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काटजू शैली

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने मदर टेरेसा को संत की उपाधि देने पर उन्हें अर्धशिक्षित, धोखेबाज और कट्टरपंथी तक कह डाला पर इस पर कोई कांवकांव नहीं हुई. आलोचना की यह काटजू  शैली कोई भेदभाव नहीं करती, इस का यह मतलब नहीं कि वे हमेशा सटीक होती है, बल्कि इस का एक मतलब यह है कि देश में एक बड़ा वर्ग है जो इस तरह के धार्मिक ढकोसलों से इत्तफाक नहीं रखता क्योंकि ये मूलतया धर्म की दुकानदारी बढ़ाने के लिए किए जाते हैं.

वैसे भी हमारे देश में संतमहात्माओं का टोटा नहीं है. ऐसे में क्रिश्चियन ही सही, एक और संत पैदा हो गया तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ना है. मौजूदा ब्रैंडेड संतों के लक्षण तो उन से भी गए बीते हैं जो काटजू ने टेरेसा में गिनाए. धर्मांधों और दानदाताओं को तो खुश होना चाहिए कि एक और नई गुल्लक मार्केट में आ गई.

खाट की हाट

सरकारी खजाने से लैपटौप और स्मार्टफोन बांटना आसान है और अरबों रुपए डकारने वाले विजय माल्या को बाइज्जत विदेश भागने देना भी सरल है. ऐसे में कुछ सौहजार खाटें राहुल गांधी ने बजाय बांटने के लुटवा दीं तो कोई अजूबा नहीं हो गया है. इस बहाने कम से कम शहरी पीढ़ी खाट से परिचित तो हुई.

उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में कौन किस की खाट खड़ी करेगा, यह तो वक्त बताएगा लेकिन मनोरंजन का सिलसिला शुरू हो गया है. खाट कांड तो इस का एक उदाहरण है, अभी तो जानें क्याक्या लुटेगा और बंटेगा. ऐसे मामले सियासी पाखंडों की देन हैं. उत्तर प्रदेश आज भी पिछड़ा है जिस की जड़ में जातिवाद है. जातिवाद बना रहे, यह जरूर सभी राजनेता और दल चाहते हैं. मुमकिन है कोई दूसरा दल खाट लूटने वालों को कंबलतकिया और गद्दे देदे या लुटा दे, जिस से वे खाट पर लेट कर तय कर पाएं कि अपना अमूल्य मत किसे देना है.

मोदी-महबूबा का असफल प्रयोग

कश्मीर समस्या को हल करने के लिए श्रीनगर गई सर्वदलीय कमेटी छोटा मुंह लटका कर लौट आई है. अलगाववादियों ने आजादी के सिवा किसी मुद्दे पर बात करने से इनकार कर दिया और वे भारतीय संविधान के बाहर बात करना चाहते हैं. यह नरेंद्र मोदी और महबूबा मुफ्ती की मिलीजुली सरकार के प्रयोग की असफलता है.

कश्मीर अलग होना चाहता है, पाकिस्तान से मिलना चाहता है, दिल्ली के कठोर नियंत्रण से मुक्त होना चाहता है, सेना हटवाने की इच्छा रखता है, सब बेमतलब की दिखावटी बातें हैं. असल बात यह है कि 1947 से अब तक हम भारतीय, कश्मीरियों को भरोसा न दिला पाए कि उन की प्रगति, विकास व सुरक्षा भारत के हाथों में ज्यादा कामयाब रहेगी. अलगाववादी धर्म के नाम पर कश्मीरियों को आम भारतीयों से अलग रखने में सफल रहे हैं. कोई भी भूखंड तब देश बनता है जब उस के निवासी चाहें कि वे एक नेता, एक कानून, एक झंडे, एक फौज, एक प्रशासन के अंतर्गत ज्यादा सुखी रहेंगे. वह युग गया जब तलवार या तोपों के बल पर देश बनाए जाते थे. पर इस का यह मतलब भी नहीं कि शतप्रतिशत निवासी ही यह चाहें. कुछ ऐतिहासिक कारणों से और कुछ सामाजिक कारणों से देश बनतेबिगड़ते रहे हैं.

1971 में पाकिस्तान को अपना विभाजन उसी तरह झेलना पड़ा जैसा भारत को 1947 में झेलना पड़ा था. हर देश में कुछ लोग अलग होने की मांग को ले कर सरकार से नाराजगी जताएंगे ही पर दूसरों का काम है कि वे ज्यादातर को भरोसा दिलाएं कि वे एक देश में ही अच्छे रहेंगे. 1947 से ही, पहले कांगे्रस ने और फिर भारतीय जनता पार्टी ने देश की जनता से कश्मीरियों को अपनाने को कभी नहीं कहा. कश्मीरी भारत में रह कर अपने को अगर बेगानेपराए समझते रहे हैं तो यह हमारे नेतृत्व की कमी रही है. हम सोचते रहे हैं कि सेना के बल पर आज नहीं तो कल, हम अलगाववादियों की हिम्मत तोड़ देंगे. पर यह 70 साल में हुआ नहीं है. देश भी मनाने से ज्यादा धमकाने में लगा रहा. जिस तरह भारत ने सिखों को मनाया, वह कोशिश कश्मीरियों के साथ हुई हो, लगता नहीं. हमारे देश का ऊंचे वर्णों वाला नेतृत्व उसी तरह कश्मीरियों से व्यवहार करने की कोशिश करता रहा, जैसा वह दलितों व पिछड़ों के साथ सदियों से करता रहा, चाहे इस कारण उस ने 2,000 साल की राजनीतिक गुलामी सही थी. भारत का अति धर्मांध बन जाना भी दोनों के बीच एक दीवार बन गया है. पिछले 70 सालों में वैज्ञानिकता व तार्किकता को नकारा गया है लेकिन उसी की देन तकनीक जरूर अपनाई गई है. इस से कश्मीरियों को धर्म का सहारा मिला है और वे भारत को विधर्मी भी मानने लगे हैं जबकि यहां भी 17 करोड़ मुसमलान हैं. सर्वदलीय कमेटी के पास लंबेचौड़े फार्मूले नहीं थे पर कश्मीरियों से बात तक न हो पाना बेहद अफसोस की बात है.

जीवन आगे बढ़ने का नाम है

यह जरूरी नहीं है कि जिस संबंध में बहुत ज्यादा प्यार, समर्पण और विश्वास है, वह हमेशा बना रहेगा. जीवन में ऐसे निर्णायक क्षण भी आते हैं जब न चाहते हुए, आप को अपने सब से प्यारे रिश्ते को छोड़ कर आगे बढ़ना पड़ जाता है. कारण कुछ भी हो सकते हैं. आप को अपनी नौकरी, दोस्त या जीवनसाथी को छोड़ कर कब आगे बढ़ना है, इस बात का एहसास आप को खुदबखुद हो जाता है.

कभी किसी दोस्त, जिस के साथ आप की गहरी दोस्ती थी, के व्यवहार में आप के प्रति आया बदलाव आप को खटक जाता है और आप की दोस्ती टूट जाती है. इसी तरह से आप जिस से बेशुमार प्यार करती हैं, उस की कही बात या उस के व्यवहार में आप के प्रति नकारे जाने या फिर बेरुखी की भावना आप को उस से दूर कर देती है. इस संबंध में रिलेशनशिप काउंसलर निशा खन्ना का कहना है कि कोई भी संबंध चाहे वह पतिपत्नी का हो या फिर प्रेमीप्रेमिका का, तभी तक निभ पाता है जब तक उस में प्यार और समर्पण की भावना हो. नातेरिश्तेदार और दोस्ती का संबंध भी तभी तक चल पाता है, जब उस में प्यार और विश्वास समाहित होता है. जैसे ही आप को इस बात का एहसास होने लगे कि आप जिस संबंध को जी रही हैं उस में एकरसता और अकेलेन का भाव आता जा रहा है, आप का साथी आप को महत्त्व नहीं दे रहा है, तो अंदर ही अंदर घुटने के बजाय उस संबंध में उस से खुल कर बात करें. बात करने के बाद अगर आप को लगता है कि आप अपने संबंधों को एक और मौका दे सकती हैं, तो जरूर दें. लेकिन आप के संबंधों में एकदूसरे पर दोषारोपण और छोटीछोटी बातों पर तकरार होने लगे, तो यह समझ लें कि अब आप के संबंधों में दूरी आने लगी है और इस का चल पाना मुश्किल है. ऐसे में रोजरोज की कलह के बजाय आगे बढ़ना ही बेहतर विकल्प है.

आप को इस बात का एहसास बड़ी आसानी से हो जाता है कि अब आप जिस संबंध को जी रहे हैं, उस की उम्र खत्म हो रही है और आप को जीवन के नए सफर की शुरुआत करनी है. कुछ ऐसी बातें हैं जो यह जता देती हैं कि आप को अपने जीवन में जो हो रहा है, उसे पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने की जरूरत है.

संबंधों में औपचारिकता

अकसर आप न चाहते हुए भी किसी अनचाहे रिश्ते को सिर्फ इस वजह से निभाती हैं कि अगर संबंध टूटेगा, तो लोग क्या कहेंगे, तो यह बात सही नहीं है. इस से न केवल आप के जीवन से खुशियां रूठ जाती हैं, बल्कि आप के व्यक्तित्व में नकारात्मक भावों का समावेश भी होने लगता है. जैसे ही आप को इस बात का एहसास हो कि अब आप के संबंधों में प्यार नहीं सिर्फ औपचारिकता रह गई है, तो रिश्ते को घसीटने के बजाय उस संबंध को छोड़ आगे बढ़ना ही बेहतर विकल्प है. यह सच है कि किसी भी संबंध को एक झटके में तोड़ना मुश्किल होता है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आप के संबंध इतने ज्यादा खराब हो जाएं कि कभी सामना होने पर आप एकदूसरे को देख कर मुसकरा भी न सकें, तो इस से अच्छा यही है कि आप अपने रिश्ते को एक खूबसूरत मोड़ दे कर आगे बढ़ें.

