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बिंब प्रतिबिंब

शिल्पा के खिलाफ एफआईआर

फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी का फिल्म कैरियर तो खासा नहीं रहा लेकिन बिजनैसमैन राज कुंद्रा से शादी रचाना जरूर उस के लिए फायदेमंद रहा. राज के साथ शिल्पा आज कई कंपनियों की मालकिन हैं. जहां व्यापार आता है वहां लेनदेन को ले कर धोखाधड़ी के मामले भी दिखने लगते हैं. कोलकाता की एक कंपनी ने उन के खिलाफ धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है. शिकायतकर्ता के मुताबिक, शिल्पा समेत कई लोगों ने निवेश की गई रकम को 2 साल में 10 गुना करने का फर्जी वादा किया था. चिटफंड जैसा दिखता यह बिजनेस सिर्फ शिल्पा ही नहीं, देशभर में कई लोग चला रहे हैं. दिक्कत तो यह है लोग लालच में आ ही जाते हैं. वे सबक लेने को राजी ही नहीं.

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परदे पर सुचित्रा

बायोपिक फिल्मों की परंपरा को बढ़ाते हुए बंगाल की सदाबहार अभिनेत्री सुचित्रा सेन के जीवन पर आधारित फिल्म बनाई जा रही है. हिंदी व बंगला क्लासिक फिल्मों में नजर आईं सुचित्रा सालों से बेहद निजी जीवन जी रही थीं. इतना निजी कि एक बड़े सरकारी पुरस्कार को ग्रहण करने से उन्होंने सिर्फ इसलिए मना कर दिया था कि उन्हें सार्वजनिक तौर पर स्टेज पर आना पड़ता. फिलहाल तो वे इस दुनिया में नहीं हैं. उन पर बनने वाली फिल्म में विद्या बालन मुख्य भूमिका में नजर आएंगी. हालांकि विद्या के पास बेनजीर भुट्टो को परदे पर निभाने का औफर आया था पर उन्होंने सुचित्रा सेन के किरदार को रजामंदी दी. बायोपिक बनाने से प्रचार संबंधी फायदा तो मिलेगा, साथ में यह चुनौती भी रहेगी कि उन के अज्ञातवास वाली जिंदगी के पन्ने कैसे खोले जाएं.

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घरेलू हिंसा की शिकार रति

घरेलू हिंसा की चपेट में सिर्फ मध्यवर्ग की स्त्रियां और पिछड़े समाज की गैरशिक्षित महिलाएं ही नहीं हैं बल्कि सालों से फिल्मी दुनिया में खासा मुकाम हासिल कर चुकी कथित स्वतंत्र अभिनेत्रियां भी हैं. एक जमाने की कामयाब अभिनेत्री रति अग्निहोत्री को ही ले लीजिए, पिछले दिनों उन्होंने अपने पति के खिलाफ पुलिस स्टेशन में एक मामला दर्ज कराया. उन के मुताबिक पति अनिल वीरवानी उन्हें पीटते और धमकाते हैं. पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया. उन्होंने कथित पिटाई के कारण हाथों पर बने निशान भी दिखाए. बहरहाल, अनिल और रति के बीच इस तरह के झगड़े की बात यही जाहिर करती है कि महिला कितनी भी कामयाब या पढ़लिख जाए लेकिन आमतौर पर पतियों का नजरिया एक ही होता है.

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क्षेत्रीय सिनेमा के सहारे

इन दिनों क्षेत्रीय फिल्मों का बाजार हिंदी व अंग्रेजी फिल्मों को जोरदार टक्कर दे रहा है. बात चाहे राष्ट्रीय पुरस्कारों की हो या कमाई की. इधर कुछ सालों से पंजाबी, मराठी, भोजपुरी और बंगला भाषा की फिल्मों ने दक्षिण भारतीय फिल्मों जैसा बाजार कायम कर लिया है. लिहाजा, बौलीवुड के कई नामी कलाकार, जो बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं, रीजनल फिल्मों का रुख कर रहे हैं. सलमान खान के साथ ग्रैंड डैब्यू करने वाली अभिनेत्री जरीन खान भी कुछ ऐसा ही कर रही हैं. खबर है कि बिंदु दारा सिंह के कहने पर उन्होंने ‘इश्क माय रिलीजन’ साइन कर ली है. यह फिल्म पंजाबी भाषा में बन रही है. क्षेत्रीय फिल्मों को कम सफल या कहें बेरोजगार अदाकारों के लिए बड़ा विकल्प बनते देखना सुखद है.

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होशियारी हौलीवुड की

भारत में फिल्मों की दुनियाभर की बढ़ती कमाई ने हौलीवुड का ध्यान काफी समय से खींच रखा है. लिहाजा, कई हौलीवुड फिल्म स्टूडियो मुंबई में अपना डेरा डाल चुके हैं. इस के साथ वे अपनी अंगरेजी फिल्मों को भारत में प्रोमोट करने के लिए किसी भारतीय कलाकार से 50-60 सैकंड की भूमिका करवा कर एक तीर से दो शिकार कर रहे हैं. अनिल कपूर, इरफान व बिग बी जैसे कलाकारों को ले कर देसी दर्शक जुटाने में मसरूफ हौलीवुड अब ‘फास्ट ऐंड फ्यूरियस’ की 7वीं कड़ी में अभिनेता अली फजल के रोल की बात कर प्रचार कर रहा है जबकि प्रोमो में अली की झलक भी नहीं है. भारतीय कलाकारों को इस तरह के मार्केटिंग हथकंडों का शिकार बनने से बचना चाहिए.

भारत भूमि युगे युगे

पति, पत्नी और पौलिटिक्स

संगरूर से आम आदमी पार्टी के सांसद और हास्य अभिनेता भगवंत मान अभी भी हंसाने की अपनी आदत नहीं छोड़ पा रहे हैं. बीती 21 मार्च को वे अपनी पत्नी इंद्रप्रीत कौर के साथ एक ही कार में बैठ मोहाली जिला अदालत पहुंचे और परस्पर सहमति से तलाक की अर्जी दे डाली. विवाद दिलचस्प है, इसे इंद्रप्रीत का आरोप कहा जाए या पति की तारीफ कि वे राजनीति में इतने मशगूल हो गए हैं कि पत्नी व बच्चों को वक्त नहीं दे पा रहे. भगवंत की दलील यह है कि जनता ने पूरे विश्वास से उन्हें चुना है जिसे वे तोड़ना नहीं चाहते और जैसा कि पत्नी दबाव बना रही हैं कि कैलिफोर्निया चल कर रहो, यह उन के लिए मुमकिन नहीं. हालफिलहाल अदालत ने इन दोनों को 6 महीने का वक्त सोचने को दिया है जिस दौरान वे बीच का रास्ता निकाल लें तो ठीक, वरना जनता या इंद्रप्रीत में से किसी एक का विश्वास टूटना तय है. वैसे ये लोग चाहें तो अरविंद केजरीवाल से प्रेरणा ले सकते हैं कि कैसे वे व्यस्तता के बावजूद पत्नी व बच्चों के लिए वक्त निकालते हैं और कैसे सुनीता पति केजरीवाल की ‘पौलिटिक्स’ मैनेज करती हैं.

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न चिट्ठी न संदेश…

संयुक्त परिवारों के लड़कों को जब अपनी बात मनवानी होती थी तो वे बगैर बताए घर से भाग जाते थे एकाध दिन में ही घर वालों की अक्ल ठिकाने आ जाती थी और वे इश्तिहार देते, बेटा, लौट आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा. तुम्हारे चले जाने से तुम्हारी मां बीमार हो गई हैं. बेटा, आने से इनकार न कर दे, इसलिए इश्तिहार में कुछ इनाम की भी घोषणा कर दी जाती थी. ऐसा ही विरोध राहुल गांधी ने नए तरीके से किया. वे विदेश में कहीं चले गए लेकिन कांग्रेस में कोई खास भूचाल नहीं आया, कोई दुखी नहीं हुआ. बयानबाजी जरूर हुई. सोनिया गांधी भी अब उन के मन की बात सुनने को तैयार नहीं क्योंकि उन्हें समझ आ गया है कि पप्पू अब कुछ नहीं कर पाएगा, इसलिए खुद ही मैदान में आ गई हैं. 

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मन की बात

रेडियो जौकी बड़ी खूबियों वाला शख्स होता है जो स्टूडियो में बैठेबैठे ही श्रोताओं को अपनी मीठी आवाज और लच्छेदार बातों में उलझाए रखने का कारोबार करता है. अब तो तकनीक की सहूलियत से लोग उस से मन की बातें भी साझा कर सकते हैं और नैतिकता का पाठ भी पढ़ा सकते हैं. संजय दत्त अभिनीत फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के जरिए लोग इस की बारीकी और खूबियों से परिचित हुए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों रेडियो के जरिए लोगों से मन की बात कर रहे हैं. इस से कुछ लोगों के मन की भड़ास निकल जाती है और पीएम मन की बात कह डालते हैं. किसानों से भी उन्होंने मन की बात की और उन्हें पुचकार कर बताया कि दरअसल, भूमि अधिग्रहण बिल उन के भले और लाभ का है, किसान भाई विपक्ष के बहकावे में न आएं. लगता नहीं कि किसान या दूसरे वर्ग के लोग आर जे नरेंद्र मोदी के बहकावे में भी आ रहे हैं.

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कानूनी डिस्को

हिंदी व बंगला फिल्म अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती पहले कलात्मक अभिनय और बाद में डिस्को डांस करने से पहचाने गए थे. यह पहचान पूरी तरह लुप्त होती, इस से पहले ही उन्होंने ममता बनर्जी वाली तृणमूल कांग्रेस का पल्लू पकड़ लिया और सीधे संसद जा पहुंचे. मिथुन चक्रवर्ती को भी प्रवर्तन निदेशालय ने समन भेज दिया है. बहुचर्चित सारदा घोटाले की गंगा में मिथुन ने 2 करोड़ की डुबकी लगाई थी. अब फिर वे डिस्को करेंगे पर इस बार फ्लोर या स्टेज पर नहीं, बल्कि अदालत में, जहां उन के कई साथी पहले से ही चक्कर काट रहे हैं. और इधर गिनने वाले हिसाब लगा रहे हैं कि टीएमसी के कितने सांसद बचे हैं जिन का नाम इस घोटाले में अब तक नहीं आया है.

ज्योतिष भाग्य और कर्म

कुछ भारतीय विद्वान ज्योतिष को विज्ञान मानते हैं और इसे हजारोें वर्ष पुरानी मानते हैं. ज्ञान के देवता ब्रह्माजी थे, यह विद्या भी वहीं से प्रारंभ हुई जो महर्षि भास्कराचार्य तक पहुंची. भारतीय ज्योतिष त्रिकालदर्शी है, वह भूतकाल, वर्तमान और भविष्य तीनों बता सकता है. टीवी चैनलों पर ज्योतिष के कार्यक्रम और समाचारपत्रों में लंबे समय से राशिफल तथा ‘आज का दिन’ जैसे स्तंभों के अधीन ज्योतिष के कौलम प्रस्तुत किए जा रहे हैं. लाखों शिक्षितअशिक्षित, अमीरगरीब, सभ्य व ग्रामीण ज्योतिषियों के इर्दगिर्द चक्कर काटते नजर आते हैं. राजनेताओं से ले कर सरकारी कर्मचारियों तक सभी उंगलियों में विभिन्न प्रकार के पत्थरों वाली अंगूठियां डाले या जन्मपत्रिकाएं उठाए ज्योतिषियों से अपने सुखद समय के बारे में जानने का प्रयत्न करते हैं.

