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ग्रामीणों की जमीन पर बुरी नजर

चीन विकास के लिए किसी की परवा नहीं करता. पर्यावरण का नुकसान हो, हिमालय का नुकसान हो, खेतखलिहान का हो अथवा मूल अधिकारों का हनन, विकास का सवाल है तो उन सब का चीन के लिए महत्त्व नहीं है. उसे प्रगति चाहिए. यह मानसिकता चीन के जनसामान्य के साथ ही वहां के नेताओं व उद्योगपतियों की भी है. वहां के फैक्टरी मालिक और निर्माण कंपनियां इसी सूत्र पर काम करती हैं. उन का यह रवैया स्वदेश में नहीं बल्कि विदेशों में भी चलता है और वे वहां भी अपनी शर्तों पर काम करना चाहती हैं. चीनी कंपनियों को पश्चिमी देशों में काम करने का अनुभव नहीं है, इसलिए इस मानसिकता के चलते उन्हें वहां विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

अफ्रीका में तेल तथा जस्ता खदानों में चल रहा चीनी कंपनियों का काम मजदूरों की हड़ताल के कारण ठप पड़ा है. मजदूरी कम देना और काम की शर्तों के कारण श्रमिकों में नाराजगी है. म्यांमार में चीन सरकार द्वारा चलाए जा रहे बांध निर्माण का काम पर्यावरण को होने वाले नुकसान के प्रति बेपरवा रहने के कारण बंद कर दिया गया है.

निकारागुआ में चीनी निर्माता द्वारा नहर के निर्माण कार्य में ग्रामीणों के पुनर्वास को ले कर किए जा रहे काम में गैरजिम्मेदाराना रवैया अपनाए जाने से लोगों का विरोध जारी है. इसी तरह से भारत में गुजरात के शिंदे में चीन की ट्रक निर्माता कंपनी बीकी फोटोन मोटर फैक्टरी लगाना चाहती है. कंपनी ने इस के लिए 250 एकड़ भूमि का चयन किया है लेकिन उसे 1,250 एकड़ भूमि और चाहिए. यह कृषि भूमि है जिस की पीठ पर पहाड़ी और सामने नदी का प्रवाह है.

ग्रामीण इस जमीन को फैक्टरी को नहीं देने के लिए अड़े हुए हैं. उन का कहना है कि कृषि भूमि का इस्तेमाल नहीं होने देंगे और अपना पुश्तैनी गांव नहीं छोड़ेंगे. सवाल यह है कि चीनी कंपनी को वही गांव क्यों चाहिए. वह खाली पड़ी जमीन पर फैक्टरी का निर्माण क्यों नहीं कर रही है? ग्रामीणों का कहना है कि वह खाली पड़ी जमीन पर फैक्टरी बनाए. उस से जमीन का भी इस्तेमाल होगा और उन्हें भी खेती के अलावा रोजगार मिलेगा. साथ ही, संस्कृति और पर्यावरण भी बचे रहेंगे.

खाद्य निगम और श्रमिक

भारतीय खाद्य निगम की पोल खोलने में इस बार अदालतें ही आगे आई हैं और आशा की जानी चाहिए कि वे हर श्रमिक को बेचारा, लुटा हुआ, शोषित, गरीब, असहाय मानने की गलती बंद कर देंगी. पिछले 50-60 सालों में अदालतों ने ऐसे सैकड़ों फैसले दिए हैं जिन में श्रमिकों को आसमान पर चढ़ाया गया है और इसी का नतीजा है कि निजी क्षेत्र के कारखानों के इलाकों में काम कम, लाल झंडे ज्यादा दिखते हैं, औद्योगिक क्षेत्र असल में कारखानों की कब्रगाह ज्यादा दिखते हैं.

कारखानों में श्रमिकों को लाखों की तनख्वाह मिलना कोई आश्चर्य नहीं है. भारतीय खाद्य निगम के लोडर को 4 लाख रुपए का मासिक वेतन मिलता है. यह देख कर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश चकित तो हुए होंगे पर उन्होंने अभी भी लोडरों की ऊपरी कमाई जोड़ी नहीं है, जो इस से कई गुना ज्यादा होती है.

इस निगम में श्रमिकों की दादागीरी और गुंडागीरी आम है और माल की लदाई व उतराई तो वे खुद करते भी नहीं हैं, अपने चेलोंचपाटों से कराते हैं जिन्हें निगम के भंडारगृहों में आने से कोई रोक नहीं सकता. यह निगम असल में एक बड़ा माफिया समूह है जो सरकारी पैसे का जम कर दुरुपयोग करता है और यह व्यवस्था सूदखोरों व जमाखोरों से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई है. किसान और आम आदमी का हाल गहरी खाई से गहरी दलदल में गिर जाने जैसा हुआ है.

