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कचरे की राजनीति

स्वर्ण मंदिर यानी गोल्डन टैंपल और वाघा बौर्डर अमृतसर आने वाले पर्यटकों के लिए आकर्षण के 2 मुख्य केंद्र हैं. आकर्षण के इन दोनों केंद्रों में से पर्यटक, स्वर्ण मंदिर को प्राथमिकता देते हैं. यह सिखों का प्रमुख धार्मिक स्थल है. हर रोज यहां हजारों की तादाद में देशीविदेशी पर्यटक आते हैं. स्वर्ण मंदिर बेहतर साफसफाई के लिए भी जाना जाता है. पर्यटकों को ध्यान में रखते हुए अमृतसर नगर निगम इस मंदिर की तरफ जाने वाले मार्ग की साफसफाई का खासतौर पर ध्यान रखता है. उस की कोशिश रहती है कि स्टेशन से ले कर स्वर्ण मंदिर तक जाने वाले मार्ग में कहीं गंदगी व कचरा न आए. निगम की यह सारी कवायद इसलिए होती है कि स्वर्ण मंदिर के दीदार को आने वाले पर्यटक केवल स्वर्ण मंदिर ही नहीं, अमृतसर शहर के बारे में भी अच्छी तसवीर दिमाग में ले कर वापस जाएं. पिछले कुछ महीनों के दौरान जो कुछ भी हुआ उस से पर्यटकों के दिमाग में अमृतसर की एक ऐसी तसवीर बनी जोकि शर्मिंदा करने वाली थी. यह तसवीर एक ऐसे शहर की थी जहां जगहजगह कचरे के ढेर थे और हवा दमघोंटू, बदबू से भरी हुई थी. स्टेशन से स्वर्ण मंदिर जाने वाले साफसुथरे मार्ग पर इतना कचरा था कि गुजरना मुश्किल था. ऐसी नौबत कचरे की लिफ्टिंग नहीं होने की वजह से आई थी. ऐसा लगता है कि मुद्दों के लिहाज से राजनीतिक पार्टियां एकदम दिवालिया हो चुकी हैं, शायद इसीलिए तो कचरे जैसी चीज को ले कर भी पिछले कुछ महीने से अमृतसर जैसे व्यावसायिक शहर में खूब जोरशोर से राजनीति की गई. शहर में जगहजगह कचरे के ऊंचेऊंचे अंबार लग गए. पूरे शहर का वातावरण ऐसी तीखी और दमघोंटू बदबू से भर गया जैसे शहर कचरे के ढेर पर ही खड़ा हो. नगर निगम के कर्मचारी शहर से कचरे की लिफ्टिंग नहीं कर रहे क्योंकि जहां कचरा फेंका जाना है, वे डंप राजनीतिक लड़ाई के मैदान से बन गए.

अमृतसर के 2 मुख्य डंप हैं जहां सारे शहर का कचरा फेंका जाता है. एक डंप शहर के भगतांवाला इलाके में है जोकि भगतांवाला डंप कहलाता है और दूसरा जब्बाल रोड पर सड़क के किनारे पर बना है जोकि फताहपुर डंप के नाम से जाना जाता है. दोनों ही डंप विभाजन से पहले के हैं और कभी भी इन को ले कर लोगों ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं करवाई. 67 वर्ष के बाद कुछ महीने पहले अचानक ही आश्चर्यजनक ढंग से डंपों की मौजूदगी को ले कर लोगों में विरोध के स्वर उठने लगे. डंपों के आसपास के इलाकों में रहने वाले लोग दोनों ही डंपों को उन के मौजूदा स्थान से हटाने की मांग करने लगे. विरोध करने वाले लोगों का मानना था कि कचरे के डंपों से पैदा होने वाले प्रदूषण की वजह से उन के बच्चे कई किस्म की खतरनाक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. विद्रोह के स्वर इसलिए उठे क्योंकि खाली बैठे छुटभैये किस्म के नेता अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए इस मामले में कूद पड़े. डंपों के विरोध में धरने और प्रदर्शन होने लगे. डंपों की तरफ जाने वाले रास्तों में रुकावटें खड़ी कर के कचरा ढोने वाली गाडि़यों को डंपों तक पहुंचने से रोक दिया गया. नतीजतन, शहर से कचरे की लिफ्ंिटग रुक गई. कईकई दिन तक लिफ्ंिटग नहीं होने से शहर की गलियों और चौराहों में कचरे के ऊंचे ढेर लग गए. वातावरण बदबू से भर गया. बदबू से भी नेताओं को अपना वोटबैंक मजबूत करने का मौका मिला. लोगों की मुश्किलों की किसी को कोई फिक्र नहीं थी.

निगम ने जब कचरा फेंकने के लिए वैकल्पिक जगहों की तलाश की तो नेताओं की शह पर वहां भी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. कचरे की लिफ्ंिटग कई बार चली और रुकी. इस बीच, भगतांवाला डंप की तरफ जाने वाले रास्ते के बीच में लोगों ने दीवारें खड़ी कर दीं और गड्ढे खोद डाले. वहीं जब्बाल रोड वाले फताहपुर डंप पर लोगों ने कोर्ट से स्टे ले लिया. समस्या और भी जटिल हो गई. कचरे की समस्या से नजात दिलाने वाला सौलिड वेस्ट प्लांट पहले ही राजनीति की भेंट चढ़ चुका था वरना कचरे की समस्या इतनी विकराल नहीं होती. जनता के भारी आक्रोश व दबाव के चलते आखिर निगम थोड़ा सख्त हुआ. उस ने शहर के कचरे को भगतांवाला डंप में ही फेंकने के लिए कमर कस ली. पुलिस फोर्स की सहायता ली गई. इस के बाद कचरे की लिफ्ंिटग एक बार फिर से शुरू हुई. 10 अप्रैल को  पुलिस के एक एडीसीपी और 6 थाना प्रभारियों के नेतृत्व में पुलिस के लगभग 200 जवानों के संरक्षण में कचरे से भरी गाडि़यां डंप की तरफ बढ़ रही थीं. पुलिस की मदद से ही निगम के कर्मचारियों ने डंप की राह में खड़ी की गई दीवारों को गिराया और गड्ढों को भरा. इतना ही नहीं, पुलिस ने कचरे को डंप में फेंकने का विरोध कर रहे लोगों पर बल प्रयोग करते हुए उन्हें खदेड़ भी दिया.

10 दिन के बाद भगतांवाला डंप में कचरा फेंकने में कामयाब होना निगम के लिए किसी जंग को जीतने से कम नहीं था. इस के लिए उसे उन जमीनमालिकों से भी समझौता करना पड़ा था जिन की जमीन पर से कचरे की गाडि़यों को गुजरना था. समझौते के अंतर्गत निगम उन जमीनमालिकों को हर महीने 25 हजार रुपए देगा जिन की जमीन पर से डंप को जाने वाली कचरे से भरी गाडि़यां गुजरेंगी. यह व्यवस्था बहरहाल 3 महीने के लिए ही है. इस के बाद क्या होगा, कहना मुश्किल है. वैसे प्रबल संभावना यह है कि कचरे की यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी.

वजहें और भी हैं, अमृतसर में जहां हर जगह जमीनों के भाव आसमान को छू रहे हैं वहीं डंप के आसपास की जमीनों की कीमत उन के मुकाबले में कुछ भी नहीं. अगर कचरा फेंकने वाले डंपों को उन के मौजूदा स्थान से हटा दिया जाए तो उन की कीमतों में भारी उछाल आना निश्चित है. बिल्डरों और राजनेताओं को शायद इसी का इंतजार है. ऐसे में कचरे का खेल खत्म कैसे होगा, कचरे पर राजनीति जारी ही रहेगी, ऐसी आशंका है. सवाल यह भी उठता है कि अगर डंपों की बदबू से वास्तव में ही इतनी परेशानी थी तो फताहपुर वाले डंप के पास ही एक नर्सिंग कालेज का निर्माण क्यों किया गया? डंपों के विरुद्ध आंदोलन के पीछे का सारा खेल ही बहुत गहरा है. केवल 5-6 साल पहले जिन डंपों के आसपास की जमीन कुछ सौ रुपए गज थी, आज उसी जमीन की कीमत आसमान छूते हुए 7-8 हजार रुपए प्रति गज तक पहुंच गई है. भारतपाक विभाजन के बाद कुछ वर्ष बाद तक अमृतसर शहर का फैलाव किसी हद तक बेतरतीब था. ऐसा होना स्वाभाविक ही था. विभाजन की वजह से विस्थापित हो आए हजारों शरणार्थियों को सिर छिपाने के लिए आशियाने की जरूरत थी. ऐसे में जहां जिस को, कहीं उजाड़ में भी जमीन दिखी उस ने किसी तरह भी सिर छिपाने के लिए कच्चेपक्के घर का निर्माण कर लिया. डंपों के आसपास की खाली जमीन पर बस्ती बनने की बुनियाद भी शायद उसी दौर में पड़ी थी. ऐसा देश के हर शहर के साथ हो रहा है. दरअसल, शहर के बाहर वाले इलाकों में जमीन सस्ती होने के कारण लोगों ने वहां जमीनें ले कर मकान बना लिए. वहां शहर का कचरा फेंका जाता था. अब शहर फैल रहे हैं. बस्तियां बसती जा रही हैं. आबादी बढ़ती जा रही है. तो अब लोग डंपों का विरोध कर रहे हैं. देश को साफ न कर पाने का कारण यही है कि कचरे का नियमन आखिरकार कैसे हो, इस की सोच में कोई अपना दिमाग नहीं लगाना चाहता, सभी वोटबैंक की राजनीति करने में ही वक्त जाया करते रहते हैं.

