Download App

भारत भूमि युगे युगे

सोने नहीं दूंगा

दिल्ली के मुख्यमंत्री ने ऐलान कर दिया है कि वे शीला दीक्षित नहीं हैं, अरविंद केजरीवाल हैं. इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैन से सोने नहीं देंगे. दिल्ली में फिर से बच्चियों के साथ हुए दुष्कर्म के बाद अरविंद केजरीवाल उपराज्यपाल, नजीब जंग से मुलाकात कर बाहर आए तो बेहद तिलमिलाए हुए थे. जाहिर है भीतर वे ही चैन से बैठ नहीं पाए थे. एक सांस में कई बातें कर गए अरविंद केजरीवाल को शायद मालूम नहीं कि वैसे ही नरेंद्र मोदी बमुश्किल 4 घंटे सो पाते हैं और अपनी यह पीड़ा वे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तक से साझा कर चुके हैं, ऐसे में उन की नींद और हराम करना कोई तुक की बात नहीं. खानापीना मुश्किल करें तो बात एकदफा बन सकती है. बेहतर तो यह होगा कि वे दिल्ली के लोगों के लिए बेफिक्री से सोने की व्यवस्था करें.

*

स्वीट सिक्सटी

जयराम रमेश की गिनती कांग्रेस के बुद्धिजीवी और होनहार नेताओं में होती है, शायद यही साबित करने के लिए वे बीते दिनों कह बैठे कि अब कांग्रेस से 60 की उम्र के नेता चलता कर दिए जाएंगे, वे अब सलाहकार की भूमिका निभाएंगे. इस सनातनी बात के इतने ही माने निकालने वालों ने निकाले कि अगर ऐसा किया तो कांग्रेस में राहुल और उन के 10 सदस्यीय फ्रैंड्स क्लब के अलावा कौन बचेगा. दूसरे, अब कांग्रेस कहां है और कितनी बची है और तीसरे, खुद जयराम रमेश और सोनिया गांधी क्या करेंगे. सलाहकार बन जाएं, हर्ज की बात नहीं. पर सलाह देंगे किसे?

*

उपले औनलाइन

उपलों या कंडों की इकलौती खूबी यह है कि ये गाय के गोबर से ही बनाए जा सकते हैं क्योंकि किसी और जानवर के गोबर की संरचना ऐसी नहीं होती कि उस के उपले बनाए जा सकें. इधर, देशभर में गाय और उस के मांस पर कोहराम मचा रहा और उधर उपले औनलाइन बिक गए, वह भी 20 रुपए का एक. ऐसे में कई न्यूज चैनल वाले उपला निर्माताओं के पास यानी तबेलों में गए और उन के इंटरव्यू ले डाले. हिंदू धर्म के हर कर्मकांड में उपले अनिवार्य हैं. बगैर इन के धुएं के हर्ष और शोक नहीं मनाए जा सकते. अब हालत यह है कि बढ़ते शहरीकरण के चलते लोग उपला दर्शन को तरस जाते हैं. नई पीढ़ी के बच्चों ने तो दुर्लभ होते इस आइटम को देखा भी नहीं है. वह धर्म ही है जो घासफूस और उपलों तक को भी औनलाइन बिकवा रहा है, इसलिए धन्य भी है.

*

एक रात का साथ

महाराष्ट्र में कुछ भी ठीकठाक नहीं है. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे कभी भाजपा को हड़का देते हैं तो कभी पीएम नरेंद्र मोदी की खिंचाई करते हैं. जवाब में भाजपा ने आखिरकार इशारा कर ही दिया कि वह भी कुछ भी कर सकती है. दिन तो पूरा साथ गुजारा ही, बीती 17 अक्तूबर की रात वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बारामती में राकांपा सुप्रीमो शरद पवार के घर में बिताई. यह बात हैरान कर देने वाली थी. वजह, मंत्री अव्वल आजकल रात बेवजह कहीं और बिताते नहीं,  मजबूरी हो तो रैस्ट हाउस या सर्किट हाउस या किसी पांचसितारा होटल में चले जाते हैं. हालांकि पवार का घर भी किसी राजमहल से कम नहीं लेकिन वह कृत्य जानबूझ कर किया गया था ताकि उद्धव ठाकरे संभल जाएं. और अगर वे न संभले तो भाजपा संभलने के लिए पवार का पल्ला थाम सकती है.

दनकौर दलित कांड

जब पुलिस और प्रशासन पीडि़त पक्ष की बात नहीं सुनते तो पीडि़त किसी भी हद तक जाने की कोशिश करता है. कोई पानी की टंकी पर चढ़ जाता है, कोई पेड़ पर चढ़ कर फांसी लगाने की धमकी देता है, कुछ धरनाप्रदर्शन, तोड़फोड़ करते हैं. बस्ती जिले में एक सपेरे ने परेशान हो कर तहसील में सांप छोड़ दिया था. दनकौर में महिलाओं सहित पूरा परिवार कपड़े उतार कर प्रदर्शन करने लगा, जिस ने समाज के सभ्य चेहरे का मुखौटा उतार दिया. दनकौर की घटना ने पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए. इस से पता चलता है कि आज भी दलितों की बात सुनी नहीं जाती है. शर्मनाक घटना से सबक न लेते हुए पुलिस ने पूरे परिवार पर आधा दर्जन धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर महिलाओं व बच्चों सहित सब को जेल भेज दिया. उत्तर प्रदेश का गौतमबुद्ध नगर, महात्मा गौतम बुद्ध के नाम पर बसा है. यहीं दनकौर नामक जगह है. कहते हैं दनकौर को गुरु द्रोणाचार्य ने बसाया था. दनकौर थाने के अंतर्गत आने वाले गांव अट्टा गुजरान में सुनील गौतम का परिवार रहता है. सुनील के परिवार में उस का बड़ा भाई सोहनलाल आटो चलाने का काम करता है. सुनील गांव की जमीन पर खेती करता है. उस का छोटा भाई सुदेश सब्जी बेचने का काम करता है.

सोहनलाल की पत्नी का नाम रामकली है. सुनील के परिवार के नाम 8 बीघा जमीन का पट्टा मिला था. यह जमीन ग्रामसमाज की थी. जब यहां पास से यमुना ऐक्सप्रैसवे निकला तो जमीन की कीमत बढ़ गई. उस समय 1 बीघा जमीन पर गांव के दबंगों ने कब्जा कर लिया. इस बात को ले कर सुनील और उस के परिवार ने तहसील व थाने में शिकायत दर्ज कराई. 5 अक्तूबर को गांव के एक आदमी के साथ सुनील की लड़ाई हुई. सुनील इस बात की शिकायत ले कर दनकौर थाने गया. वहां पुलिस ने शिकायत तो दर्ज की पर आरोपी की गिरफ्तारी नहीं की. इस बात को ले कर सुनील ने थाने जा कर संपर्क किया तो पुलिस ने कहा कि यह शिकायत फर्जी है. सुनील इस बात से दुखी और परेशान था.

उसे लग रहा था कि पुलिस सही से मामले की जांच नहीं कर रही है. इस के विरोधस्वरूप वह थाने के पास ही बीएल चौक पर परिवार सहित धरना देने चला गया. पुलिस ने इन लोगों को संदेश भेज कर धरना खत्म करने को कहा. धरना खत्म न करने की दशा में अंजाम भुगतने की चेतावनी भी दी. इस बात पर गुस्से में आए परिवार ने नग्न अवस्था में प्रदर्शन करने का ऐलान कर दिया. परिवार के पुरुष सदस्य कपड़े उतार कर प्रदर्शन करने लगे. इस बीच पुलिस आई और वह इन लोगों को बर्बरतापूर्वक पकड़ कर जीप में डालने लगी. परेशान हालत में फंसे सुनील गौतम और उस के परिवार के लोगों को कुछ समझ नहीं आया तो परिवार की महिला सदस्य भी कपड़े उतार कर विरोध प्रदर्शन में शामिल हो गईं. पुलिस ने इन की मदद करने के बजाय पूरे परिवार को अश्लीलता फैलाने के जुर्म में जेल भेज दिया. पुलिस ने सुनील के परिवार के लोगों को धारा 307, 232, 323, 147, 148, 353, 294, 394 और 7 क्रिमिनल ऐक्ट के तहत जेल भेज दिया. महिलाओं के साथ 3 छोटेछोटे बच्चों को भी जेल जाना पड़ा. इन में ढाई साल का दुष्यंत, 2 साल का गुंजन और 3 साल की अवनी शामिल हैं.

वायरल हुए फोटो और वीडियो

दनकौर थाने की यह घटना पूरे देश में अपनी तरह की अलग घटना थी. भारत में नग्न हो कर प्रदर्शन करना साधारण बात नहीं थी. युके्रन का फेमिनन ग्रुप नग्नावस्था में प्रदर्शन करने के लिए विख्यात है. विदेशों में ऐसे प्रदर्शन आम बात हैं. भारत में इस तरह का प्रदर्शन पूरे समाज पर सवाल खड़े कर रहा था. स्थानीय मीडिया ने इस घटना को ज्यादा तूल नहीं दिया. वाट्सऐप पर इस घटना के फोटो और वीडियो वायरल होने से पूरा जिला प्रशासन कठघरे में आ गया. सब से पहले इस बात का प्रचार किया गया कि पुलिस ने दलित परिवार को पीटा जिस से परिवार के सदस्य कपड़े उतारने के लिए मजबूर हो गए. बाद में यह पक्ष भी सामने आया कि पीडि़त परिवार ने खुद ही कपड़े उतार कर प्रदर्शन किया. दनकौर थाने के प्रभारी प्रवीण यादव ने पीडि़त परिवार पर संयम न बरतने, पुलिस के साथ मारपीट करने और रिवौल्वर छीनने के आरोप लगाए.

जिला पुलिस पीडि़त परिवार पर रासुका यानी गैंगस्टर ऐक्ट लगाने की तैयारी कर रही थी. इसी बीच दलित मुद्दों को ले कर काम करने वाले समाजसेवियों ने दनकौर प्रकरण पर अपना विरोध शुरू कर दिया जिस से उत्तर प्रदेश सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ा. दलित समाज के लोग पूरे प्रकरण की उच्चस्तर की जांच की मांग कर रहे हैं. उन का कहना है कि जब बिना जांच के दनकौर पुलिस ने सुनील गौतम के मुकदमे को फर्जी करार दे दिया तो उस के सामने दूसरा रास्ता क्या था? सुनील और उस के परिवार ने जो किया वह गलत भले हो पर इस से तहसील व थाने को क्लीन चिट कैसे दी जा सकती है? अगर जमीन कब्जा प्रकरण पर तहसील और थाने द्वारा सही कदम उठाए गए होते तो यह नौबत ही नहीं आती. नोएडा के एसडीएम सुभाष यादव ने कहा कि सुनील जिस जमीन पर कब्जे की बात कर रहा है वह ग्रामसमाज की है. उसे सरकार ने यमुना ऐक्सप्रैसवे के लिए अधिगृहीत कर रखा है. इन का गांव के एक आदमी से झगड़ा था जिस के खिलाफ मुकदमा लिखाया.

