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विज्ञान कोना

दिमाग में हैं जीपीएस

आज हम कहीं भी पहुंचने के लिए टैक्नोलौजी के शुक्रगुजार हैं, जिस में गूगल मैप और जीपीएस सब से बड़ा रोल निभाते हैं. लेकिन जब ये चीजें नहीं थीं या जो आज भी इन का इस्तेमाल नहीं करते हैं वे सही चीजों को कैसे याद रखते हैं. सवाल यह है कि क्या इंसान के दिमाग में कोई आंतरिक जीपीएस है? इस पर रिसर्च हुई और वैज्ञानिकों ने अहम जानकारियां जुटाई हैं.  1960 के अंत में एक रिसर्च हुई कि दिमाग कैसे किसी चीज को याद रखता है और चूहे भूलभुलैया के रास्तों को कैसे पहचानते हैं. इस में देखा गया कि चूहे अलगअलग जगह पर जाते थे तो उन की अलगअलग विशिष्ट तंत्रिका कोशिका ऐक्टिव होती थीं. इस से उन के दिमाग में ‘प्लेस सैल’ जगह का पता चला.

इस के बाद चूहों के दिमाग में प्लेस सैल को सक्रिय करने वाले संकेतों का पता लगाया गया. इन संकेतों का कंप्यूटर से विश्लेषण किया गया और उन के हिलनेडुलने से एक नक्शा बना. इस के बाद चूहों के दिमाग के एक हिस्से को सुन्न किया गया और देखा कि उसे संकेत कहां से आते हैं. चूहों को जहां छोड़ा गया था वह जगह षट्कोणीय नहीं थी पर उन के दिमाग में संकेत इसी पैटर्न पर आते थे. यह दिमाग की भाषा का एक कोड है, जिस का इस्तेमाल चूहों ने रास्ता ढूंढ़ने के लिए किया. दूसरी चौंकाने वाली बात यह थी कि षट्कोणीय ग्रिडों के कोनों के बीच बढ़ती दूरी हर पौइंट पर एक निश्चित अनुपात में बढ़ रही थी. वैज्ञानिकों का कहना है कि यह अनोखी खोज है कि दिमाग इतने सरल गणित का इस्तेमाल करता है. इस का मतलब है बच्चे, चूहे या इंसान जिस जगह पर रहते हैं उन के दिमाग में शुरू में ही एक खाका बन जाता है, जो धीरेधीरे विकसित होता है.

कैसे सही बैठते हैं अनुमान

आप ने स्टेज शो, टीवी पर अकसर ऐसे मजेदार गेम्स देखे होंगे जिन में एक डब्बे में 3-4 रंगों की गेंदें डाल कर हिलाई जाती हैं और फिर पूछा जाता है कि पहले कौन से रंग की गेंद निकलेगी? इस तरह के सही अनुमान को प्रोबैबिलिटी का मैथ्स या समझ कहते हैं. कई के मुताबिक यह समझ पैदायशी होती है तो कई इसे पढ़ाई का नतीजा मानते हैं. 2013 के एक शोध से पता चला कि वनमानुष भी अनुमान लगा सकते थे. इसी तरह एक शोध में पता चला कि 1 साल में बच्चों में भी एक हद तक अनुमान लगाने की क्षमता विकसित हो जाती है. ऐसा ही एक टैस्ट साउथ अफ्रीका के उस समुदाय के लोगों पर किया गया जिन्हें गणित या कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी. इस में उन का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा और गेंदों के रंग बदलने पर उन्होंने अपने अनुमान भी बदले. इस से कहा जा सकता है कि अनुमान लगाने की क्षमता कुछ हद तक नैसर्गिक भी होती है.