महागठबंधन बड़े फोके हैं इस राह में

बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मुलायम, लालू, नीतीश और कांगे्रस ने मिल कर कमर तो कस ली है और एक नया चुनावी तानाबाना तैयार हो गया है पर सियासत के ये धुरंधर अब तक यह साफ नहीं कर सके हैं कि वे जनता से किस नाम पर वोट मांगेंगे? भाजपा विरोध के तोतारटंत नारे के अलावा उन की झोली में कुछ भी नहीं है. बिहार के पिछड़ेपन की दुहाई देने वाले इन नेताओं को याद नहीं है कि बिहार की बदहाली का पूरा का पूरा कलंक उन्हीं के सिर पर आ पड़ा है. पिछले 10 साल तक नीतीश ने राज किया. उस के पहले के 15 साल तक बिहार लालू के हाथों में रहा और उस के पहले के 42 साल तक कांग्रेस का शासन रहा था. ऐसे में तो बिहार की दुर्गति का ठीकरा लालू, नीतीश और कांगे्रस के ही सिर पर फूट रहा है. ऐसी हालत में गठबंधन के तरक्की के दावे और वादे को हजम कर पाना जनता के लिए मुश्किल ही होगा. बिहार को कई साल पीछे ढकेलने वाले ही अब ‘बढ़ता रहेगा बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार’ का ढोल पीट रहे हैं. इस के अलावा नेताओं ने तो ऊपरऊपर गठबंधन कर लिया है पर उन की पार्टी के कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वे अपने इलाके में किस का और कैसे प्रचार करें? जदयू के नेता और कार्यकर्ता वोटरों को क्या जवाब देंगे कि ‘जंगलराज’ वाले अब उन के दोस्त कैसे बन गए?

इस गठबंधन से दलितों, पिछड़ों और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों का वोट तो इंटैक्ट हो सकता है. वोट का विभाजन कम होने से छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को काफी नुकसान हो सकता है. बिहार में 11 फीसदी यादव, 12.5 फीसदी मुसलिम, 3.6 फीसदी कुर्मी, 14.1 फीसदी अनुसूचित जाति और 9.1 फीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी है. गठबंधन के नेताओं को पूरा भरोसा है कि इन का वोट उन्हें ही मिलेगा. गठबंधन के बनने के बाद अब बिहार में उस की सीधी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग से होनी है. इस से कांटे की लड़ाई के साथ खेल दिलचस्प भी हो गया है. वोटबैंक को मजबूत करने के साथ ही गठबंधन को नए नारे और नीति की दरकार है. गठबंधन के पास बिहार को बचाने से ज्यादा भाजपा से बचने की छटपटाहट है. लालू और नीतीश के हाथ मिलाने से भाजपा के लिए चुनौतियां कई गुना ज्यादा बढ़ गई हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादियों और सामाजिक न्याय के वोट का बिखराव होने का फायदा भाजपा को आसानी से मिल गया था. लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद 10 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में राजद-जदयू के मिलने से काफी फायदा हो गया था. 10 में 6 सीटें गठबंधन ने जीती थीं और 2 सीटों पर भाजपा को कड़ी टक्कर भी दी थी. भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि लालू और नीतीश पिछले 24 सालों से लगातार बिहार की सियासत की धुरी बने हुए हैं और पिछले 20 सालों से वे एकदूसरे की विरोध की राजनीति करते रहे हैं. आज दोनों जिस किसी भी सियासी मजबूरियों की वजह से फिर से साथ मिले हैं, उन का मिलन उत्तर भारत की सियासत में नया विकल्प पैदा करने की उम्मीद जगाता है. इन के गठबंधन को एक झटके में बेअसर करार देना किसी भी माने में समझदारी नहीं कही जाएगी क्योंकि इस गठजोड़ के पास वोट हैं. आज की हालत में भले ही उन का वोट बिखरा और छिटका हुआ हो पर उन में इतनी कूवत है कि विधानसभा चुनाव तक अपने वोटबैंक को काफी हद तक एकजुट कर कामयाब हो कते हैं. दोनों धुरंधरों को कामयाबी महज गठबंधन बना लेने से नहीं, बल्कि अपनी गलतियों को सुधार कर और अहंकार को दरकिनार कर नया एजेंडा बनाने से ही मिलेगी. दोनों बिहार के जमीन से जुड़े नेता रहे हैं, सामाजिक न्याय के मसीहा माने जाते हैं और पिछड़ों, दलितों व अल्पसंख्यकों के वोट पर खासी पकड़ रखते हैं.

महागठबंधन के दलों के लिए सब से बड़ी दिक्कत अपनेअपने वोट को सहयोगी दलों के खाते में ट्रांसफर कराना है. राजद और जदयू के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए यह बड़ा ही कठिन टास्क है. नीतीश और लालू सफाई दे रहे हैं कि नेताओं और पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच कहीं कोई कन्फ्यूजन नहीं है. प्रमंडल स्तर पर कार्यकर्ताओं से रायविचार करने के बाद ही गठबंधन हुआ है. कहीं कोई भी विवाद या खींचतान के हालात नहीं हैं. गठबंधन की सभी पार्टियों के नेता अपनेअपने कार्यकर्ताओं से मशविरा करने के बाद ही सीटों को ले कर तालमेल पर फैसला लेंगे. गठबंधन की सब से बड़ी खासीयत यह है कि लालू यादव ने पहली बार परिवार के दायरे से बाहर कदम रखा है और अपनी बीवी, बेटी, बेटा या परिवार के किसी और सदस्य को तरजीह नहीं दी है. हो सकता है कि लालू ने ऐसा कदम सियासी मजबूरी या दबाव की वजह से उठाया हो, लेकिन इस के बाद भी उन की यह पहल तारीफ के काबिल है. ऐसा कर वह परिवारवाद के आरोप से नजात पा चुके हैं और सामाजिक न्याय के झंडे को फिर से थाम चुके हैं. सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने और भाजपा को हराने के लिए उन्होंने नीतीश कुमार को गठबंधन का नेता होना भी कुबूल कर लिया है. लालू की यह खामोशी किसी बड़े तूफान की ओर इशारा भी कर देती है. सवाल यह है कि अगर चुनाव के बाद लालू की पार्टी राजद को नीतीश की पार्टी जदयू से ज्यादा सीटें मिल जाती हैं तो क्या लालू तब भी चुप रहेंगे और नीतीश को मुख्यमंत्री के तौर पर स्वीकार कर लेंगे? 1974 की संपूर्ण क्रांति के समय से ही नीतीश और लालू का याराना रहा है लेकिन पिछले 17 सालों के दौरान उन की सियासी दुश्मनी के कई रूप जनता ने देखे हैं. राजद के 15 साल के जंगलराज को खत्म करने के बाद नीतीश के नए दोस्त की तलाश की मुहिम आखिर लालू यादव पर ही जा कर खत्म हुई. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने जब कांग्रेस समेत सारे इलाकाई दलों के तंबू उखाड़ दिए तो सारे उजड़े दल अपना वजूद बचाने के लिए एक छत के नीचे आ गए हैं.

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि राजद और जदयू का गठबंधन तेल और पानी को मिलाने की तरह है. लाख कोशिशों के बाद भी तेल और पानी एक नहीं हो सकते हैं. गठबंधन ने लालू को फिर से उठने का मौका दे दिया है जबकि नीतीश के लिए यह सियासी ताबूत की आखिरी कील साबित होगी. भाजपा के लिए यही अच्छी बात है कि गठबंधन के बहाने जनता ने लालू और नीतीश का असली चेहरा देख लिया है. मोदी कुछ भी कहें लेकिन मुख्यमंत्री के उम्मीदवार का नाम ऐलान करना भाजपा के लिए काफी फजीहत का काम हो सकता है. सुशील मोदी, शत्रुघ्न सिन्हा, शाहनवाज हुसैन, रविशंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव, प्रेम कुमार समेत कई नेता मुख्यमंत्री की कुरसी पर गिद्ध जैसी नजर टिकाए हुए हैं. दिलचस्प बात यह है कि इन में से ज्यादातर नेता मौकेबेमौके यह सफाई देते रहते हैं कि वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं.

महागठबंधन को कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो चुनाव के बाद ही साफ हो सकेगा लेकिन इस ने भाजपा के खेमे में बेचैनी को तो बढ़ा ही दिया है. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में कुल 243 सीटों में से 87 सीटों पर जदयू और राजद आमनेसामने थे. इस में से 71 सीटों पर जदयू को जीत मिली और राजद के खाते में 16 सीटें गई थीं. इन 87 सीटों पर दोनों दलों के उम्मीदवारों को मिले वोट को जोड़ देने से उन के सामने कोई दल टिक नहीं पाता है. भाजपा ने इन सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे. इस साल के चुनाव में भाजपा इन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी तो उसे महागठबंधन से कड़ा मुकाबला करना होगा. 100 ऐसी सीटें हैं जिन पर पिछले 2 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और इन सीटों पर राजद व जदयू के उम्मीदवार जीतते रहे हैं या दूसरे नंबर पर रहे हैं. भाजपा के बिहार अध्यक्ष मंगल पांडे कहते हैं कि नरेंद्र मोदी और सूबे की तरक्की के नाम पर बिहार की जनता भाजपा को वोट देगी और बहुमत से जिताएगी. पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 91 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि उस ने केवल 101 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे. सीट के लिहाज से भाजपा को बाकी दलों से ज्यादा बड़ी कामयाबी मिली थी. वे कहते हैं कि भाजपा और उस के सहयोगी दल सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे और महागठबंधन की हवा निकल जाएगी.

