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टीवी पर बढ़ता हास्य

कुछ सालों तक छोटा परदा सिर्फ सास, बहू और साजिश के ही इर्दगिर्द सिमटा था. इस सिलसिले को तोड़ा हलकेफुलके हास्य धारावाहिकों ने. अब लगभग हर चैनल प्राइम टाइम पर एकदो हास्य आधारित कार्यक्रम जरूर प्रसारित करता है. कुछ चैनल तो कौमेडी सीरियल के बलबूते टीआरपी का मैदान मार रहे हैं. इसी कड़ी में स्टार प्लस भी कौमेडी सीरियल ‘सुमित संभाल लेगा’ ले कर आया है. जहां सुमित के किरदार में नमित दास नजर आएंगे वहीं परिवार के मुखिया का किरदार निभा रहे हैं जानेमाने निर्माता-निर्देशक और ऐक्टर सतीश कौशिक. सतीश कौशिक लंबे समय बाद टीवी पर वापसी कर रहे हैं. सीरियल में दिल्ली में रहने वाले एक मध्यवर्गीय वालिया परिवार की कहानी है. गौरतलब है कि यह धारावाहिक चर्चित अमेरिकन टीवी शो एवरीबडी लव्स रेमंड पर आधारित है. आशा है कुछ सार्थक मनोरंजन मिलेगा.

क्षेत्रीय सिनेमा का दबदबा

यों तो फिल्म बाहुबली भले ही धर्म के चमत्कारों का महिमामंडन करती हो लेकिन इस फिल्म ने दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग को ओवरसीज और मुंबई में नए सिरे से स्थापित कर दिया है. यह पहला डब संस्करण था जिस ने 100 करोड़ रुपए की कमाई की. तेलुगु और तमिल फिल्मों की देखादेखी अब पंजाबी सिनेमा भी बड़े पैमाने पर फिल्में रिलीज कर रहा है. इस काम को पंजाबी सिनेमा के सुपर स्टार गिप्पी ग्रेवाल फिल्म ‘फरार’ के जरिए कर रहे हैं. गिप्पी के मुताबिक, यह पहली फिल्म है जिसे विदेशी लोकेशन और भव्य बजट में तैयार किया गया है. रिलीज के बाद इसे सैटेलाइट पर डब करने की बात भी चल रही है. सिप्पी ग्रेवाल प्रोडक्शन के बैनर तले बलजीत सिंह द्वारा निर्देशित इस फिल्म में गिप्पी ग्रेवाल के अलावा कायनात अरोड़ा भी पंजाबी फिल्मों में एंट्री कर रही हैं. जबकि अभिनेता जग्गी सिंह इस में अहम भूमिका निभा रहे हैं. 

सोनू के सामाजिक सरोकार

आजकल अभिनेता अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को ले कर बहुत गंभीर नहीं रहते. इन की शानदार पार्टी और शाही खर्चों की जितनी चर्चा होती है उतनी चैरिटी को ले कर नहीं. सलमान खान, रजनीकांत और सोनू सूद जैसे कुछ अभिनेताओं को छोड़ कर सभी निर्माता बन कर मोटी कमाई कर रहे हैं और अन्य क्षेत्रों में पैसा लगा रहे हैं. बतौर अभिनेता, सोनू ने अपना कैरियर भले ही हिंदी फिल्मों से शुरू किया हो लेकिन सफलता उन्हें दक्षिण भारतीय फिल्मों में मिली. बहरहाल सोनू हिंदी फिल्मों में भी टिक चुके हैं. अच्छी बात यह है कि सोनू सामाजिक कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. एक तरफ जहां उन्होंने लुधियाना में फ्री पब्लिक जिम खोल रखा है, वहीं पिछले दिनों सोनू ने एक कार्यक्रम के दौरान गरीबों के बीच जा कर  खाना, कपड़ा और स्टेशनरी का सामान भी बांटा. 