पुलिस पर उठे सवाल

औल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय प्रवक्ता और पूर्व डीआईजी एस आर दारापुरी कहते हैं, ‘‘कोई आदमी अपने परिवार के सामने खुद भी कपड़े उतार रहा हो और अपनी पत्नी, भाभी सब के साथ मिल कर प्रदर्शन कर रहा हो, यह हलके में लेने वाली बात नहीं है. बड़ी परेशानी में ही कोई ऐसा कदम उठाता है. पुलिस को पूरे मसले में जिस शालीनता के साथ काम करना चाहिए था, वह नहीं किया. अगर पुलिस मामले को जमीन के झगड़े से जोड़ कर देख रही है तो थाना और तहसील की जिम्मेदारी थी कि इस बात को पहले क्यों नहीं सुलझाया. पुलिस ने जिस तरह से परिवार की औरतों और बच्चों को जेल भेजा है उस से यह पता चलता है कि पुलिस जनता के हित में काम नहीं कर रही है.’’

दनकौर में दलित उत्पीड़न की घटना का विरोध बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने भी किया. मायावती ने कहा कि समाजवादी पार्टी के राज में दलितों का उत्पीड़न बढ़ जाता है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में गांधी प्रतिमा पर दलित और महिला संगठनों ने धरना दे कर पुलिस की निंदा की. जनवादी महिला संगठन की सीमा राना ने कहा कि पुलिस वालों को पता था कि महिलाएं धरना दे रही हैं. इस जानकारी के बाद भी वे बिना महिला पुलिस के उन लोगों की गिरफ्तारी के लिए क्यों गए? पुलिस ने धरना दे रहे परिवार के खिलाफ जो सुलूक किया है वह किसी भी तरह से मानवीय नहीं है. उत्तर प्रदेश पुलिस पर इस बात के तमाम आरोप लग रहे हैं जिन में वह पक्षपातपूर्वक व्यवहार करती रही है.

पुरस्कार सम्मान वापसी : साहस है सियासत नहीं

14 अक्तूबर को अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने ‘2014 अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट’ प्रकाशित की, जिसे अमेरिकी विदेशी मंत्री जौन कैरी ने जारी किया. रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय प्रशासन अब भी ‘धार्मिक भावनाओं’ की रक्षा के लिए बनाए गए कानून को लागू कर रहा है. इस कानून का मकसद धर्म के आधार पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करना है. भारत के 29 में से 6 राज्यों में धर्मांतरण कानून लागू है, वहां धर्म के आधार पर हत्या, गिरफ्तारी, जबरिया धर्मांतरण और सांप्रदायिक दंगे होते हैं, साथ ही, धर्म परिवर्तन करने में बाधा पैदा की जाती है.

सीधेसीधे देखा जाए तो रिपोर्ट का सार यह है कि भारत में धर्म के आधार पर भेदभाव, हत्याएं और गिरफ्तारियां होती हैं एनडीए के मौजूदा शासनकाल में मई 2014 से ले कर दिसंबर 2014 तक धर्म से प्रेरित हमलों की 800 से भी ज्यादा वारदातें हुईं. रिपोर्ट जारी होने के बाद अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता मामलों के अमेरिकी राजदूत डेविड सेपरस्टीन ने भारत को पुचकारते हुए नसीहत दी कि उसे सहिष्णुता और सभ्यता के आदर्शों को अमल में लाना चाहिए इस बाबत नरेंद्र मोदी सरकार को प्रोत्साहित किया जाएगा जिन्होंने काफी देर में दादरी के बिसाहड़ा कांड को ले कर लोगों से सांप्रदायिक सद्भाव की अपील की. रिपोर्ट की अहमियत या माने इसी बात से समझे जा सकते हैं कि किसी मंत्री, नेता, धर्मगुरु या साहित्यकार ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की. किसी ने इसे गलत ठहराते हुए एतराज नहीं जताया लेकिन ठीक इसी दौरान साहित्यकारों द्वारा लौटाए जा रहे सम्मानों व पुरस्कार वापसी को ले कर हाहाकार मचा हुआ था. साहित्यकार थोक में सम्मान लौटा रहे थे, खासतौर से वे जिन्हें साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया था. इन सभी के तेवर सरकार विरोधी थे. सभी ने एक सुर से दोहराया कि कन्नड़ लेखक एम एम कुलबर्गी की हत्या पर साहित्य अकादमी की चुप्पी नाकाबिले बरदाश्त है और दादरी कांड शर्मनाक है, इसलिए हम विरोधस्वरूप सम्मान पुरस्कार और राशि लौटा रहे हैं.

इस अभियान, जो जल्द ही साहित्यिक अनुष्ठान में बदल गया, की शुरुआत अंगरेजी की लेखिका नयनतारा सहगल ने की थी जो जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं. नयनतारा सहगल कोई बहुत जानापहचाना नाम नहीं है पर जो लोग उन्हें जानते हैं वे उन के लेखन के साथ उन की व्यक्तिगत जिंदगी से भी प्रभावित हैं. बेहद खूबसूरत नयनतारा 88 साल की हैं. नयनतारा सहगल ने सम्मान लौटाते वक्त जो बातें कहीं वे दरअसल उन के बाद सम्मान लौटाने वालों का संविधान सा बन गईं. हालांकि उन के पहले एक अन्य लेखक उदय प्रकाश भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा चुके थे. लेकिन चूंकि नयनतारा जवाहरलाल नेहरू की भांजी और इंदिरा गांधी की कजिन थीं, इसलिए यह प्रचार भी जल्द हो गया कि ये सब कांग्रेस के इशारे पर हो रहा है. लेकिन नयनतारा की दलीलों को कोई नजरअंदाज नहीं कर पाया. बकौल नयनतारा, अंधविश्वासों पर सवाल उठाने वाले तर्कवादियो, हिंदू धर्म की बदसूरत और खतरनाक विकृति हिंदुत्व के किसी पहलू पर सवाल उठाने वालों के अधिकार छीने जा रहे हैं, हत्याएं तक हो रही हैं फिर चाहे उन के सवाल बौद्धिकता या कलात्मकता के क्षेत्र में हों या खानपान की आदतों व जीवनशैली पर. साहित्य अकादमी विजेता कन्नड़ लेखक और समाजसेवक एम एम कुलबर्गी सहित नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्याओं का जिक्र करते हुए नयनतारा ने कहा कि इन सभी को बंदूकधारी मोटरसाइकिल सवारों ने मार डाला. दूसरों को भी चेतावनी दी गई. दादरी (उत्तर प्रदेश) के पास बिसाहड़ा गांव में ग्रामीण लोहार मोहम्मद इखलाख को घर से बाहर खींच कर पीटपीट कर मार डाला गया वह भी मात्र इस शक के चलते कि उस ने अपने घर में गोमांस पकाया था.

नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलते हुए नयनतारा ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री आतंक की इस हुकूमत पर चुप हैं, इस से लगता है कि वे अपनी विचारधारा को समर्थन देने वाले शरारती तत्त्वों को बाहर करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. इस संबंध में साहित्य अकादमी की चुप्पी भी दुखद है. जिन भारतीयों की हत्या कर दी गई उन की याद में विरोध जताने के अधिकार पर भरोसा करने वाले सभी भारतीयों के पक्ष में और डर व अनिश्चितता में जी रहे सभी अन्य विरोधियों के लिए मैं अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रही हूं.’’

संभले या लड़खड़ाए

भाजपा संगठन और सरकार ने नयनतारा के बयान को हलके में लेने में ही भलाई समझी और बात या विवाद को इस मुकाम पर खत्म करने की असफल कोशिश की कि चूंकि वे नेहरू खानदान से हैं, इसलिए ऐसा करेंगी ही. 84 के दंगों के वक्त उन्होंने यह सम्मान क्यों नहीं लौटा दिया था. जाहिर है यह बयान नयनतारा सहगल द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब नहीं था बल्कि सवाल पर किया गया सवाल था. नरेंद्र मोदी पर लगाए गए आरोपों का खंडन किसी ने नहीं किया. उलटे, नयनतारा सहित दूसरे साहित्यकारों और कलाकारों पर ही आरोप मढ़ने शुरू कर दिए गए कि चूंकि वे कांग्रेसी और वामपंथी विचारधारा के हैं, इसलिए सम्मान लौटा रहे हैं. नयनतारा सहगल के बाद दूसरे दिन 7 अक्तूबर को मशहूर साहित्यकार अशोक बाजपेयी ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया. वजह और शब्द वही थे जो नयनतारा सहगल के थे. इस के बाद तो मानो सम्मान लौटाने की होड़ सी लग गई. सरकार को इस झटके का एहसास 12 अक्तूबर को हुआ जब कश्मीरी लेखक गुलाम नबी खयाल, उर्दू साहित्यकार रहमान अब्बास, हिंदी लेखक मंगलेश डबराल, कन्नड़ लेखक व अनुवादक श्रीनाथ डी एन, पंजाबी लेखक वरयाम संधू और सुरजीत पाटर, हिंदी के राजेश जोशी, पंजाबी के बलदेव सिंह सदाकनाया, जसविंदर, दर्शन बुट्टर व कन्नड़ अनुवादक जीएन रंगनाथ राव ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए. इस के बाद जिन लोगों ने पुरस्कार लौटाए उन में गुरुचरन सिंह भुल्लर, अजमेर सिंह, चमनलाल (सभी पंजाबी), के वरिभद्रप्पा, रहमत तारीकेही, काशीनाथ अंबारूणी, के नीला (सभी कन्नड़) के अलावा अंगरेजी के के एन दारूवाला, असमिया के होमेन बोरगोहेन, राजस्थानी के नंद भारद्वाज, गुजराती की गणेश देवी, बंगला के मंदाक्रांत सेन शामिल हैं.

इधर, बुकर पुरस्कार विजेता सलमान रुशदी भी खुल कर इन साहित्यकारों के पक्ष में आ गए. रुशदी का कहना था कि नयनतारा सहगल और दूसरे कई लेखकों के साहित्य अकादमी  के प्रति विरोध का मैं समर्थन करता हूं. भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह खतरे का वक्त है. साहित्यकारों की इस एकजुटता से सरकार को खतरा महसूस होने लगा था. लिहाजा, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा को यह सफाई देने को मजबूर होना पड़ा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कोई खतरा नहीं है. लेखकों को इस तरह अकादमी से इस्तीफा नहीं देना चाहिए. (अभिप्राय यह था कि पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए). राजनीतिक भाषा के इस्तेमाल के आदी इन मंत्रीजी ने इस गंभीर मसले पर भी राजनीतिक भाषा का इस्तेमाल यह कहते हुए किया कि अगर किसी लेखक को समस्या है तो वह प्रधानमंत्री को पत्र लिखे पर इस्तीफा देना विरोध को प्रकट करने का तरीका नहीं है. बात को संभालने के चक्कर में महेश शर्मा का यह कहना एक तरह से लड़खड़ाना ही था कि हम लेखकों की हत्या की कड़ी निंदा करते हैं पर कानून व्यवस्था राज्य का विषय नहीं है.