श्रमिकों को अब सेवा बेचने वाला समझा जाना चाहिए, जैसे दुकानदार माल बेचता है वैसे ही श्रमिक अपना उत्पादन बेचता है. हर काम की कीमत का मूल्य बाजार पर छोड़ा जाना चाहिए और योग्य व मेहनती को ज्यादा कमाने का पूरा अवसर मिलना चाहिए. वेतन, आयु व पद के आधार पर नहीं, काम के आधार पर तय हो और प्रतिस्पर्धा के सिद्धांत को सरकारी व निजी क्षेत्र दोनों में माना जाना चाहिए.

जैसे जनता को हक है कि वह जिसे चाहे उसे वोट दे कर कुरसी दे, वैसे ही नियोजक भी जिसे चाहें, जितना चाहें, वेतन दें, तभी भारतीय खाद्य निगम जैसी लालझंडा तानाशाही समाप्त होगी. यह भगवाई तानाशाही जैसी खतरनाक है.

फ्री बेसिक्स: मुफ्त की मुसीबत

इंटरनैट की दुनिया अचानक इस बात को ले कर फिक्रमंद दिखने लगी है कि आखिर सूचना की यह आधुनिक तकनीक अपने हर रूपरंग में सिर्फ अमीरों तक सीमित क्यों है, क्यों इस का कारोबार सिर्फ पैसे वालों तक सिमटा हुआ है, क्यों इस पर मनोरंजन और सहूलियतें अमीरों को मिल रही हैं और क्यों वही इस के सब से ज्यादा फायदे उठा पा रहे हैं? इसी चिंता के साथ सोशल नैटवर्किंग वैबसाइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने अक्तूबर, 2015 में भारत का दौरा किया. उस दौरान गरीबों को इंटरनैट से जोड़ने के उद्देश्य से काम कर रहे संगठन इंटरनैटडौटओआरजी (द्बठ्ठह्लद्गह्म्ठ्ठद्गह्ल.शह्म्द्द) के जरिए दुनिया की दोतिहाई आबादी को इंटरनैट का फायदा दिलाने का संकल्प जताते हुए जुकरबर्ग ने इंटरनैट को मौलिक अधिकार बनाए जाने की वकालत भी की. जब देश में इस योजना का विरोध किया गया तो उन्होंने इस योजना का नाम बदल कर ‘फ्री बेसिक्स’ रख दिया.

क्या है फ्री बेसिक्स

असल में यह इंटरनैटडौटओआरजी के नाम से पहले लाई गई वही योजना है, जिस के बारे में वर्ष 2015 में प्रचारित किया गया था कि इस की मदद से लाखों लोगों को इंटरनैट के मुफ्त इस्तेमाल की सुविधा मिल सकेगी. देश में नैट तटस्थता यानी नैट न्यूट्रैलिटी की मांग उठने के साथ इस योजना का विरोध होने लगा क्योंकि इस में जिन लोगों को मुफ्त इंटरनैट देने की पहल की जा रही थी, उन्हें बहुत सीमित विकल्प दिए जा रहे थे. विरोध बढ़ता देख मार्क जुकरबर्ग ने योजना का नाम बदल कर ‘फ्री बेसिक्स इंटरनैट सर्विस’ कर दिया और इस के लिए रिलायंस कम्युनिकेशंस के प्लेटफौर्म पर कुछ समय पहले एक एप्लिकेशन लौंच कर दिया. लेकिन नैट न्यूट्रैलिटी पर कोई आम राय नहीं बन पाने की स्थिति में दूरसंचार नियामक प्राधिकरण यानी ट्राई ने इस सेवा पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि जब तक इस संबंध में जारी किए गए कंसल्टेशन पेपर पर आम लोगों व टैलीकौम कंपनियों के जवाब नहीं मिल जाते, तब तक ऐसी योजना लागू नहीं की जा सकती.

रोक और विवादों के बीच जुकरबर्ग ने विज्ञापनों के जरिए फ्री बेसिक्स के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया है. उन्होंने संगठनों व सरकारों से इस के रास्ते में बाधा नहीं बनने की अपील करते हुए इस के कई फायदे गिनाए हैं, जैसे उन का मत है कि प्रत्येक समाज में कुछ बेसिक सुविधाएं आम जनता को मुफ्त मिलती हैं (शिक्षा, स्वास्थ्य आदि) हालांकि वे निजी सहूलियतों की तरह पर्याप्त नहीं होतीं. सरकारी अस्पतालों में कुछ हद तक मुफ्त इलाज होता है, सरकारी स्कूलों में एक सीमा तक मुफ्त शिक्षा मिलती है. लेकिन बेहतर इलाज और अच्छी शिक्षा चाहिए तो वह शुल्क के जरिए ही हासिल की जा सकती है. उसी तरह फ्री बेसिक्स के माध्यम से जुकरबर्ग बेसिक इंटरनैट सभी लोगों को मुफ्त देना चाहते हैं ताकि वे कुछ जरूरी वैबसाइटों का इस्तेमाल कर सकें, जैसे फेसबुक देख सकें, औनलाइन शौपिंग की वैबसाइटों से खरीदारी कर सकें आदि. जुकरबर्ग कहते हैं कि जब देश में हर व्यक्ति के पास फ्री बेसिक इंटरनैट सर्विस होगी तो इस से देश में कायम डिजिटल डिवाइड समस्या का खात्मा भी हो सकेगा.

