था

हर हद तोड़ कर हम ने प्यार किया

तुम से न मिल पाने की वजह से

दिल मेरा बेकरार अब भी है

तुम्हारा इंतजार अब भी है.

– बीना कपूर

दून की रानी, गुच्चुपानी

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून पर्यटन, शिक्षा, स्थापत्य, संस्कृति और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए खासा जानी जाती है जो दिल्ली से 230 किलोमीटर दूर स्थित है. यहां की सुंदरता का तो वैसे ही जवाब नहीं लेकिन इस की सुंदरता में चारचांद लगाते हैं लीची, आम वगैरा के पेड़, जिन्हें देख पर्यटक न सिर्फ देखते ही रह जाते हैं बल्कि इन फलों को चखे बिना आगे बढ़ना पसंद भी नहीं करते. इतना ही नहीं, यहां का पलटन बाजार लोगों की पसंद को हमेशा से ध्यान में रखने के कारण बरबस ही अपनी ओर खींचता है. सिर्फ बाजार ही नहीं बल्कि आधुनिक मौल्स भी शहर को मौडर्न लुक देते हुए प्रतीत होते हैं. इसी शहर में अपार प्राकृतिक सौंदर्य समेटे बसा है गुच्चुपानी.

अगर हम यह कहें कि आप देहरादून घूमने गए और गुच्चुपानी के दीदार नहीं किए तो क्या देखा, कहना गलत नहीं होगा क्योंकि यहां का नजारा मन को रोमांचित जो कर देता है. गुच्चुपानी गुफा जैसी है. ऊंचेऊंचे पहाड़ों के बीच में बहती जलधारा के बीच से जाना काफी रोमांचक लगने के साथसाथ मन में रोमांस भी पैदा करता है. इस में से जाते हुए गुफानुमा एहसास होता है. बहते पानी के दोनों ओर पहाडि़यां हैं जिन्हें पानी में चलते हुए या दूर से देख कर आप को ऐसा एहसास होगा जैसे दोनों पहाडि़यां जुड़ी हुई हैं लेकिन असल में ऐसा नहीं है. ये पहाडि़यां आपस में मिलती नहीं हैं, लेकिन ऐसा पास जाने पर ही पता चलता है. पर्यटक जब उन दोनों पहाडि़यों के बीच में से निकल कर दूसरी ओर जाते हैं तो उन के मन में खुशी की जो लहर दौड़ती है, शायद उसे शब्दों में बयान करना मुश्किल होगा.

सुहाना मौसम

कहने भर के लिए यह सिर्फ एक गुफा है लेकिन नजारा दिल को छू जाने वाला. इस 600 मीटर लंबी गुफा में जैसेजैसे आप आगे बढ़ेंगे, आप को 10 मीटर ऊंचाई से गिरते हुए छोटेछोटे झरने दिखेंगे. जिन का ऊपर से गिरना पानी में अठखेलियां करने को आमंत्रित करता है. सब से खास बात यह है कि इस गुफा में कदम रखते ही आप को बिलकुल भी गंदगी नहीं दिखेगी. पानी इतना साफ, कि देख कर उस में नहाने को मन करे. पानी से गुजरते हुए आप को कंकड़पत्थर भी मिलेंगे, जिन्हें आप यादगार के तौर पर अपने साथ संजो कर भी ला सकते हैं, लेकिन कंकड़ कहीं पैरों में चुभ न जाएं, इसलिए थोड़ी सावधानी बरत कर ही चलना चाहिए.

 ‘बस डरें नहीं, लेकिन संभल कर चलें, आगे अभी तो और हैं खूबसूरत नजारे’, यह उस गुफा से निकलने वाला व्यक्ति अपने पीछे आने वाले  साथियों से कहता चलता है जिन के चेहरे पर डर साफ झलक रहा होता है.