इस बात के पीछे की मंशा 2 संवेदनशील वारदातों के बारे में यह जताना थी कि जिन राज्यों में ये वारदातें हुईं वे भाजपा शासित नहीं थे. इस से ज्यादातर हास्यास्पद बात कोई और हो ही नहीं सकती कि साहित्यकार बात कर रहे थे नरेंद्र मोदी की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बाधित होने की, बढ़ते धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिकता की और इन से भी ज्यादा अहम इन मुद्दों पर प्रधानमंत्री की चुप्पी की तो उन्हें नसीहत दी जा रही है कि विरोध करना है तो उत्तर प्रदेश और कर्नाटक सरकार का करो. बात या बातें यहीं खत्म नहीं हुईं बल्कि शुरू यहीं से हुईं. केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली और संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहते इन साहित्यकारों पर पलटवार करने की कोशिश की कि आपातकाल और मुजफ्फरनगर दंगों के वक्त क्यों पुरस्कार व सम्मान लौटाने की बात याद नहीं आई.बात कहनेसुनने में अच्छी थी लेकिन शायद इन मंत्रियों का अभिप्राय यह जताना था कि प्रैस की स्वतंत्रता का जितना हनन आपातकाल में हुआ उतना इस वक्त नहीं हो रहा और धार्मिक सांप्रदायिक उन्माद का पैमाना बजाय दादरी के मुजफ्फरनगर को माना जाना चाहिए. शायद ही ये मंत्री बता पाएं, जो जानबूझ कर मुद्दे की बात से कन्नी काट रहे हैं कि पुरस्कार लौटाने वाले ये साहित्यकार राजनेता नहीं हैं. वे देश के बिगड़ते माहौल की बात कर रहे हैं. धर्मांध और तर्क करने वाले लेखकों की हत्या पर अनदेखी की बात कर रहे हैं. ऐसे में आपातकाल की याद दिला कर वे साबित क्या करना चाह रहे हैं, बात समझ से परे नहीं कि यह शुद्ध धौंस है.

शायद यह भी इन्हें मालूम नहीं कि अपने जमाने के मशहूर लेखक, पत्रकार और स्तंभकार खुशवंत सिंह ने पद्मश्री पुरस्कार स्वर्ण मंदिर में सेना के कब्जे को ले कर लौटा दिया था.यह भी तय है कि यह इन्हें नहीं मालूम कि अपने जमाने के मशहूर  साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में पद्मश्री लौटा दिया था और वे सड़क पर उतरे, जनता की आवाज बुलंद करते हुए जेल भी गए थे. साहित्यप्रेमी आज भी उन की कृति ‘मैला आंचल’ चाव से पढ़ते हैं.इस का यह मतलब कतई नहीं कि रेणु कोई भगवा या कट्टर हिंदू किस्म के साहित्यकार थे बल्कि जिस उपन्यास (मैला आंचल) के लिए उन्हें पद्मश्री मिला वह प्रेम पर आधारित था. फिर क्यों इन साहित्यकारों को कांगे्रसी या वामपंथी करार देते हुए लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है? साहित्यकारों को राजनीतिक विचारधाराओं और दलील आधार पर बांट कर देखने की बेवजह की यह कोशिश बचकानी नहीं तो क्या है?प्रसंगवश यहां रवींद्रनाथ टैगोर का उल्लेख जरूरी है जिन्होंने जालियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में नाइटहुड की उपाधि अंगरेजों को वापस लौटाते हुए विरोध जताया था जबकि टैगोर पर आज तक अंगरेजी हुकूमत के चाटुकार होने का आरोप लगता है. पिछले साल ही अभिनेता गिरीश कर्नाड ने इस आशय का बयान दिया था.

इन साहित्यकारों द्वारा सम्मान और पुरस्कार वापसी का सिलसिला थमा नहीं. हिंदी के ही नामी साहित्यकार काशीनाथ सिंह के 16 अक्तूबर को साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की खबर से हलचल और बढ़ी. वजह, काशीनाथ सिंह अपने ठेठ बनारसी अंदाज व तेवरों के लिए जाने जाते हैं. किसी विचारधारा के अनुयायी होने का ठप्पा उन पर नहीं लगा है. तो फिर उन्होंने भी इस जमात में शामिल होना पसंद क्यों किया? इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक के लेखक देश के वर्तमान माहौल, सरकार खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दोहरी मानसिकता और साहित्य अकादमी की उदासीनता से न तो संतुष्ट हैं और न ही सहमत हैं.इसी कड़ी में 18 अक्तूबर को मौजूदा दौर के मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने भी ड्रामाई अंदाज में यह पुरस्कार वापस लौटाया तो उन पर सोनिया गांधी के हिमायती होने का इलजाम लग गया. राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया की मनोदशा पर मुनव्वर राणा ने उन की व्यथा और द्वंद्व पर एक नज्म लिखी थी जो काफी लोकप्रिय हुई थी.

बिगड़ी सरकार की इमेज

इस में शक नहीं कि साहित्य इन दिनों संधि और संक्रमण काल से गुजर रहा है. नई पीढ़ी के सामने एक चौराहा है. कहां जाना है, यह नए साहित्यकारों को नहीं मालूम. उन के पास आक्रामक शब्द तो हैं पर स्पष्ट विचार नहीं हैं. जिन्होंने पुरस्कार लौटाने का सराहनीय काम किया उन की भी एक चिंता यह है कि आखिर देश जा कहां रहा है और हम भी क्यों खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं. जब बात बरदाश्त के बाहर हो गई तो इन के पास जो कारगर तरीका था वह अपनाते हुए उन्होंने सरकार का विरोध किया. इस बौद्धिक विरोध से सरकार की छवि बिगड़ी. वजह, एक बात साहित्य से दिलचस्पी न रखने वाला भी जानता है कि जैसा भी हो, आखिरकार साहित्यकार बेहद संवेदनशील होता है. वह सामाजिक बदलावों पर गहरी नजर रखता है. एक साहित्यकार ही है जो किसी भी गलत और सही बात पर प्रतिक्रिया जरूर देता है. पुरस्कार लौटाने वालों ने दरअसल सरकार की खामियों, भेदभाव व कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा दिए हैं.

इन निशानों को मिटाने छुटभैए नवोदित साहित्यकारों में बड़ा जोश देखा गया जो खासतौर से सोशल मीडिया पर साहित्यिक भाषा में ही यह कहते नजर आए कि विरोध जताने का यह कौन सा तरीका है. बहुमत से चुनी गई सरकार और प्रधानमंत्री का विरोध करना है तो लिख कर कीजिए, किस ने हाथ पकड़ा है आप का. यों पुरस्कार लौटा कर आप सरकार का विरोध नहीं बल्कि साहित्य अकादमी का विरोध कर रहे हैं जो लेखकों की एक स्वायत्त संस्था है. यह जनता की भी बेइज्जती है क्योंकि उसी के पैसे आप को इनाम में मिले थे. अपना एक अलग महत्त्व रखने वाले पर सीमित दायरे में जीने व सोचने वाले इन कसबाई साहित्यकारों पर तरस ही खाया जा सकता है जो बहुमत की दुहाई दे रहे हैं. यानी वे नेताओं की जबान बोल रहे हैं. इन्हें शायद नहीं मालूम कि दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी किस शैली के लेखक थे और उन की हत्या कर क्या हत्यारों ने संदेश दिया. बात सच है कि लिखने में कोई किसी का हाथ नहीं पकड़ रहा है, सीधे गरदन दबोची जा रही है.

पाकिस्तानी गजलकार गुलाम अली को महाराष्ट्र में गाने नहीं दिया गया और भजन गायक अनूप जलोटा को प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य बना दिया जाता है जो हरिगुण गाते रहते हैं. यह समूचे साहित्य, कला और संस्कृति को अपने हाथ में ले कर मुट्ठी में दबोचने की शुरुआत नहीं तो क्या है? एफटीआईआई पुणे के छात्र 5 महीने से हड़ताल पर हैं पर उन की बात नहीं सुनी जा रही जो नवनियुक्त चेयरमैन गजेंद्र चौहान को हटाने की मांग पर अड़े हैं. जाहिर है सबकुछ ठीक नहीं है. षड्यंत्र साहित्यकार रच रहे हैं या सरकार, यह आम आदमी तय करेगा. विरोध तो हर एक का हक है जिसे कोई सड़क पर प्रदर्शन कर जताता है, कोई सिर मुंडा कर तो कोई अधनंगे और नंगे हो कर जताता है. यह बुद्धि और स्तर की बात है. इस पर किसी तरह की हंसीठिठोली या ताने को लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला ही कहा जाएगा. साहित्य समाज का दर्पण अब रह गया है या नहीं, इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं पर साहित्यकारों को एक बौद्धिक संपदा न कहना जरूर उन के साथ ज्यादती होगी. कट्टरपंथियों के निशाने पर हमेशा रहीं बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन बेवजह नहीं कहतीं कि दादरी हादसे को देख डर लगने लगा है.

सोचना बेमानी है और अव्यावहारिक कि ये सब जानबूझ कर योजनाबद्ध तरीके से नरेंद्र मोदी को कमजोर करने के लिए किया गया. अगर साहित्यकारों के समर्थन या विरोध से सत्ता मिलती और छिनती होती तो यह भी तय है कि नेता गलीगली घरघर जा कर वोटों के लिए झोली नहीं फैलाते. इन साहित्यकारों को ही पालपोस कर रखते. लेकिन लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने माने होते हैं जिसे अभी तक कोई नकार नहीं पाया. जाने क्यों इस अहम बात की सिरे से अनदेखी की जा रही है कि साहित्यकार सिर्फ विरोध जता रहे हैं पर उन का तरीका जरूर वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक परिदृश्यों को प्रभावित करने वाला है तो इस में उन का क्या कुसूर. यह तो आने वाला वक्त तय करेगा कि उन का यह कदम सम्मान का अपमान था या उस की सार्थकता थी. यह डर एक या अनेक लेखक- लेखिकाओं का नहीं, बल्कि आम नागरिकों का भी हो सकता है जिन के प्रति उत्तरदायी लेखक विरोधस्वरूप यथासंभव जो कर रहे हैं उस पर तिलमिलाहट क्यों?

राज व्यवस्था

1947 में हमें स्वतंत्रता मिली थी पर अंगरेजों से उपहार में. हम ने किया बहुत कम था पर बातें बड़ी बनाई थीं और गांधीनेहरू का राज उस समय कट्टर हिंदू राज से कहीं कम न था, जहां चलती चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, राजेंद्र प्रसाद, वल्लभभाई पटेल और खुद गांधी जैसे धर्मभक्तों की थी. नतीजा जो हुआ, सामने है. भारत गरीबी की गोद में समाया रहा. एक तो विभाजन का दंश झेला, ऊपर से अर्थव्यवस्था का घोर सरकारीकरण जो एक तरह से ब्राह्मीकरण था. जो आजादी अंगरेजों के गुलाम भारत में थी वह बहुत कम हो गई क्योंकि राज, कानून का नहीं, अफसरों का हो गया जो शिक्षित और सक्षम ऊंची जमातों के थे. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद देश के मेहनतकश गरीबों को सरकारी नौकरियों में घुसने की आस हुई. अतिरिक्त आरक्षण के लालच में उन्होंने जो शिक्षा लेनी शुरू की उस का परिणाम 1991 से 2008 तक दिख गया. भारत निरंतर आर्थिक प्रगति करता रहा और राममंदिर के भूकंप को भी सह गया.