हौलीवुड का फेर

समकालीन अभिनेत्रियों में ऐश्वर्या राय के बाद अब प्रियंका चोपड़ा टीवी सीरियल ‘क्वान्टिको’ के जरिए हौलीवुड में प्रवेश कर रही हैं, यह एक अमेरिकी थ्रिलर शो है और इस सीरियल में प्रियंका चोपड़ा, एफबीआई प्रशिक्षार्थी एलेक्स वीवर की भूमिका निभा रही हैं. ‘क्वान्टिको’ को मार्क गोर्डन, जोस सफ्रान और निक पेप्पर प्रोड्यूस कर रहे हैं. हालांकि इस से पहले वे पौप सिंगर पिटबुल के साथ अपना म्यूजिक एलबम रिलीज कर चुकी हैं. लेकिन अभिनय के मैदान में उन का यह पहला प्रयास है. अच्छी बात यह है कि कार्यक्रम के प्रोमो में प्रियंका को अच्छा फुटेज मिला है. लेकिन असल बात तो तब है जब सीरियल में भी उन का रोल दमदार हो, वरना ज्यादातर एशियन कलाकारों के प्रति हौलीवुड फिल्मकारों का नजरिया सिर्फ उस देश की दर्शक संख्या जुटाने से ज्यादा कुछ नहीं होता.

मेरे पापा

मेरे पापा एक डाक्टर थे. पापा जब भी पेशेंट देखते, उन में पूरी तरह से खो जाते. मरीज का दुख सुन कर उन्हें लगता यह मेरी ही तकलीफ है. बिना किसी खास जांच के बीमारी पता करते थे. उचित दवा उसी समय दे कर ऐसी तसल्ली देते कि आधी बीमारी तो वैसे ही भूल जाते थे लोग. फीस भी बहुत ही कम, नहीं के बराबर और जो कोई कह देता कि मैं गरीब हूं, उस से वे कहते, ‘जब हो, तब दे जाना.’ साथ ही यह भी कहते कि देना या न देना, परंतु अपना खयाल रखना. हम 3 बहनें हैं. पापा हमेशा कहते, जब कमा कर मेरे हाथ में रखोगी, तभी शादी की सोचना. किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना, अपने पैरों पर खड़े होना. आज दोनों छोटी बहनें इंजीनियर और मैं डाक्टर. हम तीनों अपनेअपने घर में खुश हैं. पापा की दी हुई सीख, जब भी याद आती है, आंखें नम हो जाती हैं.

डा. बीना, इंदौर (म.प्र.)

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मैं दूसरी कक्षा में पढ़ती थी. उस समय मनोरंजन के नाम पर सिर्फ फिल्म और रेडियो हुआ करते थे. व्यस्तता के कारण मेरे बाऊजी फिल्में नहीं देखते थे. एक दिन सुबह जब आंखें खुलीं तो सुना अम्मा, बाबूजी फिल्म देखने जाने को कह रही थीं, फिल्म थी ‘आशीर्वाद’. अम्मां, बूआ और घर वाले पहले ही यह फिल्म देख चुके थे. बचे थे तो सिर्फ मैं और बाऊजी. मुझे याद है अम्मा की काफी जिद करने पर बाऊजी फिल्म देखने को तैयार हुए और मैं बाऊजी की उंगली पकड़ कर फिल्म देखने गई. मुझे गर्व हो रहा था कि बाऊजी के साथ फिल्म देखने सिर्फ मैं आई हूं और कोई भाईबहन नहीं. फिल्म बापबेटी के रिश्ते पर आधारित थी और उस कम उम्र में भी मैं फिल्म देख कर इतनी भावुक हो गई कि कहीं कोई मेरे बाऊजी को हम से अलग न कर दे. भावुकतावश मैं ने बाऊजी का हाथ जोरों से पकड़ लिया. शायद, बाऊजी मेरी भावनाओं को समझ गए थे और बड़े प्यार से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेर दिया. तो ऐसे थे मेरे बाऊजी.   

प्रतिमा पांडेय, वर्दवान (प. बं.)