जब कुछ भी अच्छा न लगे

वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक डा. नितिन शुक्ला के अनुसार, यह जरूरी नहीं है कि आप की परेशानी का कारण हर बार आप के संबंध ही होते हैं. कई बार आप जिस जगह काम कर रहे हैं, बेहतर जीवन के लिए वहां से मूव करने की भी जरूरत होती है. ऐसी स्थिति तब आती है जब सबकुछ बेहतर होने के बावजूद खुशी का एहसास न हो. इस का यह मतलब है कि आप के जीवन में कोई ऐसी चीज है जो आप को खटक रही है. यह स्थिति आपसी संबंधों के अलावा आप जिस जगह पर काम कर रही हैं, वहां का माहौल या फिर वहां के काम करने का तरीका भी हो सकता है, जो आप को रास नहीं आ रहा है. ऐसे में अपनी ऊर्जा को वहां नष्ट करने के बजाय तुरंत वहां से काम छोड़ कर नई जगह पर काम तलाशने की शुरुआत करनी जरूरी होती है. कहीं नौकरी न भी मिल पाए, तो भी वहां से काम छोड़ देना ही उचित है.

प्यार के बदले प्यार न मिलना

आप को इस बात का एहसास होने लगे कि आप तो अपने संबंधों की मजबूती के लिए जीजान से लगी हुई हैं, लेकिन आप को अपने प्यार और समर्पण के बदले थोड़ा सा भी प्यार और सम्मान नहीं मिल रहा है, तो इस का अर्थ यह है कि आप को अपने संबंध को दोबारा से समझने की जरूरत है. सच तो यह है कि कोई भी संबंध तभी सहजता से चल पाता है जब दोनों तरफ से एक बराबर प्रयास किए जाएं. जब आप को अपने प्यार के बदले प्यार न मिले तो मन में खालीपन और नकारे जाने का एहसास पनपने लगता है. इस की वजह से आप के अंदर नकारात्मक भावनाएं आने लगती हैं. इस से बचने के लिए यह जरूरी है कि आप को जिस रिश्ते में भरपूर प्यार व सम्मान न मिल रहा हो, उस से दूर ही रहें.

ऐसी दोस्ती से दूरी भली

आप औफिस का जरूरी काम कर रही हैं या फिर बच्चे को पढ़ा रही हैं, उसी समय आप की सहेली का फोन आ जाता है, जो फोन पर अपनी परेशानियों का पिटारा खोल कर बैठ जाती है. एकदो बार के लिए तो यह ठीक है, लेकिन अगर यह रोज की बात बन जाए, तो हर दिन की उस की समस्याओं को सुलझातेसुलझाते आप को झुंझलाहट होने लगती है. कारण, उस की नकारात्मक बातें आप के पारिवारिक संबंधों और औफिस के काम पर असर डालती हैं. इस स्थिति से बचने के लिए ऐसी सहेली से अपने संबंधों को टाटा बायबाय कह दें.

जहां आप की कद्र न हो

जिंदगी में खुश रहने के लिए जरूरी है कि आप जिन लोगों के संपर्क में जिस भी जगह रहें वहां आप को पूरा मानसम्मान और प्यार मिले. लेकिन आप का रिश्ता कितना ही गहरा क्यों न हो, जैसे ही आप को इस बात का एहसास हो कि उस रिश्ते में आप को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है और आप की भावनाओं व विचारों की कद्र नहीं हो रही है, वहां से हटना ही बेहतर विकल्प है भले ही वह आप की ससुराल हो या मायका.  

रिश्तों का बोझ न ढोएं

जिस जगह पर आप को उस रूप में न स्वीकार किया जाए जैसी आप हैं, वह जगह आप के लिए नहीं है. बेहतर यही होगा कि आप उस जगह से तुरंत हट जाएं.

किसी भी काम को तभी करें जब आप उसे करना चाहती हों और किसी संबंध को तभी निबाहें, जब आप को उस में सहजता महसूस हो. जहां आप को इस बात का एहसास हो कि आप जो काम कर रही हैं, उस काम को करने में खुशी नहीं मिल रही है और जिस रिश्ते को निभा रही हैं, वह आप के लिए बोझ बनता जा रहा है, तो उसे छोड़ने में हिचकें नहीं. डर कर किसी भी संबंध का निर्वाह न करें.

शरीयत के नाम पर फना होती मुसलिम महिलाएं

 तीन तलाक को ले कर भारत की मुसलिम महिलाएं लामबंद हुई हैं. खासतौर पर तालीमयाफ्ता मुसलिम महिलाएं. उत्तराखंड की सायरा बानो, जो समाजशास्त्र की स्नातक है, ने मुसलिम समाज में तलाक और मुसलिम महिलाओं के अधिकार को ले कर अदालत का दरवाजा खटखटाया. सायरा खुद तलाक की आकस्मिक ‘पीडि़त’ है. पिछले साल अक्तूबर में सायरा बहुत ही लंबे समय के बाद अपने मायके गई थी बीमार पिता को देखने के लिए. 15 सालों तक दांपत्य जीवन गुजार चुकी, 2 बच्चों की मां सायरा को मायके में एक दिन अचानक तलाकनामा मिला. हैरानपरेशान सायरा ने शौहर से संपर्क करने की बारबार कोशिश की. पर नाकाम रही. आखिरकार फरवरी में उस ने अपने अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इसी तरह इसी साल 29 जुलाई को इशरत जहां नाम की महिला ने भी तीन बार मौखिक तौर पर तलाक को ले कर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. इशरत ने अपनी याचिका में तीन तलाक की इसलामी प्रथा को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन कहते हुए इसे खत्म करने का अर्ज सुप्रीम कोर्ट में किया.

सुप्रीम कोर्ट ने मुसलिम महिलाओं के अधिकार के सवाल पर कोई फैसला सुनाने के बजाय खुली बहस में जाने का फैसला किया. इसी कड़ी में सुप्रीम कोर्ट ने मुसलिम पर्सनल ला में सुधार के लिए तमाम कानूनी पक्षों को खंगालने का मन बनाया. इसी संदर्भ में औल इंडिया मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड यानी एआईएमपीएलबी से अपना पक्ष रखने को कहा था.

अपना पक्ष रखते हुए एआईएमपीएलबी ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश करते हुए कहा कि समाज सुधार के नाम पर शरीयत कानून को नए सिरे से नहीं बनाया जा सकता है, न ही इस तर्क को तरजीह दी जा सकती है कि शरीयत कानून संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकार के लिए चुनौती है. उलटे, इस से छेड़छाड़ करना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन है.

यहां सवाल यह उठता है कि आखिर मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड तीन तलाक के पक्ष में क्यों है? इस का जवाब बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को दिए गए अपने हलफनामे में कुछ इस तरह से दिया है, ‘‘हर हाल में बोर्ड इस बात के हक में है कि तीन तलाक बहाल रहे.’’

यहां यह जिक्र करना भी लाजिमी होगा कि मुसलिम पर्सनल ला मुसलिम पुरुषों को बहुविवाह की इजाजत देता है. इस बारे में बोर्ड का कहना है कि यह इजाजत मुसलमान पुरुषों को ऐयाशी के लिए नहीं दी जाती है, बल्कि सामाजिक व पारिवारिक जरूरत को पूरा करने के  लिए दी जाती है. यानी साफ है शौहर अपनी बीवी का कत्ल न कर दे, इस से कहीं बेहतर है तीन बार तलाक का चाबुक. कम से कम दोनों जिंदगियां तो रहेंगी. अदालत के फैसले का लंबा इंतजार भी नहीं करना पड़ता है और न ही वक्त की बरबादी होती है. हलफनामे का लब्बोलुआब यह है कि शरीयत कानून को चुनौती नहीं दी जा सकती. शरीयत कानून से छेड़छाड़ करना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन होगा.

तीन तलाक की गाज

मेरठ में हाल ही में 25 साल की एक महिला के साथ उस के पड़ोसी ने अपने कुछ मित्रों के साथ गैंगरेप किया. तन और मन से लहूलुहान हुई महिला ने दुबई में पति से अपने दर्द को बयान किया तो उसे दिलासा देने के बजाय महाशय ने दुबई से एसएमएस के जरिए, ‘तलाक तलाक तलाक’ लिख भेजा. एसएमएस के जरिए तलाक के एक ढूंढि़ए, हजारों मामले सामने आ जाएंगे.

93 हजार महिलाएं एकजुट

एसएमएस, व्हाट्सऐप, स्काइप हो या तीन बार तलाक शब्द का मौखिक उच्चारण — मुसलिम समाज में दांपत्य संबंधों को खत्म करने के इस एकतरफा चलन के खिलाफ हैं लगभग 93 हजार भारतीय मुसलिम महिलाएं. हालांकि मुसलिम महिला संगठन के साझा संगठन भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन (संक्षेप में बीएमएमए) की ओर से प्रधानमंत्री समेत कई मंत्रियों को पत्र लिख कर मुसलिम पर्सनल ला में सुधार किए जाने की मांग की गई है. आजादी के बाद यह पहला मौका है जब भारतीय मुसलिम महिलाएं अपने अधिकार के लिए इतने बड़े पैमाने पर एकजुट हुई हैं.

तलाक और सर्वेक्षण के नतीजे

बीएमएमए की ओर से कराए गए सर्वे में यह बात निकल कर आई है कि देश की 90 प्रतिशत मुसलिम महिलाएं तीन तलाक की लटकती तलवार से मुक्ति चाहती हैं और शरीयत के इस कानून में तलाक के अलावा बहुविवाह, निकाह के समय दिए जाने वाले मेहर और दत्तक कानून जैसे मुद्दों में भी वे सुधार चाहती हैं. इस के अलावा 93 प्रतिशत मुसलिम महिलाएं चाहती हैं कि तलाक से पहले मध्यस्थता अनिवार्य हो. मौखिक तौर पर दिए गए तलाक के आधार पर नोटिस भेजे जाने के लिए 89 प्रतिशत महिलाएं उलेमा, काजी और मौलवियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही के पक्ष में हैं.

सर्वेक्षण के नतीजे कहते हैं कि शहर की तुलना में गांवदेहात की महिलाएं मौखिक तलाक से कहीं अधिक पीडि़त हैं. निम्नवर्ग में आर्थिक रूप से शौहर पर निर्भर रहने वाली महिलाओं के लिए तलाक बड़ी समस्या है.

समय के अनुरूप मुसलिम राष्ट्रों ने अपने शरीयत कानून में सुधार किया है. पड़ोसी देश पाकिस्तान इन में से एक है. केवल पाकिस्तान ही नहीं, बंगलादेश

में भी मौखिक तलाक का कोई मोल नहीं है. इस के अलावा मोरक्को, ट्यूनीशिया, यमन, तुर्की, मालदीव, इराक, इंडोनेशिया, मिस्र, अलजीरिया जैसे बहुत सारे देशों में समय के अनुरूप बदलाव किए गए हैं.