लैब में बना लिवर

अब मनुष्य को बाहरी ही नहीं, आंतरिक कृत्रिम अंगों को प्राप्त करने के लिए ज्यादा आपाधापी नहीं करनी पड़ेगी. वैज्ञानिकों ने स्टैम सैल्स की मदद से लैब में लिवर का एक छोटा संस्करण बनाने में सफलता हासिल कर ली है. शुरुआत इंसान के स्टैम सैल्स से की और उन्हें उन चरणों से हो कर गुजारा जो भ्रूण के विकास में नजर आते हैं. एक हौस्पिटल ने स्टैम सैल्स ले कर उन्हें डैवलप किया और जरूरी परिस्थितियां उपलब्ध कराईं, जो भ्रूण में लिवर बनने के लिए जरूरी होती हैं. सैल्स जब 3 दिन के थे तब उन्हें प्रोटीन के एक मिश्रण में रखा गया. 9 दिनों के बाद कोशिकाओं को प्रोटीन के रस में छोड़ दिया गया. 34वें दिन अंगाणु बने, उन में न तो ब्लड सैल्स थे और न ही प्रतिरक्षा कोशिकाएं. इन अंगाणुओं में पित्त का निर्माण करने की क्षमता नहीं थी, लेकिन ग्रंथियों की संरचना नैचुरल लिवर जैसी थी. इस शोध का इस्तेमाल कई अन्य परीक्षणों के लिए किया जा सकता है. लिवर के मुंह के संक्रमण अल्सर, कैंसर का कारण बनते हैं.

वोटबैंक की राजनीति से दलितों को नुकसान

दलित भारतीय समाज का अभिन्न अंग है. इस वर्ग के विकास को सामने रख कर संविधान बनाया गया था. आजादी के बाद से ही देश में दलित वर्ग के विकास की तमाम योजनाएं भी चलाई गईं. सरकारी नौकरियों से ले कर तमाम दूसरे तरह के आरक्षण भी दिए गए. इस के बाद भी दलित वर्ग का एक बड़ा हिस्सा बराबरी की दौड़ में बहुत पीछे है. केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री रामशंकर कठेरिया दलितों के विकास के लिए बहुत लंबे समय से काम कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में पलेबढे़ रामशंकर कठेरिया ने आगरा को अपनी कर्मभूमि बनाया. एमए और पीएचडी करने के बाद वे आगरा विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे.  साल 2006 में वे राजनीति में आए. आगरा विश्वविद्यालय में प्रोफैसर के रूप में कार्यरत रामशंकर कठेरिया ने 2014 का लोकसभा चुनाव आगरा से लड़ा. चुनाव जीतने के बाद वे केंद्र की मोदी सरकार में मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री बने. पेश हैं बातचीत के खास अंश :

देश के विकास के साथ दलितों का सही ढंग से विकास नहीं हुआ. इस में क्या कमी महसूस करते हैं? 

दलितों के विकास को ले कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में जो काम आजादी के बाद होना चाहिए था वह नहीं हुआ. इस से समाज का एक हिस्सा आगे बढ़ता गया जबकि दूसरा वर्ग पहले से भी खराब हालत में पहुंच गया. दलित समाज को उत्तर प्रदेश में मायावती से बहुत उम्मीदें थीं. केवल दलित ही नहीं, पिछडे़ वर्ग के एक बडे़ हिस्से को भी मायावती से बहुत अपेक्षाएं थीं. उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सरकार चलाने के बाद भी उन्होंने दलितों के सामाजिक और आर्थिक स्तर को सुधारने के लिए कोई काम नहीं किया. विकास की कोई ऐसी योजना नहीं चलाई जिस से दलितों का विकास हो सके. केंद्र के स्तर पर देखें तो कांग्रेस ने यही किया था. इन दलों ने दलितों को केवल वोटबैंक बना कर रखा जिस का कुप्रभाव दलितों के विकास पर पड़ा.

भाजपा को मनुवादियों की पार्टी कहा जाता था. पिछले लोकसभा चुनावों में बहुत सारे दलित नेता भाजपा के साथ चुनाव लडे़. इसे किस तरह के बदलाव के रूप में देखते हैं?