विरोध के तर्क

ऊपर से मार्क जुकरबर्ग की योजना शानदार लगती है लेकिन वे जितने जोरदार ढंग से इस का कैंपेन चला रहे हैं उतने ही जोरशोर से इसे ले कर आशंकाएं भी उठ रही हैं. कहा जा रहा है कि फ्री बेसिक्स के जरिए लोगों को इंटरनैट कनैक्शन मिले या न मिले, पर कुछ कंपनियों की कमाई बेतहाशा बढ़ जाएगी. यही नहीं, यदि फ्री बेसिक्स आया तो इस से देश में एक नए किस्म का डिजिटल डिवाइड (विभाजन) देखने को मिल सकता है. साथ ही, नई इंटरनैट कंपनियों के उभरने के मौके खत्म हो जाएंगे.

मुफ्त सेवा से कमाई कैसे होगी? असल में, फ्री बेसिक्स के प्लेटफौर्म पर आम लोगों को तो इंटरनैट मुफ्त में ही हासिल हो सकता है पर यह जिस सिद्धांत पर काम करेगा, उस में बेशुमार कमाई के मौके हैं. जिस प्रकार दूरदर्शन का डिश एंटीना लगाने वाले लोग सारे चैनल मुफ्त में देख पाते हैं, पर चैनल चलाने वाले लोग उन पर विज्ञापन दिखा कर कमाई करते हैं, उसी तरह फ्री बेसिक्स इस्तेमाल करने वालों को शुरुआत में कोई पैसा नहीं देना होगा लेकिन जो कंपनियां इंटरनैट के जरिए अपनी सेवाएं देना या बेचना चाहेंगी, उन्हें फ्री बेसिक्स के प्लेटफौर्म पर आने के लिए भारी शुल्क देना होगा. मसलन, यदि रेल रिजर्वेशन कराने वाली वैबसाइट ‘आईआरसीटीसी’ फ्री बेसिक्स से जुड़ना चाहेगी तो उसे इस की कीमत देनी होगी. इसी तरह औनलाइन सामान बेचने वाली कंपनियों को फ्री बेसिक्स का मंच इस्तेमाल करने के लिए भारी फीस चुकानी पड़ सकती है. ऐसे में, हो सकता है कि फ्री बेसिक्स पर दोचार बेसिक वैबसाइटों के अलावा सिर्फ उन सेवाओं से जुड़ी वैबसाइटें दिखें जो जुकरबर्ग की कंपनी से समझौता करेंगी.

फ्री बेसिक्स पर दूसरा विरोध डिजिटल विभाजन को ले कर है. अभी इंटरनैट पर स्त्री व पुरुष और अमीर व गरीब का जो भेद है वह तो है ही, पर कहा जा रहा है कि फ्री बेसिक्स पर अमल होने के बाद हो सकता है कि एक तरफ वे लोग हों जो फ्री बेसिक्स के जरिए आधाअधूरा इंटरनैट देख पाते हैं, और दूसरी तरफ शानदार गति से चलने वाला और सारी वैबसाइटों को दिखाने वाले सशुल्क इंटरनैट का इस्तेमाल करने वाले. यदि ऐसा हुआ तो इंटरनैट पर अमीरी और गरीबी की खाई और चौड़ी हो कर नजर आने लगेगी. ऐसी व्यवस्था उस नैट न्यूट्रैलिटी के खिलाफ होगी जिस में इंटरनैट के बिना किसी भेदभाव के इस्तेमाल करने की आजादी की वकालत की जा रही है. अभी पैसे चुका कर इंटरनैट कनैक्शन लेने के बाद तय की गई सीमा तक मनचाहा इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन फ्री बेसिक्स में लोगों को यह आजादी नहीं होगी. ऐसे लोग सिर्फ वही वैबसाइटें देख पाएंगे जिन्हें दिखाने की छूट फ्री बेसिक्स चलाने वाली टैलीकौम कंपनी देगी.

तीसरी अहम समस्या यह पैदा हो सकती है कि इंटरनैट पर एकाधिकार की स्थिति बन जाए. हो सकता है कि फ्री बेसिक्स का चलन बढ़ने से छोटी और नई इंटरनैट कंपनियों का वजूद ही न रहे. और फ्री बेसिक्स के संचालक बिना किसी प्रतिस्पर्धा वाले माहौल में काम करें. तब वे एक और मोटी रकम ले कर किसी एक कंपनी को फायदा पहुंचाने व उस की प्रतिस्पर्धी कंपनी को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में होंगे. यही वजह है कि देश में फ्री बेसिक्स योजना को संदेह की नजर से देखा जा रहा है. इस के लिए सरकार से अपील की जा रही है कि अगर लोगों को मुफ्त इंटरनैट देना है तो यह काम भी सरकार अपने हाथों में ले.