धर्म व राजनीति का गठबंधन

भारत में चूंकि मुसलिम आबादी का इस्तेमाल वोट की राजनीति में एक मोहरे के तौर पर होता रहा है, इसीलिए यह हमेशा से एक विवादित विषय रहा है. राजनीतिक पार्टियों के लिए मुसलिम महिलाओं के बजाय इमाम, मुफ्ती, मौलवी, मदरसा और इफ्तार पार्टी का महत्त्व कहीं अधिक है. इन के आगे महिलाओं की क्या बिसात? मुसलिम महिलाएं अपने पुरुषशासित समाज में केवल इन के हुक्म की गुलाम हैं. धर्म और राजनीति के इस गठबंधन का खमियाजा महिलाओं को अपना बलिदान करके चुकाना पड़ता है. इस की सब से बड़ी मिसाल हैं शाहबानो.

1985 में इंदौर की शाहबानो का मामला चर्चित हुआ था. शाहबानो को उस के वकील पति मोहम्मद अहमद खान ने तलाक दे दिया था. अपने भरणपोषण के लिए अदालत से उस ने गुहार लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के हक में जिस दिन अपना फैसला सुनाया था, उस दिन कठमुल्लों ने मुसलिम पर्सनल कानून का हवाला देते हुए बहुत बवाल मचाया था. कहा गया कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं कर सकता. आखिरकार वोट की राजनीति के चलते शाहबानो के अधिकार की कुरबानी ले ली गई.

राजीव गांधी सरकार ने मुसलिम महिला ( तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 बिल पारित किया, जिस के तहत तलाक के बाद मुसलिम महिलाएं भरणपोषण का दावा नहीं कर सकती हैं. इस से पहले एक मुसलिम तलाकशुदा महिला पुनर्विवाह करने तक अपने पूर्व पति से जीवननिर्वाह के लिए भत्ता प्राप्त करने हेतु धारा 125 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत आवेदन कर सकती थी और भरणपोषण की रकम प्राप्त कर सकती थी. लेकिन इस कानून के पारित होने के बाद यह असंभव हो गया.

जाहिर है 1986 के कानून के बाद मुसलिम महिलाओं के अधिकार को झटका लगा. अब मुसलिम तलाकशुदा महिला इस कानून की धारा 5 के अंतर्गत भरणपोषण के लिए आवेदन कर सकती है, लेकिन वह केवल उन व्यक्तियों से जीवननिर्वाह भत्ता प्राप्त कर सकती है जो उस की मृत्यु के बाद उस की संभावित संपत्ति के वारिस हो सकते हैं या फिर वक्फ बोर्ड से यह भत्ता प्राप्त कर सकती है.

शरीयत द्वारा फना इमराना

तलाक के मामले का जिक्र हो तो इमराना को भला कैसे भूला जा सकता है. 2005 में मुजफ्फरनगर में 5 बच्चों की मां 28 वर्षीय इमराना का उस के 61 वर्षीय ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया. शरीयत मुफ्ती (पंचायत) ने अपना फैसला सुनाया कि इमराना अब अपने पति नूर इलाही के साथ नहीं रह सकती, क्योंकि ससुर के साथ संबंध बन जाने पर नूर इलाही अब उस का पति नहीं रह गया. इसीलिए उस के अन्य बच्चों में नूर इलाही भी एक माना जाएगा. इमराना को अली मोहम्मद की बीवी और नूर इलाही को उस का बेटा घोषित कर दिया गया. मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड ने भी मुफ्ती के इस फैसले को जायज ठहरा दिया. नूर इलाही को इमराना को तलाक देने को मजबूर किया गया. इमराना ने मुफ्ती के फैसले का विरोध किया.

बहरहाल, शरीयत के खिलाफ इमराना ज्यादा समय तक नहीं टिक सकी. अंत में समाज के चौतरफा दबाव में वह तलाक मान लेने को बाध्य हो गई. जो कुसूर उस ने किया नहीं, उस की सजा उस को मिली. हालांकि भारतीय फौजदारी कानून के तहत अली मोहम्मद की गिरफ्तारी हुई. इलाहाबाद अदालत का फैसला आतेआते 8 साल लग गए. इस बीच, बलात्कारी ससुर के बचाव की पूरी कोशिश की गई. अदालत ने उसे 10 हजार रुपए का जुर्माना और 8 हजार रुपए इमराना को हर्जाने के रूप में देने की सजा सुनाई. यह और बात है कि इमराना ने वह रकम स्वीकार नहीं की.

तलाक और शरीयत कानून

शरीयत में तलाक प्रक्रिया लंबी और जटिल है. तलाक की प्रक्रिया तो तभी पूरी मानी जाती है जब संबंधित महिला को 3 मासिक स्राव यानी कम से कम 3 महीने का समय दिया गया हो. इसी के साथ शरीयत एकसाथ 3 बार लगातार तलाक शब्द का उच्चारण कर के दांपत्य संबंध तोड़ने की अनुमित नहीं देती है. कुरआन कहता है हजरत मोहम्मद निकाह के पक्ष में थे, तलाक के नहीं. उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे निकाह करें, लेकिन तलाक न दें, अगर तलाक देना ही है तो इद्दत यानी एक निश्चित अवधि तक का इंतजार करें.

गौरतलब है कि कोई शौहर अगर अपनी बीवी को तलाक देना चाहता है तो उसे मुकम्मल तौर पर 3 महीने के समय तक इंतजार करना होता है. इस अवधि के दौरान एक तरफ आपसी विरोध को सुलझाने की गुंजाइश भी होती है तो दूसरी तरफ इद्दत के समय तक महिला का गर्भवती होना या न होना भी सुनिश्चित हो जाता है. इद्दत तक बीवी का खर्च उठाना शौहर का दायित्व है. पहली बार तलाक शब्द का उच्चारण करने के बाद 3 महीने के इद्दत के दौरान पतिपत्नी एकसाथ रहते हैं. इस बीच, अगर सुलह हो गई तो तलाक नहीं होता है. सुलह न होने पर तलाक हो जाता है.

लेकिन तलाक हो जाने के बाद अगर पतिपत्नी को अपनी गलती का एहसास हो और वे फिर से एकसाथ गृहस्थी चलाना चाहते हैं तो इस स्थिति में बड़ी अड़चन है-हलाला. पत्नी को किसी और पुरुष से निकाह कर के कम से कम 4 महीने बिताने के बाद बाकायदा उस शौहर से तलाक ले कर ही वह फिर से पहले पति से निकाह कर के वापस लौट सकती है. इसी प्रक्रिया को ‘हलाला’ कहते हैं.

हालांकि यह प्रथा दुनिया के बहुत सारे मुसलिम राष्ट्रों में प्रतिबंधित है. हलाला को छोड़ भी दें तो विडंबना यह है कि भारत में तलाक के मामले में शरीयत का हवाला तो जरूर दिया जाता है लेकिन शरीयत में तलाक के लिए बताई गई प्रक्रिया की

अनदेखी ही की जाती है.

अपनी सहूलियत, अपना कानून

सवाल उठता है कि भारत में शरीयत कानून में सरकारी नियंत्रण संभव है? मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड ऐसी किसी संभावना को सिरे से नकार देता है. जमायते हिंद के बंगाल प्रदेश इकाई के मोहम्मद नूरुद्दीन इस में किसी तरह के बदलाव को सिरे से खारिज करते हैं.

मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड का मानना है कि कुरआन और हदीस में एकसाथ 3 बार लगातार तलाक शब्द का उच्चारण करना अपराध है, लेकिन अगर ऐसा कर दिया गया हो तो तलाक पूरा हो जाता है. इस से साफ है कि ऐसे अपराध को मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड मान्यता दे रहा है.

हालांकि 2004 में तलाक समस्या के समाधान के लिए मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड ने आदर्श निकाहनामा तैयार किया. लेकिन तब भी यही कहा गया कि चूंकि निकाह करार में आर्थिक जिम्मेदारी पुरुष की होती है, इसीलिए तलाक का अधिकार भी उसे ही मिलना चाहिए. इस के बाद खानापूर्ति के तौर पर निकाहनामा में एक वाक्य जोड़ दिया गया कि तीन तलाक दरअसल, ‘पाप’ है और सच्चे मुसलमान को इस से बचना चाहिए. फिर भी मौखिक तलाक होते हैं.

साफ है महिलाओं के तमाम अधिकार तय करने के मामले में मुसलिम पर्सनल ला बोर्ड अभिभावक बन बैठा है. जबकि जीवन जीने और आजीविका के मामले में मुसलिम पुरुष इसलाम के निर्देश को दरकिनार कर देते हैं. मसलन, फोटो खिंचना या खिंचवाना इसलाम में हराम माना गया है, लेकिन मतदाता परिचयपत्र से ले कर स्कूलदफ्तर या पासपोर्ट के लिए फोटो खिंचाने में गुरेज नहीं है. इसलाम में ब्याज भी हराम माना गया है, फिर चाहे वह लेना हो या देना. लेकिन बैंकिंग, घर व कार के लिए लोन लेने में यह सब चलता है.

इन मामलों में मुसलिम धर्मगुरु कोई फतवा जारी नहीं करते. यानी इसलाम के निर्देश के बावजूद इन सब को मुसलिम समाज में मान्यता मिल गई है. पहले मौलवी व काजी द्वारा मौखिक रूप से निकाह पढ़ा दिया जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं है. निकाह को पंजीकृत न कराए जाने से जमीन, जायदाद व परिचयपत्र हासिल करने में समस्या पेश आ सकती है, इस वास्तविकता को देखते हुए इस में भी बदलाव आ गया है. निकाहनामा के जरिए बाकायदा ब्याह को पंजीकृत किया जा रहा है. सहूलियत के हिसाब से शरीयत कानून में हेरफेर की और भी बहुत सारी मिसालें हैं. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि अगर मौखिक निकाह का चलन नहीं है तो मौखिक तलाक क्यों?  

भारतीय मुसलिम महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं. तभी तो मुर्शिदाबाद की रुकय्या नारी उन्नयन समिति की खदीजा बानो का कहना है कि अगर मुसलिम राष्ट्रों में शरीयत कानून में सुधार व संशोधन हो सकता है तो भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में क्यों नहीं. बैंक, बीमा या फौजदारी मामले में मुसलमान अगर शरीयत को दरकिनार कर के देश के कानून को मान कर चलते हैं तो तलाक, संपत्ति के उत्तराधिकार और दत्तक कानून के मामले में शरीयत कानून को इतना अधिक तरजीह देना, आखिर क्यों?   