इतना ही नहीं, समाज में ज्योतिष का प्रवेश एक बच्चे के जन्म से ही हो जाता है जब उस की ‘जन्मपत्रिका’ बनवा ली जाती है. एक अनुमान के अनुसार, भारत में जन्म कुंडलियां बनाने वाले ज्योतिषियों की संख्या 10 लाख से ऊपर है. एक प्रसिद्ध ज्योतिषी हैं के एन राव, जो ज्योतिषियों की बहुत सारी बातें सही नहीं मानते और ‘कालयोग’ को सिरे से नकार रहे हैं परंतु ज्योतिष की शिक्षा के पक्षधर हैं. भाजपा के एक नेता ज्योतिष की शिक्षा को विश्वविद्यालयों में लागू करने के कट्टर समर्थक हैं. वे इसे वैदिक काल से चली आ रही एक महत्त्वपूर्ण विद्या मानते हैं.

कहा जाता है कि भारत के 45 विश्वविद्यालय ज्योतिष की शिक्षा बीए और एमए तक देने के लिए राजी हो गए थे. प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. यशपाल ने कहा, ‘‘टाइम पास करने के लिए ज्योतिष की शिक्षा हानिरहित है क्योंकि इस में लोगों की रुचि साफ दिखाई देती है.’’ प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. राजेश कोचर और डा. एन कुमार ने ज्योतिष विज्ञान को मानने से इनकार कर दिया. ज्योतिष के प्रति लोगों की रुचि के कारण इस में बाजारू ढंग तक आ गया है. बाजार में तोता और बैल भी मानव का भाग्य बताने लगे हैं. सदियों से तथाकथित धर्मगुरु और हमारे शास्त्र हमें समझा रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन भाग्य से निर्मित है. गरीब है तो अपने भाग्य से, अमीर है तो अपने भाग्य से. आज भी हम अपनी जन्मकुंडलियां ले कर ज्योतिषियों के पास घूम रहे हैं, यह जानने के लिए कि हमारे भाग्य में क्या है? क्या हमारी नौकरी में पदोन्नति होगी? क्या हमारा उद्योग फलेगा और फूलेगा? क्या मैं चुनाव जीतूंगा?

कुछ लोग ज्योतिषियों को अपने हाथ की लकीरें दिखा कर अपने भाग्य को जानना चाहते हैं. इतना ही नहीं, आजकल कुछ लोग ‘टैरो कार्ड’ के द्वारा भविष्य बताते हैं. दिल्ली में जितने ज्योतिषी, तांत्रिक और कई तरह के चालबाज इकट्ठे हो गए हैं, उतने भारत में और कहीं नहीं. वे सब लोगों से उन का भाग्य बता कर पैसे ठगते हैं. चुनावों के दिनों में हर राजनेता यज्ञ तक करवाते हैं. कोई तांत्रिक के पास जाता जिस से उसे कोई हानि न हो और उन्हें हर बात में सफलता मिले. अधिकतर लोगों के लिए अगर भाग्य ही सबकुछ है तो पुरुषार्थ तो मर गया. हमारे देश में अधिकतर लोग भाग्य पर विश्वास करते हैं.

डा. पी सी गोयल का कहना है, ‘‘1961-62 की बात है जब मैं क्वीन मेरी अस्पताल, लखनऊ में मेटरनिटी वार्ड में ड्यूटी कर रहा था. लेबररूम में 2 महिलाएं डिलीवरी के लिए एकसाथ भरती हुईं. एक किसी बड़े व्यापारी की बहू थी और एक सड़क के किनारे साइकिल रिपेयर करने वाले की पत्नी थी. दोनों ने लगभग एक ही समय एकएक पुत्र को जन्म दिया. इन में व्यापारी का नवजात पैदा होते ही करोड़ों की संपत्ति का भागीदार हो गया और दूसरा शिशु पैदा होते ही 5 हजार रुपए के ऋण का भागीदार हो गया, जो उस के पिता ने ले रखा था. एक ही कक्ष में एक ही समय पर तथा एक ही डाक्टर की देखरेख में पैदा हुए नवजात के भाग्यों में इतना अंतर क्यों?’’ ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, दोनों बच्चों का भाग्य एकजैसा होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है. विधाता ने हमारे भाग्य में लिख दिया है, इसलिए हमें पुरुषार्थ करने से क्या फायदा? ऐसा कहने, मानने वाले यानी भाग्य पर विश्वास करने वाले इंसान में आलस्य है, वह कुछ करने की जरूरत नहीं समझता. वह सोचता है कि अब जो होना होगा, वही होगा. इंसान को भाग्य की धारणा पकड़ना सुगम लगता है वरना पुरुषार्थ करना पड़ता है, श्रम करना पड़ता है, चेष्टा करनी पड़ती है. संघर्ष करने में तकलीफ होती है और प्रकृति से जूझने में शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है. छोटेमोटे ज्योतिषी और तांत्रिक ही भाग्य की बकवास नहीं करते बल्कि कृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘‘तू मत डर, युद्ध कर जिन के भाग्य में मरना लिखा है वे मरेंगे ही. यह सब तो नियति है. इस में हमारे हाथ में क्या है?’’

मानव कोरा कागज ले कर जन्म लेता है. मानव का जीवन भी कोरा कागज है और उस पर उसे लिखावट लिखनी होगी. आप को गालियां लिखनी हैं गालियां लिखिए, भजन लिखना है भजन लिखिए. मानव नियति ले कर पैदा नहीं होता. हर बच्चा शून्य की तरह पैदा होता है और निराकार आता है. वह दुनियादारी की शिक्षा के द्वारा अपना स्वयं का निर्माता बन कर अपने को आकार देता है. इस में कोई भाग्य नहीं होता. उस का भाग्य उस के हाथ में है. अगर आप हर कार्य में शक्ति और सहायता चाहते हैं तो आप के ही वश में है, इसलिए अपना भाग्य खुद बनाओ. हर मानव को अपनी दुनियादारी की शिक्षा के द्वारा परिश्रम कर के अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ता है. कर्म करो. संसार कर्मप्रधान है. कर्म से ही धरती जीने योग्य बनी है. जो मनुष्य कर्म करता है उस के शरीर के सर्वांग स्वस्थ रहते हैं. कर्म ही सच्ची पूजा है. मन की हिचकिचाहटें दूर किए बिना कदम आगे नहीं बढ़ाया जा सकता. खतरों से जूझे बिना जीवन संग्राम में सफलता नहीं मिलती.

र्म ही जीवन है. मानव का कर्म ही धर्म है. कर्म को ले कर हमारे यहां कई धर्मोपदेश मिलते हैं. श्रीमद्भगवत गीता में कृष्ण कहते हैं, ‘‘कर्म तो करो, किंतु फल की इच्छा मत रखो. ऐसा करने से कर्म बंधनहीन रहेगा.’’ यह गलत है. कर्म करोगे तो फल मिलेगा पर कैसा, यह अनुमान पहले कोई नहीं लगा सकता. कर्म में आत्मबल है. बुद्धि का कर्म है ज्ञान अर्जन करना. प्रकृति अनुरूप जीवन जीना, सब की मंगलकामना के लिए कर्म करने से अहं खुदबखुद समाप्त हो जाता है. यह धरती हमारे कर्मों की भूमि है, इसलिए कर्म सृष्टि का आधार है. शरीर का कर्म है भोजन करना, बुद्धि का कर्म है ज्ञान बढ़ाना और मन का कर्म है प्रवृत्ति और निवृत्ति. सफलता के लिए कर्तव्यभाव से कर्म प्रवृत्ति ही एकमात्र उपाय है. मनुष्य के कर्म ही उस के विचारों की सब से अच्छी व्याख्या हैं. वास्तव में कर्म ही जीव बनाता है, उसे भाग्य कहना गलत होगा.

टू फिंगर टैस्ट : बलात्कार के बाद फिर बलात्कार

एक ग्रामीण युवती सीमा बताती है कि 2 साल पहले उस के गांव के ही कुछ लोगों ने उस के साथ बलात्कार किया. बलात्कार के दर्द से तड़पती वह घर पहुंची तो उस के परिवार वालों ने चुप रहने की सलाह दी और मामले पर परदा डालने की कोशिश की. परिवार वालों के ऐसे रवैए ने उस के दर्द को कई गुना बढ़ा दिया. 2 दिन बाद वह अपनी सहेली की मदद से बलात्कार करने वाले दरिंदों को सबक सिखाने के लिए थाने पहुंच गई. थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद वह यह सोच कर चैन से घर लौटी कि अब गुनाहगारों को सजा मिलेगी. 3 दिन बाद थाने से खबर आई कि मैडिकल टैस्ट के लिए उसे अस्पताल बुलाया गया है. अस्पताल पहुंचने पर एक डाक्टर ने उस की योनि में 2 उंगली डाल कर पता नहीं कौन सी जांच की. उस के बाद उस ने रिपोर्ट दी कि वह पहले भी कई दफे सैक्स कर चुकी है. इस रिपोर्ट ने उसे बलात्कार से भी ज्यादा भयानक दर्द दिया. गुनाहगार इस बिना पर छूट गए कि वह पहले से ही सैक्स की आदी थी, इसलिए उस के साथ बलात्कार नहीं हुआ है.

बिहार के जहानाबाद जिले की रहने वाली सीमा समेत बलात्कार की शिकार कई ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जो टू फिंगर टैस्ट का दर्द झेल चुकी हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में आएदिन बलात्कार की घटनाएं घट रही हैं. बलात्कार की पुष्टि के लिए विवादित टू फिंगर टैस्ट यानी टीएफटी की पद्धति अपनाई जाती रही है, जिस को ले कर लंबे समय से सवाल उठाए जाते रहे हैं. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को ऐसे टैस्ट पर पाबंदी लगाने का निर्देश दिया. लेकिन न तो पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार ने इसे गंभीरता से लिया न ही मौजूदा मोदी सरकार ने. दिसंबर 2012 को राजधानी दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद खड़े हुए जनांदोलन के मद्देनजर गठित किए गए वर्मा कमीशन ने टू फिंगर टैस्ट को खत्म करने की सिफारिश की थी. इसी आधार पर 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केंद्र में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने ऐसे टैस्ट किए जाने पर पाबंदी लगाए जाने की घोषणा की थी.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश पर स्वास्थ्य मंत्रालय अभी गंभीर नहीं है. इस का पता तब चला जब सूचना का अधिकार के तहत एक आवेदनकर्ता ने स्वास्थ्य मंत्रालय को पत्र लिख कर जानना चाहा था कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी टू फिंगर टैस्ट बंद करने के निर्देश के कार्यान्वयन के लिए सरकार द्वारा क्याक्या कदम उठाए गए हैं. जवाब में मंत्रालय ने कहा कि मैडिकल अधिकारियों को जागरुकता के मद्देनजर प्रशिक्षण दिया जा रहा है. बलात्कार की पुष्टि के लिए टू फिंगर टैस्ट पर पाबंदी के लिए मंत्रालय की ओर से कोई दिशानिर्देश जारी नहीं किए गए हैं. उधर, महिला संगठनों का मानना है कि इस के मद्देनजर कहीं कोई प्रशिक्षण का कार्यक्रम भी नहीं चल रहा है.