रोमांच का लुत्फ

अकसर यहां आने वाले पर्यटक गुफा में पानी के स्पर्श को महसूस करने के लिए कैपरी या शौर्ट्स वगैरा पहन कर आते हैं या फिर घुटनों तक अपने कपड़ों को ऊपर उठा कर ठंडेठंडे पानी में भीगने का लुत्फ उठाते हैं और अपने मुंह से ‘नैचुरल ब्यूटी टच द हार्ट’ कहते हुए आगे बढ़ते चलते हैं. सब से अच्छा यह है कि जो पर्यटक यहां पहली बार आते हैं और इस तरह के कपड़े पहन कर नहीं आते जिस से पानी के अंदर जाया जा सके, जैसे साड़ी वगैरा तो वे वहां दुकानों से किराए पर कुछ घंटों के लिए कपड़े ले लेते हैं और फिर खुद को डुबो लेते हैं इस रोमांचक माहौल में.

रौबर्स केव

आप को जान कर हैरानी होगी कि इस गुफा को अंगरेजों के समय से रौबर्स केव कहा जाता है. इस का कारण यह है कि उस समय डकैत डाका डालने के बाद छिपने के लिए इस जगह का इस्तेमाल करते थे जो वर्तमान में गुच्चुपानी के नाम से जानी जाती है और उत्तराखंड सरकार के संरक्षण में इस की देखरेख होती है. यहां प्रवेश शुल्क के रूप में सरकार द्वारा 25 रुपए प्रति व्यक्ति शुल्क निर्धारित किया गया है. और हां, अगर आप ने यहां गंदगी फैलाई तो 200 रुपए जुर्माना देने के लिए तैयार रहें. यहां आ कर अकसर टूरिस्ट खानपान की दुकानों पर मोमोज, मैगी, ठंडीठंडी हवा में चाय की चुस्कियां लेना नहीं भूलते. वैसे, यहां खानापीना वही है जो आमतौर पर सभी पहाड़ी स्थानों पर होता है. और अगर आप चाहते हैं कि इतनी दूर आए हैं तो थोड़ी शौपिंग करते चलें तो इस के लिए यहां कोई व्यवस्था नहीं है बल्कि इस के लिए आप को दून मार्केट ही जाना पड़ेगा. इस के लिए आप को टैक्सी, बस वगैरा लेनी पड़ेगी.

आप को यहां पहुंचने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी क्योंकि यह स्थान देहरादून बसस्टैंड से 8 किलोमीटर दूर ही स्थित है. आप बस, ट्रेन, फ्लाइट वगैरा किसी भी माध्यम से देहरादून पहुंच सकते हैं. रेलवेस्टेशन देहरादून और एयरपोर्ट जौली ग्रांट है. देहरादून से गुच्चुपानी पहुंचने के लिए आप को टैक्सी, बस वगैरा बहुत आसानी से मिल जाएंगी. भले ही यह छोटा सा पिकनिक स्पौट हो लेकिन यहां की सुंदरता दिल में संजो कर रखने वाली है.

जीवन की मुसकान

मेरे दोनों बच्चों की हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में यूजीसी की लिखित परीक्षा एक निजी शिक्षण संस्थान में थी. संस्थान में सुबह 9.30 बजे तक पहुंचना जरूरी था. शिमला के जितने भी ‘पेड पार्किंग स्थल थे उन के आगे ‘पार्किंग फुल’ का बोर्ड टंगा था. मैं ने 2 पार्किंग वालों से अनुरोध किया कि वे मेरी गाड़ी को पार्किंग के लिए जगह दे दें. परीक्षा का समय नजदीक था और हमें यह भी पता नहीं था कि परीक्षाकेंद्र कहां है.

पार्किंग वालों का दिल जरा भी नहीं  पसीजा. रास्ते में हम ने 2 ट्रैफिक पुलिस वालों की मदद लेनी चाही परंतु वे भी अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. हम ने भी हिम्मत नहीं हारी, और दोबारा बस स्टैंड पर स्थित पार्किंग वाले को अपनी दास्तान सुनाई. उस पार्किंग वाले ने तय रेट से थोडे़ ज्यादा रुपए ले कर न केवल हमारी समस्या को सुलझाया बल्कि उस ने परीक्षाकेंद्र तक पहुंचने का हमें शौर्टकट रास्ता भी बताया. 9.30 बजने में 9 मिनट शेष थे, हम तेज गति से चलते हुए परीक्षाकेंद्र तक  पहुंचे. आज भी इस घटना को याद करते हैं तो यह खयाल आता है कि भले ही कुछ लोगों की संवेदनाएं मर गई हों, लेकिन इंसानियत अभी भी जिंदा है. 