हर कहानी को पहली कहानी समझ कर लिखता हूं: चेतन भगत

‘फाइव पौइंट समवन’, ‘वन नाइट ऐट कौल सैंटर’, ‘टू स्टेट्स’, ‘थ्री मिस्टेक्स इन माई लाइफ’ जैसे बहुचर्चित उपन्यासों से प्रसिद्ध हुए उपन्यासकार, पटकथा लेखक और स्तंभकार चेतन भगत आज सैलिब्रिटी लेखक बन चुके हैं. चेतन शांत स्वभाव के हैं और हमेशा जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं. वे आम लोगों के बीच रह कर कहानियां लिखना पसंद करते हैं ताकि लोग उन से जुड़ सकें. अभी वे एक रिऐलिटी शो भी होस्ट कर रहे हैं, पेश हैं उन से हुई बातचीत के अंश :

आज की जैनरेशन रिश्तों को कितनी अहमियत देती है? आप के हिसाब से रिश्तों को संभालना कितना जरूरी है?

‘रियल 2 स्टेटस कपल्स’ शो में इसी को दिखाने की कोशिश की गई है. इस में रियल कपल्स दिखाए जाएंगे जो शादीशुदा नहीं हैं पर शादी करने वाले हैं. वे एकदूसरे के परिवार को थोड़ा सा ही जानते हैं या नहीं जानते हैं, वे कैसे उन्हें राजी कराते हैं, ये सब दिखाया जाएगा. मैं इस में सूत्रधार हूं और उन के द्वारा की गई गलतियों को सुधारने के लिए चर्चा करता हूं.

मैं ने इस दौरान यह नोटिस किया है कि आज के युवा के लिए यह जरूरी है कि अगर वे शादीशुदा जीवन अच्छा बिताना चाहते हैं तो, लड़का हो या लड़की, परिवार का दिल जीतें. उस के लिए वे कोशिश करने के लिए तैयार भी रहते हैं. रिश्ते आप को ताकत देते हैं, उन्हें संभालना जरूरी है. लेकिन कैसे? इस का आकलन आप को ही करना पड़ता है.

इस तरह का शो करते हुए आप कितना योगदान देते हैं?

मैं अधिक राय कभी भी नहीं देता, क्योंकि जो शो करता है उस के दिमाग में एक खाका पहले से ही तैयार होता है जिसे मैं परदे पर ला रहा हूं.

बदलते समाज ने पतिपत्नी के रिश्तों की परिभाषा को कितना बदला है, क्योंकि आजकल तलाक की संख्या अधिक बढ़ रही है?

आज के युवा अपनी जरूरतों के बारे में काफी सजग हैं. उन्हें जो चाहिए होता है, वे कैसे भी उसे पाना चाहते हैं. ऐसे में वे चाहते हैं कि उन के पार्टनर से भी वही मिले जिस की उन्हें दरकार है और अगर नहीं मिला तो वे रिश्तों को छोड़ देते हैं. समाज आजकल आत्मनिर्भर हो रहा है. महिलाएं और पुरुष दोनों ही सशक्त हो रहे हैं. उन्हें अगर अपने मनमुताबिक सहयोग अपने पार्टनर से नहीं मिलता तो वे उसे बदलने से हिचकिचाते नहीं. तलाक को कलंक या निषेध समझने की सोच धीरेधीरे कम होती जा रही है. मेरे हिसाब से हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि शादी न टूटे, लेकिन यह भी सही है कि जो रिश्ता बोझ लगे, उस से निकल जाना ही बेहतर होता है और आज लोग सोचसमझ कर ही फैसला लेते हैं.

महिला सशक्तीकरण के नाम पर महिलाएं कहीं अधिक पावरफुल तो नहीं हो रही हैं, जिस से समाज को समस्या हो रही है?

यह सही है कि महिलाएं आजकल वित्तीय रूप से सक्षम हो रही हैं लेकिन समाज उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. मेरी जो अगली किताब है, जिस में मैं लड़की बन कर कहानी लिख रहा हूं, वह इसी बारे में है कि हम लड़कियों को कहते हैं कि आप कुछ भी कर सकती हो. फिर जब वह बहुतकुछ बन जाती है तो हम कहते हैं कि वह रोटी क्यों नहीं बनाती. समाज आज लड़कियों को बराबरी का दरजा देने को कहता है पर उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता.

आप अपनी अब तक की यात्रा को कैसे देखते हैं?

मैं खुश हूं कि जहां भी मैं ने कोशिश की है वहां काम मिला. बहुत कम लेखक होते हैं जिन्हें इतनी शोहरत मिलती है. बड़ी संख्या में लोगों ने मेरी किताबों को पढ़ा, फिल्में बनीं और अब टीवी पर भी आ गया हूं. हर माध्यम से मैं लोगों से जुड़ पा रहा हूं. आज भी मैं बहुत मेहनत करता हूं. हर कहानी को अपनी पहली कहानी समझ कर लिखता हूं. कुछ भी लिख दूं, यह नहीं सोचता, हमेशा नया विषय, नई कहानी खोजता हूं.

बौलीवुड में नया क्या कर रहे हैं? आप की किताबों पर आधारित फिल्म बनने पर आप कितना सहयोग देते हैं?

अभी मेरे नौवल ‘हाफ गर्लफैंड’ पर फिल्म बन रही है. मोहित सूरी उस के निर्देशक हैं. बहुत आशाएं हैं. मैं निर्देशक के ऊपर सब छोड़ देता हूं. उन की फिल्म है, इसलिए उन की सोच ही मेरी सोच होती है. कभीकभी कुछ वे पूछ लेते हैं, अगर लगता है तो कुछ राय देता हूं.

बौलीवुड में आजकल फिल्मों की कहानियों का दौर बदल रहा है. अलग तरह की फिल्में भी कामयाब हो रही हैं. इस बारे में आप की राय क्या है?

मेरे जैसे लेखकों के लिए अच्छा दौर है. आजकल केवल ग्लैमर ही नहीं, कंटैंट को भी लोग देखते हैं. कंटैंट की अहमियत बढ़ने से अच्छे लेखकों को अधिक अवसर मिलते हैं, उन की मांग बढ़ती है. फिल्म निर्माताओं को पता चल चुका है कि अगर कंटैंट सही नहीं है, तो कितना भी ग्लैमर डाल दो, फिल्में नहीं चलतीं.

खाली समय में क्या करना पसंद करते हैं?

मेरे जुड़वां 11 साल के बच्चे श्याम और इशान हैं, उन के साथ खेलता हूं, कहीं बाहर जाना पसंद करता हूं. मेरे बच्चे बड़े हो रहे हैं, मैं चाहता हूं जितना समय उन के साथ बिता सकूं, अच्छा रहेगा. मैं और मेरी पत्नी बच्चों को हमेशा धरातल पर रखना पसंद करते हैं.

क्या आप को लगता है कि हिंदी सिनेमा जगत में लेखकों को अच्छा पैसा और मान मिल रहा है? क्या आप को भी अपने काम के हिसाब से मेहनताना मिला?

थोड़ाबहुत मिल रहा है. पहले कहानियां इतनी मौडर्न नहीं होती थीं. अब जो अच्छे लेखक बौलीवुड के हैं उन के पास बहुत काम है. काम इतना अधिक है कि वे कर नहीं पाते. उन की संख्या हालांकि कम ही है, फिर भी ‘पीकू’ की लेखिका जूही चतुर्वेदी आजकल काफी पौपुलर हो चुकी हैं. उन के पास काम की कमी नहीं. मुझे भी ठीक पैसा मिला है. आज से 7 साल पहले जब मैं आया था, तब मुझे कोई नहीं जानता था. आज सब पहचानते हैं. साहित्यकार नहीं बना पर मेरी कहानियां लोगों को छू गई हैं.

सफलता के बाद आप की जिंदगी कितनी बदली है?

जिंदगी में थोड़ा बदलाव तो आया ही है. परिवार के लिए समय नहीं मिलता. कई बार लाइफ का बैलेंस खराब हो जाता है. मेरा काम लोगों तक अपनी सोच को पहुंचाना है, चेहरे को नहीं.

अपनी कहानियों के अलावा किस लेखक को पढ़ना पसंद करते हैं?

मैं बहुत सारे लेखकों को पढ़ता हूं. विक्रम सेठ, अरुंधती राय, अमिताभ घोष, जुम्पा लाहिड़ी आदि सभी नामचीन लेखकलेखिकाओं को पढ़ चुका हूं.      –

सफाई अभियान

सुबह की मीठी नींद के बीच किसी की कर्कश आवाज ने सरोज बाबू को झकझोर दिया. ‘‘कब तक सोते रहोगे? वो देखो, प्रकाश बाबू सुबह से झाड़ू लगाने की प्रैक्टिस कर रहे हैं.’’

हड़बड़ा कर सरोज बाबू उठ बैठे, ‘‘अरे, तुम ने जगाया क्यों नहीं? कितनी देर से लगा रहे हैं वो झाड़ू?’’ एक गुलाटी मार कर पलंग से उतरे और सीधे बाथरूम की तरफ भागे.

‘‘तुम ने तो अलार्म लगाया था न,’’ श्रीमतीजी बोलीं.

‘‘कमबख्त, पता नहीं कब बजा और कब बंद हो गया या मैं ने ही बंद कर दिया होगा नींद में,’’ बड़बड़ाते हुए बाथरूम से निकले. श्रीमतीजी चाय का पानी चढ़ा चुकी थीं तब तक. जल्दी से चाय का प्याला हाथ में ले कर बोले,

‘‘झाड़ू कहां है?’’

‘‘वहीं है जहां रात को रख कर सोऐ थे, बगीचे में, और कहां जाएगी वहां से?’’

रात में ही सारी तैयारी कर के सोए थे सरोज बाबू. आज औफिस में सफाई दिवस मनाया जाने वाला था, औफिस में कई झाड़ुएं खरीदी गई थीं. सभी लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने वाले थे, जिंदगी में कोई तो एक ऐसा दिन आया था जिस दिन बड़े साहब की डांट नहीं पड़ने वाली थी बल्कि लड्डू, नमकीन व समोसे के नाश्ते के साथ शाबाशी भी मिलने वाली थी.

क्या पता बड़े साहब खुश हो जाएं और उन्हें सफाई अभियान का हेड बना दें. ‘देखना, यदि मैं इस सफाई अभियान का हेड बन गया न, तो तुम्हारा घर झाड़ुओं से भर दूंगा,’ कल सरोज बाबू श्रीमतीजी से मजाक में हंस कर बोले थे.

वे भी हंस दी थीं, ‘क्या करूंगी इतनी सारी झाड़ुओं का मैं?’