नजर बाजार पर

मार्क जुकरबर्ग जैसे अमीरों की मंशा सिर्फ गरीबों को इंटरनैट का फायदा दिलाने की नहीं है, वे तो असल में इस के जरिए अपने लिए और ज्यादा पूंजी बनाना चाहते हैं. जुकरबर्ग को इस का एहसास है कि अमेरिका के बाद भारत फेसबुक के लिए सब से बड़ा बाजार है. उन्हें यह बात मालूम है कि पूरी दुनिया में 65 फीसदी लोग फेसबुक का इस्तेमाल गैरअंगरेजी भाषा में करते हैं, जिन में से 10 भाषाएं भारत की हैं. इसी तरह आज भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक पर रजिस्टर हैं यानी उन के फेसबुक अकाउंट हैं. अब चूंकि भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है और स्थिर विकास दर के कारण लोगों की आय में बढ़ोतरी हो रही है, इसलिए यहां अगले ही कुछ वर्षों में कई करोड़ नए लोग फेसबुक जैसी चीजों के मुरीद बन सकते हैं. ये बातें फेसबुक, गूगल या ऐसी ही किसी अन्य कंपनी के कारोबार में बेतहाशा बढ़ोतरी करने के संदर्भ में बहुत माने रखती हैं. हाल में, जिस तरह से फेसबुक पर पैसा भेजने की सुविधा का खुलासा किया गया है उस से साफ है कि फेसबुक का इस्तेमाल अब सिर्फ लोगों के समूहों को आपस में जोड़े रखने व उन में संवाद बनाने मात्र के लिए नहीं होगा, बल्कि उस के निशाने पर बाजार है जिस की काफी ज्यादा संभावनाएं भारत जैसे आबादीबहुल मुल्कों में हैं.    

मार्क जुकरबर्ग जैसे अमीरों की मंशा सिर्फ गरीबों को इंटरनैट का फायदा दिलाने की नहीं है, वे तो असल में इस के जरिए अपने लिए और ज्यादा पूंजी बनाना चाहते हैं. जुकरबर्ग को इस का एहसास है कि अमेरिका के बाद भारत फेसबुक के लिए सब से बड़ा बाजार है. उन्हें यह बात मालूम है कि पूरी दुनिया में 65 फीसदी लोग फेसबुक का इस्तेमाल गैरअंगरेजी भाषा में करते हैं, जिन में से 10 भाषाएं भारत की हैं. इसी तरह आज भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक पर रजिस्टर हैं यानी उन के फेसबुक अकाउंट हैं. अब चूंकि भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है और स्थिर विकास दर के कारण लोगों की आय में बढ़ोतरी हो रही है, इसलिए यहां अगले ही कुछ वर्षों में कई करोड़ नए लोग फेसबुक जैसी चीजों के मुरीद बन सकते हैं. ये बातें फेसबुक, गूगल या ऐसी ही किसी अन्य कंपनी के कारोबार में बेतहाशा बढ़ोतरी करने के संदर्भ में बहुत माने रखती हैं. हाल में, जिस तरह से फेसबुक पर पैसा भेजने की सुविधा का खुलासा किया गया है उस से साफ है कि फेसबुक का इस्तेमाल अब सिर्फ लोगों के समूहों को आपस में जोड़े रखने व उन में संवाद बनाने मात्र के लिए नहीं होगा, बल्कि उस के निशाने पर बाजार है जिस की काफी ज्यादा संभावनाएं भारत जैसे आबादीबहुल मुल्कों में हैं.    

प्रोटीन भी हैं हानिकारक

क्या आप को इन्फैक्शन हो गया है? अगर हां, तो जरूरी नहीं कि वह वायरस या बैक्टीरिया से ही हुआ हो क्योंकि अब आप को कुछ प्रोटीन भी बीमार कर सकते हैं. तो जरा सावधान हो जाएं. 2 स्विस रिसर्चरों के अनुसार, मैडकाव जैसी बीमारी प्रोटीन के इन्फैक्शन से पैदा होती है. हम में से हर किसी के शरीर में प्रोटीन होते हैं जो इंसानों में क्रौयत्सउसेल्ट याकोब बीमारी पैदा करते हैं. देखा जाए तो यह हानिकारक नहीं हैं पर ये अपना रूप बदल कर बीमार कर देते हैं. ये तंत्रिका की कोशिकाओं में गांठ की तरह जमे रहते हैं. इन में सब से खतरनाक हैं प्रियोन प्रोटीन – ये कोशिकाओं में मंडराते रहते हैं और अपनी तरह के प्रोटीन को बीमार करने वाला वायरस बनने के लिए प्रेरित करते हैं. इस तरह से ये बढ़ने लगते हैं और मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाने लगते हैं. इस से पैदा हुई घातक बीमारी को रोकना बेहद मुश्किल है.