दिसंबर 2012 में निर्भया कांड के बाद महिला सुरक्षा और बलात्कार संबंधी कानून में बदलाव किए जाने के लिए देशभर में बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ था. बलात्कार की पुष्टि के लिए किए जाने वाले टू फिंगर टैस्ट का पहले से ही विरोध होता रहा है लेकिन निर्भया कांड पर हुए आंदोलन के दौरान इसे बंद किए जाने की मांग तेज हुई थी. बलात्कार की शिकार महिला के लिए इस तरह की जांच को मैडिकल बलात्कार कहते हुए इस के वैज्ञानिक आधार पर भी सवाल उठाए गए थे. इसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पाबंदी लगाए जाने का निर्देश दिया था. इस दौरान केंद्र में सरकार बदली. नई सरकार को भी सत्ता संभाले 10 महीने हो गए, लेकिन इस संबंध में कोई भी कदम नहीं उठाया गया है. अवैज्ञानिक व अमानवीय कहलाने वाली टू फिंगर टैस्ट यानी टीएफटी पर पाबंदी की मांग करते हुए पश्चिम बंगाल महिला आयोग की चेयरपर्सन सुनंदा मुखर्जी कहती हैं कि विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ हमें अमानवीय और अवैज्ञानिक तरीके को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना जरूरी है. बलात्कार की शिकार का बारबार, हर कदम पर बलात्कार होता है. पहले पुलिस जांचपड़ताल के समय, फिर मैडिकल जांच के दौरान और आगे अदालत में मामला चलने तक. इस तरह की जांच पर पाबंदी लगनी चाहिए. तभी कम से कम ‘मैडिकल रेप’ से पीडि़ता को राहत मिल पाएगी.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद महाराष्ट्र ने इसे बंद कर दिया था. अन्य राज्यों की स्थिति में अभी भी सुधार लाया जाना है. बलात्कार के मामले में मैडिकल जांच के बारे में पीडि़ता और उस के परिजनों में भी किसी तरह की जागरुकता नहीं होती. उन्हें पता ही नहीं होता कि जांच के लिए उन्हें किस तरह के दौर से गुजरना होगा.

मौजूदा दिशानिर्देश

बलात्कार मामले की जांच के संबंध में केंद्र सरकार ने जो दिशानिर्देश जारी किया है वह सामान्य है. उस में टू फिंगर टैस्ट से संबंधित कोई बात नहीं कही गई है. दिशानिर्देश को डिपार्टमैंट औफ हैल्थ रिसर्च और इंडियन काउंसिल औफ मैडिकल रिसर्च ने संयुक्त रूप से तैयार किया है. दरअसल, निर्भया कांड से पहले 2011 में डा. वी एम कोटोच की अगुआई में यूपीए-2 सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था. बाद में फोरैंसिक विशेषज्ञ इंद्रजीत खंदक ने इस समिति का दायित्व ग्रहण किया और दिशानिर्देश तैयार किया, जिसे तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने 16 दिसंबर, 2013 को विभिन्न स्वास्थ्य केंद्रों व अस्पतालों में भेजा. आइए, देखते हैं क्या है मौजूदा दिशानिर्देश?

हरेक अस्पताल में पीडि़ता की जांच के लिए एक अलग कमरा हो, जहां जांच के लिए तमाम जरूरी सामान हों.

मैडिकल जांच के समय डाक्टर के अलावा अन्य कोई, जिस का जांच से कोई लेनादेना नहीं है, उपस्थित न हो.

अगर जांचकर्ता डाक्टर पुरुष है तो उस के साथ महिला डाक्टर या नर्स का होना जरूरी है.

पीडि़ता की मानसिक स्थिति के मद्देनजर जरूरत पड़े तो काउंसलिंग का भी इंतजाम किया जाए.

बलात्कार कानूनी शब्द है, इसलिए जांच नतीजे में ‘बलात्कार’ शब्द का इस्तेमाल न किया जाए.

इकट्ठा किए गए नमूनों को फौरैंसिक लैब में भेजे जाने से पहले उन की सूची और इकट्ठा किए जाने के कारण को दर्शाना जरूरी हो.

एफआईआर दर्ज हो या न हो, अस्पताल पीडि़ता की चिकित्सा शुरू करने को बाध्य है.

पीडि़ता की मैडिकल जांच के लिए उस की सहमति जरूरी हो.

टू फिंगर टैस्ट की प्रक्रिया

महिला रोग स्पैशलिस्ट डा. शांति राय बताती हैं कि दरअसल कौमार्य परीक्षण के लिए टू फिंगर टैस्ट का उपयोग किया जाता है. इस टैस्ट में डाक्टर महिला की योनि में 2 उंगली डाल कर उस की ढिलाई या कौमार्य झिल्ली के दुरुस्त या टूटने के बारे में अपनी रिपोर्ट देते हैं. किसी महिला के बलात्कार होने पर मामले की जांच कर रहे अफसर टू फिंगर टैस्ट करवा कर यह पता करने की कोशिश करते हैं कि लड़की कहीं पहले से ही सैक्स करने की आदी तो नहीं है. बलात्कार के केस में फंसने वाला कानून के सामने यही दलील देता है कि उस ने पीडि़ता के साथ कोई जोरजबरदस्ती नहीं की है, बल्कि लड़की की मरजी से उस के साथ सैक्स किया है. इस से केस को पलटने और पीडि़ता को ही गुनाहगार साबित करने की साजिश रची जाती है. इस टैस्ट में महिला को शारीरिक से ज्यादा मानसिक यातना झेलनी पड़ती है. आज कई लड़के वाले विवाह के पहले लड़की के कौमार्य की रिपोर्ट मांगने लगे हैं.

टीएफटी जांच के बारे में कोलकाता के एसएसकेएम अस्पताल में फौरैंसिक विभाग के प्रमुख विश्वनाथ काहाली का कहना है कि टीएफटी जांच इसलिए भी जायज नहीं है कि 2 व्यक्तियों की उंगलियों का माप कभी एकसमान नहीं हो सकता. जाहिर है इस में शक की गुंजाइश रह ही जाती है. इसीलिए इस पर आधारित रिपोर्ट अदालत में हमेशा मान्य नहीं हो सकती.

नई तकनीक अपनाने का अभाव

कोलकाता की जानीमानी सामाजिक कार्यकर्ता शाश्वती घोष का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर भले ही केंद्र सरकार ने टीएफटी जांच पर पाबंदी लगा दी है पर जांच की नई तकनीक को अपनाने की व्यवस्था हर राज्य में अभी नहीं है. चुनिंदा राज्यों में ही रेप किट का उपयोग हो पा रहा है. इस से भी जरूरी बात यह है कि तमाम अस्पतालों में इस किट को इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण कुछ कर्मचारियों को दिया जाना भी जरूरी है. इसी के साथ किट के बारे में आम लोगों में जागरुकता उत्पन्न करनी भी जरूरी है. अगर लोगों में जागरुकता हो तो बलात्कार के बायोलौजिकल प्रमाण को जल्द से जल्द सुरक्षित किया जा सकता है. इस के लिए पुलिस की तफ्तीश का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. दुनिया के ज्यादातर देशों में पीडि़ता द्वारा इकट्ठा किए गए प्रमाण के आधार पर ही मामला अदालत में जा सकता है लेकिन भारत में, जहां आम लोगों में इस के ऐसे किट के प्रति किसी तरह की जागरुकता ही नहीं है, वहां पुलिस के निर्देश के बगैर किट के जरिए प्रमाण इकट्ठा कर अदालत में पेश करने की फिलहाल कोई गुंजाइश भी नहीं है.

तमाम सकारात्मक पक्षों के बाद भी बलात्कार के प्रमाण जुटाने की पहली शर्त है पुलिस में एफआईआर दर्ज कराना. यहां दिक्कत यह है कि बलात्कार का मामला दर्ज हो या न हो, यह तय करने में पुलिस देर कर देती है जिस से बहुत समय निकल जाता है. देखा यह भी गया है कि मामला दर्ज करने में पीडि़ता व उस के परिजन द्वारा भी कभीकभी अनावश्यक देरी कर दी जाती है. ऐसे में ऐसी किट के उपयोग का महत्त्व और भी बढ़ जाता है.

रेप किट के इस्तेमाल पर जोर

तमाम महिला और स्वयंसेवी संगठन लंबे समय से टीएफटी यानी टू फिंगर टैस्ट के बजाय रेप किट के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं. विदेशों में बलात्कार की पुष्टि के लिए रेप किट का ही इस्तेमाल होता है. रेप किट एक आम कार्डबोर्ड का बौक्स होता है, जिस में इस के इस्तेमाल के तमाम दिशानिर्देश के साथ फौरैंसिक जांच के लिए कुछ जरूरी सामान होते हैं. पहली बार इस तरह की किट का उपयोग 1978 में शिकागो पुलिस ने किया. बताया जाता है कि बलात्कार के प्रमाण को सुरक्षित रखने में यह किट बेजोड़ है. इसे तैयार किया था शिकागो पुलिस के क्राइम विभाग के एक सार्जेंट लुईस आर विटुल्लो न. इसी कारण इस किट का नाम इसी सार्जेंट के नाम पर ‘विटुल्लो किट’ पड़ गया.

आगे चल कर इस किट का नाम ‘सैक्सुअल असौल्ट एविडैंस किट’ रखा गया. संक्षेप में इसे ‘रेप किट’ कहते हैं. इस में सैक्सुअल असौल्ट एविडैंस कलैक्शन किट, सैक्सुअल असौल्ट फौरैंसिक एविडैंस (एसएएफई यानी सेफ) और सैक्सुअल औफैंस एविडैंस कलैक्शन किट (एसओईसी यानी सोएक), फिजिकल एविडैंस रिकवरी किट (पीईआरके यानी पर्क) जैसी किट होती हैं. आमतौर पर पर्याप्त प्रमाण के अभाव में अभियुक्त छूट जाता है. इस का एक कारण यह है कि ज्यादातर मामले में पुलिस को रिपोर्ट करने में देरी हो जाती है. या फिर पुलिस को रिपोर्ट न करने के कारण तमाम प्रमाण नष्ट हो जाते हैं. जाहिर है अभियुक्त का अपराध सुनिश्चित करने और उसे कड़ी सजा दिलाने में इस रेप किट की अहम भूमिका होती है.