भाजपा की छवि पर लमो हावी

इधर भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर योग के जरिए दुनिया को स्वस्थ व तनावमुक्त करने का बीड़ा उठाए घूमते रहे हों लेकिन ललित मोदी वीजा विवाद में घिरी केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज का मामला उन की सरकार के अस्वस्थ व तनावयुक्त होने का कारण बन गया है. भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से घिरे आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी को कुछ अहम ट्रैवल डौक्यूमैंट्स दिलाने में मदद के आरोप में फंसी सुषमा अब खुद भी नहीं बल्कि पार्टी की बिगड़ती छवि को भी बचाने में लाचार हैं. ललित मोदी प्रकरण भाजपा की छवि पर इस कदर हावी हो गया है कि विपक्षी अब सुषमा के साथ नरेंद्र मोदी को भी आड़े हाथोें ले रहे हैं. राहुल गांधी ने तो यहां तक कह दिया कि एक मोदी दूसरे मोदी को बचा रहा है. उधर भाजपा सुषमा के बचाव में कमर कसे हुए है. देखते हैं कि भ्रष्टाचार का यह मुद्दा भाजपा की छवि को अभी कितना और तारतार करेगा.

भाजपा की नाव में मांझी

लालू, नीतीश, मुलायम और कांगे्रस के गठबंधन को भाजपा ने उन के ही हथियार से मात देने की जुगत लगाई है. सूबे के महादलित नेता जीतनराम मांझी को भाजपा ने अपनी नाव पर बिठा लिया है. मांझी कहते हैं कि नीतीश कुमार ने उन को मुख्यमंत्री की कुरसी से जलील कर जबरन उतार कर समूचे महादलितों का अपमान किया है. विधानसभा चुनाव में महादलित और गरीब नीतीश को सबक सिखा देंगे. बिहार की कुल आबादी 10 करोड़ 50 लाख है और 6 करोड़ 21 लाख वोटर हैं. इन में 27 फीसदी अति पिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलमान, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं. बिहार राज्य अति पिछड़ा महासंघ के संयोजक किशोरी दास कहते हैं कि साल 2014 के मई महीने में हुए लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ों ने गेमचेंजर की भूमिका अदा की थी. पिछड़ों और दलितों को महज वोटबैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है. आजादी के बाद से ले कर आज तक दलितों ने देख लिया है कि हर राजनीतिक दल केवल उन की तरक्की की बात करता है, पर आज तक उन की तरक्की के लिए एक भी ठोस योजना नहीं बनी, हर सरकारी योजना दलितों को भिखारी बनाने की है. मुफ्त में खैरात बांटबांट कर दलितों को पंगु, दूसरों का मुहताज बना दिया गया है. 

योग और अयोग

नरेंद्र मोदी की सरकार ने बड़े तामझाम से करोड़ों रुपए खर्च करवा कर 21 जून को देश में ही नहीं, दुनियाभर में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनवा लिया, मानो दुनिया की सेहत के अच्छे होने की शुरुआत हो गई. इस पर जो भारीभरकम प्रचार किया गया वह थोड़ा आश्चर्य वाला है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय पोलियो दिवस, एड्स दिवस जैसों पर सिवा छोटे विज्ञापनों के कोई शोर नहीं सुनने में आता. योग व्यायाम है या धर्म, इस पर जो बहस छिड़ी है, वह लाजिमी ही है क्योंकि जिस तरह से उसे परोसा गया उस से लगता था कि कोई मूवमैंट चलाने की कोशिश की जा रही है और जिस का सेहत से कम, लोगों को एक बैनर तले ला कर खड़ा करना ज्यादा है. जिन लोगों ने इस दिन सरकारी कार्यक्रम में भाग नहीं लिया उन पर उसी तरह तोहमतें लगाई जा रही हैं जैसे धर्म वाले अपने अनुयायियों या गैर अनुयायियों पर लगाते हैं. यह दर्शाने की कोशिश की जा रही है कि इस का विरोध करने वाले देशद्रोही हैं.

योग में कितने भी गुण हों, यह जरूरी नहीं कि इसे सब के सामने चटाई बिछा कर किया जाए. यह नितांत व्यक्तिगत मामला है. इस की चिकित्सकीय उपयोगिता चाहे जितनी हो, इसे सरकारी त्योहार की तरह मनाना गलत है. योग का हिंदू धर्म से ही जुड़ाव रहा है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. और यह उपयोगी है या नहीं, इसे गुप्त ज्ञान कह कर सदियों तक इस को एक वर्ग ने अपनेआप तक रखा था. इस में जो लोग माहिर हो गए वे अपने नाम के आगे योगाचार्य लगाने से नहीं चूकते रहे. अगर योग जीवन के लिए उपयोगी ही था तो उसे सदियों तक क्यों छिपा कर रखा गया? हर भारतवासी इसे जन्म से क्यों नहीं सीखता था? अगर इस की उपयोगिता सुविचारों को लाने में रही है तो उस का लाभ हजारों वर्षों से क्यों नहीं उठाया गया और देश दरिंदों, अनपढ़ों, असभ्यों के हाथों क्यों गुलाम रहा?

यही नहीं, योग  का ज्ञान होने के बावजूद हमारे देवीदेवता आपस में क्यों लड़तेझगड़ते रहे? हमारे महापुराण, पुराण, स्मृतियां, काव्य, नाटक, आदि सभी विवादों, हत्याओं, अन्यायों की ही गाथाएं हैं. योग के जन्मदाता देश ने अपने समाज को हजारों सालों से यह दृढ़ता क्यों न दी कि वह हमेशा सिर उठा कर चलता और गुलामी ही नहीं, गरीबी और गंदगी का शिकार न रहता? योग की महत्ता चाहे कुछ भी हो, यह नितांत व्यक्तिगत मामला ही है. इस का प्रचार योग शिक्षक करना चाहें तो करें पर सरकार उन का एजेंट बने, यह तार्किक नहीं है.

कठघरे में सुषमा व वसुंधरा

ललित मोदी, जिस ने क्रिकेट का व्यावसायीकरण कर देश में आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग की सफल शुरुआत की और जिस पर भारी हेराफेरी के आरोप हैं, के इंगलैंड में रहते हुए उस की सहायता करने के मामले में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे कठघरे में हैं. किसी अदालत ने तो उन्हें अभी किसी बात का दोषी नहीं माना या उन के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया पर नरेंद्र मोदी की सरकार का भ्रष्टाचारमुक्त भारत का वादा चकनाचूर हो गया है और वह मीडिया ट्रायल में बुरी तरह फंस चुकी है. वह चाहे जो कोशिश कर ले, दाग साफ करना कठिन है. भारतीय जनता पार्टी ने फिलहाल इन दोनों को अभयदान दिया है क्योंकि अपराध की स्वीकारोक्ति भाजपा के लिए उन के पद पर बने रहने से ज्यादा महंगी साबित होती. कठिनाई यह है कि ललित मोदी, जिस का पासपोर्ट रद्द था, को आनेजाने की सुविधा देने वाला सिफारिशी पत्र सुषमा स्वराज ने विदेश मंत्री रह कर लिखा था और वसुंधरा राजे ने सिफारिशी पत्र ब्रिटिश अधिकारियों को तब लिखे थे जब वे राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता मात्र थीं.

दोनों मामले एक जैसे होते हुए भी अलग हैं पर तार जुड़े हुए हैं. सुषमा स्वराज के खिलाफ कदम उठाना केंद्रीय नेतृत्व को झटका देना होगा और वसुंधरा राजे के खिलाफ कुछ करने पर संभव है वे अलग पार्टी बना कर मुख्यमंत्री बनी रहें. भाजपा, जो भ्रष्टाचार को निशाना बना कर जीती थी, बुरी तरह फंस गई है पर उस के पास कोई और उपाय नहीं है. ललित मोदी ने साबित कर दिया है कि समरथ को नहिं दोस गुसाईं. जैसे सोनिया गांधी ने अपने कई सहयोगियों को काफी दिनों तक बचाया था वैसे ही नरेंद्र मोदी को उन नेताओं को बचाना ही होगा जिन के बल पर पार्टी का विकास हुआ था. सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे भारतीय जनता पार्टी को बनाने वालों में से हैं और उन्होंने तिनकातिनका जोड़ कर भाजपा का घोंसला बनाया है. आज नरेंद्र मोदी जिस सत्ता का आनंद ले रहे हैं और उसे बनाने में लालकृष्ण आडवाणी व शिवराज सिंह चौहान के अलावा ये 2 महिलाएं हैं जिन्होंने संकट के दिनों से पार्टी को उबारा था. नरेंद्र मोदी सहित बाकी ज्यादातर नेताओं ने उन की मेहनत, निष्ठा, कमिटमैंट का फायदा उठाया है. भाजपा के नेताओं के मुंह बंद हैं तो इसलिए कि वे जीत का लाभ ही नहीं उठा रहे हैं, उन की मेहनत का लाभ उठा रहे हैं. आज नरेंद्र मोदी का कद इन कुछ नेताओं से बढ़ गया है. पार्टी के जनक माने जाने वाले लोगों में से सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे आदि ही हैं. उन्हें अपमानित कर के निकालना राजा राम का छोटे भाई भरत को निकालने की तरह होगा, वह भी मात्र एक दंभी, अहमी साधु दुर्वासा के कहने पर. भाजपा की उन्हें संरक्षण देने की जिद को समझना कठिन नहीं है.