प्रदीप गुप्ता

*

मनीष गोविल मैमोरियल ट्रस्ट द्वारा संचालित आभा मानव मंदिर, वरिष्ठ नागरिक सेवा सदन, मेरठ में मैं पीआरओ के पद पर कार्यरत हूं. मनीष गोविल का मात्र 29 वर्ष की उम्र में वर्ष 2002 में निधन हो जाने के बाद उन के मातापिता आभा गोविल तथा सुरेश चंद्र गोविल ने उन की याद में इस ट्रस्ट की स्थापना वर्ष 2003 में की. इस समय यहां 20 वृद्ध नागरिक रहते हैं. घटनानुसार, फोन की घंटी बजने पर मैं ने फोन उठाया तब लाइन पर मैडम आभा थीं, बोलीं, ‘‘दीपक, आश्रम के सभी निवासियों तथा स्टाफ का भोजन मेरी ओर से हैं. छोलेभठूरे बनवा लीजिए तथा मिठाई में सफेद रसगुल्ले ले कर मेरे पति पहुंच रहे हैं. टौफियां भी सभी में बंटवा दीजिएगा.’’

मैं ने उत्सुकतावश पूछा, ‘‘मैडम यह सब किस उपलक्ष्य में है?’’ वे कुछ रुक कर रूंधे गले से बोलीं, ‘‘आज मनीष का जन्मदिन है.’’  इतना कह कर उन्होंने फोन रख दिया. धन्य है ऐसी ममतामयी मां. मैं नतमस्तक तथा आश्चर्यचकित फोन को देखता रहा तथा मेरी आंखों से आंसू नहीं रुके. काश जीवन जीने की कला कोई उन से सीखे.     

दीपक शर्मा

खामोश अंत

एफटीआईआई के मुखिया गजेंद्र चौहान का कार्यकाल काफी विवादों से शुरू हुआ था, जबकि खत्म बड़ी ही खामोशी के साथ 4 मार्च को हो गया. एफटीआईआई के छात्रों ने गजेंद्र की चेयरमैनशिप को ले कर लंबी हड़ताल यह कहते हुए की थी कि वे इस पद के काबिल नहीं. सालभर में बस एक बार गजेंद्र एफटीआईआई के परिसर में जा पाए थे. वे बाहर से छात्रों को फुसलाने की कोशिश करते रहे थे. छात्र स्कौलरशिप बढ़ाने तक के झांसे में नहीं आए तो भी गजेंद्र ने इस्तीफा नहीं दिया और विवादों में ही कार्यकाल पूरा कर लिया. अब कई फिल्मी हस्तियों की नजर इस पद पर है. दौड़ में सब से आगे अभिनेता अनुपम खेर हैं जो नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर कर चुके हैं. दूसरे पायदान पर ऋषि कपूर खड़े हैं. देखना दिलचस्प रहेगा कि भाजपा किस की चाटुकारिता को श्रेष्ठ मानती है.

एक और दुखी युवा

सियासी युवाओं के लिए साल की शुरुआत अच्छी नहीं हुई. अखिलेश यादव, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल दुखी हैं. पर उन से पहले दुख का पहाड़ मनसे प्रमुख राज ठाकरे पर टूटा था जब बीएमसी चुनावों में उन की पार्टी को खाता खोलने के भी लाले पड़ गए. चाचा बाल ठाकरे के जमाने में राज ठाकरे शेर सा दहाड़ते थे और मुंबई के राजा नहीं, तो उपराजा तो वे थे ही.