कैसे इस्तेमाल हो रेप किट

विश्वजीत बताते हैं कि इस रेप किट में एक विशेष तरह के प्रोब का इस्तेमाल किया जाता है. यह अंगूठी का माप लेने जैसी रिंग होती है, जिसे गुप्तांग में डाल कर पता किया जाता है कि हाईमन यानी योनिच्छेदन हुआ है या नहीं. इस के अलावा

इस किट में इस के इस्तेमाल के दिशानिर्देश के साथ माइक्रोस्कोप स्लाइड, प्लास्टिक के बैग, कंघी, डौक्यूमेंटेशन फौर्म और लैबल होते हैं. इस किट में पीडि़ता के कपड़े, सिर, बाल, खून, रूसी, नाखून के नीचे जमी गंदगी के अलावा जीभ, गाल, जांघ, गुप्तांग, गुदा और नितंब से प्रमाण इकट्ठा करने के लिए जरूरी सामान होते हैं, जिन की मदद से डीएनए के अलावा मास स्पेक्ट्रोमेट्री के माध्यम से कंडोम के लैटेक्स, कपड़ों के फैब्रिक्स की शिनाख्त हो सकती है.

किट का इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षण जरूरी है. प्रशिक्षणप्राप्त नर्स, डाक्टर, स्वास्थ्य सेवा से जुड़े कर्मचारी और फौरैंसिक विशेषज्ञ कोई भी रेप किट का इस्तेमाल कर सकते हैं. नियमानुसार, फोटोग्राफी से ले कर हर तरह की जांचें की जाती हैं और इन्हें लिपिबद्ध किया जाता है. ये सब कुछ रेप किट में ही संरक्षित किया जाता है. रेप किट में इस के इस्तेमाल का प्राथमिक दिशानिर्देश भी होता है. दिशानिर्देश में यह भी बता दिया जाता है कि तमाम साक्ष्यों को किट में किस तरह और कितने दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है. यहां तक कि यह भी कि पीडि़ता किसी जांच विशेष के लिए मना भी कर सकती है. पर हां, ऐसी सूरत में जांचकर्ता का दायित्व है कि वह इसे लिपिबद्ध जरूर कर ले.

दरअसल, टू फिंगर टैस्ट के जरिए यह पता चल ही नहीं सकता है कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ है. बलात्कार के बाद पीडि़ता की योनि के कसाव या ढीलेपन से यह पता नहीं चल सकता है कि उस के साथ जबरदस्ती हुई है. लंबे समय तक सैक्स करने वाली महिलाओं की योनि में ढीलापन आता है, पर एक बार किसी से सैक्स किया जाए तो ढीलेपन का अंदाजा नहीं मिल सकता. कई डाक्टर दबी जबान में कहते हैं कि आखिर 2 उंगली से यह कैसे पता लगाया जा सकता है कि किसी लड़की के साथ बलात्कार हुआ है या नहीं? इस टैस्ट की रिपोर्ट अकसर टैस्ट करने वाले डाक्टर के विवेक पर ही निर्भर करती है. कई बार तो किसी लालच में फंस कर डाक्टर पौजिटिव रिपोर्ट दे देते हैं. जाहिर है कि रिपोर्ट के पौजिटिव होने से आरोपी का बचाव होता है और कानून उस की दलील को मानने के लिए मजबूर हो जाता है कि पीडि़ता पहले से सैक्स की आदी रही है.

कदमकदम पर बलात्कार

बलात्कार मानवता विरोधी अपराध है. यह भी एक निर्मम सचाई है कि बलात्कार की शिकार महिला अगर इंसाफ मांगने के लिए कदम उठाती है तो उसे कदमकदम पर मौखिक बलात्कार का सामना करना पड़ता है. इस की शुरुआत पहले तो पुलिस के ‘बेपरदा’ सवालों की झड़ी से होती है और फिर बलात्कार की पुष्टि के लिए जांच. पीडि़ता को भयावह परिस्थिति से गुजरना पड़ता है. हर नजर आंखों से बलात्कार करती है, पुलिस स्टेशन से ले कर अस्पताल तक. अस्पताल में डाक्टर से ले कर नर्स तक तो फिर भी ठीक है, लेकिन पाया जाता है कि वार्ड बौय से ले कर चौथी श्रेणी के कर्मचारियों तक के कुतूहल का केंद्र बन जाती है पीडि़त महिला. उस के बाद बलात्कार की शिकार पीडि़ता को अकसर ऐसी जांच से गुजरना पड़ता है जो किसी को भी अपमानित कर सकती है.

एक समय था जब समाज के विभिन्न स्तरों में किसी लड़की के कौमार्य का प्रमाण उस की कौमार्य झिल्ली (हाइमन) का अटूट होना माना जाता था. इसी आधार पर बहुत समय पहले यह मान्यता बन गई थी कि कोई लड़की शारीरिक व यौन संबंध बनाने की आदी है या नहीं, हाइमन की जांच से पता चल जाता है. हाइमन की अक्षत अवस्था का पता 2 उंगलियों को योनि मार्ग में डाल कर जांच की जाती थी. गौरतलब है कि हाइमन को एक घड़ी के फ्रेम की तरह लिया जाता है. अगर घड़ी में 3 या 10 बजने जैसी स्थिति में हाइमन की टूट मिले तो मान लिया जाता था कि जबरन या असहमति से शारीरिक संबंध नहीं बने, यानी बलात्कार नहीं हुआ. लेकिन अगर हाइमन 5 या 8 की स्थिति में पाई जाए तो बलात्कार की पुष्टि कर दी जाती है.

डाक्टरों ने हालांकि बाद में माना कि इस तरह की जांच का कोई माने नहीं है क्योंकि हाइमन यानी कौमार्य झिल्ली केवल शारीरिक संबंध बनने से नहीं टूटती. यह साइकिल चलाने, तैरने, जिम करने, पेड़ों पर चढ़ने, खेलकूद के दौरान, शारीरिक मेहनत करने जैसे अन्य कई कारणों से भी टूट सकती है. इन मामलों का मैडिकल प्रमाण नहीं मिल पाता है. वहीं, विवाहित महिला के बलात्कार के मामले में इस तरह की जांच का कोई माने नहीं रह जाता है. विवाहित महिला की बलात्कार की पुष्टि में टू फिंगर टैस्ट कारगर ही नहीं. ऐसे मामलों में अकसर मैडिकल एविडैंस के तौर पर ‘हाइमन ओल्ड रेप्चर’ या ‘हैबिच्यूएटेड टू सैक्स’ जैसे जुमलों का अदालत में इस्तेमाल होता है. बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. ये जुमले अदालतकक्ष में महिला के यौन जीवन के इतिहास को उजागर करते हैं. वहां उपस्थित पुरुष समाज मान लेता है कि महिला यौन संबंध बनाने की आदी है. ऐसे में पुरुष समाज के मध्य उस महिला ‘सतीत्व’ पर सवालिया निशान लग जाता है. इतना ही नहीं, शारीरिक संबंध में उस की असहमति की बात पर तरहतरह के सवाल उठाने का मौका मिल जाता है.

कोल्पोस्कोपी टैस्ट भी है तरीका

बलात्कार से संबंधित तमाम नकारात्मक पहलुओं के बीच एक उम्मीद की किरण नजर आ रही है. टू फिंगर टैस्ट के बजाय नएनए तरीके ढूंढ़े जा रहे हैं, ताकि कम से कम निरादर और अपमान झेलने के बाद सटीक तौर पर बलात्कार की पुष्टि हो. ऐसे ही तरीकों में से एक है कोल्पोस्कोपी टैस्ट. कई राज्यों ने इसे अपनाने की दिशा में हामी भरी है. बुनियादी तौर पर इस तकनीक का उपयोग गर्भाशय के कैंसर की जांच के लिए होता रहा है. इस तरह की जांच में एक विशेष तरह के उपकरण का इस्तेमाल होता है. सब से बड़ी बात यह कि इस में माइक्रोस्कोप की भी मदद ली जाती है. इस में मैन्युअल तौर पर कुछ नहीं करना पड़ता, सिवा उपकरण को लगाने के. बलात्कार के दौरान संघर्ष आम है. इस तरह की जांच में संघर्ष के दौरान अंदरूनी अंगों में उभरी चोट को माइक्रोस्कोप की मदद से चिह्नित किया जाता है और फिर उसे सुबूत बना कर अदालत में पेश किया जा सकता है.

और भी हैं तरीके

बलात्कार के दौरान आमतौर पर अभियुक्त पीडि़ता के शारीरिक संस्पर्श में आता ही है. और यह संस्पर्श अपने पीछे कई तरह के प्रमाण छोड़ जाता है. बलात्कार के बाद केवल वीर्य का नमूना ही नहीं, बल्कि और भी कई तरह के बायोलौजिकल मैटेरियल, मसलन- त्वचा की कोशिका, लार, नाखून, बाल, खून, घटना के आसपास मौजूद सामान अपराधी की शिनाख्त कर सकते हैं. बलात्कारी पीडि़ता के शरीर पर अपनी मौजूदगी छोड़ ही जाते हैं. यही कारण है कि बलात्कार की घटना के बाद नहाने, टौयलेट जाने, कपड़े बदलने, बालों में कंघी करने से बहुमूल्य प्रमाण नष्ट हो जाते हैं. इसी के साथ एक दिक्कत यह भी है कि हमारे यहां बलात्कार की एफआईआर दर्ज करने में पुलिस की कोताही या उस के आनाकानी करने से ज्यादातर मामलों में देर हो जाती है. अगर एफआईआर दर्ज हो भी जाए तो मैडिकल जांच में 2-3 दिन की देरी आम है. जबकि यौन उत्पीड़न का किसी तरह का मामला हो, साक्ष्य तुरंत इकट्ठा किए जाने जरूरी हैं. देरी के कारण आमतौर पर बलात्कार के प्रमाण ही नष्ट हो जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि प्रमाण के अभाव में 90 प्रतिशत मामले में अभियुक्त छूट जाता है.

दिल्ली के विभिन्न अस्पतालों में कुछ समय पहले रेप किट पहुंचाने की कोशिश भी की गई है. पर जहां तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को मान कर केंद्र सरकार द्वारा देश के तमाम अस्पतालों में दिशानिर्देश जारी करने का सवाल है तो 10 महीने के बाद भी केंद्र की भाजपा सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही है.

– कोलकाता से साधना शाह, लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति, दिल्ली से ललिता गोयल, राजेश कुमार.

जमीन की जंग

सारा देश सरकारी जमीन पर कब्जे से परेशान है. रेल, सेना, नगरनिकायों, राज्य सरकारों, केंद्र सरकार, सरकारी उद्योगों आदि की जमीनों पर अवैध कब्जे  हैं और ज्यादातर जगहों में कब्जा करने वालों ने बिजली, पानी, सड़क, सीवर तक की सुविधाएं जुटा ली हैं. इस का रोना रोने वाले सरकारी अफसर, इसी के साथ अपनी जमीन पर किए गए अवैध निर्माणों की बात जोड़ देते हैं ताकि उन की नाकामयाबी को छिपाया जा सके.

इस कब्जे के पीछे असल वजह भूमि अधिग्रहण कानून है जिस के अंतर्गत पिछले 110 सालों के दौरान सरकार ने गरीब किसानों से भूमि छीन कर अपने हाथों में ले तो ली पर संभाल न पाई. अब यदि लंबे समय तक जमीन खाली पड़ी रहे तो जरूरत होने पर उस जमीन पर कब्जा तो होगा ही. जनसंख्या बढ़ने से जमीन पर मकान, दुकान, उद्योग बनाने की जो जरूरत हुई, सरकारें उसे पूरा नहीं कर पाईं. जमीन का सरकार का हथियाना जारी रहा जो 2013 के बाद तब बंद हुआ जब सोनिया गांधी के प्रयासों से यूपीए सरकार द्वारा कानून में संशोधन किया गया.

सरकारी जमीन के बारे में एक आकलन है कि दिल्ली में इतनी सरकारी जमीन पर कब्जा है कि एक पूरा शहर बस सके. परेशानी यह है कि वहां दशकों से बसे लोगों को हटाया कैसे जाए? वे इतने गरीब हैं कि कहीं जमीन खरीद नहीं सकते, साथ ही वे इतने कमजोर भी नहीं कि कब्जा छुड़वाने आई सरकारी मशीन को रोक न सकें.

असल में सरकार के पास केवल जंगलों, पहाड़ों, बागों के लिए जमीन होनी चाहिए. सरकार को बाकी खाली जमीन वापस कर देनी चाहिए. अगर पुराने मालिक न मिल रहे हों तो उसे उस जमीन पर कब्जा करने वालों को दोगुने दामों में बेच देनी चाहिए. कागजों पर अपनी मिल्कीयत दिखाने से क्या लाभ जब उस पर न मकान बना सको, न किराया वसूल सको. फाइलों में जमीन रखने की जगह सरकार उसे लोगों के हाथों में दे दे, चाहे कुछ मंदिरों, मसजिदों को जाए, कुछ नेताओं के पास, कुछ गुंडों के पास और बाकी वाकई गरीबों के पास.

 

चंचल छाया

दम लगा के हईशा

शादी में जहां 2 दिल मिलते हैं वहां 2 दिमागों का मिलन भी जरूरी होता है. पति और पत्नी यदि दिमागी स्तर पर एकदूसरे के अनुकूल हों तो सबकुछ बढि़या हो जाता है. जीवन की गाड़ी सरपट दौड़ने लगती है. और अगर शादी बेमेल हो, लड़के और लड़की की शिक्षा के स्तर में अंतर हो, दोनों की शारीरिक रचना बेमेल हो या शादी बिना मरजी से की गई हो तो पति और पत्नी दोनों को कुंठा घेर लेती है. इस का खमियाजा पत्नी को ज्यादा भुगतना पड़ता है. दोनों के परिवार वालों पर जो बीतती है उसे तो वही जानते हैं. यह फिल्म उन मातापिताओं पर भी कटाक्ष करती है जो अपने बेटेबेटी की शादी लालचवश बेमेल कराते हैं, साथ ही यह भी बताती है कि पतिपत्नी के रिश्ते में प्यार का होना जरूरी है. यह फिल्म पतिपत्नी को इस बात का एहसास भी कराती है कि शादी का मतलब साथ सोना ही नहीं, एकदूसरे का सम्मान करना भी होता है.

इस फिल्म की खूबी इस की कहानी है, जिसे इस के निम्न मध्यवर्गीय किरदारों ने जीवंत कर दिया है. कहानी हरिद्वार में बसे 2 परिवारों की है. प्रेम प्रकाश तिवारी उर्फ लप्पू (आयुष्मान खुराना) अपने पिता की औडियो कैसेट की दुकान में पिता का हाथ बंटाता है. वह गायक कुमार सानू का फैन है. उस का किसी काम में मन नहीं लगता. सुबह वह गंगा किनारे लगने वाली शाखा में योगा करने जाता है. पढ़ालिखा वह है नहीं, 3-3 बार अंगरेजी की परीक्षा में फेल हो चुका है. उस के घर वाले उस के लिए लड़की देखने जाते हैं. जब वह भारी डीलडौल वाली लड़की संध्या (भूमि पेंढणेकर) को देखता है तो उसे जोर का झटका लगता है. संध्या बीएड तक पढ़ीलिखी है. पूछने पर प्रेम की बूआ प्रेम को भी पढ़ालिखा बताती है. प्रेम के लाख मना करने के बावजूद उस के पिता उस की शादी संध्या से करा देते हैं. शादी के बाद प्रेम संध्या के सामने खुद को असहज पाता है. संध्या उसे रिझाने की कोशिश करती है तो वह खीज उठता है. वह संध्या से सैक्स भी नहीं कर पाता. एक दिन एक दोस्त की शादी की पार्टी में शराब पी कर वह अपने दोस्तों के सामने संध्या को मोटी सांड कहता है तो संध्या उसे थप्पड़ मारती है और अपने मायके लौट जाती है. वह अपने मांबाप के मना करने के बावजूद तलाक का मुकदमा दर्ज कराती है. अदालत दोनों को 6 महीने साथ रहने के बाद फिर पेश होने के लिए कहती है.

अब संध्या ससुराल लौट कर वैवाहिक जीवन में तालमेल बैठाने की कोशिश करती है. वह टीचर की नौकरी के लिए सेलैक्ट हो जाती है. इसी दौरान शहर में दम लगा के हईशा प्रतियोगिता का आयोजन होता है. इस प्रतियोगिता में प्रतियोगी पतिपत्नियों को हिस्सा लेना है. प्रेम और संध्या भी इस प्रतियोगिता में भाग लेते हैं. पति को पत्नी को पीठ पर उठा कर बाधा दौड़ पूरी करनी है. प्रेम अपनी भारीभरकम बीवी को पीठ पर उठा कर दौड़ता है और प्रतियोगिता जीत जाता है. इसी जीत के साथ प्रेम और संध्या का रिश्ता मजबूत बन जाता है. फिल्म की इस कहानी में दिखाया गया कि टूटते हुए रिश्तों में अगर दम लगाया जाए तो वे रिश्ते फिर से जुड़ जाते हैं. निर्देशक ने खुद की लिखी कहानी को बहुत सूक्ष्मता से फिल्माया है. उस ने छोटी से छोटी बात को भी नजरअंदाज नहीं किया है. अब तक फिल्मों में हम हरिद्वार शहर में गंगा नदी और उस के आसपास के इलाकों को ही देखते आए हैं.इस फिल्म में निर्देशक ने हरिद्वार की तंग गलियां, वहां रहने वाले लोग, छोटीछोटी दुकानों में काम करते लोग, उन के सोनेउठने, खानेपीने के तौरतरीकों को विस्तार से दिखाया है. घर की छत पर अंगीठी पर चाय बनाना और पूरे परिवार का मिलबैठ कर पीना देख अच्छा लगता है. निर्देशक ने फिल्म की कहानी को 80-90 के दशक जैसा फिल्माया है, जहां हरिद्वार जैसे शहर में युवक अपने पिता की मरजी का पालन करते हैं. पिता शादीशुदा बेटे पर चप्पल से पीटने की कोशिश करता है. दूसरी ओर प्रेम का एक दोस्त अपने पिता के कहने पर दुकान पर ब्रापैंटीज बेचता है और महिलाओं से कहता है, ‘बहनजी, यह लीजिए 36 बी…’ निर्देशक ने जो कुछ अपनी इस फिल्म में दिखाया है उस सब में कहीं कोई मिलावट या नकलीपन नहीं है.

भले ही यह फिल्म आज के दौर की न हो लेकिन है बड़ी प्यारी सी. आयुष्मान खुराना ने एक बार फिर से जता दिया है कि वह एक अच्छा ऐक्टर है. संध्या के किरदार में भूमि पेंढणेकर एकदम फिट है. संजय मिश्रा का काम भी लाजवाब है. निर्देशक ने सभी किरदारों की देहभाषा, पहनावे और उन की बोलचाल में सावधानी बरती है. फिल्म का क्लाइमैक्स जोरदार है. अपने रिश्ते को अपनी पीठ पर लादे दौड़ते हुए पतिपत्नी को देख कर सुखद एहसास होता है. फिल्म के अंत में नायक और नायिका का डांस गीत खूबसूरत बन पड़ा है. अनु मलिक ने बढि़या संगीत दिया है. संवाद भी बढि़या है. फिल्म परिवार के साथ मिल कर देखने योग्य है. फिल्म देख कर लगा, लो गुजरा जमाना फिर याद आया.

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डर्टी पौलिटिक्स

पौलिटिक्स तो हमेशा से ही डर्टी रही है. बरसों से फिल्म निर्मातानिर्देशक अपनी फिल्मों में डर्टी पौलिटिक्स को दिखाते आए हैं. डर्टी पौलिटिक्स में जहां बड़ेबड़े स्कैम दिखाए जाते हैं, रिश्वतखोरी, घूसखोरी दिखाई जाती हैं, वहीं सैक्स स्कैंडल तक दिखाए जाते हैं. राजस्थान की भंवरीदेवी और राजनेता महिपाल मदेरणा की सैक्स टेप की कंट्रोवर्सी अब भले ही लोग भूल चुके हों, मगर निर्देशक के सी बोकाडि़या ने करीब 12 साल बाद लौट कर इस गड़े मुरदे को जिंदा करने की कोशिश की है. फिल्म की कहानी सत्ता में बैठे राजनीतिबाजों की सैक्स लोलुपता के साथसाथ उन के गले तक भ्रष्टाचार में लिप्त होने की है. कहानी के केंद्र में हैं जनसेवक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दीनानाथ (ओमपुरी) और एक डांसर अनोखी देवी (मल्लिका शेरावत). 60 साल की उम्र का दीनानाथ अनोखी देवी पर फिदा हो जाता है. वह अपने दोस्त दयाल (आशुतोष राणा) की मदद से अनोखी देवी को प्रलोभन दे कर उस के साथ सैक्स करता है. अनोखी को भी लगता है कि दीनानाथ के साथ रहने में ही उस का भला है. दीनानाथ अनोखी को विधानसभा का टिकट देने का वादा कर मुकर जाता है तो अनोखी के सब्र का बांध टूट जाता है. वह दीनानाथ के साथ खुद सैक्स करते हुए सीडी बनाती है और उसे ब्लैकमेल करती है. अचानक एक दिन अनोखी देवी लापता हो जाती है. एक सोशलवर्कर मनोहर सिंह (नसीरुद्दीन शाह) अनोखी के लापता होने की जांच सीबीआई से कराने की मांग करता है. सीबीआई अफसर मिश्रा (अनुपम खेर) की जांच में साबित होता है कि एक गुंडे मुख्तार (जैकी श्रौफ) ने अनोखी की हत्या की थी और हत्या कराने वाले दीनानाथ और दयाल हैं. चूंकि मुख्तयार मारा जा चुका है, अदालत दीनानाथ और दयाल को जमानत दे देती है लेकिन मनोहर सिंह उन दोनों को मार डालता है और अदालत में समर्पण कर देता है. कहान बासी है. निर्देशन ठीकठाक है. फिल्म में घटनाएं व पात्र इतने ज्यादा हैं कि बोझिलता होने लगती है. ओमपुरी का काम काफी अच्छा है. नसीरुद्दीन शाह बुझाबुझा सा लगा. मल्लिका शेरावत ने काफी बोल्ड सीन दिए हैं. फिल्म की भाषा भी कहींकहीं आपत्तिजनक है.

फिल्म का गीतसंगीत पक्ष साधारण है. सिर्फ एक गीत ‘घाघरा…’ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म का छायांकन अच्छा है. राजस्थान शहर की छटा अच्छी बन पड़ी है.

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अब तक छप्पन-2

यह फिल्म 2004 में आई ‘अब तक छप्पन’ की सीक्वल है. दोनों फिल्मों में कोई खास फर्क नहीं है. निर्देशक एजाज गुलाब ने उसी ढर्रे पर फिल्म को बनाया है. नाना पाटेकर का अभिनय. जिस तरह उस ने पिछले पार्ट में शानदार ऐक्ंिटग की थी, इस फिल्म में भी उस ने दमदार ऐंट्री दर्ज कराई है. फिल्म एक कौप द्वारा अंडरवर्ल्ड के लोगों के एक के बाद एक एनकाउंटर करने पर है. पिछली फिल्म में नाना पाटेकर ने 56 एनकाउंटर किए थे. इस फिल्म में उस ने गिनती को 56 से आगे बढ़ाया है.

कहानी अंडरवर्ल्ड के एक डौन रावले से शुरू होती है जो बैंकौक से अपने बौस रऊफ लाला (राज जुत्शी) के इशारे पर आपराधिक गतिविधियां कर रहा है. स्टेट होम मिनिस्टर जनार्दन जागीरदार (विक्रम गोखले) और मुख्यमंत्री अन्ना साहेब अपराधों को रोकने के लिए एनकाउंटर स्पैशलिस्ट साधु अगाशे (नाना पाटेकर) को वापस बुलवाते हैं. साधु अगाशे गांव में अपने बेटे के साथ रहता है. वह अपने विभाग द्वारा की गई ज्यादतियों से नाखुश है. इसीलिए वह दोबारा पुलिस फोर्स जौइन करने से इनकार कर देता है. लेकिन जब उस का बेटा उस से अपराधियों को खत्म करने के लिए पुलिस फोर्स जौइन करने का आगह करता है तो वह मान जाता है और एकएक कर अपराधियों का सफाया करने में लग जाता है. लेकिन जब उसे पता चलता है कि होम मिनिस्टर ने उसे मोहरा बनाया है और उसी ने गांधीवादी मुख्यमंत्री की हत्या जैन राउले की मार्फत कराई है तो वह उसे मार डालता है और फिर से जेल भेज दिया जाता है.

फिल्म की इस कहानी की शुरुआत काफी धीमी है. मध्यांतर के बाद भी निर्देशक फिल्म को संभाल नहीं पाया है. फिल्म में सिर्फ नाना पाटेकर द्वारा किए गए एनकाउंटर के सीन ही अच्छे बन पड़े हैं. इन दृश्यों को देख कर लगता है जैसे ये तो पहले से देखेभाले हैं. फिल्म में राजनितिबाजों और अंडरवर्ल्ड की सांठगांठ को दर्शाया गया है. इसे साबित करने के लिए खुद गृहमंत्री से कहलवाया गया है कि सिस्टम को कंट्रोल में रखने के लिए पौलिटीशियंस को अंडरवर्ल्ड और पुलिस दोनों की जरूरत पड़ती है. जो काम पुलिस नहीं कर पाती उसे अंडरवर्ल्ड से कराना पड़ता है. फिल्म के सिर्फ संवाद अच्छे हैं. नाना पाटेकर को छोड़ कर कोई भी कलाकार बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करता. उस ने कई ऐक्शन सीन भी किए हैं.

अंडरवर्ल्ड पर फिल्म बनाने से पहले निर्देशक को अच्छीखासी रिसर्च कर लेनी चाहिए थी कि आजकल अंडरवर्ल्ड में अपराध करने के तरीकों में क्याक्या बदलाव आए हैं.

खेल खिलाड़ी

औल द बैस्ट टीम इंडिया

विश्वकप शुरू होने से पहले कयास लगाए जा रहे थे कि टीम इंडिया क्वार्टर फाइनल तक पहुंच जाए तो बड़ी बात होगी पर आस्ट्रेलिया दौरे में टैस्ट सीरीज से ले कर ट्राई सीरीज में हुई जगहंसाई की भरपाई उस ने विश्वकप में पाकिस्तान से जीत के साथ कर ली. इस जीत ने टीम इंडिया का मनोबल बढ़ाने का काम किया. फिर टीम इंडिया की आंधी के सामने वेस्टइंडीज और दक्षिण अफ्रीका जैसी टीमें भी धराशायी हो गईं. लीग मैच में टीम इंडिया ने शानदार प्रदर्शन किया और एक भी मैच नहीं गंवाया. बल्लेबाजों ने जहां रनों की बरसात की वहीं गेंदबाजों ने भी किफायती गेंदबाजी और विकेट चटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कैप्टन कूल महेंद्र सिंह धौनी का एक्सपैरिमैंट भी सफल रहा. अंतिम लीग मैच में धौनी ने जिंबाब्वे के खिलाफ विनिंग सिक्सर मार कर टीम को जीत दिला दी. इतना तो तय है कि दबाव से निबटने की क्षमता धौनी में है. खुद पर भरोसा बहुत ही कम खिलाडि़यों में देखने को मिलता है. आप को याद होगा वर्ष 2011 विश्वकप में धौनी ने ही विनिंग सिक्सर के साथ टीम इंडिया को विश्व चैंपियन बनाया था.

शायद इसीलिए कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है. टीम इंडिया जब विदेश दौरे पर आस्ट्रेलिया गई थी तो लगातार असफलताओं के चलते उसे आलोचना झेलनी पड़ी थी पर अब उसी टीम इंडिया की वाहवाही हो रही है क्योंकि वह पूरे जोश के साथ खेल रही है. वैसे भी टीम इंडिया वर्ल्ड चैंपियन है. इस का फायदा टीम के खिलाडि़यों में भरोसा पैदा करता है. खिलाडि़यों का आत्मविश्वास बढ़ता है. हालांकि लगातार मिल रही सफलता टीम इंडिया में ओवरकौन्फिडैंस न पैदा करे तो अच्छा है. अकसर देखा गया है कि  लगातार मैच जीतने वाली टीमें अति उत्साह में आ कर क्वार्टर फाइनल और फाइनल जैसे मुकाबलों में लचर प्रदर्शन के चलते नाकाम हो जाती हैं. इसीलिए जरूरी है कि टीम इंडिया न सिर्फ संयम बना कर रखे बल्कि खेल को ले कर सकारात्मक ऊर्जा फाइनल के लिए बचा कर रखे. लग रहा है कि अब टीम इंडिया को रोकना मुश्किल है.

हालांकि टीम इंडिया चैंपियन बनेगी कि नहीं यह तो फाइनल मैच में ही पता चलेगा पर इतना साफ है कि भारतीय टीम बढि़या खेल रही है और उस के पीछे विश्वकप से पहले टीम को कुछ समय के लिए मिला आराम उसे तरोताजा करने के लिए कारगर रहा. हमारी टीम लगातार दूसरी बार विश्वचैंपियन बने. औल द बैस्ट टीम इंडिया.

बैडमिंटन का नया सितारा

चाइना ओपन सुपर सीरीज प्रीमियर 2014 के फाइनल में 5 बार के विश्व और 2 बार के ओलिंपिक चैंपियन चीन के लिन डैन को हरा कर सुर्खियां बटोरने वाले आंध्र प्रदेश के 22 वर्षीय शीर्ष युवा बैडमिंटन खिलाड़ी किदांबी श्रीकांत ने स्विस ओपन गां प्रि गोल्ड बैडमिंटन टूर्नामैंट का खिताब जीत लिया. उन्होंने डेनमार्क के दूसरे वरीयताप्राप्त विक्टर एक्सेल्सन को मात दे कर यह खिताब जीता. जीत के बाद श्रीकांत ने कहा कि पिछले मैच में उन्हें जिस हार का सामना करना पड़ा था उसे उन्होंने सकारात्मक रूप में लिया और फाइनल मैच में वे दबाव मुक्त हो कर खेले और अपना सर्वश्रेष्ठ खेल दिखाया. इस से पहले भी श्रीकांत ने वर्ष 2012 में जूनियर विश्व बैडमिंटन, वर्ष 2013 में थाइलैंड ग्रां प्रि गोल्ड ओपन, वर्ष 2014 में चाइना ओपन का खिताब अपने नाम किया है. सकारात्मक सोच ही खिलाडि़यों में ऊर्जा का संचार करती है. जीत के लिए मन में उत्साह की भावना होना जरूरी है. एक हार भी कभीकभी खिलाड़ी को अपने लक्ष्य की ओर प्रेरित करती है. श्रीकांत ने यही बात सिद्ध कर के दिखाई.

ऐसा भी होता है

ग्वालियर में हर वर्ष व्यापार मेला लगता है. देश के विभिन्न भागों से लोग आ कर दुकानें लगाते हैं. मेले में सभी तरह की चीजें मिलती हैं. मैं अपनी बेटी और सहेलियों के साथ मेले में गई. सामान खरीदतेखरीदते हम लोग कश्मीरियों की दुकान पर पहुंचे और सूटशाल वगैरह देखने लगे. मैं ने अचानक दुकानदार से पूछा, ‘‘भाई, कश्मीर में बाढ़ आने के बाद अब कैसे हालात हैं?’’ यह सुनते ही वह भौचक्का हो कर मुझे देखने लगा. मैं ने उस से कहा, ‘‘भाई, तुम कश्मीर के नहीं हो?’’

उस ने कहा, ‘‘कश्मीर का ही हूं.’’

मैं ने कहा, ‘‘आप इतना सोच कर जवाब क्यों दे रहे हो?’’

वह बोला, ‘‘मेले में बहुत से लोग आए, सामान खरीदा और चले गए लेकिन किसी ने वहां के हालचाल नहीं पूछे.’’

मैं अवाक् उस को देखते हुए बस इतना ही कह पाई कि भाई, तुम और हम अलगअलग नहीं हैं.

– अर्चना राठी, ग्वालियर (म.प्र.)

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मेरी बड़ी बहन मेरे जीजाजी के साथ सुबहसुबह घूमने निकलीं. जीजाजी दुबलेपतले जबकि दीदी मोटी हैं. दोनों थोड़ी दूर ही गए थे कि एक लड़का तेजी से दौड़ता हुआ दीदी के पीछे से आया और उस ने उन के गले में पड़ी सोने की चेन खींच ली. दीदी जोर से चिल्लाईं और लड़के को धक्का भी दिया. जीजाजी ने पलट कर देखा तो दीदी चिल्ला रही थीं कि वह लड़का मेरी चेन खींच कर भाग रहा है. जीजाजी और दीदी दोनों उस के पीछे दौड़े. जीजाजी दुबलेपतले थे, वे दीदी के आगे निकल गए. दीदी तब भी चिल्लाए जा रही थीं कि चोर उन की चेन खींच कर भाग रहा है. आसपास के लोग उन की आवाज सुन कर दौड़े और उन्होंने आगेआगे भाग रहे जीजाजी को पकड़ लिया क्योंकि उस समय सड़क पर वही अकेले भागते दिख रहे थे. बेचारे जीजाजी बारबार बोलते रहे, ‘मैं चोर नहीं हूं, मैं चोर नहीं हूं.’ पर उस समय उन की सुनता कौन? दोचार थप्पड़ उन्हें पड़ ही गए जब तक कि दीदी हांफतीदौड़ती वहां न आ गईं. उन्होंने आ कर उन्हें छुड़ाया. चोर तो भाग ही चुका था. रोतेकलपते दोनों घर आए. मजा तो तब आया जब दीदी बाथरूम से लौटीं तो जोरजोर से हंस रही थीं, चेन उन के हाथ में थी जो चोर ने खींची जरूर थी पर शायद दीदी के विरोध के कारण टूट कर कपड़ों में ही रह गई थी. सब लोग खुश हो गए सिवा जीजाजी के. बेचारे बिना बात पिट जो गए थे.

– अनीता सक्सेना, भोपाल (म.प्र.)

महायोग : 12वीं किस्त

अब तक की कथा :

एक ओर ग्रहों की शांति करवाई जा रही थी, विवाहिता पत्नी से मां अपने बेटे की रक्षा करना चाहती थीं, दूसरी ओर नैन्सी गर्भवती थी. दोहरे मापदंडों को तोलतेतोलते दिया थक चुकी थी. धर्म ने दिया के समक्ष बहुत सी बातों का खुलासा किया था और वह स्वयं भी इस चक्रव्यूह से निकलने का मार्ग तलाश रहा था. तभी अचानक धर्म का मोबाइल घनघना उठा. अब आगे…

मोबाइल स्क्रीन पर नंबर देख कर धर्म बोला, ‘ओहो, ईश्वरानंद है,’ कहने के साथ ही उस का मुंह फक पड़ गया, ‘‘जी, कहिए.’’ ‘‘कहिए क्या, अगर खाना, पीना, घूमना हो गया हो तो आ जाओ, धर्म. ऐसे नहीं चलेगा. मेरी बात हो गई है रुचि से. उन्होंने दिया को रात में रुकने की इजाजत दे दी है,’’ आदेशात्मक स्वर में उन्होंने कहा. धर्म दिया को सबकुछ सुनाना चाहता था, इसलिए स्पीकर पहले ही औन कर दिया था.

‘‘जी, अभी वह मन से तैयार नहीं है कीर्तनभजन के लिए. और…’’

‘‘तो करो उसे तैयार. तुम्हारा काम है यह. तुम्हें उस के पीछे लगा रखा है. ले के तो आओ, फिर देखेंगे,’’ उन्होंने फोन बंद कर दिया. दिया रोने लगी.

‘‘देखो दिया, रोने से तो कुछ नहीं होगा. बहुत सोचसमझ कर, पेशेंस रख कर चलना होगा, तभी कोई रास्ता निकल पाएगा. मैं कितनी बार तुम्हें समझा चुका हूं.’’

‘‘तो मैं अपनेआप को उन की गोद में डाल दूं? मेरा अपना कुछ है ही नहीं? कोई अस्तित्व नहीं है मेरा?’’

‘‘नहीं, दिया, तुम्हारा अपना अस्तित्व क्यों नहीं है. पर तुम भी समझती हो इस जाल के बंधन को. निकलेंगे, बिलकुल सहीसलामत निकाल लूंगा मैं तुम्हें यहां से. पर अभी शांति से जैसा मैं कहता हूं वैसा करती चलो. मैं तुम पर आंच नहीं आने दूंगा. मुझ पर भरोसा करो, दिया.’’

‘‘भरोसे की बात नहीं है, धर्म. भरोसा सिर्फ तुम पर ही तो है. पर उन परिस्थितियों का क्या करेंगे जिन में हम घिरे हुए हैं. मुझे तो चारोें ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा है.’’ ‘‘अंधेरे को चीर कर ही प्रकाश की किरण आती है. कोई न कोई किरण तो अपने नाम की भी होगी ही.’’ दिया के पास और कोई रास्ता नहीं था इसलिए उस ने अपनेआप को धर्म के सहारे छोड़ दिया. वह चुपचाप धर्म के साथ गाड़ी में बैठ कर ईश्वरानंद के एक अन्य ठिकाने की ओर चल दी. गाड़ी में बैठने के बाद धर्म ने कईकई बार दिया के हाथ पर हाथ रख कर उसे यह सांत्वना दी कि चिंता न करे, वह उस के साथ है.

वे दोनों किसी बड़े मकान में पहुंच गए थे. यह सुबह वाला स्थान नहीं था. यह स्थान इस दुनिया का था ही नहीं. यहां तो काले, सफेद, गेहुंए सब रंगों के लोग एक अजीब सी आनंद की मुद्रा में रंगे हुए दिखाई दे रहे थे. वे दोनों जा कर बैठे ही थे कि अचानक उन के सामने वाइन सर्व कर दी गई, साथ में भुने हुए काजू और दूसरे ड्राइफ्रूट्स भी.

दोचार मिनट बाद ही एक गोरी सुंदरी आ कर वहां खड़ी हो गई, ‘‘स्वामीजी इज कौलिंग यू बोथ.’’

‘‘ओके, वी विल कम,’’ धर्म ने कहा.

दिया फिर से घबरा उठी.

‘‘दिया, जाना तो पड़ेगा ही. अच्छा है, पहले ही चले जाएं.’’

एक और रहस्यमयी रास्ते से दोनों ईश्वरानंद के पर्सनल रूम में पहुंच गए. धर्म न चाहते हुए भी इन सब में भागीदारी करता रहा है. दिया के समक्ष वह बेशक नौर्मल रहने की कोशिश कर रहा था पर वास्तव में अंदर से तो बाहर भागने के रास्ते की खोज में ही घूम रहा था उस का दिमाग.

‘‘क्या बात है धर्म, दिया को भेजो बराबर वाले कमरे में. वहां सब वस्त्रादि तैयार हैं. और लोग भी तैयार हो रहे हैं. दिया को वे लोग सब समझा देंगे.’’

दिया ने वहां से चलने के लिए धर्म का हाथ दबाया जिसे ईश्वरानंद ने देख लिया.

‘‘क्या बात है? क्या हो रहा है, दिया?’’ उस ने थोड़ी ऊंची आवाज में दिया से पूछा मानो दिया उस की कोई खरीदी हुई बांदी हो.

‘‘गुरुजी, अभी दिया तैयार नहीं है,’’ उस ने धीरे से ईश्वरानंद के कान में कानाफूसी की. परंतु ईश्वरानंद तो बिगड़ ही गया. आंखें तरेरते हुए धर्म से कहने लगा, ‘‘पागल हो गए हो क्या, धर्म? मैं ने इसीलिए इतनी मेहनत की है?’’

धर्म बड़े विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कैसी बात करते हैं आप? आप तो सब जानते हैं. फिर अभी वह बहुत घबराई हुई है. रुचिजी के यहां नील भी तो अभी तक इस से दूर ही रहा है… ग्रहव्रह के चक्करों में. थोड़ा टाइम दीजिए, अगली बार…’’ वह मानो ईश्वरानंद को भविष्य के लिए वचन दे रहा था और दिया का दिल था कि धकधक…

‘‘क्या साला…सब मूड खराब कर दिया…एक अफगानी पीछे पड़ा है, उसे अंगरेज लड़की नहीं चाहिए. पर जब तक इसे ढालोगे नहीं, यह तो तमाशा बना देगी. नहींनहीं, जाओ इसे तैयार करो,’’ वे तैश में आ रहे थे.

धर्म किसी भी प्रकार से दिया को यहां से बचा कर ले जाना चाहता था.

‘‘मैं इसे यहां से अभी ले जाता हूं. इसे रातभर घुमाफिरा कर कोशिश करता हूं कि अगले फंक्शन के लिए यह तैयार हो जाए.’’

‘‘तो क्या तुम इसे यहां से भी ले जाना चाहते हो?’’ ईश्वरानंद फिर भड़के.

‘‘मैं आप को बता रहा हूं. इस को अच्छी तरह स्टडी किया है मैं ने. आप आज इसे यहां से जाने दीजिए. अगले प्रोग्राम में मैं इसे यहां ले कर आप के बुलाने से पहले ही पहुंच जाऊंगा.’’ न जाने ईश्वरानंद के मन में क्या आया, ‘‘ठीक है, तुम इसे यहां से आज तो ले जाओ पर मेरी जबान तुम्हें रखनी होगी. मैं उस अफगानी को 1 महीने का टाइम देता हूं. तुम्हारी जिम्मेदारी है, अब तुम इसे 1 दिन में समझाओ या 1 हफ्ते में.’’

बाहर निकल कर गाड़ी में बैठने के बाद प्रश्न था कि कहां जाया जाए?

जब और कुछ समझ में नहीं आया तो धर्म चुपचाप दिया को अपने घर ले आया. दिया ने धर्म से पूछा भी नहीं कि वह उसे कहां ले कर जा रहा है. धर्म ने गाड़ी रोकी तो वह चुपचाप उतर गई और धर्म के पीछेपीछे चल दी. छोटा सा, 2 कमरों का घर था पर ठीकठाक, साफसुथरा. वह सिटिंगरूम में जा कर सोफे में धंस सी गई.

‘‘मुझे नील की मां को फोन कर के बताना तो होगा ही कि हम ‘परमानंद आश्रम’ में नहीं हैं वरना उन्हें जब पता चलेगा तो बखेड़ा खड़ा हो जाएगा,’’ कह कर धर्म ने नील की मां को फोन लगा दिया और हर बार की तरह स्पीकर औन कर दिया.

‘‘हां, कौन?’’ उनींदी आवाज आई.

‘‘मैं बोल रहा हूं, रुचिजी.’’

‘‘क्या बात है, इस समय?’’

‘‘घबराने की कोई बात नहीं है. मैं ने यह बताने के लिए फोन किया कि हम लोग आश्रम में नहीं हैं.’’

‘‘क्यों? मैं ने तो वहीं भेजा था दिया को, फिर?’’

‘‘जी, लेकिन दिया की तबीयत वहां कुछ खराब हो गई इसलिए मैं ने सोचा कि वहां से बाहर ले जाऊं कहीं.’’

‘‘फिर…ईश्वरानंदजी…?’’

‘‘उन्होंने ही परमिशन दी है. मैंटली तो तैयार हो दिया पहले. वह इस प्रकार कभी गई नहीं है कहीं.’’