‘अरे, बांटना पूरे महल्ले में. खुश हो जाएंगे लोग. वो जमाना गया जब साढ़े 3 रुपए में आती थी झाड़ू. अब तो पूरे 70 रुपए में आती है, वह भी एक महीने भी नहीं चलती. मेहमानों को भी देना. हर तीजत्योहार पर विदा में टीके के साथ, एकएक झाड़ू भी दे देना.’

सरोज बाबू अपनी धुन में बोले जा रहे थे. श्रीमतीजी ने उन्हें वापस जमीन पर लाने की कोशिश की, कहीं ऐसा न हो जैसा पिछली बार हुआ था, चौबे जी छब्बे बनने गए थे और दुबे बन कर लौटे थे. प्रश्नात्मक नजरों से सरोज बाबू ने उन्हें घूरा, जैसे पूछ रहे हों क्या हुआ था पिछली बार.

‘अरे वही, जो आप रन फौर भोपाल में दौड़े थे. फ्री मिलने वाली एक टी शर्ट के लालच में सुबहसुबह उठ कर भागे थे. दौड़े तो क्या, थोड़ी दूर जा कर ही जा गिरे कि ढेर सारी चोटें खा कर सीधे डाक्टर के पास जा पहुंचे थे. 2 सौ रुपए की टी शर्ट के बदले 2 हजार रुपए का चूना लगा था.’ खिसियाए से सरोज बाबू बोले, ‘वह तो किसी ने धक्का दे दिया था मुझे वरना मैं कभी नहीं गिरता.’

 

कल की बात, कल ही हंसीमजाक में टल गई थी. अभी तो कमर में लुंगी बांधे सरोज बाबू बगीचे में झाड़ू दे रहे थे. जो काम कभी किया नहीं, आज कैसे सही होता. बारबार लड़खड़ा जाते थे. पैर फंसफंस जाता था. लुंगी संभालें कि झाड़ू, समझ में ही नहीं आ रहा था. पता नहीं महिलाएं साड़ी पहन कर झाड़ू कैसे लगा लेती हैं? तभी बेटे ने समझाया, ‘‘पापा, आप पेड़ों के भीतर क्यों जा रहे हो? आप को तो सड़क पर देनी है न झाड़ू, तो सड़क पर प्रैक्टिस करिए न.’’

शर्म के मारे बाहर कैसे जाएं, यही सोच रहे थे कि देखा बगल के घर से प्रकाश बाबू से भी उन की बिटिया बोल रही थी किधर डोले जा रहे हो? अभी मम्मी आ कर बहुत गुस्सा करने वाली हैं आप पर. प्रकाश बाबू से ऐसे ही कुछ बन नहीं रहा था, ऊपर से मम्मी की धमकी मिली तो झाड़ू पटक कर अंदर चल दिए. इधर, हाथ झाड़ और कमर सीधी कर के सरोज बाबू भी अंदर आ गए.

‘‘हो गई सफाई?’’ श्रीमतीजी ने ताना मारा.

‘‘हो गई, हो गई. और क्या पड़ोस में जा कर भी करूं?’’ भुन्नाते हुए बोले, ‘‘मैं नहाने जा रहा हूं.’’

‘‘अरे, नहा क्यों रहे हो? अभी तो फिर से गंदा होना है न आप को. एकसाथ शाम को ही नहा लेना, पानी भी बचेगा.’’ तिरछी नजर से बीवी को घूरते हुए सरोज बाबू तैयार होने चल दिए. औफिस के लिए घर से निकलने को ही थे कि श्रीमतीजी एक बार फिर से सिर पर आ कर खड़ी हो गईं, ‘‘सुनिए, आज आप सरकार को हमारी भी एक अर्जी दे देना. हमारा भी एक सुझाव दे देना.’’

‘‘अर्जी? कैसी अर्जी?’’

‘‘सरकार आप लोगों से जिस तरह सड़कों की सफाई करा रही है, हमारे घरों की भी करा दे. कुछ फिनाइल, साबुन भी दिला दे. किचन की हो जाए तो और अच्छा. बरतन धोने की टिकिया मिल जाएगी इसी बहाने हम को.’’

बेटा भी बगल से झांक कर बोला, ‘‘मेरे लिए भी कुछ बोलना न पापा सरकार से. वह हमारी कालोनी के प्लेग्राउंड की सफाई भी करा दे. इतना कचरा पड़ा रहता है वहां कि खेलना मुश्किल हो जाता है. और शाम को तो कई लोग वहां बैठ कर शराब वगैरा पीते हैं, टूटीफूटी बोतलें वहीं छोड़ जाते हैं. इस से कई बार हम में से ही कई बच्चों के पैर में कांच गड़ चुका है. आएदिन घायल होते रहते हैं हम.’’

बिटिया भी शामिल हो गई. बोली, ‘‘पापा, सरकार तो सब की है न. सफाई अभियान में सिर्फ सड़कों की सफाई ही क्यों कराती है? स्कूलों की भी कराए, कालेज की भी कराए. हम बच्चों को भी जोड़े इस में.’’ तभी पीछे से माताजी की भी आवाज आई, वे भी छड़ी टेकती चली आईं, उन्हीं की कमी थी, बस. कल से सारा तामझाम देख रही थीं.

अब उन से भी रहा नहीं गया. वे भी आगे आईं, ‘‘बेटा, मेरी भी कुछ सुन लो.’’

सरोज बाबू मां के चरणों में झुक गए. ‘‘मां, आप कुछ मत कहो. मैं समझ गया आप क्या कहना चाहती हो. मैं आप की फरमाइश भी पहुंचा दूंगा सरकार तक.’’

‘‘पर मेरे लाल, तू ने मेरे बोले बिना समझ कैसे लिया, यह तो बता?’’

‘‘सीधी सी बात है मां, सरकार सड़कों पर घूमघूम कर वोट मांगती है तो उस ने सड़कों की सफाई का जिम्मा उठाया. श्रीमतीजी किचन और घर देखती हैं तो उन्हें किचन और घर की सफाई याद आई. गोलू को महल्ले का प्लेग्राउंड याद आया तो बिटिया रानी को अपना कालेज. अब निश्चित ही आप को अपने मंदिर की याद आई होगी जहां चारों तरफ ढेरों फूल और नारियल के जटाजूट पड़े रहते हैं पर साफसफाई की तरफ किसी का ध्यान नहीं. तो मां, मैं सरकार से तो नहीं, पर स्वयं से वादा करता हूं कि आज से जहां भी जाऊंगा, सब से यही बोलूंगा कि सफाई भले ही करो न करो लेकिन कम से कम कचरा मत डालो. सफाई का मौका तो तब आएगा न, जब हम गंदा करेंगे और जब हम घर को, बगीचे को प्लेग्राउंड को, स्कूलकालेज को और मंदिरों को गंदा ही नहीं होने देंगे तो सफाई तो अपनेआप होगी न.’’

सब लोग आश्चर्यचकित रह गए जब ताली की आवाज बगल वाले घर से आई. प्रकाश बाबू और उन की धर्मपत्नी ताली बजा कर सरोज बाबू की बात का समर्थन कर रहे थे. मां ने भी प्यार से सरोज बाबू के सिर पर हाथ फेर दिया. सब एकसाथ मिल कर जोर से बोले, ‘‘आज के बाद हम किसी भी जगह की सफाई नहीं करेंगे, हम सिर्फ किसी भी जगह को गंदा होने से बचाएंगे.’’    

सफर अनजाना

यह वाकेआ उस समय का है जब मेरा छोटा पुत्र, आईआईटी खड़गपुर के द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत था. वह अपनी छुट्टियां बिता कर वापस खड़गपुर के लिए निकला. उस समय गुर्जर आंदोलन का राजस्थान में जोर था तथा सारे मार्गों को उन्होंने रोक रखा था. दिल्ली हो कर खड़गपुर जाना तय हुआ. दिल्ली से सुबह 7 बजे की गाड़ी थी. सो, हम ने रात 10 बजे की बस से उस के लिए रिजर्वेशन करा लिया. जयपुर से दिल्ली का रास्ता 5 घंटे का है. मुश्किल का दौर यहीं से शुरू हो गया जब रेलमार्ग अवरोध होने की वजह से बसें देरी से चल रही थीं.

10 बजे की बस रात 12 बजे आई तथा बेटे की सीट पर पहले से कोई बैठा था और उस के पास भी उसी नंबर का टिकट था. उसे तो वैसे ही देर हो रही थी, सो, जैसेतैसे कंडक्टर की सीट पर बैठा और बस रवाना हुई. आधे रास्ते पर पता चला कि गुर्जरों ने आगे रास्ता जाम कर रखा है. वहां 3 बसें पहले से खड़ी थीं. सभी बस ड्राइवरों ने निर्णय लिया कि दूसरे रास्ते से बस निकाल ले जाएंगे. जैसेतैसे बस सुबह 6 बजे दिल्ली पहुंची. आटो पकड़ कर वह स्टेशन पहुंचा तो पता चला कोहरे की वजह से गाड़ी 8 घंटे लेट है. कोई चारा न देख कर वह अपनी बूआ के घर चला गया तथा दोबारा पता करने पर बताया गया कि गाड़ी 14 घंटे लेट है. आखिरकार, रात 9 बजे गाड़ी दिल्ली से रवाना हुई मगर मुसीबत का दौर अभी खत्म नहीं हुआ था. आगे गाड़ी 2 घंटे और लेट हो गई और करीब 8 बजे टाटानगर पहुंची.

अब पता चला कि नक्सली हमलों की वजह से रात 8 बजे के बाद वहां से कोई भी गाड़ी रवाना नहीं होती तथा सुबह 6 बजे दिन निकलने पर ही गाड़ी रवाना होगी. खड़गपुर वहां से सिर्फ 2 घंटे की दूरी पर है. सारी रात खड़ी ट्रेन में गुजार कर अगले दिन 9 बजे वह अपने होस्टल पहुंचा. मोबाइल फोन की वजह से हमें भी पलपल की खबर लगती रही और इस तरह हम ने भी उस के साथ कभी न भूलने वाला सफर तय किया.

अंजू भाटिया, जयपुर (राज.)

*

मैं अपने परिवार बेटेबहूबच्चे के साथ लंबी दूरी की ट्रेन में यात्रा कर रहा था. एसी क्लास का कन्फर्म टिकट था. जब हम ट्रेन में अपनी सीट पर पहुंचे तो वहां अन्य परिवार को बैठा हुआ पाया. हम ने अपनी सीट मांगी तो वे बोले, ‘‘हम न तो सीट खाली करेंगे न ही सामान रखने देंगे.’’ इतने में ही टिकट चैकर आ गए. उन के कहने पर वे अपनी सीटों पर जाने के लिए उठे. और हम को सीटें मिल गईं.