भारतीय जनता पार्टी के प्रथम शासन के दौरान देश हिंदू राष्ट्र की दलदल में फंसने लगा. देश की बड़ी जनसंख्या को इस का एहसास भी हो गया और उस ने 2004 में विदेशी मूल की सोनिया गांधी के मुकाबले विशुद्ध भारतीय उच्च जाति के अटल बिहारी वाजपेयी को अस्वीकार कर दिया. यही नहीं, 2009 में भी जब यह डर सामने था कि कांगे्रस हारेगी, कांग्रेस जीत गई. पर 2014 में कट्टरवादियों ने दूसरी रणनीति अपनाई. उन्होंने कांगे्रस सरकार में विभीषणों की फौज तैयार की और साथ ही साथ धर्मप्रचारकों को देशभर में राजनीतिक प्रचार में लगा दिया. नतीजा यह हुआ कि गुजरात के 2002 के दंगों के धब्बों के बावजूद नरेंद्र मोदी को चुन लिया गया. लेकिन यह कोई विजय नहीं साबित हो रही. आम हिंदू राजाओं की तरह नरेंद्र मोदी चक्रवर्ती राजा बनने का सपना देखते हुए अपना अवश्वमेध यज्ञ का घोड़ा दुनियाभर में घुमा तो रहे हैं पर उन के राज में आम जनता त्राहित्राहि कर रही है.

रामायण की शंबूक कथा को राम के राज में अकाल मौतों का एक उदाहरण मानें तो उस के दोष का ठीकरा भी भारतीय जनता पार्टी गोमांस खाने वालों, पाकिस्तानियों, मुसलमानों, जाति के नाम पर अन्याय सह रहे दलितों, पिछड़ों पर थोपने की कोशिश कर रही है. हमारे हिंदू राजा भव्य यज्ञ करने में तो सदा आगे रहे हैं पर ठोस काम करने में फिसड्डी रहे हैं. उन्होंने कभी अपने राज में कानून व्यवस्था लागू नहीं की. अभिज्ञान शाकुंतलम् की शकुंतला की तरह ही युवतियां, चाहे वे मुनियों के आश्रमों में रहती हों, राजाओं के व्यभिचार से मुक्त नहीं रहीं. चाणक्य का अर्थशास्त्र शराब पिलाने, महाभारत का जुआ खेलने वालों, रामायण का शक में पत्नी को निकालने व भाई के आत्महत्या करने की बातें खुलेआम करते हैं. ऐसा हिंदू राज पश्चिमी एशिया के इसलामिक स्टेट की तरह का होगा, इस में शक नहीं. देश को हिंदू राज नहीं, अपना राज चाहिए ताकि आम आदमी के पास वोटों के माध्यम से जो थोड़ाबहुत अधिकार आया है वह छिन न जाए.

फितूर में फंसी कैटरीना

कैटरीना कैफ ने अपने शुरुआती कैरियर के दौर में भले ही हर तरह की फिल्में की हों लेकिन अब वे अपने कैरियर के लिए बेहद चूजी हो गई हैं. यही वजह है उन की भी आमिर खान की तरह साल में इक्कादुक्का फिल्में ही रिलीज होती हैं. फिलहाल कैटरीना फिल्म ‘फितूर’ को ले कर बड़ी जनूनी हो रही हैं. उन के मुताबिक, फितूर ने कलाकार के तौर पर उन के जनून को फिर से जिंदा कर दिया, ‘‘जब यह फिल्म शुरू हुई तो हम लोग सुस्त हो गए थे लेकिन बाद में मैं ने समझना शुरू किया और इस फिल्म से बहुतकुछ सीखा.’’ हालांकि एक सच यह भी है इस फिल्म में देरी रेखा की वजह से हो रही है. पहले वे लीड रोल में थीं और बाद में किन्हीं कारणों से फिल्म छोड़ दी और उन्हें तब्बू ने रिप्लेस किया और फिल्म को दोबारा शूट करना पड़ा. इस के चलते फिल्म लटक गई.

काम में यकीन रखते हैं नवाज

नवाजुद्दीन सिद्दीकी बौलीवुड में 90 के दशक में पदार्पण कर चुके थे लेकिन छोटीमोटी भूमिकाओं तक सिमटे रहे. नवाज 10-15 साल गुमनामी में ही रहे. संघर्ष करतेकरते आमिर खान की फिल्म ‘सरफरोश’ और ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ में चंद सैकंड के दृश्यों के अलावा इन के हाथ कुछ नहीं लगा. इस की कई वजहें रही होंगी. पहली कि जिस तरह का सिनेमा नवाज आजकल कर रहे हैं, उस दौरान उस तरह की फिल्मों के लिए न तो दर्शक थे और न ही बाजार. जाहिर है नवाज चौकलेटी हीरो के रोल तो कर नहीं सकते थे, लिहाजा उन दिनों उन का सफल होना मुश्किल ही था. उन के लुक और उन की अभिनय शैली तो आज भी उन्हें मेन स्ट्रीम का चौकलेटी हीरो नहीं बनने देगी. यह उन की सीमित प्रतिभा का भी परिचायक है और उन की कदकाठी व चेहरामोहरा भी इस में रुकावट डालता है. वे एक बेहतर कलाकार तो बन सकते हैं लेकिन पारंपरिक हीरो बन कर अभिनेत्रियों से रोमांस करना भी उन के लिए असहज है

हालांकि आज जिस प्रयोगधर्मी दौर में बौलीवुड गुजर रहा है, उस की बदौलत नवाज सफल हैं लेकिन अपने कंधे पर किसी भी फिल्म को सफल करा पाना उन के बस की बात नहीं. 100-200 करोड़ रुपए कमाना तो दूर की कौड़ी है. उन की लीड भूमिका की लगभग सभी फिल्में औसत बिजनैस कर पाई हैं फिर चाहे वह फिल्म ‘आत्मा’ हो या ‘मांझी द माउंटेन मैन’. बाकी बड़े सितारों के साथ ‘बदलापुर’ और ‘बजरंगी भाईजान’ व ‘किक’ जैसी फिल्में सफल हुईं तो सलमान खान और वरुण धवन की बदौलत. हरहाल, फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ से चर्चित हुए अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी आज फिल्म इंडस्ट्री में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं. वे एक ट्रैंड ऐक्टर हैं, उन्हें फिल्मों में आने का कोई खास शौक नहीं था. वे दिल्ली में नैशनल स्कूल औफ ड्रामा से प्रशिक्षण ले कर थिएटर में अभिनय करते थे. करीब 3 साल थिएटर में काम करने के बाद भी उन्हें अधिक पैसा नहीं मिला तो उन्होंने दोस्तों की सलाह पर मुंबई आने की ठान ली. यहां आने पर उन्हें लगा कि आसानी से काम मिल जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ. उन्हें लंबे संघर्ष से गुजरना पड़ा.नवाजुद्दीन उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना गांव के हैं. 9 भाईबहनों में सब से बड़े होने की वजह से परिवार का दायित्व उन पर था. जब वे गांव से निकले तो परिवार वालों को लगा कि वे अच्छा काम कर परिवार को सहारा देंगे. पर यह हो नहीं पा रहा था. वे कहते हैं कि परिवार वाले अनपढ़ हैं, अत: उन्हें समझाने की जरूरत नहीं पड़ी. उन्हें लगा कि यह जो भी कर रहा है अच्छा ही होगा. गांव से तो अच्छा ही कमा लेगा.

नवाज का कहना है, ‘‘पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं ने बड़ौदा में भी कुछ दिनों तक चीफ कैमिस्ट का काम किया. उस के बाद दिल्ली आया और नैशनल स्कूल औफ ड्रामा से प्रशिक्षण लेने के बाद अभिनय को अपना कैरियर बनाया. दिल्ली में थिएटर करते हुए मैं ने चौकीदारी का भी काम किया. मैं किसी भी काम को गलत नहीं समझता जब तक कि उस में मेहनत जुड़ी हो.’’नवाजुद्दीन अपनेआप को अब भी स्ट्रगलर ही मानते हैं. पहले काम न मिलने का संघर्ष, अब अच्छा काम मिलने का संघर्ष. इस तरह उन की खोज हमेशा जारी रहती है. वे भावुक हो कर कहते हैं, ‘‘मैं हमेशा कोशिश जारी रखता हूं. जब तक कि मुझे मनचाही चीज मिलती नहीं. छोटीछोटी भूमिका कर के ही आज मैं यहां तक पहुंचा हूं. कई बार ऐसा हुआ कि किसी बड़ी फिल्म में हीरो का रोल मिला. मैं खुश हुआ कि चलो मुझे बे्रक मिल गया. मेरे कौस्ट्यूम तक तैयार हो गए थे मगर अंत में मुझे बताए बिना ही फिल्म से निकाल दिया गया. मुझे बहुत बुरा लगा पर मैं ने हिम्मत नहीं हारी. ‘मांझी द माउंटेन मैन’ के दौरान जब एक सीन में बारबार हथौड़ा मारने पर भी पहाड़ नहीं टूटता, तब मैं पागलों की तरह पत्थर पर बारबार वार करता. उस सीन ने मुझे अपने पुराने दिनों में मिले रिजैक्शन की याद दिलाई. मैं भावुक हो उठा था.’’

फिल्मों के बदलते ट्रैंड के बारे में नवाजुद्दीन को काफी खुशी है. उन का कहना है, ‘‘बिना गौडफादर के कलाकारों को भी आगे आने का अब मौका मिल रहा है. उन की फिल्में हिट भी हो रही हैं.’’उन का यह भी कहना है, ‘‘बड़े बजट की फिल्मों में कहानी नहीं होती. बड़ी ‘स्टारकास्ट’ होती है. किसी ने किसी को एक लात मार दी, सब उड़ गए, एक आदमी 10 कारें लात मार कर गिरा देता है. ये बच्चों की कहानी है, वे ही खुश होते हैं, बाकी दर्शकगण नहीं. ऐसी फिल्में मैच्योर और स्वस्थ माइंड की नहीं होतीं. इन फिल्मों पर बुरी तरह से पैसा बहाया जाता है. अब यह दौर थम रहा है. दर्शक समझदार हो चुके हैं. वे भी अच्छी फिल्में देखना चाहते हैं.’’