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मेरे पिताजी ने हमेशा मुझे अच्छी बातें ही सिखाईं. उन का कहना था, आप जितना कमाते हो उस में से 2 प्रतिशत जरूरतमंद गरीब के लिए, 2 प्रतिशत जानवर के खाने और पक्षियों के दाने के लिए रखो और 2 प्रतिशत बचत करो. कभी भी उधार मत लो और दो भी मत. कोई ऐसा काम मत करो जिस की वजह से रात सोते वक्त मन अशांत हो और नींद न आए. आज वे मेरे साथ नहीं हैं लेकिन उन के बताए हुए पथ पर चलते हुए मेरा जीवन सुखमय और शांतिमय है.

गुल गजरीया, मुंबई (महा.)

फिल्म समीक्षा

मांझी : द माउंटेन मैन

बिहार के दलित परिवार के दशरथ मांझी को शायद बहुत से लोग जानते न होंगे, लेकिन 2007 में मरने से पहले वह जो काम कर गया वह अविस्मरणीय है. उस ने लगातार 22 साल तक एक पहाड़ को काट कर रास्ता बनाया और 360 फुट लंबी सड़क बनाई, जिस से उस के गांव गहलोर से नजदीकी शहर की 50 किलोमीटर की दूरी मात्र 8 किलोमीटर रह गई. उस के मरने के बाद पत्रपत्रिकाओं में उस के बारे में बहुतकुछ छपा. उसे ‘माउंटेन मैन’ कहा गया. उस माउंटेन मैन को पहाड़ काट कर सड़क बनाने की प्रेरणा जीवन में घटी एक दुखद घटना से मिली थी. दशरथ मांझी दलित परिवार का था. गांव का सवर्ण मुखिया उस के परिवार पर जुल्म करता था. दशरथ मांझी के पिता द्वारा कर्ज न चुका पाने के एवज में मुखिया उस के किशोर बेटे को बंधुआ मजदूर बना कर अपने पास रखना चाहता था लेकिन दशरथ उस वक्त वहां से भाग गया था. 7 साल बाद जब वह जैंटलमैन सा बना गांव लौटा तो मुखिया और उस के आदमियों ने उस की इस बात के लिए धुनाई की क्योंकि उस ने उन्हें छू लिया था, जबकि सरकार का आदेश आ चुका था कि कोई सवर्ण या अछूत नहीं है, सब बराबर हैं.

गांव लौटते वक्त दशरथ की मुलाकात फगुनिया (राधिका आप्टे) से हुई थी. अपने घर पहुंच कर दशरथ को मालूम होता है कि उस के पिता ने फगुनिया के साथ ही उस की शादी तय कर रखी है लेकिन फगुनिया का पिता शादी से इनकार कर रहा है तो वह फगुनिया को ले कर भाग जाता है और उस से ब्याह कर लेता है. वह पहाड़ी पर बने खेतों में काम करने लगता है. एक दिन उस की पत्नी फगुनिया उसे खाना देने जा रही थी कि पैर फिसलने से वह पहाड़ी से नीचे गिर गई. दशरथ मांझी उसे ले कर अस्पताल भागा लेकिन पहाड़ी बीच में होने पर उसे लंबी दूरी तय करनी पड़ी. रास्ते में ही फगुनिया की मौत हो गई. डाक्टरों ने गर्भवती फगुनिया की कोख से बच्ची को बचा लिया. अब दशरथ मांझी का एक ही मकसद रह गया, पहाड़ को काट कर रास्ता बनाना. उस ने अकेले ही पहाड़ काटना शुरू कर दिया. 22 साल तक वह पहाड़ काटता रहा. आखिरकार, उस ने पहाड़ काट कर रास्ता बना ही लिया. ‘मांझी’ की यह कहानी प्रेरणादायक है. केतन मेहता ने इस कहानी में दिखाया है कि दशरथ मांझी को अपनी पत्नी के प्रेम से पहाड़ काटने की प्रेरणा मिली. वहीं, उस ने फिल्म में ऊंची जातियों द्वारा दलितों पर जुल्म करते हुए भी दिखाया है. दशरथ मांझी और फगुनिया के बीच निर्देशक ने इतना प्यार दिखाया है कि दशरथ अपनी बीवी के लिए नकली ताजमहल ला कर उसे देता है और वह भी उसे सहेज कर रखती है. फगुनिया के लिए वह पायल खरीदना चाहता है परंतु पैसे पूरे न होने पर एक पैर की पायल ही खरीद कर उसे देता है.