वोटबैंक की राजनीति के चलते भाजपा के खिलाफ ऐसा आरोप लगता है. भाजपा ने सदा ही दलितों के विकास की बात की है. मायावती को मुख्यमंत्री बनाने में भाजपा का ही सहयोग था. ये बीती बातें हैं. आज के समय में हर वर्ग यह देख रहा है कि देश और समाज का विकास किस के साथ हो सकता है. लोकसभा चुनाव में समाज के सभी वर्गों ने भाजपा पर भरोसा किया. इस में दलितपिछड़ा वर्ग और उस के नेता भी शामिल हैं. सभी को भाजपा और उस के नेता नरेंद्र मोदी पर भरोसा था. अब समाज वोटबैंक की राजनीति से ऊपर उठ कर विकास की दिशा की ओर बढ़ना चाहता है. इसी सोच के साथ वह भाजपा के साथ खड़ा हो रहा है.

हिंदू धर्म की नीतियां दलित वर्ग को हाशिए पर रखने की कोशिश करती हैं?

नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता. समाज में छुआछूत का हम विरोध करते रहे हैं. हम ने इस को दूर करने के बहुत सारे काम भी किए हैं. भाजपा के पथप्रदर्शक दीनदयाल उपाध्याय कहते थे कि समाज का तब तक भला नहीं होगा जब तक समाज के अंतिम आदमी तक खुशहाली नहीं पहुंचती. समाज के सब से नीचे पायदान पर खड़े  आदमी की तरक्की करना ही हमारा लक्ष्य है. केवल दलित वर्ग की नहीं, पिछडे़ वर्ग के लोग भी भाजपा के साथ इसी उम्मीद से जुड़ रहे हैं. वे चाहते हैं कि उन की चिंता करने वालों की सरकार बने.

आप अपने विभाग में ऐसा क्या कर रहे हैं जिस से देश की तरक्की हो?

हमारा विभाग देशभर के स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था को देखने का काम करता है. हमारा प्रयास है कि देश के सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी को पूरा किया जाए. एक साल के अंदर हम इस काम को पूरा कर लेंगे. हमारा मानना है कि अच्छा शिक्षक समाज को दिशा दे सकता है. उस के द्वारा पढ़ाया गया छात्र आने वाले समाज को बेहतर बनाने का काम करता है. सामाजिक परिवर्तन की दिशा में सब से बड़ा बदलाव शिक्षा से ही आ सकता है. 

आप इटावा के रहने वाले हैं जो समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का गढ़ है. वहां भाजपा की जड़ों को कैसे मजबूत कर पाएंगे?

मुझे लगता है कि यह मुलायम सिंह यादव का अंतिम चरण है. वे लंबे समय तक अपना गढ़ नहीं बचा पाएंगे. लोकसभा चुनाव में उन का किला ढह चुका है. विधानसभा चुनाव में वे अपने किले को नहीं बचा पाएंगे. जिस तरह से मुलायम ने केवल परिवार की राजनीति की है, उस का बड़ा खमियाजा समाज को उठाना पड़ा है. वे समाजवाद की बात करते हैं पर उन का सारा फोकस केवल परिवारवाद पर है.

आप पेशे से अध्यापक हैं, आप की पत्नी ने भी पीएचडी की है. महिलाओं के लिए शिक्षा का क्या महत्त्व देखते हैं?

घर में छोटे बच्चे हैं. उन को देखभाल की जरूरत है. 2 बेटे हैं जो कक्षा 5 और 6 में पढ़ते हैं. बेटी छोटी है. वह कक्षा 4 में पढ़ती है. मैं महिलाओं की शिक्षा को बहुत जरूरी मानता हूं. वे पढ़ीलिखी होंगी तो पूरे परिवार को संभाल सकती हैं, जिस से परिवार ही नहीं समाज भी बेहतर बनेगा. 

आप ने कुछ किताबें भी लिखी हैं. इन में एक ‘दलित साहित्य और नई चुनौतियां’ है. क्या साहित्य को दलित और गैर दलित के विभाजन की नजर से देखना सही है?

नहीं, मेरा मानना है कि गैर दलित भी दलित साहित्य को सही से लिख सकता है. जरूरत इस बात की है कि जो लिखा जाए वह सही तरह से लिखा जाए.  दलित साहित्य में भी कई तरह की खेमेबंदी है. खेमेबंदी से साहित्य को हमेशा नुकसान ही होता है. एक दिशा में अपनी सोच के अनुसार साहित्य का सृजन करना ठीक नहीं है. जो सच हो वह लिखा जाए.