नवाजुद्दीन ने टिपिकल हीरो के बजाय चरित्रप्रधान फिल्मों में अधिक काम किया. इस की वजह बताते हुए वे कहते हैं, ‘‘मुझे हीरो या विलेन जैसे दो शब्दों में कोई रुचि नहीं. मैं एक ऐक्टर हूं और हर तरह के रोल निभाना चाहता हूं. फिर चाहे वह भिखारी का रोल हो या कैदी का. आज के दर्शकों की पसंद बदल चुकी है. वे हमेशा अलग फिल्म देखने की इच्छा रखते हैं. मैं भी वैसी ही कहानी तलाश करता हूं जिस में कुछ नई और अलग भूमिका हो. ‘बजरंगी भाईजान’ के कई दृश्य ऐसे थे जिन में सलमान ने अच्छीअच्छी पंचलाइन दीं. कम भूमिका होने के बावजूद लोगों ने मुझे याद रखा. फिल्म ‘रईस’ में एक बार फिर मैं अलग दिखूंगा. मैं सोचता हूं कि जो भी भूमिका मुझे मिले उस में मैं सब से अच्छा परफौर्मेंस दूं ताकि फिल्मकार मुझे उस काबिल समझें. ‘मांझी द माउंटेनमैन’ जैसी फिल्मों का मिलना मेरे कैरियर में अहम पड़ाव है.’’

इतनी सारी सफल फिल्मों के बाद भी नवाजुद्दीन अपनेआप को सफल नहीं मानते. उन के जीवन का टर्निंग पौइंट फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ थी जो उन्हें 10 साल की मेहनत के बाद मिली थी. वे 10 साल अभी भी उन्हें याद आते हैं जब एक कमरे में 5-5 लोग साथ रहते थे. वे कहते हैं, ‘‘उस समय पैसे की किल्लत रहती थी. जब पैसे की कमी पड़ी तो एक से उधार ले लिया, उसे चुका नहीं पाया, तो दूसरे से ले कर उसे चुकाया, इस तरह सालों चलता रहा. एक मजदूर और टीचर से बहुत प्रभावित रहा हूं. जो हमेशा काम करते रहते हैं, प्रसिद्धि से उन का कोई सरोकार नहीं. जिंदगी में सिर्फ काम करना है. मैं भी सफलता को मानने के बजाय काम करने में यकीन करता हूं. मैं मैटीरियलिस्टिक नहीं. दमदार रोल में विश्वास रखता हूं. मैं सफलता को अपने परिवार के साथ मनाता हूं. मैं उन की सुरक्षा के लिए सोचता हूं और चाहता हूं कि मैं अपने बच्चों को पढ़ालिखा कर अच्छा इंसान बना सकूं.’’नवाजुद्दीन को बनावटी लोग पसंद नहीं. वे जिस ईमानदारी से काम करते हैं उसी ईमानदारी की अगले से भी अपेक्षा रखते हैं.

नवाजुद्दीन की आने वाली फिल्मों में ‘रईस’, ‘गवाह’, ‘फर्जी’, ‘केरला’ आदि हैं. वे कहते हैं, ‘‘ऐक्टर के तौर पर मेरा काम हमेशा बेहतर होना चाहिए. जब मैं सैट पर होता हूं तो यह नहीं सोचता कि किस के साथ काम कर रहा हूं, वरना मेरी ऐक्टिंग ठीक नहीं होगी. अभी अमिताभ बच्चन के साथ काम करने का अवसर पा कर खुशी महसूस कर रहा हूं. क्योंकि ऐसा सुनने में आया है कि उन्होंने ‘केरला’ फिल्म के निर्देशक से कहा है कि वे मुझ से बात करें. उन्हें मेरी फिल्म ‘मांझी द माउंटेनमैन’ बहुत पसंद आई है.’’इस में शक नहीं कि विद्या बालन, सलमान खान, शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म मिलने की खबर ने नवाज को सफलता की नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है.उम्मीद की जा सकती है कि नवाजुद्दीन का नाम एक दिन बौलीवुड की महान हस्तियों में शुमार हो जाएगा. 

सिरपुर महोत्सव

किसी मौल में बैठ कर शास्त्रीय संगीत का मजा लिया जा सकता है, किसी वातानुकूलित हौल या औडिटोरियम में देख कर भी आनंद लिया जा सकता है लेकिन वाकई अगर शास्त्रीय नृत्य और संगीत का सुख महसूस करना है तो सिरपुर से ज्यादा सटीक जगह और खूबसूरत मौका, सिरपुर अंतर्राष्ट्रीय नृत्य एवं संगीत महोत्सव से बेहतर कोई नहीं. पिछले 3 सालों से न केवल देश से, बल्कि विदेशों से भी कला और संगीतप्रेमी सिरपुर महोत्सव में आ कर शास्त्रीय गायन व नृत्य का लुत्फ उठा रहे हैं. इस की वजह यातिनाम कलाकारों की प्रस्तुतियों के साथसाथ ऐतिहासिक महत्त्व वाला व नैसर्गिक रूप में सुंदर शहर सिरपुर भी है. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 85 किलोमीटर दूर बसा सिरपुर एक ऐसा शहर है जिस में लगभग सारी संस्कृतियों के एकसाथ दर्शन होते हैं. महानदी किनारे बसे इस शहर की छटा अद्भुत है. शहर का प्राचीनतम नाम श्रीपुर उल्लेखित है. पांडुवंश की राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र रहे सिरपुर में 7वीं सदी में चीन के यातिनाम यात्री पर्यटक ह्वेनसांग का आना एक ऐतिहासिक घटना थी.

ह्वेनसांग के आगमन के समय सिरपुर एक विकसित बौद्धस्थली था और आज भी है लेकिन तब वहां लगभग 100 संघाराम और 10 हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे. हैरानी की बात यह है कि तत्कालीन शासक महाशिव गुप्त बालार्जुन खुद शैव मतावलंबी था लेकिन उस ने बौद्ध विहारों और भिक्षुकों को उदारतापूर्वक संरक्षण दिया था. बीते कल की शांति आज भी यहां मौजूद है, ऐतिहासिक अवशेष हैं तो दर्शनीय मंदिर भी. लेकिन इन के साथसाथ सिरपुर आने की अब एक नई वजह जुड़ गई है– ‘सिरपुर महोत्सव’, जिस ने महज 3 साल में ही अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर अपनी अलग पहचान बना ली है. पंडित बिरजू महाराज ने बीते साल जब लक्ष्मण मंदिर परिसर में कथक प्रस्तुति दी थी तो मानो समूचा समारोह स्थल ध्यानस्थ हो गया था. छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल द्वारा आयोजित सिरपुर महोत्सव के बारे में बेहिचक कहा जा सकता है कि यह कोणार्क और खजुराहो उत्सवों की तर्ज पर कला और संगीत प्रेमियों को लुभाने लगा है. यहां एक बेहतर कुदरती माहौल है जो कला और संगीत प्रेमियों को चाहिए होता है. वे तमाम सुविधाएं यहां मुहैया कराई जाती हैं जिन की जरूरत हर किसी को होती है.

इस ऐतिहासिक नगरी में नृत्य की लय और संगीत की तीनदिवसीय धुन देखतेसुनते कब समय निकल जाता है, इस का एहसास पर्यटकों और कला प्रेमियों को नहीं हो पाता. छत्तीसगढ़ का पारंपरिक नृत्य संगीत भी सिरपुर महोत्सव में देखने को मिलता है. मांदर, मृदंग, झांज, ढोल, लोहाटी, टिमकी, गदुमबाजा और खंजरी से ले कर ड्रम, बोंगो, कोंगो, डबरबुका और काहेना जैसे विदेशी वाद्ययंत्रों को एकसाथ सुनने का मौका शायद ही दुनिया में कहीं और मिलता हो. सिरपुर में देशीविदेशी कलाकारों का संगम एक वैश्विक संगीत का एहसास कराता है. कला और संस्कृति के मामले में छत्तीसगढ़ क्यों छत्तीसगढ़ कहा जाता है, इसे साबित करने में सिरपुर महोत्सव का योगदान अहम हो गया है, साथ ही सिरपुर महोत्सव पर्यटन को बढ़ावा और प्रोत्साहन दे ही रहा है. आदिवासी बाहुल्य इस राज्य के प्रति जो जिज्ञासाएं लोगों के दिलोदिमाग में हैं, यह महोत्सव उन का भी समाधान कला के जरिए करता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकारों और कला से ले कर स्थानीय स्तर तक की कला व कलाकारों को एकसाथ देखने का मौका कलाप्रेमियों को फिर 2016 की सर्दियों में मिलेगा जब पर्यटन के लिहाज से भी छत्तीसगढ़ और सिरपुर आने के लिए मौसम अनुकूल रहता है. कई नामी देशीविदेशी कलाकारों की प्रस्तुतियां सिरपुर को गुलजार करेंगी. नृत्य और संगीत के बाद आप के पास आदिवासी जीवन और संस्कृति की सरलता को बेहद नजदीक से देखने और महसूस करने का भी मौका होगा.

वैसे भी सिरपुर में पर्यटन स्थलों की कमी नहीं, मंदिरों की शृंखला में लक्ष्मण मंदिर, गंधेश्वर मंदिर, राम मंदिर हैं तो बौद्ध विहार में बुद्ध की साढ़े 6 फुट ऊंची प्रतिमा भी सहज आकर्षित करती है. सिरपुर संग्रहालय में इस क्षेत्र में मिली दुर्लभ मूर्तियां और कलाकृतियां संगृहीत हैं. ये कलाकृतियां शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन चारों संस्कृतियों से संबंधित हैं. संग्रहालय का एक आकर्षण अंगड़ाई लेती एक नायिका की प्रतिमा है जिस का सहज सौंदर्य उसे निहारते रहने को विवश करता है. छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल इस बार भी मेहमानों को लुभाने व सुविधाएं देने के लिए खास तैयारियां कर रहा है. वजह, यह तय है कि इस बार और ज्यादा संख्या में कला व संगीत प्रेमी आएंगे. पर्यटकों की आवाजाही जाड़े के मौसम में यहां ज्यादा रहती है.

धर्म की आड़ में रंगीन लीला

ऋषिमुनि, साधुसंत और तपस्वियों की भारतभूमि पर इन दिनों धर्म का खूब डंका बज रहा है. मां, बाबाओं, साधु, साध्वियों की लीलाएं धूम मचा रही हैं. चमत्कारी लीलाएं देख कर आत्ममुग्ध रहने वाले भक्तगण इस बार हैरान दिख रहे हैं. एक से बढ़ कर एक लीलाधारियों में इस बार राधे मां, साध्वी त्रिकाल भवंता, सच्चिदानंद गिरि, प्रकाशानंद, सारथी बाबा, गोल्डन बाबा भक्तों को चमत्कृत कर रहे हैं. कुछ विघ्नसंतोषी लोग हैं जो धर्म और साधु, साध्वियों को बेवजह बदनाम करने की चेष्टा कर रहे हैं. जो कुछ हो रहा है वह तो लीला है, अपरंपार लीला.