निर्देशक ने 50-60 के दशक के माहौल को फिल्म में दिखाया है. गांव का माहौल, लोगों का रहनसहन, सवर्णों की दबंगई सबकुछ माहौल के अनुसार है. फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है. निर्देशक बौक्स औफिस के फार्मूलों से खुद को बचा नहीं पाया है. उस ने दशरथ मांझी और फगुनिया के प्रेम प्रसंग के सीन कुछ ज्यादा ही डाल दिए हैं, भले ही इन दृश्यों को फ्लैशबैक में दिखाया हो. नायक की नायिका से मुलाकात के दौरान निर्देशक ने कौमेडी का तड़का भी लगाया है. फिल्म के संवाद मजेदार हैं. नवाजुद्दीन सिद्दीकी एक ही संवाद कई बार बोलता है- शानदार, जबरदस्त, जिंदाबाद. उस ने बेहतरीन अभिनय किया है. राधिका आप्टे का अभिनय जानदार है. मुखिया के किरदार में तिग्मांशु धूलिया का काम भी अच्छा है. पंकज त्रिपाठी मुखिया के बेटे के किरदार में सही लगा है. फिल्म में संदेश भी है. आदमी अगर ठान ले तो वह पहाड़ से भी मुकाबला कर सकता है. इंसान को परिस्थितियों से हार कर हाथ पर हाथ रख बैठ नहीं जाना चाहिए, न ही भगवान के भरोसे बैठना चाहिए. हो सकता है भगवान आप के भरोसे बैठा हो. फिल्म का गीतसंगीत साधारण है. छायांकन अच्छा है. फिल्म को नवाजुद्दीन की बढि़या ऐक्ंिटग के लिए देखा जा सकता है. ‘मांझी’ जैसी फिल्म भले ही पुरस्कार पा जाए लेकिन उम्मीद के मुताबिक यह बौक्स औफिस पर भीड़ जुटा नहीं पाई. हालांकि कई राज्यों में इस फिल्म को मनोरंजन कर से मुक्त भी कर दिया गया है.

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ब्रदर्स

बौलीवुड में क्रिकेट, हौकी, मुक्केबाजी आदि खेलों पर तो फिल्में बन चुकी हैं, फाइटिंग पर ब्रदर्स फिल्म को बनाया गया है. फिल्म में फाइटिंग को बारबार मार्शल आर्ट कहा गया है, लेकिन यह विशुद्ध ऐक्शन वाली फाइटिंग ही है. अक्षय कुमार के चाहने वालों को फिल्म निराश करती है. इस बार यह खिलाड़ी नं. वन काफी रफटफ लगा है. वह किसी भी एंगल से बौक्सर नहीं लगता. ‘ब्रदर्स’ में 2 भाइयों की आपसी प्रतिद्वंद्विता है. निर्देशक ने इस आपसी प्रतिद्वंद्विता को विस्तार से न दिखा कर पूरा ध्यान इन दोनों भाइयों की फाइटिंग पर लगाया है. यही वजह है कि फिल्म उबाऊ लगती है. फिल्म की लंबाई ज्यादा है. ‘ब्रदर्स’ हौलीवुड की फिल्म ‘वारियर्स’ की रीमेक है. निर्देशक करन मलहोत्रा इस से पहले 2012 में ‘अग्निपथ’ में काफी खूनखराबा और ऐक्शन दिखा चुके हैं. ‘ब्रदर्स’ में 2 भाइयों के अहंकार की लड़ाई है. गैरी फर्नांडीस (जैकी श्रौफ) अपने जमाने का मशहूर फाइटर है. डेविड (अक्षय कुमार) उस का बड़ा बेटा है. मोंटी (सिद्धार्थ मलहोत्रा) उस का छोटा बेटा है. वह गैरी का सगा बेटा नहीं है, उसे गैरी ने पालपोस कर बड़ा किया है. बड़ा होने पर मोंटी अक्खड़ स्वभाव का बन जाता है. गैरी को अपनी पत्नी की हत्या में जेल जाना पड़ता है. जेल से छूटने पर गैरी मोंटी को फाइटर बनाना चाहता है. उधर गैरी का बड़ा बेटा डेविड एक स्कूल में फिजिक्स का टीचर है. उस की पत्नी जेनी (जैकलीन फर्नांडीस) और किडनी रोग से पीडि़त एक बेटी है. पैसे कमाने के लिए डेविड फाइटिंग करता है. शहर में राइट टू फाइट प्रतियोगिता होती है. प्रतियोगिता में मोंटी और डेविड भी हिस्सा लेते हैं. फाइनल में दोनों भाइयों के बीच टक्कर होती है. जीतने वाले को 9 लाख रुपए मिलने हैं. डेविड मोंटी पर भारी पड़ता है और प्रतियोगिता जीत जाता है, साथ ही, उसे मोंटी के हार जाने पर अफसोस भी होता है.

मध्यांतर से पहले यह फिल्म धीमी गति से चलती है. मध्यांतर के बाद मोंटी का फाइटर बनना और डेविड का बच्चों को पढ़ाना छोड़ कर फाइटिंग रिंग में उतरता देख दर्शकों को अच्छ लगता है. उन दोनों किरदारों को रिंग में उतरने से पहले तमाम तरह की ऐक्सरसाइज करते देख रोमांच महसूस होता है. इस हिस्से में फिल्म की गति काफी तेज रखी गई है. क्लाइमैक्स में क्या होने वाला है, इस का आभास पहले ही हो जाता है. फिल्म का निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. संवाद कहींकहीं अच्छे बन पड़े हैं. इस फिल्म के लिए अक्षय कुमार ने अपना वजन काफी कम किया है जबकि सिद्धार्थ मलहोत्रा ने अपना वजन 10 किलोग्राम बढ़ाया है. उस ने अपना दमखम दिखा कर अपने किरदार में जान डाल दी है. फिल्म का गीतसंगीत जानदार नहीं है. करीना कपूर पर एक सड़कछाप  आइटम डांस फिल्माया गया है. करन मलहोत्रा ने पिछली फिल्म ‘अग्निपथ’ में भी ‘चिकनी चमेली….’ आइटम सौंग डाला था. जैक्लीन फर्नांडीस इस बार फ्लौप रही है. उस ने एक सीधीसादी पत्नी की भूमिका की है. फिल्म में ढेर सारे क्लोजअप दिखाए गए हैं. छायांकन ठीकठाक है.

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औल इज वैल

फैमिली थीम पर बनी औल इज वैल फिल्म में पारिवारिक पेचीदगियों को उभारने की कोशिश की गई है और जैनरेशन गैप की बात की गई है. आप कितने अच्छे पेरैंट्स हैं या कितने अच्छे बच्चे हैं, इस पर कई सवाल उठाए गए हैं. यह संदेश फिल्म के द एंड होतेहोते दिया गया है. इस से पहले फिल्म हिचकोले खाती हुई फुस्स हो चुकी होती है. निर्देशक उमेश शुक्ला ने फिल्म में कौमेडी भर कर इसे कौमिक बनाने की भरपूर कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हो सका है. फिल्म की कहानी काफी उलझी हुई है. कहानी है कसौल में रहने वाले इंदर भल्ला (अभिषेक बच्चन) की. उस के पिता भजनलाल भल्ला (ऋषि कपूर) की बेकरी की दुकान है, जो चलतीचलाती नहीं है. एक दिन पिता से नोकझोंक होने पर इंदर घर छोड़ कर बैंकौक चला जाता है और वहां सिंगर बन जाता है. एक दिन उसे कसौल से एक गुंडे चीमा (जीशान अयूब) का फोन आता है कि उसे उस के पिता से 20 लाख रुपए लेने हैं. वह भारत आता है, साथ में उस की प्रेमिका निम्मी (असिन) भी आती है. यहां आ कर उसे पता चलता है कि उस की मां (सुप्रिया पाठक) अल्जाइमर रोग से पीडि़त है और उस के पिता ने उसे एक आश्रम में भरती करा रखा है. उधर निम्मी इंदर से शादी करना चाहती है और उस के परिवार वालों ने उस की शादी किसी और से तय कर दी है. इंदर को इन सभी परेशानियों से छुटकारा पाना है. उस की मामी ने उस की मां के जेवर अपने पास रखे हुए हैं. वह उन जेवरों को हासिल करता है, साथ ही अपने लिखे गीतों की अलबम बेच कर खूब पैसे वसूल करता है और एक खूबसूरत बेकरी बना कर पिता को गिफ्ट करता है. उस की मां की असाध्य बीमारी भी ठीक हो जाती है. यह हैरानी वाली बात है न. वह निम्मी से शादी करने को तैयार हो जाता है. फिल्म की यह कहानी काफी सुस्त है. उमेश शुक्ला ने कारों की भागमभाग को दिखा कर कौमेडी भरने की कोशिश की है. कौमेडी के लिहाज से  जीशान अयूब का काम काफी अच्छा है. ऋषि कपूर बहुत लाउड है, वह खूब चीखाचिल्लाया है. अभिषेक बच्चन एकदम सपाट है. सुप्रिया पाठक को तो चुपचाप बिठा दिया गया है. असिन भी साधारण रही है.

फिल्म में पंजाबी माहौल रखा गया है. गाने भी पंजाबी में हैं. निर्देशन कमजोर है. फिल्म का गीतसंगीत भी दमदार नहीं है. एक डांस गीत सोनाक्षी सिन्हा पर फिल्माया गया है, दर्शकों को वह गीत पसंद आएगा. छायांकन अच्छा है.

2017 में बोल्ट हो सकते हैं बोल्ड

जमैका के मशहूर धावक उसेन बोल्ट ने कहा है कि अगले साल ओलिंपिक के बाद वे अपने सुनहरे कैरियर को अलविदा कह सकते हैं. उन्होंने कहा कि लंदन में 2017 में होने वाली विश्व चैंपियनशिप में उन के भाग लेने की संभावना 50-50 है और वह रियो ओलिंपिक के बाद रिटायर हो सकते हैं. जमैका के इस धावक का वाकई जवाब नहीं. उन्होंने रफ्तार की दुनिया में किसी को आगे नहीं बढ़ने दिया और एक खासा मुकाम हासिल किया. भारत में अगर मिल्खा सिंह को छोड़ दें तो शायद ही किसी और धावक का नाम जेहन में आता है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हमारे देश में एकाध खेलों को छोड़ कर बाकी खेलों के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है. मिल्खा सिंह और उसेन बोल्ट यहां और भी मिल सकते हैं लेकिन मैट्रोपोलिटन शहर के पांचसितारा होटल में बैठ कर ढूंढ़ने से ऐसी प्रतिभाएं नहीं मिलेंगी. इस के लिए गांव और कसबों में उन्हें तलाशना होगा क्योंकि कई ऐसे धावक गांव, कसबों में होते हैं जो स्कूलों की प्रतियोगिता तक ही सीमित रह जाते हैं क्योंकि उन्हें रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं होता या फिर वे आर्थिक तंगी की वजह से वहीं सिमट कर रह जाते हैं. खेल अधिकारियों और खेल प्रशासन को इस ओर ध्यान देना चाहिए ताकि खेल के क्षेत्र में खिलाड़ी आगे बढ़ सकें. आज एक दिक्कत खेलों के साथ यह भी हो रही है कि जिस खेल में पैसा दिखता है उसी खेल को ज्यादा महत्त्व दिया जा रहा है. बाकी खेलों का बेड़ा गर्क हो रहा है. इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.

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