सरन बिहारी माथुर, दुर्गापुर (प.बं.)

अन्ना का दर्द

वैसे तो हमेशा ही दुखी रहते हैं लेकिन दिल्ली के एक मंत्री संदीप कुमार का सैक्स वीडियो वायरल हो जाने के बाद अन्ना हजारे कुछ ज्यादा ही दुखी हो रहे हैं. मानो, जवान लड़की ने घर से भाग कर नाक कटा दी हो और इस मामले के जिम्मेदार अरविंद केजरीवाल हैं जिन्होंने मंत्रियों के चरित्र के बारे में ज्यादा छानबीन नहीं की थी. हालांकि अन्ना के भड़कने के पहले ही केजरीवाल सफाई दे चुके थे कि अब चरित्र प्रमाणपत्र किसी के माथे पर तो लगा नहीं रहता.

इस महान दुख से व्यथित अन्ना हजारे फिर कोई आंदोलन करने की सोच रहे हों तो हैरानी नहीं होनी चाहिए, बल्कि खुश होना चाहिए क्योंकि वाकई देश को फौरी तौर पर एक बड़े आंदोलन की सख्त जरूरत है क्योंकि देश के युवा फेसबुकफेसबुक और व्हाट्सऐपव्हाट्सऐप खेलते बोर हो चले हैं.

किराए की कोख में सरकारी घुसपैठ

मेघा और शशांक को वैवाहिक बंधन में बंधे 3 साल हो चुके थे. चूंकि कैरियर में सैटल होने के चलते दोनों का विवाह देर से हुआ था इसलिए दोनों चाहते थे कि जल्द ही दोनों की जिंदगी में एक हंसतेखिलखिलाते स्वस्थ शिशु का आगमन हो जो उन के जीवन को संपूर्णता दे सके. काफी प्रयासों के बाद भी जब मेघा गर्भवती नहीं हुई तो दोनों ने डाक्टरी जांच कराई जहां पता चला कि मेघा के गर्भाशय में संक्रमण है जिस के चलते वह कभी मां नहीं बन पाएगी. यह सुन कर मेघा व शशांक के मातापिता बनने के सपने पर मानो पानी फिर गया.

वे पूरी तरह निराश हो गए थे. तभी उन के एक दोस्त ने उन्हें बच्चे का सुख पाने के लिए सरोगेसी की सहायता लेने की सलाह दी. लेकिन मेघा और शशांक को शक था कि क्या सरोगेसी के जरिए जन्म लेने वाला बच्चा बायोलौजिकली उन दोनों का ही होगा या उस में सरोगेट मां का अंश होगा? डाक्टर ने उन्हें बताया कि सरोगेसी में सरोगेट मां की सिर्फ कोख होती है और जन्म लेने वाले बच्चे का डीएनए दंपती का ही होता है. तब जा कर दोनों को तसल्ली हुई और उन्होंने काफी दुरूह प्रक्रिया के बाद सरोगेसी क्लीनिक के जरिए सरोगेट मां यानी किराए की कोख का चुनाव किया.

9 महीने के लंबे इंतजार के बाद आखिर वह दिन आ ही गया कि जब वे अपने बच्चे को गले लगाने वाले थे. नर्सिंग होम के लेबररूम के बाहर बैठे दोनों के लिए एकएक पल काटना मुश्किल हो रहा था. कुछ देर बाद आखिर वह घड़ी आ गई जिस का उन्हें इंतजार था. लेबररूम से बच्चे के रोने की आवाज सुन कर दोनों की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे. जैसे ही नर्स ने बाहर आ कर उस नन्ही सी जान को उन की गोद में दिया, उन्हें लगा मानो उन्होंने दुनियाभर की खुशियां पा ली हों. खुशी के अनमोल क्षण में वे उस सरोगेट मां को बारबार धन्यवाद कर रहे थे जिस ने 9 महीने उन के इस अंश को अपनी कोख में रख कर उन्हें यह खुशी दी थी. आज उन की गोद में जो नन्ही सी जान उन्हें मातापिता बनने की खुशी दे रही थी वह उस सरोगेट मां के प्रयासों की बदौलत संभव हो पाई थी. मेघा और शशांक की तरह सरोगेसी के माध्यम से हर साल हजारों दंपतियों की सूनी गोद भरती है और उन के जीवन में बच्चे की किलकारियां गूंजती हैं.

भ्रांति : सरोगेट मां और बच्चे के होने वाले पिता के बीच शारीरिक संबंध बनने से बच्चे का जन्म होता है और सरोगेट मां से जन्म लेने वाले बच्चे का संबंध होता है. लेकिन सरोगेसी के बारे में आम लोगों की यही धारणा है कि यह सिर्फ एक भ्रांति है और सर्वथा गलत है. सरोगेट एक्सपर्ट्स के मुताबिक, किसी महिला में गर्भधारण की संभावना न के बराबर होने पर सरोगेसी तकनीक अपनाई जाती है. इस में पुरुष के शुक्राणु और महिला के अंडाणु को ले कर इनक्यूबेटर में गर्भ जैसा माहौल दिया जाता है. भ्रूण तैयार होने पर उसे किसी तीसरी महिला में इंजैक्ट कर दिया जाता है और बायोलौजिकली सरोगेट मां से बच्चे का कोई संबंध नहीं होता है.

अगर भारत की बात की जाए तो अकेले भारत का सरोगेसी बाजार सालाना 13,400 करोड़ रुपए से भी ज्यादा का है. भारत में जहां सरोगेसी का खर्च 10 लाख से 31 लाख रुपए है वहीं विदेश में यह खर्च 50-60 लाख रुपए से ज्यादा आता है. यही वजह है कि सरोगेसी के लिए विदेशी भारत का रुख करते हैं. भारत में शहर, अस्पताल व सरोगेसी से जुड़े लोगों की आर्थिक स्थिति के हिसाब से खर्च का आंकड़ा घटताबढ़ता रहता है.

सरोगेसी की प्रक्रिया

आईवीएफ यानी इनविट्रोफर्टिलाइजेशन में कृत्रिम या बाहरी वातावरण में फर्टिलाइजेशन यानी निषेचन होता है. यहां जीव के पलने की शुरुआत होती है. फिर भू्रण को कोख में पालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है. स्त्री के अंडाणु प्राप्त करने के लिए स्त्री को दवाइयां दे कर अंडाशय में अंडाणु तैयार करने की कोशिश की जाती है. इस के बाद सोनोग्राफी द्वारा अंडाणुओं के विकास का निरीक्षण किया जाता है और एनेस्थिसिया दे कर स्त्री के अंडाणु प्राप्त किए जाते हैं और फिर पुरुष से प्राप्त शुक्राणुओं का लैब में मेल कराया जाता है. 2 से 5 दिनों में बने भू्रण को सरोगेट मां के गर्भाशय में दाखिल कराया जाता है.

इन स्थितियों में जरूरत होती है सरोगेसी की :

–       आईवीएफ उपचार फेल हो गया हो.

–       बारबार गर्भपात हो रहा हो.

–       भ्रूण आरोपण उपचार की विफलता के बाद.

–       गर्भ में कोई विकृति होने पर.

–       गर्भाशय या श्रोणि विकार होने पर.

–       दिल की खतरनाक बीमारियां होने पर. जिगर की बीमारी या उच्च रक्तचाप होने पर या उस स्थिति में जब गर्भावस्था के दौरान महिला को गंभीर हैल्थ प्रौब्लम होने का डर हो.

–       गर्भाशय के अभाव में.

–       यूट्रस के दुर्बल होने की स्थिति में.

सरोगेसी के प्रकार

जेस्टेशनल सरोगेसी : इस विधि में परखनली विधि से मातापिता के अंडाणु व शुक्राणु को मेल करवा कर भू्रण को सरोगेट मां के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. इस में बच्चे का जैनेटिक संबंध मातापिता दोनों से होता है. इस पद्धति में सरोगेट मां को ओरलपिल्स दे कर अंडाणुविहीन चक्र में रखा जाता है ताकि बच्चा होने तक उस के अपने अंडाणु न बन सकें.

ट्रेडिशनल सरोगेसी : इस प्रकार में पिता के शुक्राणु को स्वस्थ महिला के अंडाणु के साथ प्राकृतिक रूप से निषेचित किया जाता है. शुक्राणुओं को सरोगेट मां के नैचुरल ओव्युलेशन के समय डाला जाता है. इस प्रकार में बच्चे का जैनेटिक संबंध सिर्फ पिता से होता है.

कब हुई सरोगेसी की शुरुआत

अनौपचारिक तौर पर तो सरोगेसी दबेछिपे हर देश में होती आई है. ओल्ड टेस्टामैंट्स नाम की किताबों में ऐसा संकेत भी मिलता है कि यह यहूदी समाज में स्वीकृत था. हालांकि, यूरोपीय संस्कृतियों में सरोगसी होती थी लेकिन अतीत में इसे सामाजिक और कानूनी नियमों के तहत औपचारिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया था. आस्ट्रेलिया में सरोगसी प्रक्रिया पिछले शताब्दी तक अनौपचारिक रूप से होती थी. आस्ट्रेलिया में पहले सरोगसी का मामला 1988 में आया था. इस प्रक्रिया द्वारा पैदा होने वाली पहली आईवीएफ बच्ची एलिस किर्कमान, मेलबर्न में 23 मई, 1988 को हुई थी. मार्च 1996 में आस्ट्रेलिया में सरोगेसी को कानूनी व्यवस्था में शामिल किया गया. उस समय एक महिला ने अपने भाई तथा भाभी के आनुवंशिक भ्रूण को अपनी कोख में उपजने दिया. इस मामले को आस्ट्रेलियन कैपिटल टेरिटोरी कानून के तहत आगे बढ़ने दिया गया. लेकिन इस बच्चे के पैदा होने के साथ मीडिया की दिलचस्पी और सरोगेसी से संबंधित मसले पर काफी हंगामा हुआ था.

सरोगेसी : भारतीय संदर्भ में

भारत में यह प्रक्रिया सस्ती रही है. इस वजह से इस का चलन यहां भी काफी पहले से है. मई 2008 के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने इसे कमर्शियल तौर पर करने अनुमति दी थी जिस के चलते विदेशी इस सुविधा का लाभ उठाने के लिए भारत में ज्यादा आने लगे. भारतीय सरकार ने 2008 में एक विधान प्रारूप पेश किया था जो आज ए आर टी रैग्युलेशन ड्राफ्ट बिल के रूप में है. फिलहाल यह बिल पास नहीं हुआ जबकि सरकार सरोगेसी से संबंधित एक नया विधयेक इसी साल लाई है.