समानता चाहिए या विकास?

अमीर और ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और ज्यादा गरीब. यह एक घिसापिटा जुमला है जो अनगिनत बार भाषणों में हम सुन चुके हैं. अब यह बोरियत पैदा करता है लेकिन हकीकत यह है कि यह जुमला सोलह आने सही है. हाल ही में विश्व की जानीमानी स्वयंसेवी संस्था औक्सफाम के एक अध्ययन में कहा गया है कि 2016 में विश्व के 1 प्रतिशत सब से अमीर लोगों के पास बाकी की 99 प्रतिशत आबादी से ज्यादा संपत्ति होगी. संपत्ति का यह केंद्रीयकरण उस दुनिया में हो रहा है जहां 9 में से 1 व्यक्ति के पास खाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं. यह आर्थिक असमानता आज अचानक पैदा नहीं हुई है. यह प्रक्रिया लंबे समय से चली आ रही है. इस अध्ययन के मुताबिक, 2010 में दुनिया के 80 सब से अमीर लोगों के पास 1.3 ट्रिलियन डौलर की संपत्ति थी जो 4 साल यानी 2014 में ड्योढ़ी हो कर 1.9 ट्रिलियन डौलर हो गई. यह बढ़ती असमानता दुनियाभर के सभी सोचनेसमझने वाले लोगों को झकझोर रही है.

यह सही है कि दुनिया में पहले के मुकाबले समृद्धि आई है लेकिन इस के साथ आर्थिक विषमता ने भी विकराल रूप ले लिया है. अब यह केवल नैतिक मुद्दा ही नहीं रहा, बल्कि यह चरम विषमता आर्थिक संवृद्धि को भी प्रभावित कर रही है. हिंदी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने कभी लिखा था – दिशा वाम वाम वाम, समय साम्यवादी. लेकिन आज दुनिया का राजनीतिक आर्थिक परिदृश्य देख कर यह कहने की नौबत आ गई है दिशा दक्षिण दक्षिण दक्षिण, समय पूंजीवादी.

बाजारवाद की राह

वर्तमान में दुनिया के ज्यादातर देश पूंजीवाद और बाजारवाद के रास्ते पर चल रहे हैं. अमेरिका, यूरोप और आस्ट्रेलिया ही नहीं, भारत और चीन सहित एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देश पूंजीवाद के रास्ते पर चल रहे हैं. इस रास्ते पर चल कर उन्होंने अपनी चरम गरीबी से मुक्ति पाई है और समृद्धि को हासिल किया है. जितने बड़े पैमाने पर दुनिया के देश पूंजीवाद को अपना रहे हैं उसे देखते हुए लगता है कि विकास और समृद्धि के लिए पूंजीवाद के अलावा कोई रास्ता रह नहीं गया. साम्यवाद पहले ही वैचारिक रूप से हार चुका है या चीन जैसे देशों में वह अधिनायकवादी पूंजीवाद का रूप ले चुका है. ऐसा होना ही था क्योंकि न केवल पूंजीवाद ने कई देशों के करोड़ों लोगों को गरीबी से ऊपर उठाया, बल्कि इन देशों में संपन्नता और समृद्धि का पहली बार आगमन हुआ.

दूसरी तरफ साम्यवादी देशों के पास वितरण के लाख तरीके थे मगर उत्पादन बढ़ा कर समृद्धि हासिल करने का एक भी तरीका नहीं था. उत्पादन चवन्नी का नहीं मगर वितरण रुपए का. ऐसी विचारधारा दम तोड़ दे तो अचरज कैसा. इसलिए पूंजीवाद को विश्व स्तर पर चुनौती देने वाली कोई विचारधारा रह नहीं गई है. लेकिन पूंजीवाद को उस के अंदर से ही चुनौती जरूर मिलती रहती है. कभी कम्युनिज्म के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद अपने अंतर्विरोधों के कारण खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा कुछ तो हुआ नहीं. पूंजीवाद न केवल जिंदा है बल्कि फैलता भी जा रहा है.