पारिवारिक बैर क्यों अच्छा नहीं होता, यह बात करने की कम, अनुभव करने की ज्यादा है जो उन्हें अब महसूस हो रहा है. शर्म के चलते वे एकदम से उद्धव ठाकरे की शरण में वापस जा भी नहीं सकते जिन्होंने खुद को साबित करने में कामयाबी पा ली. राज उद्धव के पास जाएंगे या नहीं, इस से ज्यादा अहम बात यह है कि उद्धव उन्हें आने देंगे या नहीं.

जब शिवसेना अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी तब उस की राह में कांटे बिछाने वालों में राज ठाकरे प्रमुख थे. साफ दिख रहा है कि राज ठाकरे का राजनीतिक भविष्य अब उद्धव के रहमोकरम पर है. साबित यह भी हो रहा है कि यूपी और बिहार के भइयों को खदेड़ने की धौंस देने की राजनीति का दौर अब लद रहा है.

उत्तर प्रदेश के नतीजे

उत्तर प्रदेश में कभी अपने दम पर सरकार बना सकने वाली मायावती की बहुजन समाज पार्टी इस विधानसभा चुनाव में 22 प्रतिशत वोट पा कर सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई तो इस की वजह वे खुद हैं. मायावती 4 बार मुख्यमंत्री बनीं पर उन का एजेंडा कभी दलितों का विकास नहीं रहा. वे उसी ब्राह्मणवादी सोच में डूबी रहीं जिस की वजह से सदियों से हिंदू गुलाम रहे-मूर्तिपूजा. उन्होंने अंबेडकर, कांशीराम व अपनी मूर्तियां स्थापित कराईं पर यह नहीं सोचा कि इन मूर्तियों से दलितों को कोई लाभ नहीं मिलेगा जैसे कि राम, कृष्ण और शिव की मूर्तियों से कभी हिंदुओं को लाभ नहीं मिला.

यह ठीक है कि अपने देवताओं की मूर्तियां दुनियाभर में बनती रही हैं चाहे वे यूरोप में ईसा मसीह की हों, मिस्र में रेमसे शासकों की हों, बुद्घ की भारत, चीन, जापान में हों या कम्युनिस्ट देशों में लेनिन, मार्क्स और स्टालिन की हों पर यह समझना चाहिए कि उन से समर्थकों को एक जगह एकत्र होने का मौका तो मिलता है पर वे दूसरों से कट जाते हैं.

मायावती को ज्यादा सीटें जीतने के लिए जो 3-4 प्रतिशत वोट और चाहिए थे वे इसलिए नहीं मिल पाए क्योंकि मायावती किसी भी तरह के दलितविकास का मौडल नहीं दिखा सकती थीं. मायावती ने सोच रखा था कि चूंकि उन्होंने अंबेडकर स्मारक बनवा दिए, सो वे वोट पा जाएंगी. जबकि सच यह है कि हर वोट के लिए बेहद जुझारू होना पड़ता है और ऐसा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने किया.

मायावती को अगर दलितों का उद्घार करना है तो उन्हें अब उस मानसिकता को तोड़ने के लिए लड़ना होगा जिस की वजह से दलित ही नहीं, वैश्य, पिछड़े यानी शूद्र और अछूत सदियों मुगलों और अंगरेजों के शासनों में भी निचले स्तर पर बने रहे. मायावती यदि यह खुद नहीं कर सकतीं तो उन्हें राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि वे देशभर में फैले दलितों को अपने मंच पर खड़ा नहीं कर पाईं.

2014 के बाद 2017 में उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में भाजपा की जीतों ने यह साफ कर दिया है कि राजनीति चतुराई, तिकड़मी, लेनदेन, समझौतों से चलती है. 1915 से 1977 तक इसी वजह से कांग्रेस सफल रही और अब वही नरेंद्र मोदी व अमित शाह कर रहे हैं. मायावती को अपने समर्थकों से कहना होगा कि वे अपने बलबूते तब तक समाज में बराबरी की जगह न पा सकेंगे जब तक वे आर्थिक तौर पर मजबूत न होंगे. मायावती को सीटों की राजनीति छोड़ कर दबेकुचलों के विकास का मार्ग अपनाना पड़ेगा.

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