डीएनए की सेल

बौलीवुड की तरह अमेरिकी ग्लैमर वर्ल्ड में भी रिऐलिटी शो ने कई ऐसे लोगों को स्टारडम दिया है जो हमेशा विवादित खबरों में आते रहते हैं. किम कर्दाशियां और फराह अब्राहम ऐसी ही हस्तियां हैं. फराह टीन मौम सीरियल से चर्चित हुई थीं. उस के बाद मैडम ने बाकायदा पौर्न वीडियो बना डाला और एक वैबसाइट से उस वीडियो की करोड़ों में डील भी कर ली. अब खबर है कि फराह अब्राहम अपना डीएनए बेचने जा रही हैं. एक विदेशी पत्रिका की मानें तो फराह ने सैलिब्रिटीजेन डौट कौम के साथ साझेदारी करते हुए अपना डीएनए 99 हजार डौलर में बेचने का करार किया है. इतना ही नहीं, उन्हें डीएनए नमूने के लिए 30 हजार डौलर अग्रिम राशि दी गई है. कहने को यह काम किसी चैरिटी के लिए हो रहा है लेकिन अभिनय के अलावा और कैसेकैसे कमाई की जा सकती है, कोई फराह जैसे कलाकारों से सीखे.

शेयर बाजार का रुख पलटा, सूचकांक सुधरा

जून का दूसरा पखवाड़ा शेयर बाजार के लिए उत्साहवर्द्धक रहा. 4 सप्ताह बाद पहली बार 20 जून को समाप्त हुए सप्ताह के सभी सत्रों में बाजार तेजी पर बंद हुआ. इस से पहले लगातार 3 सप्ताह तक बाजार में गिरावट का माहौल रहा जिस से बाजार में जम कर बिकवाली हुई और निवेशकों में जबरदस्त निराशा का माहौल रहा. इस अवधि में बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 26 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक अंक से नीचे उतर आया था. इसी बीच अमेरिका में केंद्रीय बैंक की दरों में बढ़ोत्तरी नहीं करने के फैसले, मानसून के पहले के अनुमान के उलट बेहतर रहने की उम्मीद, न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढ़ने और औद्योगिक आंकड़े के बेहतर रहने तथा रुपए की सेहत में सुधार की बदौलत बाजार में रौनक लौट आई और लगातार 3 सप्ताह तक गिरावट से रूबरू हो कारोबारियों के चेहरों पर मुसकान लौटी. इस दौरान बाजार पहले 2 सप्ताह और फिर 4 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ. इस अवधि में वैश्विक बाजारों में नकारात्मकता देखने को मिली. रुपया भी अचानक मजबूत स्थिति में लौट आया, मानसून के पहले के अनुमान में बदलाव आ गया और इस से बाजार की स्थिति सुलट गई व सूचकांक एकाएक कुलांचें भरने लगा. जानकारों का मानना है कि बाजार की स्थिति फिलहाल अच्छी है, इसलिए सूचकांक के तेजी पर रहने का अनुमान है.

सुंदरकांड

रामायण में कई कांड हैं. अगर देखा जाए तो रामायण में कांड के अलावा कुछ भी नहीं है. उन कांडों में एक कांड सुंदरकांड है. इस का आयोजन मेरे महल्ले के अवधेश ने किया. अवधेश ने बाकायदा निमंत्रणपत्र छपवा कर कई लोगों के साथ मुझे भी भेजा. निमंत्रणपत्र पढ़ने के बाद मुझे कुछ अजीब लगा, सुंदरकांड? मैं सोचने लगा, भला कांड भी कभी सुंदर हुआ है? आज तक मैं ने जितने भी कांड देखे सब के सब कुरूप ही थे. फिर चाहे कांडा का कांड हो या अन्य कोई कांड या घोटाला. बहरहाल, नियत समय पर मैं अवधेश के घर पहुंच गया. घर के बाहर एक खूबसूरत शामियाना बंधा था. लोगों को बैठने के लिए कुरसीटेबल की अच्छी व्यवस्था थी. ठीक सामने एक ऊंचा सा मंच बना था. शायद यहीं पर सुंदरकांड का आयोजन होगा. एक कोने में भोजन की व्यवस्था थी, जिस की महक चारों ओर फैल रही थी. मैं ने मन ही मन सोचा, सुंदरकांड चाहे जैसा भी हो परंतु अभी तो खुशबू से पता चलता है कि भोजन स्वादिष्ठ ही होगा. तकरीबन सभी मेहमान आ गए थे. मैं ने अवधेश से उत्सुकता से पूछा, ‘‘भाई, पहले यह बताओ, यह सुंदरकांड होता कैसे है? क्या किसी नेतामंत्री को बुलाया है? क्योंकि जहां तक मेरा खयाल है, इन के बिना कोई कांड होता ही नहीं है. ये महानुभाव जहां खड़े हो जाते हैं कांड अपनेआप हो जाता है और अगर नहीं होता है तो ये कर आते हैं.’’

अवधेश मेरी अल्पबुद्धि पर हंसने लगे, ‘‘यार, तुम जिस कांड की बात कर रहे हो वह यह कांड नहीं है. यह रामायण का सुंदरकांड है.’’ मेरी अज्ञानता पर तरस खा वे मुझे विस्तार से समझाने लगे, ‘‘तुम जो समझ रहे हो वह यह कांड नहीं है. यह तो रामचरितमानस का एक कांड है.’’ मैं ने तपाक से कहा, ‘‘हां, याद आया, रामचरितमानस में तो कांड ही कांड हैं, जैसे बाली हत्याकांड, सीता अपहरण कांड, रामरावण युद्ध कांड, लंका कांड, अग्नि कांड…’’

‘‘बीच में मत बोलो,’’ वे झल्लाए.

मैं ने अपने होंठों पर उंगली रख चुप रहने का अभिनय किया तो वे फिर बोले, ‘‘रामचरितमानस के कई नामों से अलगअलग हिस्से हैं. उन में सुंदरकांड नाम का भी एक हिस्सा है, जिस के पाठ का मैं ने आयोजन किया है. सुंदरकांड करने वाली एक मंडली होती है, जिस में 2 समूह बन जाते हैं. वे अपने साजोसामान यानी ढोलकपेटी, झांझमंजीरा, चिमटा आदि बजाते हुए सुंदरकांड का एक दोहा पढ़ते हैं. दूसरा ग्रुप बिना ब्रेक के तुरंत अगला दोहा सवालजवाब की तरह पढ़ता है. इस तरह बिना रुके निरंतर पढ़ते जाते हैं. यह समझो यह अखंड रामायण का एक छोटा सा अभ्यास है.’’ मैं ने उन की पूरी बात समझ कर कहा, ‘‘अच्छी बात है. तुम्हारी यह सुंदरकांड करने वाली मंडली कहां है? और कब शुरू होगा कांड?’’

‘‘बस, आती ही होगी,’’ वे गर्व से बोले, ‘‘हमारे शहर की मशहूर शुक्ला मंडली है. जगहजगह कांड करती रहती है. मंडली के मुखिया शुक्लाजी कांड करने में इतने माहिर हैं कि लोग दूरदूर से उन्हें बुलाते हैं. एक बार वे जिस के यहां कांड कर लेते हैं वह जीवनभर नहीं भूलता है. तीजत्योहारों पर तो उन्हें जरा भी फुरसत नहीं मिलती. कांड पर कांड किए जाते हैं.’’ मैं ने बेसब्री से पूछा, ‘‘भाई, यह तुम्हारी कांडी मंडली कब आएगी? तुम ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी है. मैं कांड देखने के लिए बेचैन हूं.’’ अवधेश ने कलाई घड़ी को देखते हुए कहा, ‘‘अभी तक तो आ जाना था, 8 बजे का समय दिया था, अब तो 9 बज गए हैं.’’ समय बढ़ता जा रहा था पर मंडली का कहीं अतापता नहीं था. अवधेश बेचैन हो शुक्लाजी को फोन पर फोन लगालगा कर परेशान हो रहे थे. दूसरी तरफ घंटी तो बराबर जा रही थी परंतु कोई फोन उठा नहीं रहा था. मैं ने शंका जाहिर की, ‘‘तुम्हारी यह मंडली कांड करतेकरते कहीं फंस तो नहीं गई? अकसर सुना है कांडी आदमी एक दिन बुरी तरह फंस जाता है.’’

‘‘शुभशुभ बोलो यार,’’ अवधेश ने मुझे घुड़का.