मनुष्य के समृद्धि के स्वप्न को पूंजीवाद ने काफी हद तक पूरा किया लेकिन मनुष्य के दूसरे स्वप्न समता को उस ने बुरी तरह तोड़ा. कई विचारक मानते हैं कि पूंजीवाद से समृद्धि भले ही आए मगर उस से असमानता भी आती है. असमानता पूंजीवाद में अंतर्निहित है. इसलिए समृद्धि और विकास चाहिए तो असमानता की अपरिहार्य बुराई को भी स्वीकार करना होगा. लेकिन अब इस असमानता ने विकराल रूप धारण कर लिया है जिस का कुछ उपाय करना जरूरी लगने लगा है.

पिछले कुछ वर्षों से पश्चिमी देशों में आर्थिक विषमता एक अहम मुद्दा बनती जा रही है. बुद्धिजीवी और चिंतक इस पर गंभीर चिंता जता रहे हैं. पेरिस स्कूल औफ अर्थशास्त्र के प्रोफैसर थौमस पिकेटी ने निरंतर बढ़ती असमानता के बारे में 2 दशकों के अध्ययन के बाद ‘कैपिटल इन ट्वैंटी फर्स्ट सैंचुरी’ नामक पुस्तक लिखी है जो इन दिनों पश्चिमी देशों में धूम मचाए हुए है. बढ़ती असमानता का गंभीरता से जायजा लेने वाली इस पुस्तक को कई दशकों की अर्थशास्त्र की महत्त्वपूर्ण पुस्तक माना जा रहा है. उस में पिछले 200 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण है कि पश्चिमी देशों यानी अमेरिका, जापान, जरमनी, फ्रांस और ब्रिटेन में आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी. अमेरिका के नवीनतम आंकड़े देते हुए वे कहते हैं कि 2012 में 1928 के बाद फिर 1 प्रतिशत सब से धनी परिवारों के पास 22.5 प्रतिशत आय का केंद्रीयकरण हो गया है. उन्होंने ब्रिटेन, चीन, भारत, जापान, मलयेशिया, दक्षिण अफ्रीका और उरुग्वे सहित 13 देशों के आंकड़ों के आधार पर अपनी बात कही है.

इस कारण विश्व मुद्रा कोश, अकादमिक हलकों से ले कर व्हाइट हाउस तक इस पुस्तक पर तीखी बहस हो रही है. सभी मानते हैं कि पिकेटी का काम बहुत गंभीर किस्म का है. पिछले कई दशकों में अर्थशास्त्र पर इस तरह की झकझोर देने वाली पुस्तक नहीं आई. तभी तो अंगरेजी संस्करण आने के बाद कुछ ही दिनों में यह पुस्तक फिक्शन और नौन फिक्शन दोनों ही श्रेणियों में सब से लोकप्रिय बन गई. विषय की गंभीरता और प्रासंगिकता को देखते हुए पुस्तक की तुलना मार्क्स की कैपिटल के साथ की जा रही है. पुस्तक की सफलता का एक राज यह है कि सही समय पर सही विषय पर यह पुस्तक आई है. इन दिनों कई देशों, खासकर अमेरिका में असमानता बहस का मुद्दा बना हुआ है. अब तक अमेरिका यही मानता रहा कि अमीर और गरीब का भेद यूरोपियों का खब्त है. लेकिन वाल स्ट्रीट जर्नल द्वारा बारबार डंसे जाने के बाद वह अमीरी और संपत्ति के पुनर्वितरण की बात करने लगा है. इसलिए इस किताब के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है जो कहती है संपत्ति का केंद्रीयकरण इस व्यवस्था का स्वभाव है और वह संपत्ति पर ग्लोबल टैक्स लगाने का सुझाव देती है.

पिकेटी का मानना है कि कई ताकतवर शक्तियां ऐसी हैं जो असमानता को कम कर सकती हैं. इन में वे ज्ञान और कौशल के प्रसार का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं. लेकिन इस में भी कुछ प्रवृत्तियां ऐसी दिखाई देती हैं जो असमानता को ही बढ़ाती हैं.