कुलविंदर कौर से राधे मां

चटकदार, खास डिजाइन की हुई लाल साड़ी, हाथों में लाल चूडि़यां, माथे पे सजा लाल टीका, लाल लिपस्टिक, लाल नेलपौलिश और हाथों में लाललाल गुलाबों के फूल. ऐसे तड़कभड़क अवतार में अपना दरबार लगाने वाली राधे मां के आज देशविदेश में हजारों भक्त हैं. लाल रंग जो तेज, चमक का पर्याय होता है उसी लाल रंग के पीछे छिपा राधे मां का आडंबर आज सामने आ गया है. खुद को भगवान शंकर का वरदान मिला होने और दुर्गा का अवतार बताने वाली राधे मां आजकल सुर्खियों में है. फिल्मी डांस करते हुए और विभिन्न मुद्राओं में छोटे कपड़ों में राधे मां के वीडियो और फोटो टैलीविजन चैनलों से ले कर अखबारों व सोशल मीडिया पर खूब छाए हुए हैं. इन फोटो में राधे मां की मिनी स्कर्ट में खुली टांगें, सोफे पर अधलेटी हुई मुद्रा में जांघें और क्लीवेज दिखाई दे रहे हैं. राधे मां पर अश्लीलता फैलाने, दहेज के लिए उत्पीड़न और धोखाधड़ी करने के मामले दर्ज किए गए हैं. मुंबई के बोरिवली में एक महिला ने अपने पति और ससुराल वालों समेत राधे मां के खिलाफ दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया है. महिला का आरोप है कि राधे मां ने उस के सासससुर से कहा कि वे उस पर और दहेज लाने का दबाव डालें. इस के बाद उसे प्रताडि़त किया गया.

इस के अलावा फाल्गुनी ब्रह्मभट्ट नामक एक महिला वकील ने भी उस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है कि राधे मां धर्म के नाम पर धोखाधड़ी कर रही है. भोपाल में अश्लीलता फैलाने का मामला दर्ज किया गया है. आरोप है कि वह लोगों को धमकियां देती है और बात न बनने पर प्यार का जाल फेंकती है. ये कारगुजारियां सामने आने के बाद शंकराचार्य और साधु संगठनों द्वारा राधे मां को नासिक कुंभ में शाही स्नान करने से रोके जाने की मांग की गई. वह श्रीपंचादशनाम जूना अखाड़ा की महामंडलेश्वर थीं. राधे मां की 31 जून, 2012 को जूना अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर अवधेशानंद गिरि सहित प्रमुख साधुओं की मौजूदगी में महामंडलेश्वर पद पर ताजपोशी की गई थी लेकिन अगले दिन से ही साधुओं में उस के खिलाफ विरोध के स्वर उठने लगे थे. कांग्रेसी नेता संजय निरूपम, गायक दलेर मेहंदी, हंसराज हंस, अभिनेत्री डौली बिंद्रा, जाहिरान विश्व के प्रह्लाद कक्कड़, मनोज तिवारी, अनूप जलोटा, शार्दुल सिकंदर, अनुराधा पौडवाल, रूपकुमार राठौड़ जैसे नामचीन लोग राधे मां के दरबार में आतेजाते रहते हैं. पंजाब के गुरुदासपुर जिले के दारांगला गांव में 3 मार्च, 1969 को जन्मी राधे मां का नाम कुलविंदर कौर है. पंजाब के बिजली विभाग में अधीक्षक अभियंता रहे अजीत सिंह की यह छोटी संतान है. पति मनमोहन सिंह से उसे 2 बच्चे भी हुए.

मनमोहन सिंह कारोबार के सिलसिले में कतर की राजधानी दोहा में बस गया. पति के विदेश जाने के बाद उस ने कुछ दिन सिलाई का काम किया. इसी दौरान अपनी और बच्चों की जरूरतों को पूरा करने की कशमकश से बाहर निकलने का शायद कुलविंदर ने यह आसान रास्ता चुना. वर्ष 1991 में नजदीक के मुकेरिया में परमहंस निवास में वयोवृद्ध महंत रामदीन ने उस की परमेश्वर भक्ति से प्रभावित हो कर उस का नामकरण कुलविंदर से राधे मां किया. उस ने शुरुआत में दरबार (माता की चौकी) लगाना शुरू किया. वहां वह भक्तों की समस्याओं के निराकरण के उपाय बताने लगी और देखते ही देखते वह राधे मां बन गई. दिल्ली के भक्त रामभज अग्रवाल के घर में 3 साल तक राधे मां की चौकी लगती रही. 2002 में मुंबई के ग्लोबल एडवरटाइजिंग के मालिक शिव गुप्ता, राधे मां को मुंबई ले गए. वहां पर राधे मां का पूरी तरह से मेकओवर किया गया. राधे मां के कपड़े, जेवर, सिर पर मुकुट, हाथों में छोटा त्रिशूल, उंगलियों में 7 हीरे की अंगूठियों वाला परिवेश डिजाइन किया गया. बोरिवली में शिव गुप्ता के पांचमंजिला घर में हर शनिवार राधे मां की चौकी लगती थी. राधे मां अपने भक्तों से अंगरेजी में ‘भक्तो, आय लव यू फ्रौम बौटम औफ माय हार्ट’ बोलती है. ‘जो होता है वह शिव भगवान करते हैं’ ऐसा कहने वाली राधे मां की दुकानदारी मीडिया में शोर उठने की वजह से ठंडी पड़ी थी. लेकिन फिर जूना अखाड़े की तरफ से महामंडलेश्वर पद से उसे निलंबित किए जाने के बाद जांच किए जाने से राधे मां की दिक्कतें बढ़ गई थीं. जरूरत है कि महिलाएं ऐसे मोहजाल से बाहर निकलें और सत्य और तार्किकता के आधार पर कोई भी निर्णय लें.

सच्चिदानंद की सचाई

नोएडा के शराब, डिस्कोथेक और जमीन कारोबारी से महामंडलेश्वर बनाया गया सच्चिदानंद गिरि की पोल भी जल्दी ही खुल गई. सच्चिदानंद उर्फ सचिन दत्ता निरंजनी अखाड़े से निलंबित कर दिया गया. यह बाबा अब न तो निरंजनी अखाड़े का महामंडलेश्वर रहा और न ही संन्यासी है. इस की घोषणा नासिक में निरंजनी अखाड़े की कार्यकारिणी बैठक में हुई. इस से पहले 31 जुलाई को संन्यास दिला कर मठ बाघंबरी गद्दी में सचिन को निरंजनी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाया गया था. सचिन दत्ता की चादरपोशी के वक्त हैलिकौप्टर से फूलों की वर्षा की गई थी. सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर बनाने वाला महंत नरेंद्र गिरि था. उस के विरोधी महंत ज्ञानदास ने महंत नरेंद्र गिरि की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए. सचिन को महामंडलेश्वर बनाने की पैरवी करने वाले अग्नि अखाड़े के महामंडलेश्वर कैलाशानंद ने सचिन दत्ता की पोल खुलने के बाद मौन साध लिया. मीडिया में जब विवाद उठने लगा तो महंत नरेंद्र गिरि ने 3 अगस्त को सचिन दत्ता के महामंडलेश्वर के रूप में धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने व नासिक कुंभ में प्रवेश पर रोक लगाने के लिए 4 महंतों की समिति बना कर जांच बैठा दी. बाद में सच्चिदानंद गिरि उर्फ सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर पद से निष्कासित करने का निर्णय लिया गया.

एक और चर्चित बाबा प्रकाशानंद है जो विदेश में यानी अमेरिका में धर्म की ‘पताका’ फहरा कर भारत में छिपा बैठा है. कहा जा रहा है कि वह हिमाचल प्रदेश में कहीं भूमिगत है. अयोध्या के रहने वाले प्रकाशानंद सरस्वती को अमेरिकी पुलिस और खुफिया एजेंसी खोज रही हैं. वह 4 साल पहले 3 लड़कियों का यौन शोषण करने के बाद से फरार है. अमेरिका में अपराधियों की तलाश पर आधारित टीवी शो ‘द हंट विद जौन वाल्स’ के दौरान उत्पीड़न की शिकार इन लड़कियों ने अपनी पीड़ा हाल ही में बताई थी. 1990 के दशक में श्यामा रोज, उस की बहन कैट और वेस्ला टोनेंसेन टैक्सास के बरसाना धाम आश्रम में अपने मातापिता के साथ रहती थीं. कई अन्य परिवार भी अपना सबकुछ छोड़ कर प्रकाशानंद के इस आश्रम में रहते थे. ये लोग प्रकाशानंद को इस धरती पर ईश्वर का रूप मानते थे. रोज ने आरोप लगाया था कि जब वह जवान हुई तो प्रकाशानंद उस का यौन उत्पीड़न करने लगा. तीनों बहनों की शिकायत पर 2008 में आरोपी गुरु के खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ. उसे गिरफ्तार किया गया पर उस के भक्तों ने 6 करोड़ रुपए की राशि दे कर जमानत दिला दी थी. 4 मार्च को उसे 14 साल की सजा सुनाई गई लेकिन वह फरार हो गया और भारत पहुंच गया. कहा जा रहा है कि वह अब दिल्ली से मसूरी के बीच कहीं रह रहा है.भारतभूमि पर पहले भी कई लीलाधारी अवतरित हुए हैं. आएदिन उन के ढोंग उजागर होते रहते हैं.

निर्मल बाबा के बेतुके सुझाव

निर्मलजीत सिंह नरूला उर्फ निर्मल बाबा के चुटकुलेनुमा उपाय हंसाने वाले साबित हो रहे हैं. पर टैलीविजन पर उस के भक्त इस बाबा द्वारा बताए गए चुटकुलों में समाधान ढूंढ़ते हैं. बाबा पर धोखाधड़ी के कई मामले चल रहे हैं. बाबा के इंटरनैट पर करीब 30 लाख से ज्यादा लिंक्स हैं. पंजाब में पटियाला जिले के समाना गांव के निर्मलबाबा का परिवार 1947 में देश के बंटवारे के वक्त भारत आया था. यह बाबा विवाहित है. इस के एक लड़का और एक लड़की है. निर्मल बाबा के साले का ईंटभट्ठे का धंधा था. ईंटभट्ठे का धंधा नहीं चला तो निर्मल बाबा ने कपड़े की दुकान खोली पर इस में भी असफल होने पर खदान व्यवसाय शुरू किया. बहरागोडा गांव में इस बाबा ने आत्मज्ञान प्राप्ति का ढोंग रच कर अध्यात्म की दुकान शुरू की. अंदाजन 36 देशीविदेशी चैनल्स पर 24 घंटे निर्मल बाबा के चमत्कार प्रसारित किए जाते हैं. भक्तगण बाबा के दरबार में प्रवेश पाने के लिए 2 हजार रुपए देते हैं. पैसे जमा करने के लिए वैबसाइट पर बैंक के अकाउंट नंबर दिए गए हैं. बैंक अकाउंट को ‘थर्ड आई औफ निर्मल दरबार’ के नाम से प्रचारित किया गया है.