मैं सहम गया. यह समय मजाक का नहीं था. लेटलतीफ सभी मेहमान आ गए थे. अब वे सब भी मेरी तरह मंडली का इंतजार करतेकरते ऊबने लगे थे. कुछ ने तो अवधेश से क्षमा मांगते हुए जाने की इजाजत चाही. अवधेश लज्जित हो निवेदन कर रहे थे, ‘‘भाई, थोड़ा और रुक जाओ.’’ तभी उन की भारीभरकम श्रीमतीजी सूर्पणखा की तरह गुस्से में पांव पटकती आईं और नथुने फुला कर बोलीं, ‘‘सुनो जी, मंडली कब आएगी? हम लोगों की नाक कटी जा रही है. कितने शर्म की बात है. मेहमान बिना कांड किए जा रहे हैं. पड़ोस के महल्ले के तिवारीजी का पता करना. सुना है, उन की भी मंडली इधरउधर कांड करती रहती है. उन्हीं को बुला लाओ.’’ अवधेश हिचकिचाते बोले, ‘‘परंतु हम ने शुक्ला मंडली को पूरे 1 हजार रुपए ऐडवांस दिए हैं.’’

‘‘उस की चिंता मत करो. मेरे शूरवीर भाई कब काम आएंगे. शुक्ला से ब्याज सहित वसूल लेंगे. जरा सोचो, जब सभी मेहमान चले जाएंगे तो क्या हम दोनों ही कांड करते रहेंगे?’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो.’’ दुबलेपतले अवधेश मिमियाते हुए जवाब दे कर तिवारी मंडली को बुलाने चल दिए. कुछ देर बाद 8-10 लोगों को उन के साजोसामान के साथ ले आए. तिवारी मंडली ने आते ही फौरन मंच पर कब्जा जमाया, फिर अपना साजोसामान खोल कर सजाया. माइक वगैरह ठीक कर सुंदरकांड की तैयारी करने लगे. तभी हांफतीदौड़ती शुक्ला मंडली आ गई. तिवारी मंडली ने उन्हें देखा और मुंह बिचका कर अपने काम में जुट गई. अवधेश ने आगे बढ़ कर शुक्लाजी को उलाहना दे कर घड़ी दिखाते हुए फटकारा, ‘‘यह कोई समय है आप के आने का. मेरे एकएक कर के कई मेहमान बिना कांड किए चले गए.’’ शुक्लाजी ने नम्रता से जवाब दिया, ‘‘देखो भाई, हम एक सज्जन धर्मप्रेमी व्यक्ति के यहां कांड कर रहे थे. वहां कांड देरी से शुरू हुआ तो समापन में देरी हो गई. इस में हमारा कोई दोष नहीं है. सब प्रभु की मरजी है.’’

‘‘आप ने मेरा फोन भी नहीं उठाया.’’

‘‘कैसे उठाते? झांझमंजीरा, ढोलकपेटी की आवाज में रिंगटोन सुनाई नहीं दी.’’ तभी तिवारीजी वहां आ गए, ‘‘देखो शुक्लाजी, अब आप देर से आए हैं तो अपना साजोसामान मत खोलिए क्योंकि हम मंच पर अपना सामान जमा चुके हैं,’’ तिवारी ने वजनदारी से आगे कहा, ‘‘अब कांड तो हम ही करेंगे.’’ ‘‘हमें देर क्या हुई, तिवारीजी आप ने चुपके से विभीषण वाली हरकत कर दी और हमारी लंका में सेंध लगा दी. अवधेश भाई के यहां कांड करने का हमारा पहला हक है, हम बरसों से यहां कांड करते आ रहे हैं, फिर हम ने कांड करने का ऐडवांस रुपया भी लिया हुआ है.’’ ‘‘हम ने भी बिनाबुलाए हनुमान की तरह घुसपैठ नहीं की है. देखते हैं, कांड करने से कौन रोकता है. हम ने एक से एक दमदार लोगों के यहां कांड किए हैं, लेकिन आज तक किसी ने चूं तक नहीं की है. आप की क्या औकात?’’ ‘‘औकात की बात मत करिए. हम आप की औकात जानते हैं,’’ शुक्लाजी को जोश आ गया. वे तैश में आगे बोले, ‘‘हमारा मुंह मत खुलवाइए. पूरी जिंदगी आप के बापदादा भांडगीरी करते रहे और आप को रामायण की एक चौपाई भी ढंग से पढ़नी नहीं आती, और चले हैं सुंदरकांड करने.’’

तूतू, मैंमैं में दोनों एकदूसरे की बखिया उधेड़ने लगे, फिर देखतेदेखते हाथापाई पर उतर आए. दोनों मंडली के लोग आमनेसामने खड़े हो कर कुरसीटेबल, झांझमंजीरा…जो हाथ में आया एकदूसरे पर फेंकने लगे. ऐसा लग रहा था रामायण का अंतिम कांड यानी रामरावण युद्ध शुरू हो गया. चारों तरफ अफरातफरी मच गई. लोग तितरबितर हो गए, जिसे जहां जगह मिली, छिपने लगे. मैं भी अपनेआप को बचाता हुआ एक कोने में जा दुबका. मेरे पास ही अवधेश भी दुबके हुए थे. युद्ध का सजीव नजारा देख वे मन ही मन दुखी हो रहे थे. मैं ने दोनों मंडलियों की मारपीट की ओर उंगली से इशारा कर अवधेश से पूछा, ‘‘इस सुंदरकांड का समापन कैसे होगा?’’ अवधेश ने हताश हो कर दयनीय दशा में बड़ी सादगी से जवाब दिया, ‘‘जैसा हर कांड का होता है.’’ इतना कह कर उन्होंने अपने मोबाइल फोन से 100 नंबर डायल कर पुलिस को भी बुलावा भेज दिया.

रीतिरिवाजों के भय तले दबा डरासहमा समाज

यह एक सच्ची घटना है जिसे पढ़ कर शायद आप की व्यर्थ की धार्मिक परंपराओं व रीतिरिवाजों के बारे में राय बदल जाए. खूबसूरत व संस्कारी निमिषा की मां का देहांत हो गया था. पिता इस हालत में नहीं थे कि बेटी की देखभाल कर पाते. ऐसे में उस के चाचाजी व चाचीजी ने उसे अपनी सगी बेटी की तरह पालपोस कर बड़ा किया और समय आने पर इंजीनियर के पद पर कार्यरत एक सुदर्शन युवक से उस की सगाई कर दी. सगाई शानदार तरीके से हुई. दहेज और वैवाहिक कार्यक्रमों की बात चली तो लड़के की मां ने कहा, ‘‘हमें दहेज नहीं चाहिए और हम कोर्ट मैरिज ही करवाएंगे. किसी भी तरह के धार्मिक रीतिरिवाजों को नहीं निभाएंगे.’’ यह बात सुन कर निमिषा के परिवार में सन्नाटा छा गया कि भला बिना रीतिरिवाजों और धार्मिक पूजापाठ के विवाह कैसे संपन्न होगा.

सभी हैरान थे कि आखिर वे पूजापाठ और ईश्वर को क्यों नहीं मानते. परिवार अच्छा होने की वजह से वे रिश्ता भी नहीं तोड़ना चाहते थे, इसलिए चाचीजी ने इस बारे में लड़के की मां से बात करना उचित समझा. उन्होंने लड़के की मां से पूछा, ‘‘आखिर ऐसी क्या बात है कि आप लोग भगवान, रीतिरिवाज व परंपराओं को नहीं मानते हैं?’’ लड़के की मां ने कहा, ‘‘दरअसल, मेरे बेटे की ईश्वर पर कोई आस्था नहीं है. जब मेरे पति यानी इस के पिता बहुत गंभीर रूप से बीमार थे तो इस ने सभी देवीदेवताओं की पूजाअर्चना, धार्मिक कर्मकांड सबकुछ किया लेकिन फिर भी अपने पिता को नहीं बचा पाया. तभी से हम ने पूजापाठ, धार्मिक रीतिरिवाजों पूजाअर्चना का पूरी तरह से त्याग कर दिया है.’’ लड़के की मां के मुंह से यह बात सुन कर निमिषा की चाची हैरान रह गईं और उन की सोच पूरी तरह बदल गई और वे लड़के की मां के कहे अनुसार कोर्ट मैरिज व रिसैप्शन के लिए तैयार हो गईं. आज निमिषा पूरी तरह सुखीसंपन्न है बावजूद इस के उस के विवाह में कोई वैवाहिक रीतिरिवाज, पूजापाठ धार्मिक कर्मकांड नहीं हुआ, जिन के बिना भारतीय समाज किसी भी विवाह को अधूरा व असफल होने की शंका करता है. इस उदाहरण के अलावा ऐसे कितने लोग हैं जो इन व्यर्थ के रीतिरिवाजों व धर्मकर्म को नहीं मानते.

भारतीय समाज में धार्मिक रीतिरिवाजों, पूजापाठ का पालन दैनिक आधार पर जीवन के सभी छोटेबड़े अवसरों पर किया जाता है और माना जाता है कि ये रीतिरिवाज और परंपराएं सदियों से चली आ रही हैं, इसलिए अनिवार्य हैं और बाध्य रस्में हैं. ये रस्में दिनचर्या में इस तरह घुलमिल गई हैं कि इन्हें बड़ी शिद्दत के साथ निभाया जाता है. इन रीतिरिवाजों के परे सोच पाना भी, जैसा कि निमिषा के होने वाले पति ने किया, संभव नहीं होता क्योंकि ये रीतिरिवाज बुरी लत की तरह लोगों की नसनस में समा चुके हैं. लेकिन आप जानते हैं कि ये धर्मकर्म, पूजापाठ, रीतिरिवाज एक आम आदमी की सोच, उस की दिनचर्या और पूरी जिंदगी पर क्या प्रभाव डालते हैं?

वहम व डर का साया

यज्ञ, हवन, व्रत, कथा, पाठ ये सभी धार्मिक क्रियाकलाप लोगों को वहम और डर के बंधनों में जकड़ते हैं और इन के बोझ तले जीते लोग खुशहाली के बजाय दुख और डर के साए तले जीते हैं. पूजापाठ, रीतिरिवाजों, धर्मकर्म के बीज हमारे समाज में बच्चों में बचपन से ही रोप दिए जाते हैं. उसे अपनी हर इच्छापूर्ति के लिए धार्मिक कर्मकांडों पर निर्भर बना दिया जाता है. आप उक्त देवीदेवता की पूजा करो, मंत्रजाप करो तो परीक्षा में सफल होगे, इंटरव्यू में सफलता मिलेगी, रोगों से मुक्ति मिलेगी, 16 सोमवार करोगी तो अच्छा घरवर मिलेगा, करवाचौथ का व्रत करोगी तो पति दीर्घायु होगा यानी जीवन के छोटेबड़े सभी उद्देश्य धार्मिक कर्मकांडों के आधार पर व्यवस्थित होते हैं. कुल मिला कर जन्म से ले कर मृत्यु तक धार्मिक पूजापाठ, रीतिरिवाजों में जकड़ा मनुष्य इन से इतना भयभीत रहता है कि इन के बिना एक भी कदम आगे बढ़ाने से डरता है कि अगर उक्त व्रत या अनुष्ठान नहीं किया तो बुरा होगा, असफलता मिलेगी, जीवन असफल हो जाएगा. और वह बिना सोचेसमझे इन धार्मिक कर्मकांडों को अपने जीवन का अटूट हिस्सा बनाता चला जाता है. वहीं, जो रीतिरिवाजों को नहीं मानता उसे नास्तिक या अधर्मी करार दे दिया जाता है.

एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत 32 वर्षीय रीतू का इस बारे में कहना है, ‘‘मैं इस तरह के व्रत, पूजापाठ बिलकुल नहीं करती क्योंकि ये व्यर्थ के आडंबर न सिर्फ डराते हैं बल्कि व्यर्थ का वहम भी पैदा करते हैं और हमारा ध्यान वास्तविक समस्या से हट जाता है. एक स्टूडैंट पढ़ाईलिखाई छोड़ कर पूजापाठ, व्रत, उपवास में लग जाता है, पतिपत्नी आपसी रिश्तों में मधुरता कायम करने के लिए आपसी सामंजस्य और अपनेपन के बजाय कुंडलियों के मिलान और तंत्रमंत्र, दानधर्म का सहारा लेने लगते हैं. जब वे एक बार इन के जाल में फंस जाते हैं तो इन्हें न करने या छोड़ने से डर लगने लगता है. तब उन के पास इन में फंस कर रहने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता. इन सब से परिणाम भी कुछ हाथ नहीं लगता. ऐेसे में इन व्यर्थ के रीतिरिवाजों में जकड़ कर जिंदगी को डर के साए में जीने से क्या फायदा?’’

टूटता आत्मविश्वास

पूजापाठ, धार्मिक अनुष्ठानों में जकड़ा मनुष्य इस कदर इन के जाल में फंस जाता है कि वह अपने जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपनी कोशिशें छोड़ देता है और पूरी तरह इन पर निर्भर हो जाता है फिर चाहे वह उद्देश्य उच्च शिक्षा प्राप्ति हो, बेहतर स्वास्थ्य हो, विवाह, संतानप्राप्ति या मकान निर्माण हो. वह इन सब के लिए पंडितों, धर्मगुरुओं का सहारा लेता है और पूजापाठ, तंत्रमंत्र जैसे उपाय अपनाने लगता है. और तो और, बीमार व्यक्ति की सेहत में सुधार के लिए भी डाक्टरी इलाज के बजाय झाड़फूंक व दानधर्म में अपनी अमूल्य संपत्ति झोंक देता है. इन सब के बाद भी जब कोई परिणाम उस के हाथ नहीं लगता तो वह पूरी तरह टूट जाता है और उस के पास सिवा पछताने के कुछ नहीं बचता. पाखंडी पंडों और स्वार्थी साधुओं की पेटपूजा के खर्चों में धर्मभीरु लोगों की मेहनत की गाढ़ी कमाई बरबाद हो जाती है. वे जीवनभर के लिए कर्जदार बन जाते हैं. दूसरी तरफ, सुविधाभोगी पाखंडी पंडे भोलेभाले लोगों को रीतिरिवाजों के जाल में उलझा कर अपनी जेबें भरते रहते हैं. आधुनिक समाज में जरूरत है व्यर्थ की धार्मिक कर्मकांडों और रीतिरिवाजों से मुक्ति पाने की ताकि निमिषा और उस के पति की तरह बिना डर और वहम के आत्मविश्वास के साथ जिंदगी को जिया जा सके. इस के लिए सभी को जागरूक किए जाने की जरूरत है.

कुछ आंखों देखी कुछ कानों सुनी

भड़कने के माने

केंद्रीय मंत्री बनने के बाद शांत रहने की कला में माहिर हो गए रामविलास पासवान आखिरकार जीतनराम मांझी पर बरस ही पड़े. और इस तरह बरसे कि मांझी इतना सहम गए कि माफी सी मांग बैठे. बिहार के चुनाव में जातियों के वोट हर कोई गिना रहा है. जातियों के होहल्ले में भाजपा की विकास की आवाज उस के गले में ही घुटी जा रही है क्योंकि कोई अब यह घुट्टी पीने को तैयार नहीं. चारों तरफ से अगड़े, पिछड़े, दलित और महादलित जैसे विशेषणों की बौछार हो रही है. ऐसे में मोदीछाप छाता चल पाएगा ऐसा लग नहीं रहा. रामविलास पासवान की खीझ नरेंद्र मोदी के उतरते जादू को ले कर ज्यादा है. एनडीए की जीत अब गारंटेड नहीं रह गई है. लिहाजा, कोई नई तिकड़म उसे भिड़ानी पड़ेगी. पर मांझी को काबू करने का कोई फार्मूला नहीं निकल रहा. मांझी कोई करिश्मा भले ही न कर पाएं पर दलितों का वर्गीकरण कर सीना तानते वे सीटों की सौदेबाजी में भारी पड़ रहे हैं. पासवान का एक डर यह भी है कि कहीं इस भगदड़ में मांझी की आस्था नीतीश व लालू में फिर से जाग्रत न हो जाए.

आडवाणी का आफतकाल

चूंकि यह मान लिया गया है कि लालकृष्ण आडवाणी जो भी बोलेंगे वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ ही होगा, इसलिए आपातकाल वाले उन के बयान के सभी ने स्वच्छंदतापूर्वक मतलब ऐसेऐसे निकाले कि खुद आडवाणी हैरान रह गए. वे यह नहीं समझा पाए कि 39 साल पहले कांग्रेस नेत्री इंदिरा गांधी और उन के तानाशाह बेटे संजय गांधी ने लोगों का उठना, बैठना और बोलना तक मुहाल कर दिया था. एक जमाना यह है कि कोई भी कुछ भी बोल सकता है. खासतौर से सोनिया व राहुल गांधी को बेहिचक मंच से गाली दी जा सकती है. आपातकाल और उस के बाद 2014 तक के अपवाद सालों को छोड़ दें तो नेहरूगांधी परिवार से बदला लेने का यह सुनहरा मौका है. बेचारे आडवाणी अतीत के मोहपाश में बंधे यह सोच रहे थे कि वे भी क्या दिन थे, जेल में बैठे गाने सुनते रहो, बहसें करते रहो और आज कुछ यों ही बोल दो तो हर किसी की जलीकटी सुननी पड़ती है कि लो, खुद पीएम नहीं बन पाए तो यों भड़ास निकाल रहे हैं यानी बोलना आज भी गुनाह है.

एक इश्तिहार, हजार अफसाने

असल गलती उस एजेंसी की है जिस ने इतना प्रभावी विज्ञापन बनाया और उस से भी बड़ी गलती उस मौडल की है जिस ने अधेड़ मध्यवर्गीय गृहिणी के रोल में जान डाल दी. अरविंद केजरीवाल वाले विज्ञापन के प्रसारण पर भाजपा और कांग्रेस भड़की हुई हैं कि यह व्यक्तिपूजा और नारी का अपमान है. इसे बंद किया जाए. बात में दम इस परंपरा के लिहाज से है कि राजनीति के मंदिर में मुख्य प्रतिमा ही पूजनी चाहिए. बाहर रखी खंडित मूर्तियों को यह पात्रता नहीं कि उन्हें दानदक्षिणास्वरूप पैसा चढ़ाया जाए या उन के सामने सिर झुकाया जाए. एक तिलमिलाहट इस बात पर भी है कि अरविंद केजरीवाल अब राजनीति के रंग में ढलने लगे हैं. उन्हें समझ आने लगा है कि होता जाता कुछ नहीं है, इसलिए लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचते नाटक सा करते रहो और सलामत रहो.

सिंहस्थ का प्रकोप

उज्जैन में होने वाले सिंहस्थ 2016 की तैयारियों में जुटे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इन अफवाहों से चिंता में पड़ गए हैं कि जबजब उज्जैन में सिंहस्थ हुआ तबतब सीएम ने कुरसी गंवाई. शोधकर्ताओं ने पूरी सूची ही सामने ला दी कि कब सिंहस्थ हुआ और इस के बाद मुख्यमंत्री को जाना पड़ा. शिवराज सिंह चौहान भी उच्च कोटि के अंधविश्वासी हैं, इस पसरती अफवाह से उन का अंधविश्वास और बढ़ने लगा है. इधर एक अच्छा काम उन्होंने यह किया कि नरेंद्र्र मोदी से मिल कर महत्त्वाकांक्षी और उन की कुरसी पर नजरें गड़ाए बैठे वरिष्ठ मंत्री कैलाश विजय वर्गीय को राष्ट्रीय महासचिव बनवा डाला. अब कोई बड़ा रोड़ा उन के रास्ते में नहीं लेकिन सिरदर्दी साधुसंतों की धमकियां बढ़ा रही हैं कि सिंहस्थ में अगर इंतजाम अच्छे नहीं हुए तो नतीजे भी अच्छे नहीं निकलेंगे. तथाकथित ईश्वर के इन दूतों से वे कैसे निपटेंगे, देखना दिलचस्प 

ललितायम यज्ञ में राजनेताओं की आहुतियां

महाभारत में ‘सर्प यज्ञ’ की एक कथा है. महाभारत में लिखा है, ‘‘सर्प यज्ञ के लिए मंत्र पढे़ जाने लगे तो सांपों के हृदय हिलाने वाली आहुतियां दी गईं. आह्वान करते ही सब सांप विवश हो कर तरहतरह के शब्द करते हुए आआ कर अग्निकुंड में गिरने लगे. ‘‘तक्षक नाम का एक नाग अग्निकुंड से बचने के लिए भाग कर इंद्र के पास जा कर छिप जाता है. इंद्र उसे शरण देता है. तक्षक डर कर इंद्र के पास गया. इंद्र ने कहा, नागराज, तुम को सर्प यज्ञ से कुछ भी डर नहीं है. मैं ने पहले ही तुम्हारी ओर से विधाता को प्रसन्न कर लिया है. तुम कुछ चिंता न करो. इस प्रकार के आश्वासन पा कर नागराज तक्षक इंद्र के लोक में सुख से रहने लगा.’’ कुछ समय बाद एक अद्भुत घटना हुई. डर से व्याकुल तक्षक को इंद्र ने छोड़ दिया था तो वह अग्नि में नहीं गिरा. आकाश में ही ठहरा रहा. आकाश में ही क्यों रुका रहा? सवाल उठे कि वह बच क्यों गया? क्या मंत्रज्ञ ब्राह्मणों के मंत्र शक्तिहीन हो गए थे? पता चला कि उसे आस्तीक नामक ऋषिकुमार, स्वयं राजा और ब्राह्मणों ने मिल कर बचा लिया.  

महाभारत के ‘सर्प यज्ञ’ का किस्सा और ब्रिटेन में शरण लिए बैठे ललित मोदी की मदद में कई नेताओं के नामों के खुलासे में एक तरह की समानता का दिलचस्प मामला दिखाई देता है. 14 जून को ब्रिटेन के संडे टाइम्स में ज्यों ही भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और ब्रिटिश सांसद कीथ वाज के बीच पत्रव्यवहार व फोन का भंडाफोड़ हुआ तो भारतीय राजनीति में खलबली मच गई. अखबार ने खुलासा किया था कि सुषमा स्वराज ने भारत से भागे हुए आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी को वीजा दस्तावेज दिलाने में मदद की थी. इस खबर के  बाद तहलका मच गया. 2 दिन बाद खबर आई कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने भी ललित मोदी की मदद की थी. साथ ही, सिंधिया के सांसद पुत्र दुष्यंत सिंह से ललित मोदी के अवैध कारोबारी सांठगांठ के राज भी खुलने लगे. इन खुलासों से भारत की राजनीति गरमा गई. पक्षविपक्ष में आरोपप्रत्यारोप का दौर चल पड़ा.  विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस ने एनडीए सरकार को घेर लिया. सुषमा स्वराज और वसुंधरा को अनुचित काम का दोषी बता कर इस्तीफे की मांग की जाने लगी. कांग्रेस ने दिल्ली में सुषमा स्वराज के घर के बाहर प्रदर्शन किया और जयपुर में वसुंधरा के खिलाफ प्रदर्शन किया गया. आरोपी नेताओं के पुतले फूंके गए. इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खामोशी पर भी सवाल उठाए गए. विरोधी दलों के साथसाथ सुषमा की स्वयं की पार्टी के लोग भी उन के खिलाफ बोलने लगे. लेकिन सचाई, नैतिकता, ईमानदारी और उच्च आदर्शों की बात करने वाला संघ सुषमा के समर्थन में आ खड़ा हुआ. दरअसल, आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी का कहना था कि उन की पत्नी को कैंसर था और पुर्तगाल में उन का औपरेशन होना था, इसलिए वे पत्नी के पास जाना चाहते थे ताकि सर्जरी के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर सकें पर विपक्ष का दावा था कि पुर्तगाल में बालिग की सर्जरी के मामले में हस्ताक्षर की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. पर मोदी लिस्बन गए और पत्नी की सर्जरी करा कर तीसरे दिन छुट्टियां मनाने देशाटन पर निकल पड़े. फिर लौट कर लंदन आ गए.

सुषमा का पेंच

इस मामले में सुषमा स्वराज ने ब्रिटिश सांसद कीथ वाज से ललित मोदी की मदद की सिफारिश की थी. कीथ वाज ने 31 जुलाई, 2014 को माइग्रेशन अधिकारी सराह राप्सन से कहा कि भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज नेललित मोदी के पुर्तगाल जाने के प्रार्थनापत्र को स्वीकार करने को कहा है. इस से भारत को कोई आपत्ति नहीं है. ‘सर्प यज्ञ’ की तर्ज पर इस ‘ललितायम यज्ञ’ में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे के अलावा एक के बाद एक और नाम सामने आने लगे. ललितायम यज्ञ के अग्निकुंड की आग में कुछ नेता कम, तो कुछ नेता अधिक झुलसने लगे. आहुतियों के रूप में क्रिकेट से जुड़े नेताओं के नाम सामने आने लगे. मामले में सुषमा स्वराज का पारिवारिक कौशल खूब उजागर हुआ. सुषमा स्वराज के पति एवं मिजोरम के राज्यपाल रहे स्वराज कौशल वर्षों से मोदी के वकील रहे हैं. उन की एडवोकेट बेटी बांसुरी कौशल ने पासपोर्ट मामले में हाई कोर्ट में मोदी की पैरवी की थी. अगस्त 2013 में ललित मोदी ने ब्रिटिश सांसद कीथ वाज से सुषमा स्वराज और उन के पति स्वराज कौशल द्वारा अपने भतीजे के ससेक्स कालेज ब्रिटेन में ऐडमिशन किए जाने की सिफारिश भी की थी. समूची सरकार अग्निकुंड के घेरे में आ खड़ी हुई. ललित मोदी के पासपोर्ट मामले में सरकार की ओर से अदालत में किसी तरह का विरोध नहीं किया गया. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि मोदी के पासपोर्ट मामले में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देना विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी थी.  यज्ञ की आंच में झुलसी सुषमा स्वराज ने भी कहा कि उन्होंने ‘मानवीय आधार’ पर मोदी की मदद की थी.

इधर, वसुंधरा राजे और उन के सांसद पुत्र पर यज्ञ की आंच ललित मोदी से ‘टेक ऐंड गिव’ के कारण आई है. कहने को वसुंधरा मात्र एक दस्तावेज देने की दोषी बताई जा रही हैं पर उन के पुत्र दुष्यंत सिंह के नियंता हेरिटेज होटल्स प्रा. लि. में 1,100 करोड़ रुपए गैर कानूनी तरीके से मोदी के आनंद होटल्स के जरिए पहुंचाए जाने का आरोप है. यह पैसा मौरीशस और सिंगापुर की कंपनियों के ठेके से ललित मोदी के पास पहुंचा था. कहा जाता है कि दुष्यंत सिंह की इस कंपनी के 10 रुपए के बदले 96 हजार रुपए में शेयर खरीदे गए थे. इस कंपनी को पहले बिना किसी सिक्योरिटी के 3.80 करोड़ रुपए का लोन और फिर 9.29 करोड़ रुपए का निवेश दिखाया गया था. यह मामला प्रवर्तन निदेशालय के अधीन है. अप्रैल 2011 को वसुंधरा राजे ने गोपनीयता की शर्त पर मोदी को ब्रिटेन में रहने के लिए समर्थन करने की ब्रिटिश अधिकारियों से सिफारिश की थी. पहले तो सिंधिया ने ऐसे किसी दस्तावेज पर हस्ताक्षर से इनकार किया पर जब विपक्ष ने दस्तावेज दिखाए तो उन्होंने मान लिया. वसुंधरा के पिछले कार्यकाल में ललित मोदी और उन की निकटता तथा सरकार में मोदी के हस्तक्षेप को ले कर काफी विवाद हुए थे. मोदी को राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाने में तब की राजे सरकार ने विशेष दिलचस्पी ली थी.

इस ललितायम यज्ञ में सुषमा और वसुंधरा पर पड़ने वाली आंच से आईपीएल के काले कारोबारियों, बेईमानों, राजनीतिबाजों में खलबली मच गई. ललितायम अग्निकुंड के इर्दगिर्द कई आरोपी आने लगे. इन में क्रिकेट से जुड़े स्वयं ललित मोदी के समय बीसीसीआई के चेयरमैन रहे शरद पवार, कांग्रेसी राजीव शुक्ला, प्रफुल्ल पटेल, शशि थरूर जैसे नेताओं की ओर भी क्रिकेट के नाम पर काला कारोबार करने और सांठगांठ कर एकदूसरे की मदद के आरोपों की समिधा डाली जाने लगीं. मामले में लोग एकदूसरे के बचाव में भी दिखे. बीसीसीआई के अध्यक्ष रहे शरद पवार ने ललित मोदी और सुषमा स्वराज का समर्थन किया. शरद पवार मोदी से लंदन में मिले भी थे. मुंबई के पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया भी ललित मोदी से लंदन में मिले थे. चूंकि आईपीएल के आविष्कारक ललित मोदी ही थे, यह भद्र जनों का कहलाने वाला कोई क्रिकेट नहीं था, यह क्रिकेट के नाम पर वैधअवैध तरीके से पैसा कमाने का जरिया मात्र था, जिस में राजनीतिबाज, फिल्मी स्टार, कौर्पोरेट, नौकरशाह, सट्टेबाज, नशे का धंधा करने वाले और माफिया मिल कर चांदी कूटने लगे. इन लोगों का धंधा चमक उठा. ललित मोदी कभी पी चिदंबरम का तो कभी अरुण जेटली का नाम लेते.

क्यों भागे मोदी

दरअसल, आईपीएल के टैलीविजन प्रसारण का अधिकार वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप और मल्टीस्क्रीन मीडिया को मिले थे. बीसीसीआई ने 468 करोड़ रुपए के इस घोटाले में ललित मोदी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी. बोर्ड ने एक जांच समिति बनाई जिस में अरुण जेटली, ज्योतिरादित्य सिंधिया थे. समिति ने 134 पेज की जांच रिपोर्ट पेश की थी. इस में आर्थिक अपराध के कई गंभीर आरोप सही बताए गए थे. बाद में प्रवर्तन निदेशालय ने पाया कि यह धन या इस का बड़ा हिस्सा वास्तव में ललित मोदी को ही मिला है. लिहाजा, उन के खिलाफ मनी लौंडिं्रग का मामला दर्ज किया गया. जांच में ललित मोदी पर कोच्चि टस्कर्स का आरोप भी सही पाया गया जिस में विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की हिस्सेदारी की बात सामने आई थी. मोदी ने ब्रिटेन में कहा था कि मंत्री शशि थरूर को पद से हटना पड़ा था, इसलिए यूपीए सरकार के तब के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और फिर वित्तमंत्री बने पी चिदंबरम ने उन के खिलाफ ईडी की कार्यवाही कराई.

ललित मोदी को बीसीसीआई ने आईपीएल के चेयरमैन पद से हटा दिया था और उन्हें 34 पेज का कारण बताओ नोटिस दिया गया. 4 मई, 2010 को ललित मोदी भारत से ब्रिटेन चले गए. 3 मार्च, 2011 को मुंबई में पासपोर्ट औफिस ने प्रवर्तन निदेशालय के अनुरोध पर ललित मोदी का पासपोर्ट रद्द कर दिया. मामला कोर्ट में गया. चिदंबरम ने ब्रिटिश चांसलर औफ ऐक्सचेंज को पत्र लिखा था कि अगर ब्रिटेन आर्थिक अपराधों के आरोपी ललित मोदी को बने रहने की इजाजत देता है तो इस से दोनों देशों के संबंधों पर विपरीत असर पड़ सकता है. इस पत्र ने ब्रिटेन में बैठे ललित मोदी के लिए मुसीबत पैदा कर दी लेकिन उन के मित्र रास्ता साफ करने के लिए तिकड़म लगाते रहे. ब्रिटेन में सांसद और ताकतवर हाउस कमेटी के मुखिया कीथ वाज से ललित मोदी के घनिष्ठ रिश्ते बताए जाते हैं. मोदी प्रमुख राजनीतिक व फिल्मी हस्तियों के साथ संबंध बना कर रखने में माहिर हैं. मोदी के पासपोर्ट मामले में सुषमा स्वराज की बेटी अदालत में उन की पैरवी करने लगी यज्ञ की वेदी की लपटों में कांग्रेस भी आ गई. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी और दामाद रौबर्ट वाड्रा को भी शामिल कर लिया गया. स्वयं ललित मोदी ने ट्वीट कर कहा कि उन्होंने लंदन में गांधी परिवार से मुलाकात की थी. वे प्रियंका गांधी और रौबर्ट वाड्रा से अलगअलग मिले थे. यह मुलाकात तब की बताई जब गांधी परिवार सत्ता में था.

मोदी ने कांग्रेस केकपिल सिब्बल से भी इस्तांबुल में मिलने का दावा किया. एक शादी समारोह के दौरान वे उन के साथ 3 दिन तक रहे. कांग्रेसी नेताओं से संबंधों का नतीजा माना जा रहा है कि 2011 से 2014 तक संप्रग सरकार ने मोदी को ब्रिटेन से भारत लाने के लिए कुछ नहीं किया. मोदी का दावा है कि आम आदमी पार्टी के राहुल मेहरा ने आईपीएल में फूड एवं ब्रेवरेज के राइट्स मांगे थे. राहुल मेहरा दिल्ली सरकार की लीगल टीम का चेहरा हैं. उन्होंने मोदी को ई मेल लिखने की बात मान ली है. मददगारों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एस बी सिन्हा का नाम भी है. उन्होंने मोदी को कानूनी राय दी थी. सिन्हा ने 35 पेज की राय दी, ऐसा बताया गया है. ईडी का मानना है कि मोदी ने इसी आधार पर जांच एजेंसी के सामने पेश नहीं होने का मन बनाया. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की सचिव ओमिता पौल का नाम भी मामले में आया है. ओमिता दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर के के पौल की पत्नी हैं. वास्तव में ललित की लीला अपरंपार है. उन्होंने खुद भी लूटा और अपने लोगों को भी लूटने का ग्राउंड मुहैया कराया. कहा जाता है कि ललित मोदी के मुंबई में फोर सीजंस होटल में उन के दफ्तर में जानीमानी हस्तियों की लाइन लगी रहती थी. इन में नेता, फिल्मी सितारे, कौर्पोरेट जगत के नेता और अन्य प्रभावशाली लोग होते थे.

मोदी ने संबंधों का ऐसा नैटवर्क गूंथ लिया था जो एकदूसरे के हितों की नींव पर खड़ा था, जिस में एकदूसरे को संरक्षण व बढ़ावा देने, रिश्तेदारों का खयाल रखने और चापलूसों को खैरात बांटने की अपेक्षा होती थी.इस तरह ललित  मोदी ने आईपीएल के जरिए पैसा कमाने के लिए राजनीति, नौकरशाही, कौर्पोरेट, फिल्म इंडस्ट्री के लोगों के साथ मिल कर एक गठजोड़ बना लिया. यह गठजोड़ कोईर् नया नहीं है. ललित मोदी ने अपने गठजोड़ में किसी पार्टी के साथ कोई भेद नहीं किया. उन के दरबारियों में क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या एनसीपी, सब लोग शामिल थे. इस मामले में कांग्रेस जो इतना शोर कर रही है, ललित मोदी के देश से भाग जाने की वह दोषी है. सांप निकल जाने के बाद ईडी द्वारा नोटिस जारी करने की लकीर पीटी जा रही है. सर्प यज्ञ में सर्प अपनेआप आ कर गिर ही नहीं रहे, उस की ऊष्मा का आनंद लेने लगे हैं. मामले में संदेश यही जा रहा है कि पक्षविपक्ष सब मिल कर केवल गाल बजा रहे हैं. वे ललित मोदी को बचाने में लगे हुए हैं.आर्थिक अपराधियों के साथ यह गठजोड़ का मामला है. दौलत पैदा करने वाले ललित मोदी जैसे लोग हर पार्टी और हर नेता के बैडरूम में हैं. वे उसे पालते हैं, शरण देते हैं, बचाव करते हैं क्योंकि उसी की बदौलत उन की तिजोरियों में दौलत खनखनाती है. राजनीति और काले धनकुबेरों के इस गठजोड़ को खत्म करना क्या किसी के वश में है? ‘टेक ऐंड गिव’ इस गठजोड़ का मूल मंत्र है.

मिलीभगत का खेल

ललितायम यज्ञ से भारतीय राजनीति की वह सड़ांध एक बार फिर सामने आ गई जो सत्ता में बैठे नेताओं और अपराधियों के बीच आपसी स्वार्थों के रूप में दबी रहती है. देश में आर्थिक अपराधों की एक लंबी कड़ी है, जिस में राजनीतिबाज, नौकरशाह, कौर्पोरेट और दलाल मिल कर कानून की आंखों में धूल झोंक कर संसाधन, धन लूटने में लगे हैं. इन लोगों को पता है कि उन का कुछ बिगड़़ना नहीं है. अगर मामला खुला भी तो सब मिल कर एकदूसरे को बचाने में लग जाते हैं. यह हमारे व्यवस्था तंत्र की बुनियादी फितरत है. यही वजह है कि  मामले के सामने आने के बाद खूब बोलने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुंह पर ताला सा पड़ गया है. ब्रिटेन में ललित मोदी ऐशोआराम से रह रहे हैं. मशहूर हस्तियों के साथ घूमफिर रहे हैं. पार्टियों में जा रहे हैं. देश में सत्ता में बैठे लोग ही उन्हें बचाने में लगे हैं. ये बचाने वाले उन के अपने ही हैं.

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