स्टैम सैल थैरेपी से दूर औटिज्म

औटिस्टिक स्पैक्ट्रम डिसऔर्डर या औटिज्म बीमारी से ग्रस्त बच्चों में समय से न बोल पाना, पढ़ना नहीं सीखना, हर समय उत्तेजित रहना या फिर बोलने के नाम पर एकआध शब्द ही बोलना जैसे लक्षण पाए जाते हैं. इस डिसऔर्डर का अभी तक कोई पुख्ता इलाज नहीं है. इस डिसऔर्डर से ग्रस्त बच्चों को आमतौर पर स्पीच थैरेपी या बिहेवियर थैरेपी की ही जरूरत होती है. जरूरी नहीं है कि यह थैरेपी हर बच्चे पर फायदा करे. कुछ चिकित्सकों ने मिल कर औटिज्म से ग्रस्त बच्चों के लिए स्टैम सैल थैरेपी लेने की सलाह दी है. चिकित्सकों ने बताया कि अगर बच्चे की उम्र 10 वर्ष से कम है तो इस में औटोलोगस स्टैम सैल ट्रांसप्लांटेशन से कुछ हद तक सुधार की उम्मीद की जा सकती है. इस थैरेपी के 3 महीने बाद से ज्यादातर बच्चों ने बोलना शुरू कर दिया और चीजों के बारे में जानने व सीखने की उत्सुकता भी दिखाई.

वैज्ञानिकों के अनुसार, इस डिसऔर्डर का कारण जीन में आए जैनेटिक डिफैक्ट या इम्यून सिस्टम में पैदा हुई गड़बड़ी से होता है. देखा गया है कि स्टैम सैल ट्रांसप्लांटेशन में कुछ खास कोशिकाओं का प्रत्यारोपण होता है जिस से चकित करने वाले प्रमाण सामने आते हैं. स्टैम सैल्स का प्रयोग सिर्फ लाइलाज बीमारियों में ही किया जाता है. रोगियों को ऐसे मामलों में बड़े ही सब्र की जरूरत होती है, क्योंकि यह कोई मैडिसन न हो कर जिंदा कोशिकाओं का प्रत्यारोपण है, जिसे विकसित होने में समय लगता है. इस का प्रभाव धीरेधीरे ही देखने को मिलता है.

उम्र बढ़ने पर बढ़ती है उत्तेजना

जैसेजैसे महिलाओं की उम्र में वृद्धि होती है उन की सैक्स पावर में भी बढ़ोत्तरी होती है. इस आयुवर्ग की महिलाएं अपने साथी से बैड में नएनए प्रयोग की इच्छा रखती हैं. बढ़ती उम्र की महिलाओं के बारे में अभी तक यह धारणा थी कि उम्र बढ़ने पर सैक्स उत्तेजना कम हो जाती है.

न्यूयार्क में विपणन सेवा प्रदान करने वाली कंपनी ‘लिप्पे टेलर’ ने वैबसाइट ‘हैल्दीवुमेन डौट और्ग’ के साथ संयुक्त रूप से एक सर्वेक्षण किया जिस में 18 वर्ष से ले कर वृद्ध वय की 1 हजार महिलाओं को शामिल किया गया. सर्वे के दौरान 54 फीसदी प्रतिभागियों ने माना कि बढ़ती उम्र के साथ सैक्स का आनंद बढ़ने लगता है. इस सर्वेक्षण में सब से दिलचस्प पहलू यह निकल कर आया कि 45 से 55 वर्ष के आयुवर्ग के बीच की महिलाएं सैक्स को ले कर सर्वाधिक प्रयोगधर्मी पाई गईं.

उन्हें सैक्स के दौरान नए तरीके बहुत भाते हैं. मिलेनियम मैडिकल ग्रुप से संबद्ध चिकित्सकों में मिशिगन की नर्स प्रैक्टिशनर नैंसी बर्मन ने कहा, ‘‘महिलाएं जैसेजैसे उम्रदराज होती जाती हैं तथा अपने पति या साथी के साथ उन की नजदीकियां बढ़ती जाती हैं, तो उन्हें सैक्स में ज्यादा मजा आने लगता है, साथ ही वे उसे अधिक मजेदार बनाने पर भी ध्यान देने लगती हैं.’’

बनेगा मधुमक्खी जैसा रोबोट

कुछ वैज्ञानिकों ने मधुमक्खी जैसा रोबोट बनाने की योजना बनाई है. मधुमक्खियों पर किए गए शोध में अमेरिका के विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हार्वर्ड के वैज्ञानिक एवं शोधकर्ता डा. श्रीधर रवि ने पाया कि मधुमक्खियां हवा के सीधे प्रवाह में उड़ती हैं, जिस के कारण ये खराब मौसम में भी अपनी उड़ान आसानी से भर लेती हैं.

उन्होंने उड़ती हुई मधुमक्खियों का वीडियो रिकौर्ड किया तो कुछ रोचक तथ्य निकल कर सामने आए. उन्होंने पाया कि ये तेज हवा में अपनी गति धीमी कर लेती हैं, जिस से ये अधिक ऊर्जा का संचार करती हैं. डा. रवि इसी तर्ज पर एक रोबोट बनाने की योजना बना रहे हैं जो खराब मौसम में भी सटीक तथ्य उपलब्ध कराएगा.

पेशेवर बार्बी डौल मेकओवर के साथ बाजार में

बार्बी डौल! बार्बी डौल के प्रति दीवानगी केवल लड़कियों में नहीं है. सालोंसाल से लड़के भी इसकी खूबसूरती के कायल रहे हैं. सबके दिल पर राज करनेवाली बार्बी डौल का अब मेकओवर हो गया है. वैसे क्या आप जानते हैं आज बार्बी डौल की उम्र क्या होगी? इसका जवाब है 57 साल. गजब की लंबाई, पतली कमर, मदहोश कर देनेवाली बड़ी-बड़ी नीली आंखें- उफ बला की खूबसूरत रही है बार्बी! कहते हैं बार्बी का परफेक्ट फिगर ही इतने सालों तक इसकी लोकप्रियता का राज है.

लेकिन आज बार्बी के फिगर के बदलाव के साथ उसका मेक ओवर भी किया गया है. अब बार्बी कर्वी फिगर के साथ आयी है. और साथ में परिपक्व भी नजर आती है. गौरतलब है कि 9 मार्च 1959 में बार्बी का जन्म न्यूयौर्क में ट्वाय फेयर में हुआ था. तबसे उसके फिगर में जरा भी बदलाव नहीं आया. हां, समय-समय पर आंखों, बालों और स्कीन के रंग में बदलाव जरूर आया है. लेकिन कुल मिला कर हर बदलाव में बार्बी, बार्बी ही नजर आयी है.

बार्बी के कम से कम दस सबसे लोकप्रिय रूप हैं. 1959 से लेकर 1966 तक बार्बी का विंटेज रूप पसंद किया जाता रहा है. यह रूप विंटेज बार्बी डौल कलेक्शन कहलाता था. 1967 में बार्बी मौडर्न हो गयी. इस मौड बार्बी ने 1967 से लेकर 1973 के बीच बहुतों के दिलों में राज किया. लेकिन इस बीच 1971 में स्वीमिंग कौस्ट्यूम में मालीबू बार्बी आयी. भूरे बालोंवाली मालीबू बार्बी ने भी सबके दिनों में जगह बना ली. मालीबू ने 1977 तक राज किया.

इसके बाद सुपरस्टार बार्बी आयी 1977 में. गुलाबी गाउन में सुनहरे बाली वाली बार्बी ने तो अपने दिवानों के होश ही उड़ा दिया. लगभग 1990 तक इसका ट्रेंड बना रहा. लेकिन याद है इस बीच ब्लैक ब्यूटी का दौर भी आया था. तब 1988 में ब्लैक बार्बी बाजार में आयी. काले बालों, भूरे आंखों वाली ब्लैक बार्बी ने भी मन मोह लिया. लेकिन इस ब्लैक बार्बी को भारत में ज्यादा पूछ नहीं हुई. भारत में गुलाबी गाउनवाली सुपरस्टार बार्बी को ज्यदा पसंद किया गया.

1992 में आयी मैकी बार्बी. लाल पोशाक में मैकी फेसवाली बार्बी विदेश में ज्यादा लोकप्रयत रही. 2000 में सिल्क स्टोन बार्बी का पदार्पण हुआ. इस बार्बी की गिनती फैशन मौडल कलेक्शन के रूप में हुई. हल्के सुनहरे बालों, नीली आंखों वाली पीच रंग की ड्रेस में बार्बी के लुक पुराने फिल्मों की अभिनेत्री मुमताज नजर आयी थी. 2009 में मैटेल ने 12 नई बार्बी डौल का एक कलेक्शन लांच किया. लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा पसंद की गयी लारा बार्बी, स्टेफी बार्बी और टैंगो बार्बी. गहरे भूरे बालों, नीली आंखों वाली काले ड्रेस में बार्बी को हर जगह पसंद किया गया. लारा के साथ स्टेफी और टैंगो बार्बी भी लोकप्रिय रही.

अब जब बार्बी 57 साल की हो चुकी है तो कोई एक जैसा भला कैसे रह सकता है! जाहिर है इस मेकअओवर के साथ बार्बी में परिपक्वता नजर आती है. यह परिपक्व बार्बी तीन तरह की है। एक छोटे कदकाठी वाली, दूसरी लंबी और तीसरी सुडौल बार्बी है. यह मेकओवर महज बार्बी की बनावट की नहीं है. इस नए कलेक्शन में बार्बी की 22 रंगों की आंखों और लगभग 24 हेयरस्टाइल और विभिन्न रंग-बिरंगे बालों वाली बार्बी बाजार में उतारी गयी है.