बढ़ती असमानता

आजकल कंपनियों के सीईओ अपने वेतन बेतहाशा बढ़ा लेते हैं जिस का काम की उत्पादकता के साथ कोई ताल्लुक नहीं होता. इस से भी असमानता बढ़ रही है. मसलन, अमेरिकी मजदूरों का वास्तविक वेतन 7वें दशक से स्थिर है. जबकि अमेरिका के ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों का वेतन 165 प्रतिशत और, और ऊपर के 0.1 प्रतिशत लोगों का वेतन 362 प्रतिशत बढ़ा है. वहीं, पिछले 40 वर्षों में सब से ऊपर के तबके के लिए टैक्स की दर 70 प्रतिशत से गिर कर 35 प्रतिशत रह गई है.

इस तरह पिकेटी कहते हैं कि असमानता को सब से ज्यादा बढ़ावा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर की तुलना में पूंजी पर मिलने वाले ऊंचे लाभ से हो रहा है. अतीत के जमींदारों की तरह आज के वित्तीय पूंजी के मालिक को अपने निवेश पर प्राप्त होने वाले लाभ की दर, मानवीय पूंजी या उत्पादकता से होने वाले लाभ की दर से कहीं ज्यादा है. इसे दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि निवेश के कारण पैदा होने वाली उच्च आय, मजदूरी और वेतनों पर आधारित आय की तुलना में कहीं तेजी से बढ़ती है.

पिकेटी के आंकड़े दिखाते हैं कि उत्पादकता की लंबी अवधि में प्रति व्यक्ति आय 1 से 1.5 प्रतिशत के बीच बढ़ती है लेकिन उतने ही समय में निवेश का लाभ 4 से 5 प्रतिशत के बीच. यह समाज में असमानता को बढ़ाता है. ऐसी उच्च असमानता, वृद्धि दर को कम करती है, सामाजिक तनाव को तेज करती है और लोकनीति को भटकाती है. सब से चिंताजनक बात लोकतांत्रिक देशों के भविष्य के लिए यह है कि विशाल संपत्ति के द्वारा पैदा की गई उत्तरोत्तर बढ़ने वाली संपत्ति के जरिए उस के कई स्वामी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकते हैं, वे लौबीइंग कर सकते हैं जैसा अमेरिका में गन इंडस्ट्री करती है या चुनाव अभियानों को संचालित कर सकते हैं या सीधे रिश्वत दे सकते हैं. लोगों के पास बेतहाशा संपत्ति ऐसी सत्ता को जन्म देती है जिस से चैक ऐंड बैलेंस की व्यवस्था गड़बड़ाती है जिस पर लोकतंत्र टिका है.

मार्क्स की तरह पिकेटी अंतर्विरोधों के कारण पूंजीवाद के ढहने की बात नहीं करते. उन का कहना है कि वे मार्क्सवाद से कभी प्रभावित नहीं रहे, इसलिए वे यह मुद्दा उठाने के लिए सब से योग्य व्यक्ति हैं. उन्होंने यह मुद्दा वैचारिक वजहों से नहीं, आंकड़ों के आधार पर उठाया है. उन का मानना है कि लोकतांत्रिक तरीकों से जैसे न्यायपूर्ण रैगुलेशन, प्रोग्रैसिव टैक्स के जरिए बेकाबू होती असमानता से निबटा जा सकता है. पूंजीवाद अगर न्यायपूर्ण होगा तो फलेगाफूलेगा.

पूंजीवादी विकास 

भारत जैसे देशों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण है जिस ने ढाई दशक पहले पूंजीवाद की राह पर आधेअधूरे मन से चलना शुरू किया है. नरेंद्र मोदी की विजय के बाद भारत के पूंजीवादी विकास में तेजी आने की संभावना है. यह कहा जा रहा है कि वे भारत के मागर्े्रट थैचर, रीगन या तेंग सियाओं पिंग साबित हो सकते हैं जो अपने देशों में पूंजीवाद को मजबूत कर समृद्धि के रास्ते पर बढ़े. पूंजीवादी विकास के रास्ते पर हम तेजी से दौड़ें, यह वक्त कातकाजा है. यों भी हम आजादी के बाद 45 साल लाइसैंस कोटा राज के भंवर में फंस कर काफी समय बरबाद कर चुके हैं.