ऐसे हर दरबार के जरिए 1 करोड़ रुपए जमा करना और इस तरह के 7 से 10 दरबार आयोजित करने का धंधा निर्मल बाबा का था. सालभर में बिना परिश्रम के श्रद्धा का बाजार लगा कर अमूमन 84 करोड़ रुपए ऐंठने में निर्मल बाबा एक्सपर्ट है. गौरतलब है कि बाबा के 2 खातों में अमूमन 109 करोड़ रुपए जमा होने का दावा किया गया है. अपना धंधा चमकाने के लिए बाबा जूनियर आर्टिस्ट का भी उपयोग करता है.एक भक्त ने इलैक्शन में टिकट न मिलने पर उपाय पूछा तो निर्मल बाबा ने उसे बताया कि तुम गोलगप्पे खाओ, तुम पर कृपा होगी. शिष्यो, फ्रिज में कोल्डडिं्रक रखो, कृपा होगी. काले कपड़े अलमारी में रखो. कृपा होगी. गुरुवार के दिन लाल शर्ट पहनो, कृपा होगी, मेरे बैंक अकाउंट में 10 हजार रुपए जमा करो कृपा होगी. 10 रुपए की धूप से कृपा होने वाली नहीं, उस के लिए 50 रुपए की धूप जलाओ, कृपा होगी. समोसे के साथ हरी चटनी खाओ तो कृपा बरसनी शुरू होगी. इस तरह के हंसाने वाले, अवैज्ञानिक, बेसिरपैर के अजीबोगरीब उपाय बताने में निर्मलबाबा धार्मिक दुनिया में कुख्यात है.

निर्मला माता का स्वांग

देशविदेश में बनाए गए आलीशान महल, महंगी गाडि़यां, भड़कीले परिधान और साथ में 300-400 गोरे भक्तों की फौज लिए दुनियाभर में सफर करने वाली निर्मला माता का रुतबा देखने लायक होता है. पत्नी के साथ आशीर्वाद लेने आया पति निर्मला माता के पैर धोता है, पत्नी धीरेधीरे पानी डालती है. फिर पति पैर पोंछता है. खुद का सिर नीचे झुका कर माता के पैर खुद के सिर पर रखने में अपने को बड़ा धन्य महसूस करता है. लाइन में खड़ा अगला भक्त भी इसी भक्तिभाव से यही कृत्य दोहराता है. माताजी का भोजन होने के बाद उस की प्लेट में बचा सारा खाद्यान्न प्रसाद के तौर पर भक्तों में बांट दिया जाता है. खाने के बाद माताजी द्वारा धोए हाथों का और मुंह में ले कर किए गरारों का पानी एकत्रित कर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है.

चमत्कारी सत्यसाईं बाबा

14 साल की आयु में खुद शिर्डी के साईंबाबा का अवतार होने की घोषणा कर सत्यनारायण राजू आगे चल कर सत्यसाईं बाबा बना. वर्ष 1926 में आंध्र प्रदेश में धनगर परिवार में जन्मा सत्यनारायण राजू स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही हवा से पैंसिल निकालने का चमत्कार करता था. चमत्कार के नाम पर हाथ की चालाकी करने वाले बाबा को नेताओं और भक्तों ने अहमियत देनी शुरू कर दी. हवा में हाथ लहरा कर भभूत निकालना, सोने की चेन निकालना, मुंह से शिवलिंग निकालना, जानलेवा बीमारियां ठीक करने जैसे कई चमत्कारों की कहानियां इस बाबा के नाम पर चलती रहीं. बाबा के आश्रम में उस के नजदीकी 5 शिष्यों ने उस पर जानलेवा हमला किया, तब बाबा भाग कर बाथरूम में छिप गया और सहीसलामत बचा. यह प्रयास करने वाले 4 शिष्यों को बंद रूम में पुलिस ने गोली मार कर खत्म किया. इस पर मीडिया ने होहल्ला किया.उम्र के 55 साल पूरे होते ही बाबा पर यौन शोषण तथा समलैंगिक संबंधों के आरोप लगे. बाबा के ही चलाए स्कूल के बच्चों के साथ और अपने शिष्यों के साथ भी घिनौनी हरकतें सामने आती थीं.

20 साल तक साईं संगठन के अमेरिका के दक्षिणमध्य विभाग प्रमुख रहे जैक युंग और उन की पत्नी ने अपने बच्चे सैम के साथ सत्यसाईं बाबा द्वारा किए गए यौन शोषण की कहानी बताई थी. औरों को कभीकभार दर्शन देने वाले सत्यसाईं बाबा सैम से मिल कर चमत्कार से निकाली महंगी घडि़यां, अंगूठियां देता. सैम का कहना था कि बाबा उसे सहलाता, उस का चुंबन लेता, उसे मुखमैथुन करने के लिए मजबूर करता और उस से यौन संबंध बनाने का प्रयास भी किया गया.साईं बाबा के डाक्टर शिष्य डेविड बेले की ‘दी फाइंडिंग’ नामक किताब ने पोल खोल कर सनसनी फैला दी थी. इस किताब में बाबा द्वारा शिष्यों के यौन शोषण के किस्से बताए गए हैं.इन गंभीर आरोपों के बाद बाबा के चरित्र पर जोरदार चर्चा छिड़ी. इस वजह से बाबाओं के शिष्यों की तादाद घटने लगी और यूनेस्को ने बाबा के एजूकेशनल संस्थानों को दी गई मदद को रद्द कर दिया. सत्य साईंबाबा 24 अप्रैल, 2011 को मर गया. बाद में उस की संपत्ति को ले कर झगड़ा शुरू हो गया.

भविष्यवाणी और चंद्रास्वामी

अलवर, राजस्थान का नेमीचंद जैन उर्फ चंद्रास्वामी जब छोटा था, तभी उस के पिता हैदराबाद आ गए. बचपन में तंत्रविद्या के आकर्षण से प्रभावित नेमीचंद शिक्षा अधूरी छोड़ बिहार के जंगल में भाग गया. चंद्रास्वामी वहां पर अघोरपंथी साधुओं से कथित तंत्रमंत्र, अघोरी विद्या, काला जादू आत्मसात कर 4 साल की तपस्या के बाद सिद्धि प्राप्त होने का दावा करता रहा. ज्योतिषवेत्ता के तौर पर शुरुआत में काम करने वाला चंद्रास्वामी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद ज्यादा मशहूर

हुआ. राव के आध्यात्मिक सलाहकार रहे चंद्रास्वामी के आगे अनेक सत्ताधारी नेता सलामी देने लगे. राव के बाद प्रधानमंत्री बने चंद्रशेखर भी उस के भक्त थे. इंदिरा गांधी ने उसे महरौली में जमीन दी थी. उस पर उस ने ‘विश्व धर्मायतन सनातन’ नाम का शाही आश्रम बनाया. पामेला बोर्डेस, बहरीन के शेख खलीफा, हौलीवुड अभिनेत्री एलिजाबेथ टेलर, अस्त्रशस्त्रों का सौदागर अदनान खशोगी, जनता दल के लालू प्रसाद यादव, दिल्ली के राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी उस के शिष्यों में थे. उस के शिष्यों की तादाद बढ़ने लगी. उस के सचिव विक्रम सिंह और कैलाशनाथ अग्रवाल उर्फ मामाजी का सियासी गलियारों में काफी दबदबा था.

लखूभाई पाठक केस में पाठक पर चंद्रास्वामी और नरसिम्हा राव को रिश्वत दिए जाने के आरोप लगे थे. ऐसे आरोपों के बाद चंद्रास्वामी का असली चेहरा खुल गया. इस केस में राव निर्दोष साबित हुए लेकिन चंद्रास्वामी और कैलाशनाथ अग्रवाल को जेल की हवा खानी पड़ी. प्रधानमंत्री राजीव गांधी हत्याकांड में चंद्रास्वामी के सहभागी होने का आरोप लगा था. इस मामले की जांच करने वाले न्यायाधीश जैन आयोग के सामने राजीव गांधी के हत्यारों ने चंद्रास्वामी को पैसे देने की बात बताई थी. अदनान खशोगी को दिए गए एक करोड़ डौलर से अधिक दलाली के कागजी सुबूत उस के आश्रम पर डाले छापे में मिले थे.

रंगीला आसाराम बापू

72 वर्षीय आसाराम बापू पिछले 2 सालों में किसी न किसी मुद्दे को ले कर चर्चा में रहा, चाहे वह निर्भया केस में दिया गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य हो या महाराष्ट्र में सूखे की स्थिति होने के बावजूद होली का त्यौहार मनाने के लिए उड़ाए गए लाखों लिटर पानी की बरबादी. कहर तब हुआ जब उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में 16 वर्षीय लड़की का जोधपुर के आश्रम में आसाराम द्वारा यौन शोषण का मामला सामने आया. इस संदर्भ में दिल्ली पुलिस के कमला मार्केट थाने में 20 अगस्त को शिकायत दर्ज कराई गई और एक घटना में सूरत की एक महिला ने आसाराम पर आरोप लगाया कि उस महिला को अहमदाबाद के आश्रम में वर्ष 1998 से 2006 के दौरान अवैध रूप से बंदी बना कर उस से बारबार बलात्कार किया गया. महिला की छोटी बहन ने आसाराम के लड़के नारायण साईं के विरोध में ऐसी ही शिकायत दर्ज कराई. आसाराम आजकल जोधपुर की जेल में बंद है. कई गवाहों की हत्या के आरोप भी आसाराम पर लगे हैं. आसाराम के पुराने आयुर्वेद चिकित्सक ने आश्रम में 2 किशोरों की मृत्यु होने के बाद आसाराम पर गंभीर आरोप लगाए थे. इसी कारण 7 बार प्रजापति पर आसाराम के समर्थकों द्वारा जानलेवा हमला किया गया. 23 मई, 2014 में हुए राजकोट के हमले में उन की मृत्यु हो गई. आसाराम तथा नारायण साईं के खिलाफ चल रहे बलात्कार मामले में बयान देने वाले 3 लोगों पर उस के समर्थकों द्वारा एसिड फेंका गया. तहकीकात कर रहे पुलिस अधिकारी को जान से मारने की धमकी दी गई है.

स्कैंडलर स्वामी नित्यानंद

2010 में स्वामी नित्यानंद का दक्षिण की लोकप्रिय अभिनेत्री रंजीता के साथ आपत्तिजनक स्थिति में एक वीडियो निजी चैनल पर प्रसारित किया गया. मीडिया ने इस मामले को बहुत उछाला. कर्नाटक पुलिस ने उस के खिलाफ शिकायत दर्ज की और इस मामले के बाद स्कैंडलर स्वामी नित्यानंद प्रचलित हो गया. पुलिस से मुंह छिपा कर भागने वाले नित्यानंद को बेंगलुरु पुलिस ने हिमाचल प्रदेश से पकड़ कर जेल में डाल दिया. 52 दिन जेल में रहने के बाद जमानत मिलने पर नित्यानंद जेल से बाहर आया. सैक्स स्कैंडल के सवाल अभी स्वामी के पीछे लगातार बने हुए थे, तभी एक एनआरआई महिला ने स्वामी पर यौन शोषण का आरोप लगाया. इस संदर्भ में स्पष्टीकरण के लिए नित्यानंद आश्रम द्वारा एक प्रैस कौन्फ्रैंस की गई, तभी वहां पर हुए होहल्ले में स्वामी समर्थकों ने तोड़फोड़ की. नित्यानंद की लीला जारी थी. तभी एक पुरुष अनुयायी ने उस पर यौन शोषण के आरोप लगाए और बाबा के खिलाफ इस संदर्भ में भी शिकायत दर्ज कराई.