अब सवाल है कि 57 साल के बाद बार्बी में बदलाव लाने की आखिर जरूरत क्यों पड़ी? कहते हैं कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में बार्बी की कुल बिक्री में लगातार गिरावट आती जा रही थी. इसीलिए माना जा रहा है कि नया सिरे से बाजार पकड़ने की रणनीति के तहत बार्बी में बदलाव लाए गए हैं. वजह कोई भी रही हो, इस बदलाव को बच्चों के माता-पिता अच्छी नजर से नहीं ले पा रहे हैं. उनका आरोप है कि यह नई बार्बी बच्चों को व्यस्कों की दुनिया में ले जा रही है.  हालांकि जवाब में मैटेल का कहना है कि नई बार्बी पेशेवर बार्बी है. इनमें से कोई एस्ट्रोनौट है तो कंप्यूटर इंजीनियर. ये बार्बी समाज में सकारात्मक भूमिका निभानेवाली लड़कियों का प्रतिनिधित्व करती है.

 

         

 

 

तापसी पन्नू क्यों घटा रही हैं अपना वजन…?

बौलीवुड में भले ही तापसी पन्नू कुछ खास सफलता न बटोर पा रही हों, मगर दक्षिण भारतीय फिल्मों में उनकी बड़ी मांग है. तापसी पन्नू की खासियत है कि वह अपने किरदार के साथ न्याय करने के लिए अपनी तरफ से पूरा होमवर्क और तैयारी करने के साथ साथ काफी मेहनत करती हैं. इन दिनों वह हिंदी, तेलगू व तमिल इन तीन भाषाओं में बन रही 1971 युद्ध के समय विशाखापट्टनम के पास डूबे पाकिस्तानी जलयान ‘‘पीएनएस गाजी” की अनकही कहानी और भारतीय जल सेना यानी कि नेवी पर आधारित फिल्म ‘‘गाजी’’ में रिफ्यूजी का किरदार निभा रही हैं. जिस पर काफी जुल्म हो चुका है. अब इस किरदार के लिए उन्हे दुबला पतला नजर आना है. इसलिए तापसी पन्नू इन दिनों अपना वजन कम करने में लगी हुई हैं. खुद तापसी कहती हैं-‘‘फिल्म में मेरा किरदार एक ऐसी लड़की का है,जो कि रिफ्यूजी है,जिस पर काफी जुल्म ढाया जा चुका है. इसलिए में अपना वजन कम कर रही हूं. इसके लिए अब मुझे सख्त डाइट का पालन करना पड़ रहा है.’’

सर्व विदित है 1971 के भारत पाक युद्ध के दौरान विशाखापट्टनम के पास पाकिस्तानी जलयान ‘‘पी एन एस गाजी’ ’डूबा था. पर उस वक्त भारतीय जलसेना यानी कि नेवी और इस जहाज पर सवार पाकिस्तानियों के बीच क्या हुआ था, इसका सच किसी को पता नहीं है. क्योंकि इस मसले से जुड़ी सभी फाइलें क्लासीफाइड हैं. उस जलयन की अनकही कहानी को अब तीन भाषाओं की फिल्म ‘‘गाजी’’ में लेकर आ रहे हैं फिल्मकार संकल्प.इस फिल्म में तापसी पन्नू के साथ राणा डग्गूबटी भी अभिनय कर रहे हैं.

सूत्र बताते हैं कि इस फिल्म के निर्देशक संकल्प और अभिनेता राणा डग्गूबटी ने एक साथ इस विषय पर रिसर्च किया है. फिल्म में तापसी पन्नू रिफ्यूजी है, तो वहीं राणा डग्गूबटी नेवल कमांडर की भूमिका में हैं. इस फिल्म का खास सेट हैदराबाद में लगाकर इसे फिल्माया जा रहा है. यह भारत की पहली जलयान आधारित युद्ध फिल्म होगी.

हर्षवर्धन राणे: रच रहे हैं इतिहास पर इतिहास

भारतीय सिनेमा भी क्षेत्रवाद का शिकार है. हिंदी फिल्मों की इंडस्ट्री को बौलीवुड के नाम से पहचाना जाता है. जबकि अन्य भाषाओं की फिल्मों को क्षेत्रीय भाषा की फिल्में कहा जाता है. इनमें से मलयालम, तमिल, तेलगू और कन्नड़ इन चार भाषाओं में बनने वाली फिल्मों को दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री कहा जाता है. अब तक का इतिहास गवाह है कि दक्षिण भारतीय फिल्मों में अभिनय कर नाम कमाने के बाद तमाम हीरोईन बौलीवुड में आकर अपना नाम रोशन कर चुकी हैं. मगर दक्षिण भारतीय फिल्मों का कोई भी हीरो अब तक बौलीवुड में लंबे समय तक टिक नहीं पाया. जबकि कमल हासन, सूर्या, राणा डग्गूबटी सहित कई दक्षिण भारतीय हीरो बौलीवुड में यदा कदा काम करते रहते हैं.

तो दूसरी तरफ अब तक बौलीवुड में नाम कमाने के बाद कुछ कलाकार दक्षिण भारतीय फिल्मों से जुड़े हैं. मगर दक्षिण भारत में इन कलाकारों को हीरों नही बल्कि विलेन के रूप में ही काम मिला. मगर ग्वालियर में जन्में एक डाक्टर पिता के बेटे हर्षवर्धन राणे ने हिंदी टीवी सीरियल ‘‘लेफ्ट राइट लेफ्ट’’ में अभिनय कर शोहरत बटोरी और फिर उन्हें दक्षिण भारतीय फिल्मों में बतौर हीरो अभिनय करने का मौका मिल गया.

महज तीन साल के अंदर हर्षवर्धन दक्षिण भारत की आठ फिल्मों में बतौर हीरो अभिनय कर जबरदस्त शोहरत बटोर चुके हैं. इस तरह हर्षवर्धन ने सिनेमा जगत में एक नए इतिहास को रचा है. दक्षिण भारतीय फिल्मों में व्यस्तता के चलते हर्षवर्धन राणे ने संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘‘रामलीला: गोलियों की रासलीला’’ में अभिनय करने का आफर ठुकरा दिया था. उसके बाद हर्षवर्धन राणे ने जान अब्राहम निर्मित फिल्म ‘‘सत्रह को शादी’’ तथा विनय सप्रू व राधिका राव निर्देशित फिल्म ‘‘सनम तेरी कसम’’ जैसी हिंदी फिल्में की है. इन दो हिंदी फिल्मों में से ‘‘सनम तेरी कसम’’ पांच फरवरी को तथा दूसरी फिल्म ‘‘सत्रह को शादी’’ इस साल के अंत तक रिलीज होगी.

दक्षिण भारतीय फिल्मों में बतौर हीरो फिल्में कर नया इतिहास रचने की बात स्वीकार करते हुए खुद हर्षवर्धन राणे ने कहा-‘‘मैंने दक्षिण भारत में बतौर हीरो आठ फिल्में की हैं. हर फिल्म में अलग तरह का किरदार निभाया है. मैं पहला उत्तर भारत का रहने वाला हिंदी भाषी बंदा हूं,जो कि उत्तर भारत से जाकर दक्षिण भारत में हीरो बना. अन्यथा हिंदी भाषी कलाकार वहां पर विलेन के रूप में काम करते हैं. इतना ही नहीं वहां पर हर फिल्म में हीरो बनने के लिए तमाम कलाकार तैयार बैठे होते हैं.’’

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए हर्षवर्धन राणे कहते हैं-‘‘दक्षिण भारत के लोगों के साथ मेरे बहुत अजीब से रिश्ते बन गए हैं. जब मैंने हिंदी फिल्म साइन की थी,तो इसकी खबर मिलते ही वहां के लोगों और वहां के फिल्मकारों ने बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएं मेरी फेसबुक पर लिखी. मुझे फेसबुक पर दो लाख लोग लाइक करते हैं. दक्षिण भारत के दर्शक मुझे अपना बच्चा मानते हैं. मैंने तो वहां पर काम करते हुए अभिनय सीखा. मैं तो अपनी गलतियों से सीखता चला गया. दक्षिण भारत के दर्षकों ने मुझे ग्रो होते हुए देखा है. मुझे लगता है कि मुझे वहां एक परिवार मिल गया है.मैं हर फिल्म में काम करते हुए सोचता हूं कि मैं ऐसा काम करूं कि जो लोग मेरी फिल्म देखें,कहें कि मैंने अच्छा काम किया.’’

इस साल बौलीवुड में हर्षवर्धन राणे के अलावा अनिल कपूर के बेटे व सोनम कपूर के भाई हर्षवर्धन कपूर भी कदम रख रहे हैं. हर्षवर्धन कपूर को राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने अपनी फिल्म ‘‘मिर्जिया’’ में रोमांटिक किरदार में चुना है. ऐसे में हर्षवर्धन राणे खुद को कितना असुरक्षित महसूस करते हैं? इस सवाल के जवाब में हर्षवर्धन राणे बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते हैं-‘‘जी हूं! इस साल बालीवुड में दो हर्षवर्धन आ रहे हैं. एक मैं हूं और एक अनिल कपूर के बेटे हर्ष वर्धन कपूर हैं. उन्हें जब से राकेश ओम प्रकाश मेहरा फिल्म ‘मिर्जिया’ दी है, तभी से बौलीवुड ने उन्हें अपना बना लिया है. मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म रिलीज के बाद लोग मेरी भी फिल्म की चर्चा करें. बौलीवुड के लोग मुझे भी अपना प्यार दें.’’

 

 

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