‘‘हां, वह सब तो ठीक है पर…’’

‘‘आप चिंता क्यों करती हैं? मैं हूं न उस के साथ. उस के सब ग्रहव्रह ठीक कर के ही उस को आप के पास भेजेंगे.’’

‘‘तो क्या सुबह भी नहीं आओगे? अरे, उस के मांबाप के फोन लगातार आ रहे हैं. उधर, नील ने परेशान कर रखा है. नैन्सी का भूत ऐसा सवार है उस पर कि कहता है उसे नैन्सी के बच्चे को संभालना पड़ेगा. अब मैं इस उम्र में…कुछ करिए धर्मानंदजी, कोई गंडा, तावीज, अंगूठी जो भी हो. यह लड़का तो मुझे मारने पर तुला हुआ है. मैं ने सोचा था कि दिया के ग्रह ठीक हो जाएंगे तो बेशक यहां पड़ी रहेगी. पर…मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आता. उधर, नैन्सी भी शायद कुछ दिन यहां आ कर रहना चाहती है. कैसे करूंगी?’’

‘‘अब कुछ तो सोचना ही पड़ेगा, रुचिजी. आप चिंता मत करिए. मैं देखता हूं क्या हो सकता है.’’ ‘‘सोचो, कुछ करो, धर्म. मेरे अंदर तो न सोचने की शक्ति है न ही करने की. पता नहीं ईश्वरानंदजी ने इतने अमीर घराने की यह लड़की क्यों भिड़वा दी. यह तो हमारे बिलकुल भी काम की नहीं है. यह कहां से पाल लेगी नैन्सी के बच्चे को?’’

‘‘अभी फोन बंद करता हूं, रुचिजी. आप बिलकुल चिंता मत करिए. देखिए क्या होता है?’’

‘‘एक बात जरूर करना. दिया से उस की मां की बात करवा देना. उन के फोन यहां लगातार आ रहे हैं.’’ दिया को अपने सिर के ऊपर आसमान टूटता नजर आने लगा. यह क्या ऊटपटांग मामला है. कितना पेचीदा व उलझा हुआ एक ओर ईश्वरानंद ने अपनी खिचड़ी पकाने के लिए नील को उस के मत्थे मढ़ दिया तो दूसरी ओर नील की मां उसे अपने बेटे के बच्चे की आया बनाना चाहती है.

‘‘यह सब क्या है, धर्म?’’

‘‘बहुत पेचीदा मामला है, दिया. नील की मां समझती हैं कि ईश्वरानंद ने उन के लिए तुम को फंसाया है पर सच बता दूं, रहने दो वरना तुम घबरा जाओगी.’’

‘‘बोलिए न, धर्म…और क्या कर लूंगी मैं घबरा कर? बताइए…’’

‘‘ईश्वरानंद तुम्हें किसी अफगानी के हाथ बहुत अच्छे दामों में बेचना चाहते हैं. नील की मां अपने चने भुनाने की फिराक में थीं और वास्तव में ईश्वरानंद अपने चने भुनाने में लगे हैं.’’

‘‘क्या कमाल है, लड़की कोई ऐसी निष्प्राण चीज है जो उसे गुडि़या की तरह उठा कर खेल लो और फिर कहीं भी फेंक दो. पर जब मजबूरी और दुख किसी लड़की के गले पड़ जाएं तब वह एक चीज ही बन जाती है.

‘‘धर्मजी, बहुत हो गया है. मुझे अपने घर फोन कर देना चाहिए. आखिर मैं कब तक इस सब से जूझती रहूंगी?’’

‘‘दिया, मैं तुम्हें बताना नहीं चाहता था परंतु अब रुक नहीं पा रहा हूं. दरअसल, तुम्हारे पापा के पैर में ऊपर तक जहर फैल जाने से उन की पूरी टांग काट देनी पड़ी थी. उन्हें पिछले 6 महीने फिर से अस्पताल में रहना पड़ा है. इसीलिए तुम्हारे भाई अभी तक यहां नहीं आ पाए वरना…’’

‘‘क्या कह रहे हो, धर्म? किस ने बताया आप को? मैं यहां क्या कर रही हूं, मेरे पापा…’’ दिया का सब्र का बांध टूट गया. वह फिर से फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘कितने नीच हैं ये लोग. इंसान तो हैं ही नहीं. न जाने कितनी लड़कियों का जीवन बरबाद कर दिया होगा. पंडित भगवान का एजेंट नहीं होता और न ही संन्यासी योगी. योगी के रूप में ऐसे भोगियों की कमी कहीं नहीं है. पूरे संसार भर में व्यापार फैला कर बैठे हैं ये लोग.’’

दिया बहुत ज्यादा असहज थी. धर्म को लग रहा था कि अब किसी की भी परवा किए बिना वह कुछ न कुछ कर ही बैठेगी. ‘‘सच, तुम ठीक कह रही हो, दिया. इन का व्यापार पूरे संसार में ही तो फैला हुआ है. वहां ईश्वरानंद नहीं होंगे तो कोई और बहुरुपिया होगा. मनुष्य मानवधर्म का पालन तो कर नहीं सकता जबकि बेहूदी चीजों में घुस कर अपना और दूसरों का जीवन बरबाद कर देता है. ‘‘दिया, अब पानी सिर के ऊपर से जा रहा है. अब अगर कुछ न सोचा तो कुछ नहीं कर सकेंगे. मैं अभी तुम्हें पासपोर्ट दिखाता हूं,’’ धर्म ने उठ कर अपनी अलमारी खोली. दिया को अलमारी में बड़ी सी ईश्वरानंद की तसवीर पीछे की ओर रखी हुई दिखाई दी.

अचानक वह चौंक उठा, ‘‘अरे, मैं ने तो ईश्वरानंद की तसवीर के पीछे रखा था तुम्हारा पासपोर्ट. यहां पर तो है ही नहीं, दिया,’’ धर्म पसीना पोंछने लगा था.

‘‘धर्म, आर यू श्योर, यहीं था मेरा पासपोर्ट?’’

धर्म की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा हो कैसे सकता है? घर उस का, रखा उस ने फिर कैसे गायब हो गया पासपोर्ट? उधर, दिया को फिर उस पर अविश्वास सा होने लगा. ऐसा तो नहीं कि धर्म उसे बेवकूफ बना रहा हो.

धर्म उस की मनोस्थिति को समझ रहा था परंतु उसे भी यह समझ नहीं आ रहा था कि दिया को क्या सफाई दे?

बेचारा धर्म रोने को हो आया. उसे खुद भी समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसे हुआ होगा? उस ने तो खुद यहां पर संभाल कर रखा था दिया का पासपोर्ट. ‘‘देखो दिया, अब हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हमें अब पुलिस की मदद लेनी ही पड़ेगी. मुझे पूरा विश्वास है कि यह काम ईश्वरानंद का ही है. पर दिया, एक बात है, अब हमें खुल कर लड़ाई लड़नी पड़ेगी. हमें खुल कर सामने आना पड़ेगा. हो सकता है मुझे भी कुछ सजा भुगतनी पड़े. पर ठीक है, अब और नहीं.’’ आधी रात हो चुकी थी. सारे वातावरण में सन्नाटा पसरा हुआ था. कहीं से भी कोई आवाज नहीं. इतने गहरे सन्नाटे में दिया और धर्म की धड़कनेें तेजी से चढ़उतर रही थीं. दोनों का मन करे या न करे, डू और नाट डू के हिंडोले में ऊपरनीचे हो रहा था और पौ फटते ही दोनों के दिल ने स्वीकार कर लिया था कि और कोई चारा ही नहीं है. उन्हें ऐंबैसी में जा कर बात करनी ही चाहिए.

धर्म को भीतर से महसूस हुआ कि उसे दिया का साथ देना ही होगा और स्वयं को भी इस गंदगी से बाहर निकालना होगा.

-क्रमश:

बच्चो के मुख से

बात उस वक्त की है जब मेरी बेटी ढाई साल की थी. हम उसे रंग, फूल, फल, जानवर आदि पहचानना सिखा रहे थे. उसे यह पता था कि हाथी स्लेटी रंग का होता है. उन्हीं दिनों हम वैष्णो देवी से लौट कर जम्मूतवी ऐक्सप्रैस से वापस लौट रहे थे. ट्रेन एक पुल पर से गुजर रही थी. नीचे पानी देखते हुए बेटी एकदम से बोली, ‘‘मम्मी, देखो छोटेछोटे एलिफैंट.’’ मैं ने देखा तो भैंसें थीं जो हम ने कभी उसे किसी किताब में दिखाई थीं. दोनों का ही रंग स्लेटी होता है. उस की यह बात सोच कर आज भी खूब हंसती हूं और खुशी भी होती है कि छोटी सी बच्ची ने कितने ध्यान से देखा.

– रश्मि गुप्ता, वडोदरा (गुज.)

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हमारे विवाह की 35वीं वर्षगांठ थी. मैं और पति फिल्म देखने के लिए जाने की तैयारी कर रहे थे. मेरा 5 वर्षीय पोता शील बोला, ‘‘आप कहां जा रहे हैं?’’ मैं ने कहा, ‘‘बूआ की तबीयत ठीक नहीं, उन्हें देखने अस्पताल जा रहे हैं.’’ इस पर वह भी साथ अस्पताल चलने की जिद करने लगा. तब मैं ने समझाया कि अस्पताल में छोटे बच्चे नहीं जाते. मेरी बात सुन कर वह गुस्सा हो गया और बोला, ‘‘दादी, आप अच्छी नहीं हो.’’ थोड़ी देर बाद वह फिर आया, फिर से गुस्से में बोला, ‘‘दादी, क्या कभी मेरी मम्मी बीमार नहीं होंगी, अस्पताल में ऐडमिट नहीं होंगी. तब मैं आप को ले कर अस्पताल नहीं जाऊंगा,’’ उस की ऐसी बातें सुन कर हम सब हंसी से लोटपोट हो गए.

– भगवती टहिल्यानी, कोटा (राज.)

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हमारी पोती अवनी की उम्र पौने 5 साल है. पर वह बातें अपनी उम्र से भी कई वर्ष बड़ों के बराबर करती है. कभीकभी तो ऐसी बातें करती है कि दूसरों के सामने अजीब स्थिति हो जाती है. हमारे घर में सफेदी और पेंट का काम चल रहा था. अवनी ने पेंट करने वाले व्यक्ति से कहा, ‘‘अंकल, मुझे भी पेंट करने दो.’’

अंकल ने कहा, ‘‘हां, जरूर करने दूंगा.’’ अवनी बारबार कहती रही तो वे बोले, ‘‘बेटा, मैं ने कहा है, तुम्हें पेंट करने दूंगा. मैं बच्चों से झूठ नहीं बोलता.’’ तभी अवनी कहने लगी, ‘‘अंकल, क्या आप बड़ों से झूठ बोलते हैं.’’ उस की बात से सभी निरुत्तर हो गए.

 नंदिनी, केशवपुरम (दिल्ली)

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