नित्यानंद पर नित्यानंद ध्यानपिटम मठ के दुरुपयोग के आरोप लगाए गए. स्वामी नित्यानंद पर एक और सनसनीखेज आरोप उन्हीं के भक्त ने लगाया, जिस के अनुसार आश्रम में बाघ की खाल और हाथीदांत का उपयोग किया जाता है. इस आरोप के बाद नित्यानंद पर वन्य जीवन संरक्षण कानून के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया. स्वामी के सैक्स स्कैंडल के बाद गुरुपूर्णिमा के दिन भक्तों को हवा में अपने इशारे पर उछालने का दावा भी काफी चर्चा में रहा. 2013 में महाकुंभ मेले में विवादों से घिरे नित्यानंद को पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी की तरफ से महामंडलेश्वर बनाया गया और दूसरे साधुबाबाओं के विरोध करने पर नित्यानंद फिर एक बार विवादों में आ गया.

जाल में फांसते नरेंद्र महाराज

नरेंद्र महाराज यानी जगदीश सुर्वे, 10वीं पास करने के बाद ग्रामसेवक की नौकरी में लगा. काम में आनाकानी करने के साथ ही काम की जगह हेराफेरी करने का भी उस के ऊपर आरोप लगा. इस वजह से नौकरी से निकाला गया. यहां पर आत्महत्या करते समय गजानन महाराज ने साक्षात दर्शन दिए, यह अफवाह फैलाई. नाणीज आ कर पीपल का पौधा लगा कर आध्यात्मिक मार्गदर्शन की शुरुआत की. 5-7 वर्षों में नरेंद्र महाराज एक बड़ा साधु बन गया. नाणीज के पहाड़ों पर महाराज के प्रवचन, समस्या निवारण का कार्यक्रम शुरू हो गया. महीने के दूसरे शनिवार को 2-3 लाख भक्त आने लगे. ठंड का मौसम हो या कड़ी धूप, मठ के सामने लोगों की कतार लगती है. एक कतार सिर्फ दर्शन के लिए, दूसरी विशेष दर्शन की यानी सवाल पूछने की. नसीब में क्या है, यह जानने के लिए नंबर आने तक पत्नी व बच्चों के साथ लोग 4 दिनों तक कतार में लगे रहते हैं. भक्ति के साथ धर्म की दुकानदारी में तेजी आई. 2 रुपए में नहाने का पानी, खाने के लिए 15 रुपए, स्वच्छता के लिए 50 पैसे, सभी स्टाल चाहे वे किताबों के हों, प्रसाद के या कोल्डडिं्रक्स के, उन पर मठ का ही मालिकाना हक है. बाजार में नारियल 7 रुपए तो स्टाल पर 10 रुपए में. वह महाराज को देने के बाद फिर से वहीं पहुंच जाता है.

नरेंद्र महाराज की फोटो वाला पैन 10 रुपए में व महाराज का फोटो वाला बिल्ला 5 रुपए में बिकने लगा. यह बिल्ला सुरक्षाकवच है. यह जिस की छाती पर सजेगा वही इस दुनिया की समस्याओं से पार हो पाएगा. साथ में, महाराज की चमत्कारिक लीलाओं की किताब ‘लीलामृत’ 50 रुपए में. आने वाला भक्त पैन, बिल्ला, नारियल और लीलामृत ले कर ही घर लौटता है. अपने भक्तों को सुरक्षा कवच देने वाले इस महाराज को स्वसुरक्षा के लिए रिवौल्वर की जरूरत पड़ती है.

अनिरुद्ध बापू की दैवी शक्ति

वर्ष 1965 में जन्मे डा. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी ने वर्ष 1982 में चिकित्सा में एमडी किया. अनिरुद्ध बापू का चालीसा भी है. इस का पठन करने से भक्तों की समस्याओं का निवारण होता है और बापू साधना से सिद्ध की हुई सुपारी हाथों में लिए मन की इच्छा बोल दे तो काम बन गया समझो. लेकिन उस के लिए बापू से भेंट का या चालीसा पठन का संकल्प करना जरूरी है. बापू की तारीफों के पुल बांधने वाला साहित्य उन के दरबार के बाहर लगने वाले बाजारों में उपलब्ध रहता है. बापू और नंदामाई (बापू की पत्नी) की पोथियां, मंत्रों के स्टिकर्स, जेब में लगाने के पैन से ले कर अंगूठियां, कड़े तक पैसे दे कर भक्तगण खरीदते हैं. बापू के गुणगान करने वाली आरतियां, भजन, चालीसा, कवच ये सभी चीजें बापू के नाम से यहां पर बिक जाती हैं. पुणे से वडोदरा तक और पश्चिम बंगाल से पाश्चिमात्य देशों तक बापू के भक्त बिखरे हैं, यह बात यहां के सेवादार आने वाले भक्तों को बताते हैं. बापू की अहमियत बताने वाले ‘कृपासिंधु’ अंक में गुम हुआ बैग दिला दिया, एक रात में आंखें ठीक करवा दीं, आपत्ति आने से पहले भक्तों की सुरक्षा करने को बापू आ धमके, ऐसे बापू के चमत्कारों से भरे भक्तों के किस्से प्रकाशित किए जाते हैं.

आज बाबा के पास जाने वाला वर्ग बहुत शिक्षित है. इन आधुनिक बाबाओं और मठ, आश्रमों का सच यही है कि उन्होंने समाज के शिक्षित वर्ग को अपना लक्ष्य बनाया है. लोगों की श्रद्धा जिन देवीदेवताओं में है, उन की तसवीरें भी आसानी से बिकती हैं. इस का अर्थ यह हुआ कि शिक्षित वर्ग को भी चूना लगाने में वह सफल हुआ है. इन सारे बाबा, माताओं की जीवनी पर नजर डालें तो एक बात सामने आती है कि इन सभी योगी कहलाने वाले साधु महाराजों की भोगी, ऐशोआराम की वृत्ति खत्म नहीं हुई है. आज भी वे सामान्य जीवन के मोहमाया के आकर्षण में खुद ही फंसे हुए हैं — चाहे वह आसाराम हो, निर्मलजीत सिंह हो, सत्यनारायण राजू हो या कोई और. सच तो यह है कि इन बाबाओं के पैरों पर गिरने वाली सामान्य जनता भी अपनी मूलभूत समस्याओं का हल ढूंढ़ने ही वहां पर जाती है. सवालों से जूझते, आने वाली कठिन स्थितियों से मुक्ति की अपेक्षा से लोग इन की शरण लेते हैं. मनोवैज्ञानिक डा. राजेंद्र बर्वेजी इन महाराज, बापू, बाबाओं की आध्यात्मिकता और उन के प्रवचनों को सुनने वाले भक्तों की आध्यात्मिकता, साधना, ध्यान, धारणा, तंद्रा की तुलना एक गिलास मद्यपान करने वाले शराबी, जिसे नशा चढ़ता है, से करते हैं.

दरअसल धर्म, आस्था की आड़ में बाबा लोग जनता के हर वर्ग को अंधविश्वास के गड्ढे में डुबकी लगाने को प्रोत्साहित करते रहते हैं. अंधभक्त डुबकी लगाते रहेंगे, बाबा लोगों की झोली भरती रहेगी. हैरानी यह है कि पढ़ेलिखे, उम्रदराज अनुभवी, समझदार लोग भी उन के झांसे में आते रहे हैं. खुद को देवीदेवता, भगवान समझने वाले इन मां, बाबाओं और संतों ने अपने नाम के आगे ये उपाधियां स्वयं लगाई हैं. दैवी चमत्कार दिखाने का दावा करने वाले दैवत्व की दुकान चलाते ये बाबा और मां का एकमात्र उद्देश्य भक्तों की मानसिक कमजोरी का लाभ उठा कर अपनी दुकान चलाना है. जरूरत है कि भक्त की इच्छाओं के पीछे की सत्यता को जानने की कोशिश करें और इन के मोहमाया में फंसने के बजाय इन का परदाफाश करें.

नकली दवाओं का बाजार

बीमार आदमी इस उम्मीद से अस्पताल पहुंचता है कि वह स्वस्थ हो कर लौटेगा और फिर अपने कारोबार में जुट कर अपने घरपरिवार के भरणपोषण में जुट जाएगा. डाक्टर जो लिखता है और जिस तरह की जांच कराता है, मरीज सवाल किए बिना हाथ जोड़ कर उस का पालन करने के लिए विवश रहता है. डाक्टर और उस की दवा पर इतना विश्वास होता है कि मरीज उस के दिशानिर्देशों पर सख्ती से चलता है और अनुशासनात्मक ढंग से उस का पालन करता है. उसे मालूम नहीं होता कि जिस दवा से वह ठीक होने की उम्मीद पाल रहा है वह नकली है और संभव है कि इलाज कराने के दौरान इस से उस का स्वास्थ्य और खराब हो जाए. ऐसा इसलिए होता है कि बाजार में नकली दवाओं की भरमार है.

सरकार के पास इस पर नियंत्रण का कोई इलाज नहीं है. हाल ही में अमेरिका के फार्मास्युटिकल सिक्युरिटी इंस्टिट्यूट यानी पीएसआई ने एक सर्वेक्षण किया है जिस के अनुसार भारत नकली दवा के कारोबार में दुनिया में तीसरे स्थान पर है. पहले स्थान पर अमेरिका और उस के बाद चीन है. जबकि ब्रिटेन भारत के बाद चौथे स्थान पर है. वर्ष 2014 के इस सर्वेक्षण के अनुसार, अमेरिका में 319, चीन में 309, भारत में 239 तथा ब्रिटेन में 157 दवाएं नकली पाई गई हैं. भारत में 8.4 फीसदी दवा नकली बिक रही है अथवा उन में गुणवत्ता नहीं होती है. नकली दवाओं के कारण दुनिया में हर साल लगभग 10 लाख लोगों की मौत हो रही है. इन दवाओं के इस्तेमाल से यदि मरीज बच जाता है तो उसे अन्य कई तरह की परेशानियां होनी शुरू हो जाती हैं. सर्वेक्षण के अनुसार नकली दवाओं की दुनिया में लगभग 90 अरब डौलर का सालाना कारोबार है जो लगातार बढ़ रहा है. वर्ष 2013 में शीर्ष 5 नकली दवा के कारोबारी देशों में चीन, भारत, पाकिस्तान, जापान और अमेरिका शामिल थे. वर्ष 2014 के दौरान भारत में 2,35,000 डौलर की नकली दवाएं पकड़ी गई थीं. इस के अलावा इस अवधि में 39,300 डौलर की विटामिन, कैल्शियम आदि की नकली दवाएं पकड़ी गई थीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें