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सड़क पर गुंडागर्दी करती काली गैंग की औरतें

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के हमीदिया रोड पर दर्जनभर औरतें हाथ में लाठी लिए बस स्टैंड के पास बीच सड़क पर खड़ी थीं. ये सब काले रंग की ड्रैस पहने होने के चलते दूर से ही पहचानी जा रही थीं. राह चलते लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है. लेकिन इन औरतों के इरादे किसी को नेक नहीं लग रहे थे. अचानक इन औरतों ने उन दोपहिया वाहन सवारों को रोक कर उन के चेहरे पर कालिख पोतनी शुरू कर दी जिन्होंने हैलमेट नहीं पहन रखा था. औरतों के तेवर और हाथ में लाठी देख शुरू में लोग कुछ बोलने या कहने की हिम्मत इस डर से नहीं जुटा पाए कि कहीं ये मारने न लगें. लेकिन थोड़ी देर बाद हिम्मत करते कुछ लोगों ने इस ज्यादती और गुंडागर्दी के खिलाफ पहल की और किसी ने इस बीच नजदीकी हनुमानगंज थाने में फोन के जरिए खबर भी कर दी.

माजरा सुन पुलिस वाले भागेभागे आए और बीचबचाव में जुट गए. इन औरतों से जब पुलिस वालों ने इस बेहूदी हरकत की वजह पूछी तो उन्होंने फख्र से बताया कि वे तो कानून की मदद कर रही थीं. भोपाल में हैलमेट चैकिंग जोरों पर है. इस के बाद भी लोग हैलमेट पहन कर नहीं चल रहे हैं. इसलिए हम उन्हें सबक सिखा रहे थे. इधर पुलिस को आया देख डरेसहमे पीडि़त और बेइज्जत हुए लोगों ने अपना दुखड़ा रोना शुरू कर दिया कि यह कौन सा तरीका है. हैलमेट न पहनने की सजा देने के लिए ट्रैफिक पुलिस कार्यवाही करे, चालान काटे, हमें कोई एतराज नहीं. लेकिन बीच सड़क पर हमें जबरन रोक कर यह काम इस ड्रैस वाली औरतें करेंगी तो यह कौन सा व कैसा न्याय है?

करतूत काली गैंग की

पुलिस के बीचबचाव से मामला शांत हुआ और इस दौरान पता चला कि ये औरतें काली गैंग की सदस्य हैं जो कुछ दिन पहले ही बना है. हैरानपरेशान लोगों की शिकायत पर मौके पर ही कार्यवाही करते पुलिस वालों ने गैंग की 7 सदस्य रजनी महावत, सपना सूर्यवंशी, सुशीला, सावित्री, पिंकी करेले, सीमा नामदेव और गैंग की मुखिया मधु रैकवार को गिरफ्तार कर लिया. मधु के पति शैलेंद्र रैकवार को भी गिरफ्तार किया गया जो शिवसेना का पदाधिकारी है. पूछताछ में इन्होंने बताया कि काली गैंग औरतों ने मिल कर नवरात्रि के दिनों में काली माता के नाम पर बनाया है. इस का आइडिया उन्हें उत्तर प्रदेश के गुलाबी गैंग से मिला था. गुलाबी गैंग की तरह काली गैंग का मकसद भी जमीन और शराब माफिया के खिलाफ लड़ना, तालीम के लिए इंसाफ कराना और औरतों पर हो रहे जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाना है. 9 दिनों में ही कोई 80 सदस्य इस काली गैंग से जुड़ चुकी थीं. हफ्तेभर पहले ही इन्होंने पहला कदम उठाते हुए एक स्कूली बच्चे को इंसाफ दिलाने के लिए प्रदर्शन किया था तो इन्हें खूब वाहवाही मिली थी.

लेकिन हैलमेट न पहनने वालों को सरेआम सबक सिखाने की तुक क्या थी और इस से इन्हें क्या हासिल हो रहा था इस सवाल पर ये बगलें झांकती नजर आईं. दरअसल, कानून अपने हाथ में ले कर ये औरतें दहशत फैलाने के साथ अपनी अहमियत दर्ज करा कर सुर्खियां बटोरना चाह रही थीं ताकि उन्हें और वाहवाही मिले. हुआ उलटा, चारों तरफ से इस गुंडागर्दी के खिलाफ वैसी ही आवाजें उठने लगीं जैसी उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गुलाबी गैंग की मनमरजी के खिलाफ उठी थीं.

व्यक्तिगत भड़ास

हनुमानगंज थाने के ही टीआई भूपेंद्र सिंह ने माना कि कानून तोड़ने का हक किसी को नहीं है. इन औरतों के गैंग ने कानून क्यों तोड़ा, इस बात की छानबीन जब इस संवाददाता ने की तो हकीकत यह सामने आई कि काली गैंग की अधिकतर सदस्य अपने शौहरों की ज्यादतियों और जुल्मों से आजिज थीं. तकरीबन सभी के पति शराब की लत के शिकार हैं और आएदिन बीवियों के साथ मारपीट करते रहते हैं. दिलचस्प बात यह भी है कि अधिकतर सदस्य पिछड़ी और छोटी जाति की हैं. अपने शौहरों की ज्यादतियों का बदला पूरे मर्दों, खासतौर से राह चलते शरीफों, जिन का इन से कोई वास्ता या बैर नहीं था, से लेना निहायत ही नादानी की बात कही जाएगी. जब ये अपने पतियों को रास्ते पर नहीं ला पाईं तो किस मुंह से अनजान मर्दों की नाक में दम कर रही थीं. यह भी तय कर पाना मुश्किल है कि आखिर इन की असल मंशा क्या थी? सड़क पर गदर मचा कर अपनी भड़ास निकालती काली गैंग की सदस्यों को दरअसल अपनी परेशानियों से नजात पाने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, लिहाजा इन्होंने जोश में कानून हाथ में लेते जता दिया कि उन का मकसद अपने शौहरों की ज्यादतियों का दूसरों से बदला लेना है. क्या हैलमेट न पहनने वालों को हड़काने से भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है? मर्द शराब पीना छोड़ देंगे या फिर भोपाल, लखनऊ या बिलासपुर का माहौल दहशत से सुधर जाएगा, यह सोचनेसमझने की अक्ल इन औरतों में दिखती ही नहीं. यही गलती गुलाबी गैंग की सदस्यों ने की थी.

सिरदर्द बनते गैंग

औरतें चाहे किसी भी तबके की और कितनी भी पढ़ीलिखी हों, एकजुट हो कर अपने हक और हितों की लड़ाई लड़ें, यह बात कतई हर्ज की नहीं. एतराज की बात है इस के लिए उलटा रास्ता चुनना. इस से खुद उन की इमेज खराब होती है. ये गैंग बना कर होश खो बैठती हैं और ऐसे काम करने लगती हैं जो सभ्य समाज के उसूलों से मेल नहीं खाते. उलटे अमन में खलल डालते हैं और कई दफा शरीफों का जीना दूभर कर देते हैं. शांति और सलीके से गैंग बना रही औरतें विरोध दर्ज कराएं तो हर कोई इन की हिमायत करेगा. वे सटीक मुद्दों पर अपनी बात रखें तो कानून भी इन का साथ देगा. पर दहशत फैलाएंगी तो हर कोई इन से कन्नी काटेगा और इन्हें गुंडामवाली कहने में हिचकिचाएगा नहीं क्योंकि इन की हरकतें होती ही हैं उन के जैसी. देश के कई इलाकों से, जहां इस तरह के गैंग हैं, ऐसी शिकायतें भी आई हैं कि शुरुआती दौर में ढंग के मुद्दे इन्होंने उठाए पर बाद में अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करते वसूली शुरू कर दी. डंडे के जोर पर ये चंदा भी इकट्ठा करती हैं. यानी गैंग बनाना, पैसा कमाने का भी जरिया है जिस में गैंग बनाने वाली प्रमुख औरतें फायदे में रहती हैं, बाकी तो प्यादे की तरह इस्तेमाल की जाती हैं. गैंग, चाहे वह गुलाबी, काली या पीली हो, के पास कोई तयशुदा मकसद नहीं होता और इन की मुखिया कोई समझदार या ज्यादा पढ़ीलिखी औरत नहीं होती. इसलिए ये गलत राह पर चल पड़ती हैं और दूसरों का तो दूर की बात है खुद का भी अच्छाबुरा नहीं सोच पातीं. इसलिए जल्द ही वे तितरबितर भी हो जाती हैं. इस से नुकसान उन औरतों का होता है जो वाकई भले की बात चाहती, सोचती और करती हैं. लेकिन उन का साथ कोई यह सोचते नहीं देता कि ये भी काली, गुलाबी गैंग जैसी बेजा और गैरकानूनी हरकतें करेंगी, इसलिए क्यों इन की मदद की जाए. यह बात सच है कि औरत हर स्तर पर ज्यादती और शोषण की शिकार है और इस से बचने के लिए एकजुट हो कर उन्हें लड़ना ही पड़ेगा. लेकिन यह लड़ाई डंडों से या कानून हाथ में ले कर लड़ी तो जा सकती है पर जीती नहीं जा सकती. इन गिरोहों की सदस्याओं को यह भी नहीं मालूम रहता कि इन की लड़ाई आखिर है किस से और उसे कैसे लड़ा जाना बेहतर होगा. गैंग की सदस्याएं कभी आला अफसरों से मिल कर अपनी बात नहीं रख पातीं क्योंकि खुद उन्हें इस बात का एहसास रहता है कि वे गलत कर रही हैं.

अगर ये पिछड़ी और गरीब बस्तियों में जा कर पढ़ाईलिखाई की जागरूकता पैदा करें, नशे के खिलाफ मुहिम छेडें़, बेसहारा औरतों की मदद करें, उन के रोजगार के इंतजाम करें तो तय है कानून हाथ में लेने का खयाल इन के दिमाग में आएगा ही नहीं. लगता ऐसा है कि इन्हें भड़का कर परदे के पीछे बैठे कुछ लोग इन्हें नचा कर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. वे उन्हें काली या गुलाबी ड्रैस मुहैया करा देते हैं और अपनी खुदगर्जी के काम करने को इन्हें उकसाते हैं. भोपाल की काली गैंग के बारे में एमपी नगर के एक कारोबारी का अंदाजा है कि दरअसल बिल्डर्स को हड़का कर पैसा वसूलने को यह बनाई गई थी लेकिन मकसद पूरा होने से पहले ही बात बिगड़ गई. जिस तरह क्लब और संगठन बनाने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती वैसे ही इन गैंगों को बननेपनपने से नहीं रोका जा सकता. इस बात का नाजायज फायदा वे (औरतें) उठाती हैं तो समाज के लिए खतरा और सिरदर्द ही साबित होती हैं.

प्राचीन सभ्यता का विकसित नगर : राखीगढ़ी

राखीगढ़ी गांव के पश्चिमी छोर पर चल रहे उत्खनन स्थल पर गजब का उत्साह है. शोध छात्र और मजदूर एकदूसरे से हिलमिल कर जोश के साथ काम करते दिख रहे हैं. दोपहर का समय है, गांव की गलियों में सन्नाटा है लेकिन इस स्थल पर आनेजाने वालों का तांता लगा है. गांव के पढ़ेलिखे लोग बारबार यह पता करने पहुंचते हैं कि कुछ नई चीज तो नहीं मिली. शोध छात्र और मजदूर करीब 20 मीटर नीचे गड्ढे में हैं. कुछ मजदूर खुदाई की मिट्टी बाहर ला कर एक जगह ढेर लगा रहे हैं. यह नजारा था जब इस प्रतिनिधि ने उक्त स्थल का दौरा किया. हरियाणा के हिसार से करीब 42 किलोमीटर हांसीजींद रोड पर राखीगढ़ी गांव में मिले हजारों साल पुरानी सभ्यता के अवशेष उत्सुकता जगाने वाले हैं. पुरातत्त्व में रुचि रखने वाले कुछ लोग दूरदूर से यहां आ रहे हैं. आबादी से सटे हुए एक टीले पर उत्खनन का काम चल रहा है. डेक्कन यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों और पुरातत्त्व विभाग द्वारा कराई जा रही खुदाई टीले की ऊंचाई से शुरू हो कर बिलकुल नीचे तक आ गईर् है. गांव की समतल जमीन से करीब 20 मीटर नीचे तक उत्खनन में तरहतरह के अवशेष मिल रहे हैं और नैचुरल मिट्टी अभी तक दिखाई नहीं दी है.