सरोगेसी : नया कानून

भारत वैश्विक स्तर पर सरोगेसी का व्यावसायिक केंद्र बन चुका है. लेकिन सरोगेसी से जुड़े किसी कानून के अभाव में इस से जुड़े अनेक मुद्दों पर बहस चलती रहती है. अब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2016 को संसद में रखने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है जिस में अविवाहित जोड़ों, लिवइन में रहने वाले लोगों, बच्चे को अपनाने वाले अकेले महिला या पुरुष और समलैंगिकों द्वारा सरोगेसी के माध्यम से जन्मे बच्चे को अपनाने पर रोक का प्रस्ताव है. इस बिल को संसद के अगले सत्र में पेश किया जाएगा. इस के अंतर्गत एक राष्ट्रीय सरोगेसी बोर्ड बनाया जाएगा और उस के नीचे राज्यों में बोर्ड होंगे. राष्ट्रीय सरोगेसी बोर्ड के प्रमुख केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री होंगे और 3 महिला सांसद इस की सदस्य होंगी. 2 सांसद लोकसभा से होंगी और एक राज्यसभा से.

निजता का उल्लंघन

कहने को तो इस विधेयक में कोख को किराए पर देने वाली मां के अधिकारों की रक्षा और इस तरह के बच्चों के अभिभावकों को कानूनी मान्यता देने का प्रावधान है लेकिन सच यह है कि अब सरकारी कानूनों की आड़ में न सिर्फ निजता का उल्लंघन किया जाएगा बल्कि जरूरतमंद परिवारों, जिन्हें बिना किसी सरकारी अड़चन के सरोगेसी के जरिए बच्चा मिल जाता था, को सरकारी दफ्तरों में एडि़यां रगड़नी पड़ेंगी, रिश्वतें खिलानी पड़ेंगी और सरकारी बाबुओं के ऊटपटांग सवालों के जवाब देने होंगे.

पहले यह होता था कि जिसे बच्चे की जरूरत है और जो किराए पर कोख दे रहा है, आपसी यानी म्यूचुअल लैवल पर तय कर लेते थे कि कितने पैसे और किन परिस्थितियों में सरोगेसी को अंजाम देना है. इस क्रम में सरोगेसी विशेष एजेंसियों द्वारा उपलब्ध करवाई जाती है. इन एजेंसियों को आर्ट क्लीनिक कहते हैं, जो इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च की गाइडलाइंस के अनुसार काम करती हैं. सरोगेसी का एक एग्रीमैंट बनवाया जाता है. लेकिन अब सरकारी विधेयक के आने से मामला औफिसऔफिस सरीखा हो जाएगा. जिस प्रस्तावित बिल के बहाने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज व्यावसायिक सरोगेसी को पूरी तरह प्रतिबंधित करने और परोपकारी सरोगेसी को नियमित करने का दावा कर रही हैं, शायद जानती नहीं हैं कि इस से पहले बने सरकारी विधेयक और कानून प्रक्रियाओं को न सिर्फ जटिल बनाते रहे हैं बल्कि आमजन को धक्के खाने पर मजबूर भी करते रहे हैं. भ्रष्टाचार की गंगोत्री भी इन्हीं सरकारी बिलों के संकरे रास्ते से गुजरती है.

देश का नुकसान

प्रस्तावित कानून के अनुसार, सरोगेसी के लिए दंपती की शादी को कम से कम 5 साल हो जाने चाहिए. अगर कोई दंपती 1 या 2 साल में ही बच्चा चाहता हो और मैडिकल जांच के जरिए उसे पता चल जाता है कि पत्नी गर्भधारण करने में सक्षम नहीं है तो क्या वे अधिकार नहीं रखते कि सरोगेसी के जरिए अभिभावक बन सकें. अब अगर तुषार कपूर ने शादी नहीं की है तो क्या वे सरोगेसी के जरिए एक बच्चे के पिता बन कर कुछ गलत कर रहे हैं? इस से भला देश या सरकार को क्या नुकसान हो सकता है?

विदेशी दंपतियों को सरोगेसी के लिए अनुमति न देना भी अतार्किक है. अगर विदेशी इस देश में किराए की कोख लेने आते हैं तो इसलिए कि यहां उन्हें इस प्रक्रिया पर कम धन खर्च करना पड़ता है, साथ ही, इस से मैडिकल टूरिज्म को बढ़ावा भी मिलता है. अगर विदेशी दंपती यहां से सरोगेसी नहीं करवाएंगे तो वे नेपाल, बंगलादेश जैसे किसी गरीब एशियाई देश का रुख कर लेंगे. इस से देश का ही आर्थिक नुकसान होगा.

सरोगेसी जरूरत है, शौक नहीं

केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज कहती हैं कि सरोगेसी को कुछ लोगों ने शौक बना लिया है. सैलिब्रिटीज के कितने ही ऐसे उदाहरण सामने हैं जिन के अपने 2-2 बच्चे हैं, बेटा और बेटी दोनों हैं, तब भी उन्होंने सरोगेट बच्चा किया है. सुषमा कहती हैं कि यह अनुमति जरूरत के लिए है, शौक के लिए नहीं. और न इसलिए कि पत्नी पीड़ा सहना नहीं चाहती, इसलिए चलो सरोगेट बच्चा कर लेते हैं.

यह तर्क  कुछ ऐसा ही है जैसे कोई महिला प्रसव पीड़ा से बचने या मैडिकल कौंप्लीकेशन से बचने के लिए सामान्य तरीके से डिलीवरी के बजाय सिजेरियन प्रक्रिया अपनाती है तो क्या सरकार उसे भी अनुचित मानेगी, कहेगी कि नहीं, आप शौकिया सिजेरियन करवा रहे हैं और मैडिकल सुविधाओं का फायदा उठा कर पीड़ा से बचना चाहते हैं. दरअसल, यह मामला नितांत निजी है और अपनी कोख को किराए पर देने के लिए भला किसी को क्यों सरकारी बाबुओं के दफ्तरों की धूल फांकनी पड़े? अगर सैलिब्रिटीज शौकिया यह काम करते भी हैं, तो वे तो प्लास्टिक सर्जरी से ले कर कौस्मेटिक सर्जरी तक सब करवाते हैं. क्या वह सब भी गलत है? उन का पैसा और उन की सहूलियत से सरकार को भला क्यों एतराज हो सकता है? इस प्रक्रिया में वे न तो किसी का नुकसान करते हैं और न ही किसी तरह का भ्रष्टाचार. वे ऐसा करते हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन के पास पैसे हैं और वे इस सुविधा का लाभ उठा कर खूबसूरत और फिट दिखना चाहते हैं. इसी तरह अगर वे सरोगेसी के जरिए मातापिता बनने का सुख हासिल करना चाहते हैं और अगर वे खर्च करते हैं तो एक तरह से वे सरोगेसी के बाजार में रोजगार पैदा करते हैं. अब जिन महिलाओं ने आमिर खान या शाहरुख खान के लिए सरोगेसी की होगी, उन्हें न सिर्फ अच्छा पैसा मिला होगा बल्कि उन के लिए मैडिकल सुविधाओं का भी खासा ध्यान रखा गया होगा.

परोपकार का दिखावा

एक तरफ सरकार परोपकारी सरोगेसी को नियमित करने का दावा करती है वहीं बिल में यह प्रावधान भी डाल दिया गया है कि किसी महिला को पूरी जिंदगी में सिर्फ एक बार सरोगेट मां बनने की इजाजत होगी. होना तो यह चाहिए था कि जब तक औरत शारीरिक तौर पर अपनी कोख किराए पर देने में सक्षम है, तो उसे रोका नहीं जाए.

वैसे भी, देश में सरोगेट मदर खोजना कोई आसान काम नहीं है. उस पर अगर जीवन में एक बार किराए पर कोख देने का नियम बनता है तो न जाने कितने जरूरतमंद लोग, जिन्हें बच्चे की ख्वाहिश है, खाली गोद ही रहने पर विवश होंगे. इसी तरह विधेयक में यह भी कहा गया है कि सरोगेसी से हुए बच्चे अपनाने वाले दंपती के लिए महिला की उम्र 23 से 50 वर्ष के बीच और पुरुष की उम्र 26 से 55 वर्ष के बीच होनी चाहिए. यह मामला भी सरकारी दखलंदाजी का नहीं है और पूरी तरह से डोनर और उसे लेने वाले इंसान की शारीरिक व मैडिकल नियम के आधार पर होना चाहिए. यह काम विशेषज्ञों का है.

समलैंगिक व लिवइन वर्ग

क्या समलैंगिक देश या समाज का हिस्सा नहीं हैं? जब एक सिंगल पेरैंट बच्चे को पाल सकता है तो समलैंगिक इस अधिकार से वंचित क्यों हो? परिवार बनाना उन का भी मौलिक अधिकार है, उन्हें भी बच्चा रखने, मातापिता बनने का हक है और उन्हें यह अधिकार मिलना चाहिए. इसी तरह लिवइन रिलेशनशिप को जब कानूनी मान्यता है तो उन्हें एक परिवार क्यों नहीं माना जाए और उन्हें बच्चा पैदा करने की अनुमति क्यों न दी जाए?

अगर सरोगेसी विधेयक को नए नियमों के साथ संसद में मंजूरी मिल गई तो हालात सुधरने के बजाय और बिगड़ेंगे. इतना ही नहीं, ऐसा करने से लिवइन रिलेशनशिप में रह रहे जोड़ों या फिर समलैंगिकों के अधिकारों का भी हनन होगा.

समलैंगिक और लिवइन पार्टनर्स के लिए सरोगेसी को प्रतिबंधित किया जाना कहीं से सही नहीं है क्योंकि सेरोगेसी न केवल निसंतान दंपती, बल्कि समलैंगिक लोगों को भी मां या पिता बनने का सुखद एहसास कराने में मदद करती है.

सरोगेसी व्यावसायिक नहीं

अधिकांश दंपती के लिए सरोगेट मदर का चुनाव करते समय गोपनीयता सब से महत्त्वपूर्ण होती है, ऐसे में पारिवारिक सरोगेसी वाली बात गलत है. सरोगेसी पर प्रस्तावित नए कानून में प्रावधान है कि व्यावसायिक सरोगेसी हो ही नहीं सकती. कोई भी गरीब महिला पैसे कमाने के एवज में अपनी कोख को किराए पर देगी तो इसे गैरकानूनी माना जाएगा. सरकार के इस कदम के पीछे की मंशा गरीब व पिछड़े इलाकों की महिलाओं का शोषण रोकने की है. इसलिए किराए की कोख को तभी स्वीकृति मिलेगी जब इस का उद्देश्य परोपकार यानी किसी का भला करना हो. कोई महिला तभी अपनी कोख को किसी के लिए भरेगी जब उस में चिकित्सा व बीमा को छोड़ कर किसी भी तरह के पैसे का लेनदेन न हुआ हो. व्यावसायिक सरोगेसी के चलते कई बार डोनर महिला के स्वास्थ्य संबंधी हितों को अनदेखा किया जाता रहा है जिसे आगे चल कर शारीरिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

एक धारणा यह भी है कि विदेशी विदेश में सरोगेसी के लिए भारत की तुलना में बेहद मोटा खर्चते हैं. जबकि भारत में यही काम काफी सस्ता होता है. इस के अलावा गांवदेहात या आदिवासी इलाकों की कोख को किराए पर लेने की वजह यह भी रहती है कि वे मांस, मछली, शराब, सिगरेट आदि की आदी नहीं होतीं, इसलिए ऐसी महिला की कोख से स्वस्थ बच्चा पैदा होगा.

इस धारणा के चलते गरीब व जरूरतमंद महिलाओं को पैसों का लालच दे कर उन्हें अपनी कोख का सौदा, चिकित्सकीय सीमाओं को पार कर, बारबार करने के लिए मजबूर किया जाता है और इस व्यापार में शामिल फर्टिलिटी रिजर्व सैंटर्स के बिचौलिए विदेशियों से जितना पैसा लेते हैं उस का बेहद छोटा हिस्सा उन गरीब महिलाओं की झोली में गिरता है. सरकार के इस नए कानून से गरीब महिलाओं का शोषण होगा. लेकिन अगर सरकार गरीबों की कमाई का रास्ता पूरी तरह बंद करने के बजाय मैडिकल शर्तों, फर्टिलिटी व इस से जुड़े ऐग्रीमैंट्स आदि को पारदर्शी बना कर महिलाओं का शोषण होने से रोकती तो शायद इस से जरूरतमंद महिलाओं को खासी आर्थिक मदद मिलती.

सजा का प्रावधान

 देश में सरोगेसी से जुड़े कई मामलों में बच्चे के बीमार, अविकसित या लिंग के आधार पर उसे छोड़े जाने की भी घटनाएं हुई हैं. असल में कुछ साल पहले आस्ट्रेलियाई जोड़े ने एक सरोगेसी से मिले बच्चे को सिर्फ इसलिए छोड़ दिया था कि वह डाउन सिंड्रोम से पीडि़त था. इसी तरह दिल्ली में 2 साल पहले एक विदेशी जोड़ा सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे को इसलिए छोड़ गया था कि उसे बेटी चाहिए थी. इस तरह के मामलों पर रोक लगाई जा सके, इस के लिए प्रस्तावित कानून में सरोगेसी से हुए बच्चे को छोड़ने पर आर्थिक दंड व 10 साल की सजा का प्रावधान रखा है.

बिल के मुताबिक, विदेशी नागरिकों को भारत में सरोगेसी कराने की अनुमति नहीं होगी. और अगर कोई दंपती सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे को नहीं अपनाता, तो उन्हें 10 साल तक की जेल या 10 लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है. अगर दंपती का कोई अपना बच्चा हो या फिर उन्होंने कोई बच्चा गोद ले रखा हो, तो उन्हें सरोगेसी की इजाजत नहीं होगी. सरोगेसी की अनुमति तभी दी जाएगी जब दंपती में से कोई भी पार्टनर बांझपन का शिकार हो, जिस के कारण दंपती अपना बच्चा पैदा नहीं कर सकते हों.

मेरा शरीर, मेरा अधिकार

तुषार कपूर अगर बिना शादी के बच्चा चाहते हैं और मैडिकल साइंस उपलब्ध करा रही है, तो  सरकार को क्या दिक्कत है? विधेयक की एक अन्य बात, कि शादी के 5 साल बाद ही सरोगेसी के लिए इजाजत होगी, इस का क्या आधार है? कोई दंपती जिसे विवाह के पहले ही साल पता चल गया कि वे मातापिता नहीं बन सकते तो वह 5 साल इंतजार क्यों करे? क्या यह कहा जा रहा है कि 5 साल तंत्रमंत्रजादूटोना आजमा लें, फिर सरोगेसी के बारे में सोचें?

सरोगेट मां, जो बच्चा अपने गर्भ में रखती है, अकेले ही रखती है. जो बीमारियां उसे प्रैग्नैंसी के दौरान होती हैं, वे भी वह अकेली ही झेलती है, लेबरपेन भी अकेली ही झेलती है, बच्चा भी अकेले ही पैदा करती है. फिर वह सरोगेट मां बने या न बने, इस का निर्णय सरकार क्यों ले? एक बेऔलाद को औलाद मिल सके, बच्चे की राह देख रहे सूने घर में किलकारी गूंजे, इस से अच्छा भला और क्या हो सकता है? सरोगेट मांएं किसी और के बच्चे को अपनी कोख में रखती हैं और फिर बेऔलाद मातापिता को उन का बच्चा दे देती हैं. इस नेक काम को करने का अधिकार महिला के पास ही होना चाहिए, न कि सरकार को इस मामले में अपनी टांग अड़ानी चाहिए.

कुल मिला कर एक औरत को अपने शरीर के साथ क्या करना है और क्या नहीं, यह अधिकार उसी के पास होना चाहिए. रही बात किराए की कोख के कारोबार को कमर्शियल किए जाने की, तो सरकारी बिल से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. बिचौलिए तब निजी एजेंट नहीं होंगे तो सरकारी बाबू हो जाएंगे. सरकारी दफ्तरों में क्या कम शोषण होता है? अब जो पैसे 2 लोग आपस में मिल कर तय कर लेते थे, सरकारी अड़चनों के चलते उस की हिस्सेदारी तो होगी ही, साथ में निजता का उल्लंघन होगा, सो अलग. आखिर सरकार अपने ही डंडे से हर काम क्यों करना चाहती है?                     

सरोगेसी के सहारे फिल्मी सितारे

–       बौलीवुड अभिनेता तुषार कपूर सरोगेसी के जरिए पिता बने हैं.

–       आमिर खान को पहली पत्नी से इरा और जुनैद हैं जबकि किरण राव से शादी के बाद उन्होंने सरोगेसी को चुना. आजाद सरोगेसी द्वारा हुई उन की संतान है.

–       गौरी खान और शाहरुख खान की तीसरी संतान अबराम भी सरोगेसी से हुआ है.

–       सोहेल और सीमा खान के बेटे योहाना भी सरोगेट की गई संतान है.

–       सतीश कौशिक ने अपने बेटे को खोने के बाद सरोगेसी का सहारा लिया. वंशिका उन की सरोगेसी के जरिए जन्म ली हुई बेटी है.

–       बौलीवुड डायरैक्टर और कोरियोग्राफर फराह खान और उन के पति शिरीष कुंद्रा ने मातापिता बनने के लिए आईवीएफ तकनीक का सहारा लिया और उन्हें 3 बच्चे हुए.

सरकारी चाबुक

–       अविवाहित जोड़े, एकल, लिवइन में रहने वाले और समलैंगिकों पर रोक.

–       अगर कोई दंपती सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे को नहीं अपनाता है तो उन्हें 10 साल तक की कैद या 10 लाख रुपए तक का जुर्माना.

–       कोई महिला एक ही बार सरोगेट मदर बन सकती है.

–       5 साल से शादीशुदा दंपती ही अपना सकते हैं यह तरीका.

–       23 से 50 साल तक पत्नी और 26 से 55 साल तक पति की उम्र होनी जरूरी है.

–       सरोगेसी क्लीनिकों को रखना होगा 25 साल का रिकौर्ड.

खास जानकारी

–       भारत में सरोगेसी में महाराष्ट्र अग्रणी है. इस के बाद गुजरात, आंध्र प्रदेश और दिल्ली के नंबर आते हैं. भारत में सरोगेसी के इच्छुक लोगों में बड़ी संख्या विदेशियों की रहती है.

–       व्यावसायिक सरोगेसी के लिए भारत को तरजीह दी जाती है. इस के बाद थाईलैंड और अमेरिका का नंबर आता है.

–       ला कमीशन के मुताबिक, सरोगेसी को ले कर विदेशी दंपतियों के लिए भारत एक पसंदीदा देश बन चुका है.

–       डिपार्टमैंट औफ हैल्थ रिसर्च को भेजे गए 2 स्वतंत्र अध्ययनों के मुताबिक, हर साल भारत में 2,000 विदेशी बच्चों का जन्म होता है, जिन की सरोगेट मां भारतीय होती हैं.

–       देशभर में करीब 3,000 क्लीनिक विदेशी सरोगेसी सर्विस मुहैया करा रहे हैं.

–       कमर्शियल सरोगेसी यूके,  आस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस, जरमनी, स्वीडन, न्यूजीलैंड, जापान और थाइलैंड में बैन है.

 नए नियम

–       सिर्फ निसंतान भारतीय दंपतियों को ही किराए की कोख के जरिए बच्चा हासिल करने की अनुमति होगी.

इस अधिकार का इस्तेमाल विवाह के 5 वर्ष बाद ही किया जा सकेगा.

–       एनआरआई और ओसीआई कार्ड धारक इस का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे.

–       अविवाहित युगल, एकल मातापिता, लिवइन में रह

रहे परिवार और समलैंगिक किराए की कोख से बच्चे हासिल नहीं कर सकते.

–       एक महिला अपने जीवनकाल में एक ही बार कोख किराए पर दे सकती है.

–       कोई दंपती सरोगेसी से जन्म लिए बच्चे को अपनाने से इनकार करता है या प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो 10 साल तक की कैद और 10 लाख रुपए जुर्माना लगेगा.

–       सरोगेसी क्लीनिक का रजिस्ट्रेशन भी अनिवार्य होगा.

(ललिता गोयल एवं राजेश कुमार)

सरकार के इस कदम से न जाने कितनी मांओं को खाली हाथ वापस लौटने पर मजबूर होना पड़ेगा और साथ ही, कई जटिल कानूनी प्रक्रियाओं में उलझना पड़ेगा.

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