पुरातत्त्ववेत्ता टीले के नीचे 3-3 सभ्यताओं का दावा कर रहे हैं. इस उत्खनन से पुरातत्त्ववेत्ताओं को 2,500 से 5 हजार साल पुरानी सभ्यताओं के प्रमाण मिल रहे हैं. पुरातत्त्ववेत्ता भारतीय उपमहाद्वीप में हड़प्पा सभ्यता की 5 बड़ी आबादी में से एक राखीगढ़ी के होने का दावा कर रहे हैं. सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीन नदीघाटी सभ्यताओं में से एक है. इस का विकास सिंधु और घग्घर के किनारे हुआ. मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इस के प्रमुख केंद्र माने जाते हैं. ब्रिटिशकाल में हुई खुदाई के आधार पर इतिहासकारों और पुरातत्त्ववेत्ताओं का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे व उजड़े थे. इस सभ्यता के खोजे गए केंद्रों में से ज्यादातर स्थल सरस्वती नदी और उस की सहायक नदियों के आसपास हैं. अभी तक कुल खोजों में से 3 फीसदी का भी उत्खनन नहीं हो पाया है.

हर टीले की अपनी विशेषता

पुरातत्त्ववेत्ताओं का मानना है कि इस सभ्यता का क्षेत्र विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से कई गुना विशाल था. दरअसल, राखी-गढ़ी 2 जुड़वां गांव हैं. राज्य सरकार के राजस्व रिकौर्ड में राखी शाहपुर और राखीखास 2 अलगअलग गांव हैं. लेकिन दोनों गांवों के क्षेत्र में पुरानी विरासत मिलने के कारण पुरातत्त्व विभाग ने इन गांवों को अंतर्राष्ट्रीय विरासत के लिए एक ही नाम राखीगढ़ी दे दिया है. गांव के करीब 350 एकड़ में 9 टीले मिले हैं जो विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं. पुरातत्त्व विभाग ने इन टीलों को 1 से 9 नंबर तक नाम दे रखे हैं. हरेक टीले की अपनी अलग विशेषता है. इन में से 5 टीले एकदूसरे से जुड़े हुए हैं. इन में 2 टीले कम घनत्व आबादी क्षेत्र के हैं. मौजूदा प्रोजैक्ट में टीला नंबर 4, 6 और 7 में खुदाई चल रही है. टीला नंबर 1, 2, 3 व 5 पुरातत्त्व विभाग के कब्जे में हैं जबकि 4 नंबर का कुछ हिस्सा और 6, 7, 8 व 9 किसानों द्वारा जोते जाते हैं.

हर टीले की अपनी विशेषता है. टीला नंबर 6 हड़प्पनों का आवासीय क्षेत्र था. इस से पता चलता है कि वे लोग कैसे रहते थे. टीला नंबर 4 से अनुमान है कि वे यहां कब, कैसे स्थापित हुए. पुरातत्त्ववेत्ताओं का अनुमान है कि जब ये बाशिंदे यहां आए थे तो टीला नंबर 6 पर बसे थे. यहां हड़प्पाकाल से पूर्व के तथ्य भी मिले हैं. टीला नंबर 7 में हाल ही में 4 नर कंकाल मिले हैं. इन में से 2 पुरुषों के 1 स्त्री का और 1 बच्चे का है. कंकाल के पास मिट्टी के बरतन और अनाज मिले हैं. चूडि़यां भी मिली हैं. कहा जा रहा है कि उस समय के लोग पुनर्जन्म में यकीन रखते थे. मृत आदमी की लंबाई 5.7 इंच, उम्र करीब 50 साल, औरत की लंबाई 5.4 इंच,  उम्र करीब 30 साल और बच्चे की उम्र लगभग 10 साल होने का अनुमान है. यहां और भी कंकाल हैं. यह जगह शहर के बाहरी हिस्से में कब्रगाह थी. करीब 50 एकड़ क्षेत्र में फैले इस टीले में स्मारक भी मिले हैं. कुछ जानकारों का कहना है कि यह मध्यकाल का हो सकता है हालांकि अभी कंकालों की रेडियो कार्बन डेटिंग व डीएनए नहीं कराया गया है. इन्हें डेक्कन कालेज एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे भेजा गया है.

टीला नंबर 4 की खुदाई स्थल पर डेक्कन यूनिवर्सिटी के शोधार्थी योगेश यादव कहते हैं कि हम इस टीले की ऊर्ध्वाकार यानी खड़ी खुदाई कर रहे हैं. हमारा उद्देश्य यह पता करना है कि टीला नंबर 4 का कल्चरल सीक्वैंस (सांस्कृतिक अनुक्रम) क्या है. हम इस कल्चरल सीक्वैंस को फिर से बनाना चाहते हैं ताकि हम जान सकें कि यहां पहले कौन आया. उन लोगों ने शहरीकरण अवस्था में प्रवेश किया तो क्याक्या परिवर्तन हुए. योगेश परत दर परत निकल रही दीवारों को दिखाते हुए कहते हैं कि यहां खुदाई की मिट्टी की विभिन्न रंगों की परतें दर्शाती हैं कि यहां 3 अलगअलग काल की सभ्यताएं रही हैं. खुदाई मेें घर के अंदर ईंटों से बना एक विशाल स्टोरेजरूम निकला था. इस के पास कमरा है. इस टीले के नीचे 2 हजार से 5 हजार साल के दौरान 8 बार घर बन चुके हैं. इसी यूनिवर्सिटी के शोधार्थी नागराज कहते हैं कि मिट्टी के अंदर से आकर्षक पत्थर निकल रहे हैं. यहां के लोग आपस में पत्थर का व्यापार करते थे क्योंकि यहां जो पत्थर मिले हैं वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हैं. गुजरात में खंबात की खाड़ी के पास के पत्थर भी हैं. यानी जेवरों का चलन और व्यापार उस जमाने में शुरू हो गया था. नागराज सिंधु घाटी सभ्यता में खोजे गए शहरों की खुदाईर् में निकले मोहक स्टोन और उस के व्यापार को ले कर शोध कर रहे हैं.     

टाइगर की आकृति वाली मुहर भी मिली है जो व्यापार के लिए इस्तेमाल की जाती थी. विभिन्न प्रकार के औजार मिले हैं जो शिकार और मछली पकड़ने के काम आते थे. मछली पकड़ने के लिए तांबे के बने हुक मिले हैं. पौराणिक चरित्र वाले खिलौने प्राप्त हुए हैं. दरअसल, 1993 में पुरातत्त्व विभाग ने राखीगढ़ी की यह जमीन ले ली थी. इस से कुछ वर्ष पहले पता चला था कि राखीगढ़ी प्राचीन हड़प्पा, मोहनजोदड़ो सभ्यता का विशाल हिस्सा है. यह घग्घर नदी के किनारे बसा हुआ था. हड़प्पा, मोहनजोदड़ो (पाकिस्तान), धोलावीरा (गुजरात) और कालीबंगा (राजस्थान) के बाद राखीगढ़ी बड़ा शहर था. 2012 से पुरातत्त्व विभाग के साथ डेक्कन कालेज एवं रिसर्च इंस्टिट्यूट, पुणे मिल कर खनन करवा रहा है. बीचबीच में विदेशी विश्वविद्यालयों के शोधार्थी भी आतेजाते हैं. इन में दक्षिण कोरिया की सिओल यूनिवर्सिटी के रिसर्च स्कौलर भी उत्खनन के लिए आ चुके हैं. खुदाई से जाहिर हुआ है कि यहां सुव्यवस्थित नगरीय व्यवस्था थी. हड़प्पा काल के अन्य शहरों की भी बसावट नियोजित तरीके से थी. यहां बनाईर् गई पक्की ईंटों के मकान मिल रहे हैं और समुचित ड्रेनेज व्यवस्था थी. घरों में बड़े कमरे, अनाज भंडारण, स्नानागार बने हैं. मिट्टी के फर्श पर जानवरों की बलि के गड्ढे, तिकोने और गोल हवनकुंड आदि उस काल के रीतिरिवाजों के प्रमाण खुदाई में मिले हैं. उस काल में सिरेमिक उद्योग पनप चुका था. प्रमाण के तौर पर भांड, तश्तरी, गुलदान, पानदान, जाम, जार, प्लेटें, कप, प्याले, हांडी आदि चीजें मिल रही हैं.

इस सभ्यता के विनाश के कारणों पर पुरातत्त्ववेत्ता एकमत नहीं हैं. बर्बर आक्रमण, बाढ़, भूकंप, महामारी जैसे अलगअलग तर्क हैं.

बदलेगी तसवीर

पुरातत्त्व विभाग ने राखीगढ़ी को राष्ट्रीय धरोहर के तौर पर संरक्षित किया है. संरक्षण के लिए इन टीलों को लोहे की रेलिंग से घेरा गया है पर कुछ टीलों के 2 या 3 तरफ से ही रेलिंग लगी हुई है. टीलों की कुछ जमीन गांव वालों के कब्जे में है. कहीं मकान बने हुए हैं तो कहीं उपलों के ढेर लगे हैं. पुरातत्त्व विभाग के अधिकारी कहते हैं कि हम ने किसानों को प्राचीन सभ्यता के महत्त्व के बारे में समझाया तो वे इस बात पर सहमत हुए कि समुचित मुआवजा मिलने पर वे जमीन छोड़ देंगे. राखीगढ़ी गांव के शिक्षित लोगों को यहां दबी प्राचीन सभ्यता मिलने पर गर्र्व है. वे खुश हैं और खुदाई स्थलों को दिखाने के लिए खुशी से साथ चल पड़ते हैं. राखीगढ़ी गांव के भारतीय जनता पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल प्रमोद कुमार को पुरातत्त्व में काफी रुचि है और अपने गांव की इस प्राचीन विरासत को ले कर वे काफी उत्साहित हैं. वे कहते हैं कि गांव के पढ़ेलिखे लोग खुश हैं कि गांव का नाम विश्व धरोहर में शामिल होने से विकास होगा, लोगों को रोजगार भी मिलेगा पर कुछ पुराने लोग खुश नहीं हैं. प्रमोद कुमार कहते हैं कि सरकार ने पंचायत के पास जगह खाली करने के लिए नोटिस भेजा था. सरकार द्वारा जगह खाली करने के एवज में किसानों को 90 हजार रुपए और 100 गज का प्लाट देने की बात कही गई थी पर यह मुआवजा काफी कम होने के कारण लोग सहमत नहीं हुए. इसलिए नोटिस वापस कर दिया गया. हालांकि पंचायत ने यहां म्यूजियम बनाने के लिए पुरातत्त्व विभाग को 6 एकड़ जमीन दी है.

गांव के लोगों का कहना है कि कुछ समय पूर्व इन साइटों की खुदाई में भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते मामला सीबीआई के पास गया था. मजदूरी में बड़े पैमाने पर घपला हुआ था. राखीगढ़ी में निकले सामान को डेक्कन यूनिवर्सिटी में भेज दिया जाता है जबकि मकान, सड़क, श्मशान आदि को फिर से प्लास्टिक शीट से ढक कर ऊपर मिट्टी से भर दिया जाता है. दूसरे कुछ स्थलों की तरह ऊपर शैड बना कर संरक्षित नहीं किया गया है. अगर लोग खुदाई में निकले स्थल को देखना चाहें तो वे नहीं देख पाते. योगेश यादव कहते हैं कि अभी यहां संरक्षण की तकनीक और साधन नहीं हैं. भविष्य में इस पर ध्यान दिया जाएगा. 1997 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने करीब 3 किलोमीटर क्षेत्र में खुदाईर् की रूपरेखा तैयार की और 5 हजार साल पुराने ऐतिहासिक तथ्य इकट्ठे किए. धीरेधीरे पता चला कि यहां सड़कें, ड्रेनेज सिस्टम, बारिश के पानी का संग्रहण, अन्न भंडारण, पक्की ईंटों, मूर्ति निर्माण और तांबे व कीमती धातुओं पर कारीगरी के अवशेष प्राप्त होने शुरू हुए.

1997 से 2000 के बीच हुई खुदाई की रेडियो कार्बन डेटिंग के अनुसार क्षेत्र में 3 काल की सभ्यताएं दबी हुई हैं. पहला, हड़प्पा काल से पूर्व, दूसरा, परिपक्व हड़प्पा काल और तीसरा सिंधु घाटी सभ्यता का अंतिम काल. राखीगढ़ी एक नियोजित शहर था. चौड़ी सड़कें, घर से बाहर पानी निकासी के लिए ईंटों की नालियां बनी हुई थीं. अभी क्षेत्र के बड़े हिस्से का उत्खनन नहीं हुआ है. राखीगढ़ी में मिली सभ्यताओं से जाहिर है कि यहां के लोग बुद्धिमान थे. उन लोगों ने बुनियादी विज्ञान और तकनीक विकसित कर ली थी और वह लगातार जारी थी.  5 हजार साल पुरानी सभ्यता एवं संस्कृति को अपने भीतर दफन किए यह स्थल यहां आने वाले शख्स के अंदर एक उत्सुकता, उत्कंठा व रोमांच जगाता है कि उस काल के लोग कैसे थे, क्या करते थे, कैसा जीवन था. शहर, गांव किस तरह से विकसित थे. ज्ञानविज्ञान की समझ कैसी थी? लोगों की कदकाठी, रंगरूप कैसा था? लेकिन हमारी हजारों साल पुरानी सभ्यताओं के प्रति आम लोगों में खास रुचि नहीं दिखाईर् देती. सरकारें भी इस के प्रति उदासीन हैं. इन सभ्यताओं के प्रति रुचि रिसर्च छात्रछात्राओं, इतिहासकारों या कुछ बुद्धिजीवी लेखक, पत्रकारों तक ही सीमित है. इन स्थलों को स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय और आम जनता को दिखाने की सरकारों के पास कोई योजना नहीं है. पुरातत्त्व विभाग पर भी इन स्थलों के रखरखाव, संरक्षण, उत्खनन को ले कर उंगलियां उठती रही हैं.

इस का इस तथ्य से अंदाज लगाया जा सकता है कि अब तक भारतीय उप महाद्वीप में इस सभ्यता के मिले करीब 1 हजार स्थलों में से कुछ ही परिपक्व अवस्था में हैं. इन स्थलों की खुदाई, संरक्षण जैसे कामों  के लिए आम लोगों, स्वयंसेवकों को बड़ी संख्या में जोड़ा जा सकता है पर ऐसा कहीं कोई प्रयास दिखाईर् नहीं देता.

आरुषियां मांग रही हैं इंसाफ

आरुषि तलवार का नाम इतना चर्चित हो चुका है कि शायद ही कोई पूछने की जरूरत करेगा कि ‘यह आरुषि कौन है?’ आरुषि को सभी जान चुके हैं, पहचान चुके हैं. 13 वर्ष की छोटी उम्र में बेचारी मासूम आरुषि इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी है. उसे मौत के घाट उतारने वाले हैं उस के स्वयं के मातापिता. – डा. नूपुर तलवार और डा. राजेश तलवार.

आरुषि के मातापिता अनपढ़गंवार नहीं हैं. वे उच्चशिक्षित हैं, डैंटिस्ट हैं. आरुषि उन की इकलौती लाड़ली बेटी थी. ‘लाड़ली’ ही थी, इस के कई प्रमाण उन के पास से कानून हासिल कर चुका है. विदेशों के सैरसपाटे के फोटोग्राफ्स और जन्मदिन की बढि़या पार्टियों के फोटोग्राफ्स मौजूद हैं. तो फिर उन्होंने अपनी इकलौती लाड़ली बेटी को क्यों मार डाला? इस संदेह के लिए कोई जगह नहीं है कि आरुषि को किसी तीसरे व्यक्ति ने मार डाला. सारे सुबूत जुटाए जा चुके हैं कि उस की हत्या उस के मम्मीपापा ने की है और कानून ने उन्हें उम्रकैद की सजा भी सुना दी है. इस समय डा. नूपुर तलवार और डा. राजेश तलवार सलाखों के पीछे हैं. शायद, मन ही मन अपनी करनी पर पछता भी रहे हैं. फिलहाल गाजियाबाद जेल में तलवार दंपती बाकायदा डैंटल क्लीनिक चला कर कैदियों की सेवा कर रहे हैं.

क्यों होता है ऐसा?

गौरतलब है कि 16 मई, 2008 को तलवार दंपती की बेटी आरुषि का मृत शरीर उन के घर में मिला था. एक दिन बाद नौकर हेमराज की लाश घर की छत पर मिली. सीबीआई कोर्ट ने नवंबर 2013 में उन्हें आरुषि व हेमराज हत्याकांड का दोषी मानते हुए सजा सुनाई थी. पहली नजर में तो यह बात गले उतारनी मुश्किल है कि कोई भी मातापिता अपनी ही संतान को उस की गलतियों की सजा, उसे मौत के घाट उतार कर दें लेकिन ऐसा हो रहा है. तलवार दंपती की करनी का दिल दहला देने वाला उदाहरण समाज के सामने है. ऐसे जघन्य अपराध में लिप्त कई मातापिता आज के दौर में समाज के सामने आ रहे हैं. जवान बेटियों के मामले में तो अभिभावक कुछ ज्यादा ही कू्ररताभरा व्यवहार समाज के सामने रख रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसी कौन सी मजबूरी है जो अभिभावकों को इतना नीच कार्य करने के लिए बाध्य कर रही है? किस वजह से ऐसा हो रहा है?

आज के सामाजिक जीवन का अवलोकन करने पर ऐसी घटनाओं के घटित होने के पीछे बहुत से कारण नजर आते हैं. सब से पहला कारण तो यही है कि हम भले ही पाश्चात्य संस्कृति की कितनी भी नकल करें, हमारी मानसिकता वही सदियों पुरानी है. मातापिता बेटियों को पाश्चात्य परिधान अपनाने की छूट तो दे देते हैं लेकिन उन्हें लाजशर्म के आवरण में ढकी हुई भी देखना चाहते हैं. उन्हें पुरुष मित्रों के साथ या पराए पुरुषों के साथ बतियाने या घूमनेफिरने की तो खुली छूट दे देते हैं लेकिन उन के साथ उन का एकांत में रहना उन्हें अखरता है. बेटियां सुरक्षा को ले कर या अन्य किसी मदद के लिए परपुरुष का हाथ थाम लेती हैं तो ये उन्हें मंजूर है लेकिन परपुरुष उन की बेटी पर नजर डाले, यह उन्हें मंजूर नहीं है.

परपुरुष नौकर के तौर पर उन की बेटियों की सेवा कर सकता है लेकिन अगर उस ने अपने नौकर होने की हद पार कर ली तो वह सजा का पात्र हो जाता है. बेटी को गलत काम करते हुए जब वे रंगेहाथ पकड़ लेते हैं तब उन का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता है. और तब वे ऐेसे अपराध भी कर बैठते हैं जैसे कि आरुषि के मातापिता ने किया. जबकि विदेशों में बेटियों को पहले ही अच्छेबुरे कामों के बारे में अभिभावक समझाते हैं और बाद में उन्हें स्वतंत्र रूप से समाज में विचरण करने के लिए छोड़ देते हैं. ऐसे में अगर वे गलत काम करती भी हैं तो यह उन की बेटियों की अपनी जिम्मेदारी होती है. और गलत कामों का परिणाम भी बेटियां भुगतती हैं तो अभिभावक उस में हस्तक्षेप नहीं करते. हमारे समाज में नौकर को भी सजा, उसे सिर्फ नौकरी से हटाने भर की ही नहीं दी जाती, और भी बहुतकुछ उस के साथ किया जाता है. पुलिस के हाथ पकड़वा देना तो आम बात है, उसे कई बार जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है.

बेटियों पर कुठाराघात

30 साल की गृहिणी रजनी बताती हैं, ‘‘मैं 16 साल की थी और 10वीं कक्षा में अंगरेजी मीडियम के एक कोएड स्कूल में पढ़ती थी. तब मेरे साथ एक हादसा हुआ. उस के जिम्मेदार मेरे मम्मीपापा हैं. मेरे पापा सरकारी दफ्तर में इंजीनियर थे और मम्मी एक प्राइवेट फर्म में कार्यरत थीं. मम्मीपापा की आमदनी अच्छी थी. शहर की पौश कालोनी में हमारा अपना बड़ा मकान था. मैं बड़ी बेटी थी और मुझ से 5 साल छोटा भाई था. मम्मीपापा, दादी और हम 2 भाईबहन. मैं जब 15 साल की थी तब मेरी दादी गुजर गईं और मैं तब से अकेलापन महसूस करने लगी. अब मेरे छोटे भाई को भी पढ़ने के लिए देहरादून होस्टल में भेजा गया. ‘‘घर में खाना बनाने के लिए 20-22 साल का जवान रसोइया था और घर के बाकी काम करने के लिए एक 18-19 साल की लड़की आती थी. वह 1 साल मैं ने बड़ी मुश्किल से गुजारा. मम्मीपापा अपनी नौकरी में व्यस्त रहते थे. मेरी तरफ ध्यान देने का उन के पास समय नहीं था. मम्मी के पास बैठ कर मैं अपने मन की कई बातें उन से कहना चाहती थी, अपनी कई समस्याओं के लिए सलाहमशवरा करना चाहती थी पर मैं मन मसोस कर रह गई. ऐसे में मैं अपने घर में रसोइए और काम करने वाली लड़की को छिप कर कई बार ‘गुंटरगूं’ करते देखती थी और इस दिशा में मेरी रुचि बढ़ती जा रही थी.

‘‘एक दिन रसोइए ने मेरा हाथ पकड़ कर जब मुझे अपनी ओर खींचा तो पहले मैं घबराई लेकिन फिर बड़ा मजा आया. फिर तो ऐसा रोज ही होने लगा. मम्मीपापा का डर तो था नहीं, मैं मजे कर रही थी. वह रोज रात मेरे कमरे में आता था और आधा घंटा हम दोनों मौजमस्ती करते थे. मम्मीपापा अपने कमरे में होते थे. उन्हें पता तक नहीं चलता था. ‘‘उस रात रसोइया मेरे कमरे में आया और जैसे ही उस ने दरवाजा बंद किया, कि थोड़ी ही देर में बाहर से दरवाजा पीटा जाने लगा और मम्मीपापा के चीखनेचिल्लाने की आवाजें भी आने लगीं. पता नहीं आज उन्होंने कैसे रसोइए को मेरे कमरे में आते देख लिया था. मैं ने हड़बड़ी में गाउन पहन कर दरवाजा खोला. रसोइया मेरे पीछे था. मम्मीपापा जैसे ही अंदर आए, रसोइया बाहर भाग गया. गुस्से से भरी हुई मम्मी ने मुझे बालों से पकड़ कर मुंह पर तमाचे जड़ने शुरू कर दिए और पापा ने अपनी बैल्ट उतार कर मुझे पीटना शुरू कर दिया. मैं दर्द से चिल्ला रही थी. जब मेरे बदन से खून टपकना शुरू हुआ तब जा कर कहीं वे रुके. रसोइया तो घर छोड़ कर भाग गया था, बाद में उस का कहीं अतापता नहीं चला.

‘‘इस घटना के बाद मेरा पढ़ाई से मन हटता गया. जैसेतैसे मैं ने 12वीं पास कर ली. उस के बाद साधारण से लड़के के साथ मेरी शादी कर दी गई. आज भी मैं अपने मम्मीपापा से बहुत नफरत करती हूं.’’ रजनी के उपरोक्त उदाहरण में क्या दोषी सिर्फ रजनी है, उस के मातापिता नहीं हैं? उस के मातापिता ने पहले ध्यान क्यों नहीं दिया कि बेटी किस दिशा में और क्यों आगे बढ़ रही है. मां को तो ध्यान देना चाहिए था कि बेटी चाहती क्या है. स्मिता ने भी कुछ ऐसा ही बताया. स्मिता घर से तो कालेज जाने के लिए निकलती थी पर पहले सहेलियों के साथ और बाद में आवारागर्द लड़कों के साथ उस का घूमनाफिरना शुरू हो गया. सिगरेट और ड्रग्स की लत भी लग गई. जब मम्मीपापा को पता चला तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. पापा को अपने बिजनैस से फुरसत मिलती नहीं थी और मम्मी को किट्टी पार्टियों व रिश्तेदारों के यहां आनेजाने से फुरसत नहीं मिलती थी. स्मिता को उस के दोस्त के साथ किसी होटल के कमरे से बरामद किया गया. उस के साथी लड़के को पुलिस के हवाले कर दिया गया. लेकिन पुलिस ने स्मिता को भी गिरफ्तार किया. बाद में मोटी रकम खर्च कर के उस के मम्मीपापा ने केस को रफादफा करा दिया. स्मिता को नशे की आदत छुड़वाने के लिए नशामुक्ति केंद्र में 1 साल तक रखा गया. 40 साल की स्मिता अब तक कुंआरी है. स्मिता कहती है कि उस की जिंदगी उस के मम्मीपापा की वजह से बरबाद हुई है. अगर मम्मी मेरी मित्र बन कर मेरा साथ देतीं, मेरी समस्याओं पर गौर करतीं तो मुझे गलत लोगों का साथ क्यों ढूंढ़ना पड़ता?

परवरिश में कमी

अपने में ही मस्त रहने वाले मातापिता यह समझते हैं कि वे धन कमा कर और सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ा कर अपने बच्चों के प्रति अपना फर्ज पूरा कर रहे हैं. बेटियों को उन की इच्छानुसार कपड़े पहनने की छूट दे कर वे अपनेआप को आधुनिक होने का दरजा दे रहे हैं. बेटी स्कूल या कालेज कब जाती है, जाती भी है कि नहीं, उस की किस विषय में रुचि है, उस की क्या समस्याएं हैं आदि जानकारी रखने को वे समय की बरबादी समझते हैं. घर में भी बेटी नौकरों के साथ या किसी पुरुष रिश्तेदार के साथ कैसे पेश आती है, इस का ध्यान रखना भी वे जरूरी नहीं समझते. बेटियों को गलत रास्ते पर डालने के लिए हमारी कुछ आदतें भी जोर मार रही हैं. हमारे मध्यवर्गीय और उच्चमध्यवर्गीय समाज में लड़का हो या लड़की, उसे खर्च करने के लिए मातापिता अपनी हैसियत से कुछ बढ़ कर ही धन और अन्य सुविधाएं दे देते हैं. इस वजह से बच्चे पैसे की अहमियत नहीं समझते हैं. नतीजतन, गलत मित्रों का साथ मिल जाता है और वे गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं. बेटियों के मामले में मातापिता तब ज्यादा सख्त हो जाते हैं जब बेटियां गलत काम कर के उन्हें मानसिक चोट पहुंचाती हैं. अगर पहले से ही बेटियों को प्यार से सही काम कौन सा और गलत काम कौन सा, यह समझाया जाए, यौनशिक्षा से भी परिचित कराया जाए तो किसी भी लड़की को अपने ही मम्मीपापा के हाथों जान नहीं गंवानी पड़ेगी.

बेटियों से लाड़प्यार का मतलब सिर्फ उन पर अंधाधुंध खर्चा करना, उन की नित नई फरमाइशें पूरी करना या आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराना नहीं है. उन के मन की थाह ले कर उन्हें अकेलापन और असुरक्षा की भावना से बचाना, उन की बातें और समस्याएं ध्यान से सुनना, समयसमय पर उचित सलाह देना और उन से मिलनेजुलने वालों पर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है. यही सच्चा प्यार है. आज हर बेटी आरुषि है जो अपने मातापिता से इसी प्यार की मांग कर रही है, दो पल साथ बिताने की ख्वाहिश रखती है. हर मातापिता को इस दिशा में सोचने की जरूरत है.

कुछ आंखों देखी कुछ कानों सुनी

हराभरा अंधविश्वास

बीती 23 मई को चेन्नई में बेहद उमस भरी गरमी थी लेकिन मद्रास विश्वविद्यालय का शताब्दी सभागार चारों तरफ से हरियाली से नहाया दिख रहा था. इस दिन जयललिता ने 5वीं बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. शपथग्रहण से ताल्लुक रखता एक विवाद उजागर हुआ कि पंडित के बताए शुभमुहूर्त में शपथ लेने के लिए राष्ट्रगान बीच में रोक दिया गया. लेकिन जयललिता के अंधविश्वासों की यह इंतहा थी कि उन्होंने शपथ लेने के बाद कागजों पर हरी स्याही वाले पैन से दस्तखत किए, इस से पहले खुद के लिए हरे रंग को शुभ मानने वाली इस नेत्री ने राज्यपाल कोनिजेती रोसैया को हरे रंग वाला गुलदस्ता भेंट किया. कहने की जरूरत नहीं कि वे हरी साड़ी पहने हुए थीं. विकट की अंधविश्वासी जयललिता ने मेहरबानी यह भर की थी कि मुलाजिमों को हरी ड्रैस में आने को मजबूर नहीं किया था.

अदालत को तो बख्शो

निवेशकों के 24 हजार करोड़ रुपए डकार जाने का कीर्तिमान बनाने वाले सुब्रत राय सहारा और सुप्रीम कोर्ट के बीच 16 महीनों से दिलचस्प जंग चल रही है जिस की प्रस्तावना में सुब्रत अदालत से यह कहते नजर आते हैं कि पहले आप मुझे जमानत दीजिए, फिर मैं पैसों का इंतजाम करूंगा. लेकिन अदालत को उन पर एतबार नहीं, जवाब में वह उपसंहार में कहती है कि पहले आप यह बतलाइए कि पैसे लौटाएंगे कैसे, फिर हम जमानत पर विचार करेंगे. सहाराश्री की बेशर्मी की दाद देनी होगी जिस के चलते उन के वकील कपिल सिब्बल अब बजाय कानून और दलीलों के, सुप्रीम कोर्ट में गिड़गिड़ाने लगे हैं. मई में वे जस्टिस तीरथ सिंह की बैंच के सामने रिरिया से रहे थे कि सर, जुलाई तक की मोहलत दे दें तो वह पैसों का इंतजाम कर देगा. इस गुजारिश पर अदालत ने 2 हफ्ते की मोहलत और दे दी पर लग नहीं रहा कि अदालत अब और ज्यादा पसीजेगी.

नेताजी की धौंस

इन दिनों टीवी चैनल्स पर प्रसारित हो रहा चाय का एक विज्ञापन दर्शकों को खूब लुभा रहा है जिस में एक खास ब्रैंड की चाय पीने वाली एक कर्मचारी में इतनी हिम्मत आ जाती है कि वह नियम तोड़ रहे एक नेता को सरेआम नीचा दिखा देती है. बीती 19 मई को पटना हवाई अड्डे पर इस विज्ञापन का असर कइयों ने देखा. इस दिन केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव गलत दरवाजे से दाखिल होना चाह रहे थे लेकिन मौजूद महिला सुरक्षाकर्मी ने उन के रसूख की परवा न करते उन्हें रोका तो मंत्रीजी को गुस्सा आ गया. उन्होंने विज्ञापनीय नेता की तरह धौंस यही दी कि जानती नहीं कि मैं कौन हूं. इस घुड़की का कोई असर उस मुलाजिम पर नहीं हुआ और भीड़ इकट्ठा होने लगी तो रामकृपाल के तेवर ढीले पड़ गए. शायद उन्हें याद आ गया था कि दादागीरी की, तो विधानसभा चुनावों पर इस का बुरा असर पड़ेगा.

चश्मे पर चकल्लस

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बस्तर दौरे के दौरान वहां के कलैक्टर अमित कटारिया ने ब्रैंडेड चश्मा और महंगी शर्ट पहन कर वाकई गुनाह किया था. वजह, इस इलाके के अंदरूनी गांवों में रह रहे आदिवासी अभी भी अधनंगे रहते हैं और अब झूमाढ़ के आदिवासी तो कपड़े पहनते ही नहीं. ये लोग असभ्य, जंगली और मुख्यधारा से कटे हैं. ऐसे में नरेंद्र मोदी ने कुछ घूर कर कलैक्टर साहब को देख लिया तो बात हैरत की नहीं, बल्कि जिज्ञासा की थी. पर छत्तीसगढ़ सरकार प्रधानमंत्री का मर्म समझ नहीं पाई और कटारिया को प्रोटोकोल तोड़ने का नोटिस थमा दिया जिस से छीछालेदर मोदी की हुई कि वे खुद लाखोंकरोड़ों का सूट पहनते हैं तो कुछ बात नहीं. अंगरेज और राजघरानों के मुखियाओं के सामने भी अफसर पगड़ी उतार कर अदब से पेश आते थे. लोकतंत्र इस राजसी मानसिकता से अछूता नहीं है जिस में कपड़े पद के नहीं, बल्कि औकात और हैसियत के हिसाब से पहनने की नसीहत दे दी गई तो बेवजह का हल्ला मचाया गया.

दुनिया का सिरदर्द बने भगोड़े अपराधी

आधुनिक संचार साधनों और तेज रफ्तार हवाई यातायात के साधनों के चलते दुनिया आज एक वैश्विक गांव में तबदील हो गई है. इस के बावजूद व्यावहारिक धरातल पर आज भी दुनिया का विस्तृत भूगोल माने रखता है. खासकर बात अगर अपराध और अपराधियों के संदर्भ में हो. आज भी बड़ी तादाद में शातिर अपराधी देश के एक इलाके में अपराध कर के उसी देश के दूसरे इलाके या दूसरे देश में भाग जाते हैं. इस तरह वे स्थानीय कानून या व्यवस्था सुनिश्चित करने वाली एजेंसियों के लिए खासा सिरदर्द बन जाते हैं. हैरानी की बात यह है कि इस मामले में हर देश पीडि़त है, चाहे वह अमेरिका जैसा ताकतवर देश हो या चीन जैसा कट्टरपंथी. भगोड़े अपराधी सभी देशों के सिरदर्द बने हुए हैं.

अंगरेजी के शब्द ‘फ्यूजिटिव’ का हिंदी में मतलब है फरार या भगोड़ा. यह शब्द उन लोगों का परिचय देने में इस्तेमाल होता है जो अपराध करने के बाद कानून की या तो गिरफ्त में नहीं आते, जैसे कि भारत के लिए मोस्ट वांटेड दाऊद इब्राहिम कासकर या गिरफ्त में ले लिए जाने के बाद मौका मिलते ही चकमा दे कर फरार हो जाते हैं, जैसे कुछ महीनों पहले थाईलैंड में पकड़ा गया बेअंत सिंह का हत्यारा जगतार सिंह तारा. गौरतलब है कि जगतार उन 6 सिख आतंकवादियों में से एक है जिन्हें 1995 में चंडीगढ़ में, पंजाब सचिवालय के बाहर हुए विस्फोट का दोषी ठहराया गया था. इस विस्फोट में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह सहित 18 अन्य लोग मारे गए थे. बब्बर खालसा का सक्रिय सदस्य जगतार खालिस्तान टाइगर फोर्स यानी केटीएफ का स्वयंभू चीफ था. वह बेअंत हत्याकांड के मामले में चंडीगढ़ की बुरैल जेल में सजा काट रहा था. लेकिन 2004 में वह अपने 2 साथियों–परमजीत सिंह भ्योरा और जगतार सिंह हवारा के साथ 90 फुट लंबी सुरंग बना कर सनसनीखेज तरीके से जेल से भाग निकला था. इसी दौरान कुछ और आतंकी फरार हो गए थे जिन में प्रमुख थे खालिस्तान लिबरेशन फोर्स का मुखिया हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटू और उस का सहयोगी गुरप्रीत सिंह उर्फ गोपी, जिन्हें नवंबर 2004 में थाईलैंड में ही दबोच लिया गया था. जबकि केटीएफ के एक और भगोड़े रमनदीप सिंह उर्फ गोल्डी को मलयेशिया से नवंबर 2014 में गिरफ्तार किया गया. सिर्फ जगतार ही था जिस को तब गिरफ्तार नहीं किया जा सका था. इसलिए अदालत द्वारा उसे भगोड़ा घोषित कर के उस के खिलाफ रेड कौर्नर नोटिस निकलवा दिया गया. मतलब यह कि अब उसे पकड़ने की जिम्मेदारी उन तमाम देशों की भी हो गई जो कि इंटरपोल के सदस्य हैं और इस की संधि से बंधे हुए हैं. इसी के चलते उसे हाल में थाईलैंड से गिरफ्तार किया जा सका.

यह कहानी महज एक भगोड़े की है. जबकि हकीकत यह है कि देश में हजारों की तादाद में भगोड़े हैं, जिन में मुट्ठीभर भगोड़े विदेश भी भाग चुके हैं और 99 प्रतिशत से ज्यादा भगोड़े देश के अंदर ही कानून के लंबे हाथों और उस की गहरी निगाहों को चकमा दे कर मौजूद हैं. वैसे तो गृह मंत्रालय के पास बिलकुल अपडेट आंकड़े नहीं हैं लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, देश में 5 हजार से ज्यादा भगोड़े हैं. हैरानी की बात यह है कि देश में जिस जेल से सब से ज्यादा अपराधी फरार हुए हैं, वह कोई बिहार या छत्तीसगढ़ की जेल नहीं है बल्कि देश की सब से कड़ी सुरक्षा व्यवस्था वाली राजधानी दिल्ली की तिहाड़ जेल है. तिहाड़ जेल प्रशासन द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 15 सालों में यहां से 915 अपराधी फरार हो चुके हैं. लगभग हर छठे दिन एक या कहें हफ्ते में एक से ज्यादा. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कितने भगोड़े होंगे. वास्तव में जेलों से भागे ज्यादातर भगोड़े वे हैं, जिन्हें उम्रकैद की सजा मिली थी. ये जब बेल या पेरोल पर जेल से बाहर निकले तो फिर कभी वापस लौट कर जेल नहीं पहुंचे. एक बार वहां से निकले तो फिर निकल ही गए. मगर कुछ ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो फिल्मी स्टाइल में तिहाड़ जेल प्रशासन को चकमा दे कर फरार हुए हैं, जैसे फूलन देवी की हत्या करने वाला शमशेर सिंह राणा. सवाल यह है कोई आखिर भगोड़ा क्यों हो जाता है? वास्तव में अपराधी गुनाह की सजा से बचना चाहते हैं. इस के लिए वे धनबलछल सब का सहारा लेते हैं. ज्यादातर फरार अपराधी वे हैं जिन के सिर पर हत्या, हत्या की कोशिश और अपहरण जैसे संगीन इल्जाम हैं और इन जुर्मों के लिए उन्हें उम्रकैद की सजा मिली थी. यह सजा उन्हें पूरी उम्र भुगतनी पड़ती, जो उन्हें मंजूर नहीं था. इसलिए ये कोई जतन निकाल, भाग खड़े हुए और अब वे गायब हैं यानी किसी और पहचान के साथ जिंदा हैं, किसी और अपराध को अंजाम देते हुए या कोई और गहरी साजिश रचते हुए.

साल 2013 में आईपीएल मैचों की चकाचौंध के बीच स्पौट फिक्सिंग का मामला सामने आया. मुख्यरूप से आरोपी बनाया गया अंडरवर्ल्ड डौन दाऊद इब्राहिम को, साथ ही उस का दाहिना हाथ समझा जाने वाला छोटा शकील और कुछ दूसरे सट्टेबाजों को भी आरोपी बनाया गया. चूंकि दिल्ली पुलिस इन्हें अदालत में नहीं पेश कर सकी, इसलिए पटियाला हाउस स्थित एक अदालत ने इन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया. साथ ही इन आरोपियों की संपत्ति जब्त करने की नए सिरे से प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश भी दिया गया. मगर देखा जाए तो यह सब खानापूर्ति भर ही था क्योंकि इन में से प्रमुख गुनाहगारों (दाऊद और छोटा शकील) की संपत्ति पहले ही 1993 के मुंबई बम विस्फोट मामले में कुर्क की जा चुकी है. ये तब से ही फरार हैं या कहिए भगोड़े घोषित हैं. दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा ने स्पौट फिक्सिंग के इस मामले में अदालत में 6 हजार पृष्ठों का आरोपपत्र दायर किया था. इस में दाऊद इब्राहिम, उस के सहयोगी छोटा शकील के अलावा क्रिकेटर एस श्रीसंत, राजस्थान रौयल्स के अंकित चव्हाण, अजीत चंदीला सहित पाक में रह रहे जावेद चुटानी, सलमान उर्फ मास्टर और एहतेशाम आदि के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किए गए. यहां तक कि दिल्ली पुलिस ने आरोपपत्र में दाऊद इब्राहिम की सीएफएसएल लैब द्वारा आवाज की पहचान से संबंधित एक रिपोर्ट भी शामिल की थी जिस के चलते विशेष जज नीना बंसल ने दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील व चंडीगढ़ निवासी संदीप शर्मा को भगोड़ा घोषित किया. मगर नतीजे के रूप में हाथ कुछ नहीं लगा. मुख्य आरोपी यानी सरगना दाऊद और उस के साथी अंतर्राष्ट्रीय भगोड़े हैं. भारत ने कई बार उन मोस्ट वांटेड अपराधियों की लिस्ट बनाई है जो भारत से फरार हैं. इन सभी फेहरिस्तों में हमेशा दाऊद पहले नंबर पर रहा है. ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि दाऊद सिर्फ भारतीय पुलिस और खुफियातंत्र के लिए ही सिरदर्द नहीं है बल्कि दुनिया के स्तर पर भी ऐसा ही है.

कैसे फरार हो जाते हैं कैदी?

इन सवालों का जवाब ढूंढ़ते हुए इस संबंध में एक कैदी की अपील की सुनवाई के दौरान एक अजीब सा सच सामने आया. आखिर जेल से ऊंची अदालत में अपील के आधार पर बेल या पेरोल पर छूटा सजायाफ्ता मुजरिम फिर जेल वापस पहुंचे, यह सुनिश्चित करना आखिरकार किस की जिम्मेदारी है? अगर वह कोर्ट की अगली तारीख पर हाजिर नहीं होता तो उस के लिए जवाबदेह कौन है? पुलिस या फिर जेल प्रशासन? मगर रुकिए, कोई जवाबदेह तो तब होगा जब इन कैदियों की हर जानकारी या रिकौर्ड कोई एक संस्था रखेगी और वक्तवक्त पर उन की जांच करेगी. दिल्ली हाईकोर्ट भी तब शायद हैरान रह गया था जब उस ने तिहाड़ जेल से ऐसे कैदियों की लिस्ट मंगवाई जिन को उम्रकैद दिए जाने के बाद अपील के आधार पर बेल मिली हो. पता है, इस मांग पर क्या हुआ? तिहाड़ में हड़कंप मच गया, धूल फांकती पीली पड़ चुकी पुरानी फाइलें पलटी गईं और तब जोड़जोड़ कर जुटाए गए 729 नाम. लेकिन आफत तो अभी शुरू हुई थी. हाईकोर्ट ने पुलिस से कहा, कैदियों की तलाश कीजिए वे कहां गए? अब मरता क्या न करता. दिल्ली पुलिस ने हर एक थाने को जिम्मा सौंपा, तलाश के लिए विशेष टीमें बनाई गईं. काफी पसीना बहाने पर भी सिर्फ 10 फीसदी ही कैदी मिल सके जो रिकौर्ड में दर्ज पतों पर मिले. तब हाईकोर्ट का एक और फरमान आया, ‘ऐड्रेस पू्रफ लाओ?’ ऐड्रेस पू्रफ तो तब मिलते जब लापता कैदी पकड़ में आते. पुलिस को पता लगा कि 46 कैदी मर चुके हैं. 563 कैदी सरकारी रिकौर्ड में दर्ज पतों पर नहीं मिले. इन के जमानती भी गायब थे. 26 मई, 2014 को तिहाड़ ने कोर्ट को नई लिस्ट सौंपी और कानूनी पेंच का लाभ उठा कर फरार होने वाले उम्रकैदियों की तादाद बढ़ कर हो गई 915. ऐसे में पुलिस को सोचना होगा कि इन भगोड़ों को दोबारा कानून की गिरफ्त में लाने के लिए वह युद्ध स्तर पर क्या कार्यवाही करे?

तिहाड़ जेल से भाग निकलने वाले इन 915 भगोड़ों ने कानून के क्षेत्र में एक नई बहस को जन्म दे दिया है. कानून के जानकारों की इस पूरे मुद्दे पर अलगअलग राय है. देश में यह आम धारणा है कि अगर एक बार कोर्टकचहरी के चक्कर लग गए तो उम्र बीत जाती है. देश की अदालतों में 3 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमों के अंबार लगे हैं. दबाव इतना ज्यादा है कि देश का कानूनी सिस्टम ही चरमरा रहा है. ऐसे में सब से बुरी गत बनती है सजायाफ्ता कैदियों की. निचली अदालतें उन्हें सजा दे चुकी हैं, लेकिन ऊपरी अदालतों से उन्हें इंसाफ की उम्मीद है, सो वे अपील करते हैं लेकिन सुनवाई की तारीख कितने साल बाद आएगी, इस का अंदाजा उन्हें नहीं होता. जस्टिस एस एन धींगरा के मुताबिक, एक बार जब अपील दाखिल हो गई तो 8 साल, 10 साल या 15 साल भी लग सकते हैं. ऐसे ज्यादातर मामलों में मुजरिम बेल जंप कर जाता है क्योंकि वह (सजायाफ्ता मुजरिम) भी जानता है कि कई सालों तक उस की खोजखबर नहीं ली जा सकेगी. हमारे देश में न जेलों के पास ऐसा कोई सिस्टम है और न पुलिस के पास कि ऐसे कैदी का अतापता रख सकें. तिहाड़ जेल भगोड़ों के केस में कोई भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. जेल का साफ कहना है कि जेल से बाहर निकलते ही उन की जिम्मेदारी खत्म और पुलिस की जिम्मेदारी शुरू हो जाती है. ऐसे में जब 2 बड़ी संस्थाएं अपनी जिम्मेदारियों को ले कर स्पष्ट न हों तो कैदी भागें न, तो क्या करें?

प्रधानमंत्री जनधन योजना या ठनठन योजना

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने एक वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लिया है. सत्ताधारी इस कार्यकाल को सफल बता रहे हैं तो विपक्ष मोदी सरकार को हर मोरचे पर विफल ठहरा रहा है. इस दौरान केंद्र सरकार ने कुछ योजनाएं जरूर शुरू कीं लेकिन वे अभी कोई परिणाम नहीं दे सकी हैं. उन्हीं योजनाओं में से एक है ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना.’ करोड़ों की संख्या में खाते खुलने की बात को छोड़ कर इस योजना का लाभ अभी किसी जन तक नहीं पहुंचा है. यह लाभ सरकार द्वारा उस के खाते में 5 हजार रुपए का धन उपलब्ध कराने से संबंधित था. इस धन को पाने के लिए देशभर में खाता खुलवाने के लिए जो आपाधापी मची उस के चलते योजना ने खाते खोलने में रिकौर्ड बना लिया लेकिन अब उतनी ही तेजी से यह योजना असंतोष का कारण बन रही है. दरअसल, खाता खोलने वाले जनधन पाने के लिए अब बैंकों व बैंकमित्रों के चक्कर लगा रहे हैं. बैंक उन से कह रहे हैं कि धन के लिए सरकार से पूछें, खाते हम ने खोल दिए हैं, उन में धन सरकार देगी.

राजनीति की यह ओछी मानसिकता देशभर के उन नागरिकों को असंतुष्ट करने का कारण बनती जा रही है जिन्होंने उत्साह से जनधन योजना में अपने खाते खुलवाए. योजना में सरकारी घोषणा के अंतर्गत प्रत्येक जनधन खाताधारी को 5 हजार रुपए तक क्रैडिट सुविधा का क्रैडिट कार्ड जारी किया जाना था तथा 1 लाख रुपए का दुर्घटना बीमा मिलना था. अब तक न तो 5 हजार रुपए का क्रैडिट कार्ड मिला न ही दुर्घटना बीमा की पौलिसी. योजना में सरकार की चालाकी का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि जिस तरह बड़ीबड़ी कंपनियां अपने विज्ञापनों में ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए बड़े उपहार या छूट के औफर तो बडे़ अक्षरों में प्रकाशित करती हैं पर नीचे एक * का चिह्न बना कर लिखती हैं–शर्तें व नियम लागू, ठीक उसी तरह सरकार की 5 हजार रुपए की क्रैडिट लिमिट भी सशर्त है. शर्त यह है कि जो खाताधारी 6 महीने तक अपने खाते में लेनदेन करते रहेंगे उन्हें उन के लेनदेन के आधार पर संतुष्टि कारक होने पर सरकार द्वारा 5 हजार रुपए की क्रैडिट लिमिट दी जाएगी. यह उल्लेखनीय है कि 90 प्रतिशत खाताधारी इस बात से अनभिज्ञ हैं और वे रोज अपने खातों में सरकार द्वारा 5 हजार रुपए जमा कराए जाने की राह देख रहे हैं. इसी तरह का मामला बीमे का भी है. जनधन में खाता खोलने वाले ग्राहक का 1 लाख रुपए का बीमा करने की बात सरकार ने प्रचारित की लेकिन वह बीमा, जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा नहीं है, बल्कि दुर्घटनामृत्यु बीमा है जो बहुत ही कम होने की संभावना होती है. हालत यह है कि पौलिसी के रूप में वह रकम अब तक किसी खाताधारी के पास नहीं पहुंची है.

ऐसी स्थिति में जनधन योजना अब बैंकों व खाताधारियों के लिए रोज विवाद का कारण बन रही है. बैंक ही नहीं, यह योजना बैंकमित्रों के लिए भी खासे सिरदर्द का कारण है. जनधन खाता खोलने की सारी जिम्मेदारी इन्हीं बैंकमित्रों पर थी और खाता खुलने के लंबे अंतराल के बाद जनधन खाताधारियों को घोषित लाभ न मिल पाने के कारण ये खाताधारी खाता खोलने वाले बैंकमित्रों के पास पहुंच कर 5-5 हजार रुपए मांग रहे हैं, मित्रों से विवाद कर रहे हैं. बैंकमित्रों को मजबूरन ऐसे खाताधारियों से कहना पड़ रहा है कि इस का जवाब सरकार या बैंक प्रबंधन से लो, उन के पास इस का कोई उत्तर नहीं है. यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री जनधन योजना में जिन लोगों ने खाते खुलवाए हैं उन में से अधिकांश निरक्षर हैं. उन्हें सिर्फ यह मालूम है कि किसी ने उन्हें यह बताया था कि खाता खोलने पर उन्हें 5-5 हजार रुपए एवं 1 लाख रुपए का बीमा मुफ्त मिलेगा. अब जब उन्हें कुछ भी नहीं मिल पा रहा है तो उन के चेहरों पर घोर निराशा और आक्रोश दिखाई दे रहा है. एक बात और कि सरकार की ओर से 5 हजार रुपए की क्रैडिट लिमिट जिस शर्त के अंतर्गत दी जानी है उस के अंतर्गत 6 महने तक जिस के खाते में लेनदेन होगा उसे ही यह सुविधा मिलेगी. लेकिन जिन लोगों ने ये खाते खुलवाए हैं उन के पास बैंक में लेनदेन के लिए न तो पूंजी है, न ही समय, न ही ज्ञान. ऐसी स्थिति में ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’ वाली कहावत इस योजना के लिए चरितार्थ हो रही है. सरकार के खिलाफ यह असंतोष कहीं ऐसा न हो कि उस के बडे़ वोटबैंक के आधार को खोखला कर दे. ऐसी हलचल अब होने भी लगी है.

जनधन खातों पर सवाल

वर्ल्ड बैंक ने जनधन योजना के तहत खोले गए लाखों खातों पर सवाल उठाए हैं. बैंक का कहना है कि भारत में लोगों के खाते लाखों की संख्या में खोले गए हैं, लेकिन उन में से ज्यादातर निष्क्रिय हैं और जीरो बैलेंस वाले हैं. सवाल उठना लाजिमी है कि ऐसे बैंक खातों से किसे फायदा हो रहा है? बैंक के अनुसार, भारत में 2011 और 2014 के बीच खाता खोलने में तेजी 35 से बढ़ कर 53 प्रतिशत तक हो गई. इस दौरान लाखों खाते खोले गए. मगर उन में निष्क्रिय यानी डौरमैट खाते ज्यादा हैं. यानी इन खातों का कोई इस्तेमाल नहीं हो रहा, न धन जमा हो रहा है और न ही धन निकाला जा रहा है. जनधन योजना के तहत जितने खाते खोले गए उन में से 72 प्रतिशत खातों में जमा राशि शून्य है. यानी इन खातों की बैलेंस राशि जीरो है. आंकड़ों के लिहाज से 2011 से 2014 के बीच भारत में 17.5 करोड़ लोग खाताधारक बने. बैंक खातों की संख्या में बढ़ोत्तरी बहुत हद तक सरकार की समग्र आर्थिक विकास लाने की योजना का परिणाम है. अगस्त 2014 में भारत सरकार ने व्यापक वित्तीय निवेश के लिए प्रधानमंत्री जनधन योजना शुरू की, जिस का लक्ष्य प्रत्येक परिवार के लिए बैंक खाता खोलना था. इस योजना के तहत जनवरी 2015 के अंत तक 12.5 करोड़ नए बैंक खाते खोले गए, जबकि 2013 के सर्वेक्षण में पाया गया था कि देश में 40 करोड़ से ज्यादा लोगों के पास बैंक खाते थे. स्कीम के तहत 97 प्रतिशत से अधिक खाते सरकारी बैंकों में खोले गए, लेकिन इन में से करीब 72 प्रतिशत खातों में ‘जमा पड़ी राशि शून्य’ है. मतलब यह हुआ कि 72 प्रतिशत बैंक खाते जीरो बैलेंस पर खोले गए. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में पाया गया कि भारत में निष्क्रिय बैंक खातों का प्रतिशत 43 पर पहुंच गया है. इस के उलट, अधिक आय वाली और्गेनाइजेशन औफ इकोनौमिक कौऔपरेशन औफ डैवलपमैंट यानी ओईसीडी अर्थव्यवस्थाओं में यह अनुपात 5 प्रतिशत है. इस के अलावा, भारत में सभी खाताधारकों में से केवल 39 प्रतिशत के पास ही एक डैबिट या एटीएम कार्ड है.

हमारी बेडि़यां

हमारे यहां कूड़ा उठाने की गाड़ी आती है और सब का कूड़ा ले जाती है. गाड़ी वाला घंटी बजाता है और कूड़ा ले जाता है. एक बार वह जब कूड़ा लेने आया तो काफी अच्छे कपड़े पहने था. उसे उस दिन काफी देर हो गई थी. सभी महिलाएं चीख कर कह रही थीं, इतनी देर से क्यों आए, हमें क्या इंतजार करने का ही काम रह गया है?कइयों ने तो इतनी जोर से कूड़ा फेंका कि उस की छींटें उस के कपड़ों पर पड़ गईं. वह रो कर कह रहा था, ‘‘आंटीजी, आज मेरा जन्मदिवस है. घर पर मां ने खास खाना बनाया था. इसलिए देर हो गई.’’

मैं बोली, ‘‘भैया, कूड़ा कल ले जाना. आज आप को मैं शुभकामना देती हूं.’’ और मैं ने उसे 100 रुपए दिए और कहा, ‘‘बेटा, खूब तरक्की करो.’’

वह बोला, ‘‘आंटीजी, आप हमेशा खुश रहो.’’ 

नीरा सहगल, शालीमार गार्डन (उ.प्र.)

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बात 8 वर्ष पहले की है. मेरी रिश्ते की नानी का देहांत हो गया था. सारी क्रियाएं मौसाजी कर रहे थे क्योंकि नानी के कोई बेटा नहीं था. नवीं के नहान के समय मौसाजी ने कहा कि जब सब कार्य मैं कर रहा हूं तो बेटा होने के रिश्ते से मैं एक डुबकी भी लगा लेता हूं. जैसे ही मौसाजी पानी में घुसे, उन का पैर मिट्टी में धंस गया और वे डूब गए. थोड़े दिनों पहले मूर्ति विसर्जन के कारण वहां मिट्टी ही मिट्टी होने के चलते उन्हें खींचा नहीं जा सका.    

नेहा प्रधान, कोटा (राज.)

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मेरे पड़ोस में एक डाक्टर साहब हैं जो काफी ऊंचे पद पर कार्यरत हैं. उन्हें पंडितों पर बहुत विश्वास है. एक दिन उन्हें किसी पंडित ने बताया कि कल सूर्यग्रहण है जिस का प्रभाव बहुत बुरा पड़ने वाला है. सूर्यग्रहण सुबह साढ़े 7 से साढ़े 8 बजे तक रहेगा. सो, उस बीच आप घर से बाहर मत निकलें व कुछ खाएंपीएं नहीं. ग्रहण के समाप्त होने के बाद ही नहाधो कर कार्य करने के लिए निकलें. दूसरे दिन ग्रहण था. वे घर से बाहर नहीं निकले. कमरे में ही बैठे रहे. इमरजैंसी से फोन पर फोन आ रहे थे कि एक मरीज काफी सीरियस है, आ कर उसे देख लीजिए, परंतु वे अस्पताल नहीं गए. अपने से जूनियर डाक्टर को मरीज को देखने के लिए बोल दिया. ग्रहण समाप्त होने के बाद नहाधो कर अस्पताल पहुंचे. उस मरीज की हालत बहुत नाजुक हो चुकी थी. किसी तरह इंजैक्शन वगैरह दे कर उसे बचाया जा सका. डाक्टर, जिस की एक मिनट की देरी भी मरीज की जिंदगी और मौत का सबब बन सकती है, उस से ऐसा उपेक्षित व्यवहार निश्चित ही निंदनीय है.

उपमा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

धार्मिक भेदभाव

मुंबई में हिंदू मालिकों की एक धार्मिक नाम वाली कंपनी का मुसलिम उम्मीदवार का आवेदन यह कह कर अस्वीकार कर देना कि कंपनी मुसलिमों को नहीं रखती, एक रहस्य से परदाभर उठा है. घरों व नौकरियों के मामले धर्मभेद और जातीय भेदभाव हमारे समाज में बुरी तरह रचाबसा है. दलितों, पिछड़ों, ईसाइयों, मुसलमानों सब से भारतीय कंपनियां लगभग ऐसा ही सुलूक करती हैं. इन सब को अगर नौकरियां मिलती हैं तो उन कामों के लिए जिन के लिए उन्हें ऐक्सपर्ट समझा जाता है. यह भेदभाव बोर्ड टांग कर नहीं किया जाता. यह बस, चुपचाप कर लिया जाता है. आवेदक को कह दिया जाता है कि वह उपयुक्त नहीं है. घरों के मामलों में यह मामला गंभीर है. अगर किसी सोसाइटी में विभिन्न धर्मों के नाम वाले बोर्ड दिख जाएं तो इसे अजूबा समझा जाना चाहिए. जहां अलग प्लाटों पर मकान बने होते हैं वहां तो परेशानी नहीं होती पर जहां कंधे से कंधा मिलाना हो वहां जाति और धर्म आड़े आ जाते हैं. अगर कंपनी उदार है व विभिन्न धर्मों और जातियों के लोगों को रख भी ले तो इसे समस्या का अंत नहीं समझा जाना चाहिए. फ्लोर लैवल पर जातीय व धार्मिक छुआछूत चलती रहती है. लोग आपसी गुटों में, दोपहर खाने पर, सामाजिक लेनदेन व व्यवहार में भेदभाव करते रहते हैं. सीधेतौर पर या कामकाज के दौरान अगर कुछ न भी कहा जाए तो बहुत से फैसलों में ये बातें आड़े आ ही जाती हैं.

इस का दोष भेदभाव पैदा करने वाली धार्मिक सोच को देना होगा जो बच्चे के पैदा होते ही उसे दी जानी शुरू कर दी जाती है. दलितों व पिछड़ों ने तो देश पर राज नहीं किया पर मुसलमानों व ईसाइयों ने लंबा राज किया पर फिर भी हमारा समाज भेदभाव बनाए रखने में सफल ही रहा. हां, उस का दुष्परिणाम सामने है. भारत 3 भागों में बंट चुका है. सो, बचे भारत में ऊंचनीच को ले कर विवाद होते रहते हैं. हमारी बहुत सी उत्पादकता केवल ऊंचनीच और छुआछूत के भ्रम को पालने में खर्च होती है. अकारण ही केवल जन्म के कारण बहुतों पर अच्छेबुरे का बिल्ला लगा दिया जाता है. जो काम कर सकते हैं उन से काम नहीं लिया जाता जबकि अपनी बिरादरी का होने पर निकम्मों को नौकरी पर रख लिया जाता है. यह बीमारी हमारे यहां ही हो, ऐसा नहीं है. हम इस पर संतोष कर सकते हैं कि दुनिया के सारे देश व समाज धार्मिक, जातीय या रंग के भेद से बुरी तरह बीमार हैं और अपना सुख खो रहे हैं. सदियों से मानव इसी कारण लड़ाइयों में जान, माल व इज्जत खोता रहा है. आधुनिक शिक्षा, तकनीक, सोच, स्वतंत्रताएं इस खोखली पुरातत्त्ववादी सोच के आगे अभी भी हार रही हैं. मुंबई के युवा को संतोष करना चाहिए कि वह भेदभाव का अकेला शिकार नहीं है. उस से भेदभाव करने वाले दोषी भी इसी तरह के भेदभाव के कहीं न कहीं शिकार होते हैं.

आरक्षण और पिछड़ा वर्ग

मंडल आरक्षण का फायदा पिछड़ों का दबंग वर्ग ही न ले जाए, इस के लिए सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय पिछड़ा जाति आयोग पिछड़ों को 3 भागों में विभाजित करने की सिफारिश पर विचार कर रहा है. 20 साल का अनुभव कहता है कि पिछड़ों का एक वर्ग ही सरकारों और शिक्षण संस्थानों में घुसा है जबकि ज्यादातर पिछड़े इस सुविधा को छू भी नहीं पा रहे हैं. प्रस्तावित सिफारिश में है कि अति पिछड़ा वर्ग, अधिक पिछड़ा वर्ग व पिछड़ा वर्ग यानी 3 समूह बना दिए जाएं और मिल रहे 27 फीसदी आरक्षण को तीनों में आबादी के हिसाब से बांट दिया जाए. अति पिछड़े वर्ग और अधिक पिछड़े वर्ग की शिकायत अपनेआप में सही हो सकती है कि वे पढ़ाई में सुविधाओं के अभाव में व घरेलू जरूरतों के कारण दबंग वर्गों की तरह अच्छे तरीके से प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग नहीं ले पाते हों, चयन में खरे न उतरते हों और कुछ पढ़ाई व कुछ सिफारिशों के बल पर दबंग पिछड़ा वर्ग ही आरक्षण का लाभ उठा रहा हो. पर पिछड़े वर्ग का विभाजन करना गलत है. देश वैसे ही जातिगत विभाजन के कारण कराह रहा है. शादीब्याह, आपस में उठनेबैठने, नौकरियों, व्यापारों यानी सब मामलों में जाति का स्थान घूमफिर कर आ ही नहीं जाता बल्कि यह हमारे समाज की सोच पर हावी होता जा रहा है.

धर्म ने इसे भुनाने की जम कर तैयरी शुरू कर दी है और हर जाति को अपने खुद के भगवान, मंदिर व आश्रम दे दिए हैं ताकि किसी तरह से भी सभी लोग समाज में घुलमिल न सकें. आयोग की संभावित सिफारिश पिछड़ी जातियों के आपसी सामाजिक विभाजन को असल में संवैधानिक विभाजन बना देगी और जैसे हिंदू व मुसलमानों के आपस में घुलनेमिलने की आशाएं शून्य हो चुकी हैं, वैसे ही पिछड़ी जातियों में होगा. अब चूंकि ऊपरी व निचली परतों को साथ पढ़ना होता है, साथ काम करना होता है, साथ सवर्णों से टक्कर लेनी होती है, इसलिए वे आपसी मतभेद को भुला देते हैं. उन्हें कानूनन लाइनों से विभाजित करना, पहले से ही टुकड़ेटुकड़े हुए देश को और छोटेछोटे हिस्सों में बांटना होगा. बिहार में जीतनराम मांझी को ले कर अति दलितों के नाम पर चली राजनीति इस बात का उदाहरण है कि किसी भी तरह का लेबल देश व समाज को अलगथलग ही करेगा.

कल्कि का कल ऐसे में कैसे होगा सफल

‘देव डी’, ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’, ‘हैप्पी एंडिंग’ सहित कई फिल्मों में अभिनय कर बौलीवुड में बतौर अभिनेत्री व्यावसायिक सफलता हासिल करने के बाद अभिनेत्री कल्कि केकला (अब तक इन का नाम कल्की कोचलीन लिखा जाता रहा है, मगर अब वे चाहती हैं कि हिंदी में उन का नाम ‘कल्कि केकला’ लिखा जाए.) हमेशा अलग तरह के किरदारों में नजर आई हैं. इस की वजह उन का गैर परंपरागत लुक भी है. वे आम हीरोइनों की तरह न तो ग्लैमरस हैं और न ही बदन उघाड़ू किरदारों में फिट बैठेंगी. लिहाजा वे अपने लुक्स और टैलेंट का सटीक इस्तेमाल करते हुए हमेशा हार्डकोर किरदारों को तरजीह देंगी तो अच्छा रहेगा. लेकिन बौलीवुड में लगभग सभी हीरोइनों को कमर्शियल व ग्लैमरस फिल्मों के मापदंड पर खरा उतर कर ही कामयाब कैरियर हासिल हुआ है. ऐसे में कल्कि की राह में न सिर्फ रोड़े हैं बल्कि फिल्मी दुनिया में लंबी पारी खेलने के लिए उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ेगा.

हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘मार्गरीटा विद अ स्ट्रा’ में वे ‘सेरेब्रा पाल्सी’ ग्रसित विकलांग लड़की लैला के किरदार में नजर आईं, जिसे सैक्स की चाहत है और एक दिन लैला एक अंधी व ‘लैस्बियन’ लड़की खानुम से शारीरिक संबंध बनाती है. इस फिल्म को टोरंटो सहित कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में सराहा व पुरस्कृत किया जा चुका है. दूसरी तरफ वे कोमा के मरीजों पर बन रही फिल्म ‘वेटिंग’ में नसीरुद्दीन शाह के साथ अभिनय कर रही हैं. वहीं, निजी जिंदगी में अनुराग कश्यप से उन का अलगाव हो चुका है. दोनों ने तलाक के लिए अर्जी दायर कर दी है. ‘मार्गरीटा विद अ स्ट्रा’ करने की मूल वजह वे इस प्रतिनिधि को बताते हुए कहती हैं कि जब उन के पास इस फिल्म का औफर आया था तो स्क्रिप्ट पढ़नी शुरू करने के 10 मिनट बाद वे लैला के ‘सेरेब्रा पाल्सी’ से पीडि़त यानी विकलांग होने के बारे में सोच ही नहीं रही थीं, वे सिर्फ उस की जिंदगी की कहानी के बारे में सोच रही थीं. उन्हें लगा कि लैला की यह कहानी लोगों को पता चलनी चाहिए.

फिल्म साइन करने से पहले वे सेरेब्रा पाल्सी के बारे में एक अंगरेजी फिल्म ‘माई लैफ्ट फुट’ के जरिए जानती थीं लेकिन इस फिल्म में काम करने के बाद वे फिल्म की निर्देशक शोनाली बोस की कजिन मालिनी से मिलीं, तो इस बीमारी के बारे में विस्तार से पता चला. मालिनी के फिजियोथैरेपिस्ट व स्पीच थैरेपिस्ट से बात हुई, तो पता चला कि इंसान किस तरह सांस लेता है और किस तरह मसल्स अपना काम करती हैं. कल्कि के मुताबिक, ‘‘मैं मालिनी के साथ बाहर निकली, मैं ने देखा कि दूसरे लोग किस तरह उसे घूरते हैं. अकसर हम शारीरिक या मानसिक तौर पर अपंग व्यक्तियों के प्रति ऐसा रवैया अपनाते हुए देखते हैं. लेकिन ऐसा करना सही नहीं है. वे भी चाहते हैं कि समाज उन्हें सामान्य नजरों से देखे ताकि बारबार उन्हें अपनी शारीरिक या मानसिक कमतरी का आभास न हो. लोगों को यह समझना चाहिए कि हमारा बदला नजरिया उन की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव ला सकता है.’’उन के हिसाब से लैला के किरदार को होमो सैक्सुअलिटी के साथ जोड़ना जरूरी था. वे कहती हैं कि आखिर वह एक लड़की है, उस के अंदर भी हमारी जैसी भावनाएं हैं. उस के हार्मोंस भी विकसित हो रहे हैं. सभी ने फिल्म में देखा होगा कि लैला भी किसी लड़के को ‘किस’ करना चाहती है.

एक दिन लैला को अंधी लड़की खानुम मिलती है. वह खानुम से शारीरिक संबंध बनाती है. आखिर लैला के अंदर भी सैक्स की चाहत है. खानुम खुद को विकलांग नहीं मानती. वह ‘लैस्बियन’ है और इस बात को स्वीकार भी करती है. वह ऐक्टिविस्ट है. वह सामाजिक मुद्दों को ले कर लड़ाई करना जानती है. बता दें कि अब तक विश्व के कई फिल्म फैस्टिवल के अलावा भारत में भी जो ‘गे’ व ‘लैस्बियन’ समुदाय के विरोधी हैं उन्हें भी यह फिल्म अच्छी लगी  वैसे लैला की अपंगता को सिर्फ सैक्सुअलिटी के आईने से दिखाने के बजाय इस तरह की बीमारी से पीडि़तों की अन्य उलझनों, जरूरतों व मजबूरियों पर भी रोशनी डालनी चाहिए थी. मसलन, चलनेफिरने की दिक्कतों से ले कर पढ़ना, याद रखना, भावनात्मक तारतम्य और मानसिक परिवर्तन आदि. सिर्फ सैक्सुअल चाहत पर फोकस करने से लगता है कि इस तरह के मरीज सिर्फ सैक्स के भूखे होते हैं. जबकि इन की और भी कई चाहतें व मंजिलें होती हैं. सिर्फ सैक्स को ही ध्यान में रख कर फिल्म बनाने से उस की यूनीवर्सल अपील रुक सी जाती है. एक तरह से सिर्फ एक ही मुद्दे को प्रमुखता से दिखाना इस बीमारी की संवेदनशीलता पर हमला करता लगता है.

सैक्स की महत्त्वाकांक्षा को ले कर व दूसरे मुद्दे के दरकिनार हो जाने के बाबत कल्कि का कहना है, ‘‘यह फिल्म ‘सेरेब्रा पाल्सी’ के बारे में डौक्यूमैंट्री नहीं है. हम ने फिल्म में यह नहीं दिखाया है कि विकलांग बच्चे के लिए जिंदगी कितनी मुश्किल है या विकलांग बच्चों की वजह से उन के मातापिता कितना कुछ सहते हैं. यह फिल्म एक टीनएजर की जिंदगी की यात्रा है. यह फिल्म सैक्सुअलिटी के बारे में नहीं है. फिल्म तो इंसानी एहसास व भावनाओं की बात करती है. फिल्म में एक भी हौट सैक्सी सीन नहीं है. यह तो एक टीनएजर लड़की के अपने अंदर की खोज है.’’ फिल्मी किरदारों की असल जिंदगी में होने वाले असर पर कल्कि कहती हैं, ‘‘हर चरित्र मुझ पर प्रभाव छोड़ता है, लेकिन बहुत थोड़े समय के लिए. हम हर चरित्र से कुछ न कुछ सीखते भी हैं क्योंकि चरित्र को निभाते समय हम चरित्र के मानवीय पक्ष को देखते हैं और उस से रिलेट करने का प्रयास करते हैं. यदि हम चरित्र के साथ रिलेट नहीं करेंगे तो उसे सही ढंग से अभिनय से संवार नहीं सकते. लैला का चरित्र निभाते समय मैं ने उस के एटीट्यूड और उस के प्यार की भावना को समझा. लैला बारबार गिरती है, पर खुद ही उठती है. वह रोती नहीं है बल्कि हंसती है. लैला का एटीट्यूड यह है कि उस की विकलांगता बदल नहीं सकती, तो उसे स्वीकार कर ह?ंसते हुए जिंदगी जियो. जब मैं फिल्म की शूटिंग कर रही थी तब यह चरित्र मेरे अंदर ही था. शूटिंग के बीच जब छुट्टी थी, तब हम बाहर होटल में खाना खाने गए, तो वहां भी मैं लैला की ही तरह व्यवहार कर रही थी और लोग बड़ी अजीब सी नजरों से मुझे देख रहे थे. कई घंटों तक व्हीलचेअर पर बैठे रहने की वजह से मेरी कमर में दर्द होने लगता था. मेरी स्पाइन भी ट्विस्ट हो गई थी. इसी तरह फिल्म ‘गर्ल इन यैलो बूट’ के दौरान मेरे साथ हुआ था. तब भी कुछ समय के लिए चरित्र मेरे साथ रह गया था. मेरे अंदर ‘नौन इमोशन’ आ गया था. मैं बहुत इंट्रोवर्ट बन गई थी.’’

विदेशों की तरह भारत में विकलांगों के लिए मौजूदा सुविधाओं को नकारते हुए कल्कि कहती हैं कि भारत में लोग विकलांगों को अजीब नजर से देखते हैं. विदेशों में ऐसा नहीं है. सरकार को विकलांगों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना चाहिए. सिनेमाघर व हर मौल में विकलांगों के लिए टौयलेट वगैरह होने चाहिए. विकलांगों को आम लोगों के साथ ही शिक्षा दी जानी चाहिए. रुपहले परदे पर कल्कि जितने जटिल किरदार निभाती हैं उन की असल जिंदगी भी उतनी ही जटिल है. बीते साल उन का निर्देशक अनुराग कश्यप से रिश्ता टूट गया, तलाक की मुहर लगनी बाकी है. निजी जिंदगी को ले कर कल्कि का कहना है, ‘‘मैं ने अपनी निजी जिंदगी के बारे में बात करना बंद कर दिया है. मैं काम करना चाहती हूं. मैं अनुराग कश्यप को ले कर हैडलाइंस नहीं बनाना चाहती. अनुराग मेरे अच्छे दोस्त हैं.’’ वैसे फिल्मी दुनिया से वास्ता रखने वाले जानते हैं कि कल्कि के कैरियर को यहां तक पहुंचाने में अनुराग कश्यप की भूमिका रही है. ज्यादातर फिल्में भी उन्होंने या तो अनुराग के निर्देशन में की हैं या फिर उन के प्रोडक्शन हाउस के लिए. ऐसे में अनुराग से हुए अलगाव का असर उन के फिल्मी कैरियर पर पड़ना तय है.

कल्कि बताती हैं, ‘‘मुझे बचपन से ही लिखने का शौक रहा है. मेरे दिमाग में एक आइडिया आया, तो मैं ने उस पर एक नाटक लिखा, जिस का नाम है – ‘प्ले औन ए डैथ’. यह एक कौमेडी नाटक है. फिर मुझे लगा कि मैं खुद ही इसे निर्देशित करूं. पिछली बार मैं ने ‘क्लेटन ओमन’ नाटक लिखा था, जिसे किसी और ने निर्देशित किया था.’’ हर मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखने वाली कल्कि दीपिका के ‘माई चौइस’ वीडियो को ले कर अलग राय रखती हैं. उन का मानना है कि वुमेन इंपावरमैंट की लड़ाई ‘पुरुष बनाम औरत’ नहीं होनी चाहिए, पर वही हो रहा है. यह गलत है. मेरा मानना है कि इस तरह के वीडियो बनाते समय पुरुषों की भी भागीदारी होनी चाहिए. भविष्य में कल्कि कई फिल्मों में नजर आएंगी, जिन में ‘लव अफेयर’ एक है. सोनी राजदान इस को निर्देशित कर रही हैं. यह 1950 की एक पीरियड फिल्म है. नसीरुद्दीन शाह के साथ ‘वेटिंग’ की है. इसे अनु मेनन ने निर्देशित किया है. यह फिल्म उन के बारे में है जो कोमा में चले जाते हैं. रोचक विषय है. एक फिल्म ‘मंत्रा’ है. यह दिल्ली के एक परिवार की कहानी है. इस में ग्लोबलाइजेशन के दौर में खत्म हो रहे छोटे दुकानदारों की कथा है.

इस फिल्म पर उन की प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन का जवाब यों था, ‘‘अपनापन खत्म हो रहा है. मुझे विदेशी कल्चर के आने से परहेज नहीं है. हम भारतीय दूसरे देश में जा कर काम करते हैं. उसी तरह दूसरे देश के लोग भी भारत आ कर काम करें, इस में एतराज नहीं है. लेकिन मौल कल्चर में हमारी निजता और अपनापन खत्म हो रहा है. छोटेछोटे कारीगर खत्म हो रहे हैं. हम तो इन का सपोर्ट करते हैं. बनारस में जो बुनकर हैं, उन का मैं साथ देती हूं. बनारस में एक डिजाइनर ब्रान दत्ता हैं. उस का ब्रैंड है – ‘फादर लैंड’, जोकि बुनकर का ही काम करता है. मैं उन्हीं की डिजाइन की हुई साड़ी पहनना पसंद करती हूं. मेरी राय में यह एक खूबसूरत कला है. हमें इसे मरने नहीं देना चाहिए. पश्चिमी देशों के लोग यहां आते हैं, इस तरह की कारीगरी वाली चीजें खरीद कर ले जाते हैं और फिर उसे अपना ब्रैंड बना कर लंबी कीमत में बेचते हैं. देश की कारीगरी नष्ट नहीं होनी चाहिए. मौल्स तो मध्यवर्गीय परिवारों के लिए काफी महंगे हैं. मेरी राय में तो मौल्स हटा कर उस जगह पर बच्चों के लिए पार्क बनाए जाने चाहिए. मौल्स की जरूरत मेरी समझ से परे है.’’ बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अभियान मेक इन इंडिया और स्मार्ट सिटी की अवधारणा भी कुछ ऐसी है जहां सिर्फ एक संपन्न तबके का हित देखा जाता है, मध्यवर्ग व निम्नवर्ग की परवा किसी को नहीं. मेक इन इंडिया में जहां विदेशी व्यापारी चांदी काटेंगे वहीं स्मार्ट सिटी में चंद अमीर ही आशियाना बना पाएंगे. जिन को दो जून की रोटी नसीब नहीं होती, वे स्मार्ट सिटी का सपना कैसे देख सकते हैं.

वैसे कल्कि ने कैरियर में कई फुजूल किस्म की फिल्में भी की हैं जिन में ‘हैप्पी ऐंडिंग’, ‘ये जवानी है दीवानी’ में उन के किरदार बेहद औसत दरजे के थे. इन के अलावा फिल्म ‘एक थी डायन’ तो सिर्फ अंधविश्वास फैलाने का काम कर रही थी. ऐसी फिल्मों से जुड़ कर वे समाज में नकारात्मक संदेश भी प्रसारित कर रही हैं. कल्कि केकला जैसी गैरपरंपरागत अभिनेत्रियों को ऐसे सामाजिक सरोकारों और गंभीर विमर्श के मुद्दे उठाती फिल्में करते रहना चाहिए जैसा कि 80-90 के दशक में स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, इला अरुण, रोहिण्ी हटंगड़ी जैसी अभिनेत्रियों ने किया. चालू मसाला फिल्में तर्क से परे सिनेमा के शौकीनों के लिए हैं. वे बनती रहेंगी लेकिन सब्जैक्टबेस्ड फिल्में व उन से जुड़े कलाकारों को प्रोत्साहन जरूरी है. समय आ गया है कि ऐसी फिल्में अवार्ड समारोहों की गुमनाम व संकरी गलियों से बाहर निकलें और अधिकतम दर्शकों तक पहुंच बनाएं.

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