हमें याद रखना है कि असमानता का बढ़ना पूंजीवाद में अंतर्निहित है. ऐसे में हम कौन से कारगर कदम उठाएं जिन से असमानता को कम से कम रखा जा सके. यदि ऐसा नहीं किया तो बढ़ती असमानता सामाजिक, आर्थिक असंतोष को जन्म देगी. हमारे देश ने 1991 के बाद जो नव उदारवादी व्यवस्था अपनाई है उस में 24 सालों के दौरान अरबपतियों की संख्या बढ़ी है. मध्यम वर्ग भी बड़े पैमाने पर बढ़ा है. गरीबी की सीमा से नीचे रहने वालों की संख्या में कमी भी आई है लेकिन बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिस की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं आया. इसलिए जरूरी है कि हम पूंजीवाद और जनकल्याणवाद के बीच स्वर्णिम तालमेल बिठाने की कोशिश करें. इस पुस्तक पर बहस से एक बात उभर कर आती है कि साम्यवाद वितरण की बहुत डींगें हांकता रहा पर उस के पास बांटने के लिए कुछ था ही नहीं क्योंकि वह कभी उत्पादकता की समस्या को हल नहीं कर पाया और इसलिए विघटन का शिकार हो गया. पूंजीवाद समृद्धि और संपन्नता ले कर आया लेकिन न्यायपूर्ण वितरण नहीं कर सका. कबीर कह गए हैं न, ‘दोऊ राह न पाई’. यह पूंजीवाद और समाजवाद के बारे में भी सही है. मगर किसी तीसरे रास्ते की तलाश अब भी एक सपना बनी हुई है. सवाल यह है कि क्या कोई तीसरा रास्ता है? या वह एक मृगमारीचिका है?

आने वाले दिनों में कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर असमानता को खत्म करने का सवाल उठेगा. औक्सफाम की कार्यकारी निदेशक विनी बिनयिमा कहती हैं कि क्या आप ऐसी दुनिया में रहना पसंद करेंगे जिस में इतनी विषमता हो कि 1 प्रतिशत लोगों के पास बाकी 99 प्रतिशत लोगों जितनी संपत्ति हो? अब यह विषमता दुनिया की संवृद्धि के लिए खतरा बनती जा रही है. इस के लिए उन्होंने 9 सूत्री कार्यक्रम सुझाया है जैसे कर न चुकाने वाली कंपनियों और लोगों से कठोरता से निबटा जाए, सरकारें निशुल्क शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर बड़े पैमाने पर निवेश करें आदि. इन में नया कुछ भी नहीं है. सवाल यह है कि क्या सरकारें इन कदमों को उठाने में कामयाब होंगी? दरअसल, सरकारों की चिंता यह है कि कहीं विषमता रोकने के कदमों का उलटा असर न हो और विकास दर व संवृद्धि पर बुरा असर पड़े. इसलिए कोई असमानता को खत्म करने के लिए विकास को जोखिम में डालने को तैयार नहीं है.

इतिहास से खिलवाड़

भारत के इतिहास के पुनर्लेखन की चेष्टा की जा रही है. यह तो होना ही था. हिंदुत्व के लिए जिन लोगों ने जम कर वर्षों काम किया है वे 2000 वर्षों की गुलामी, चमत्कारी अंधविश्वासों, समाज को विभाजित करने वाली वर्ण व्यवस्था और वितृष्णा भरे काम करने वाले देवीदेवताओं की बातों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं और यह साबित करने में जुटे हैं कि उन के धर्म की दुकान ही सर्वश्रेष्ठ है. उन के इस मिशन के लिए इतिहास का पुनर्लेखन जरूरी है. हमारे यहां बचपन से देवीदेवताओं के गौरवगान इस तरह पढ़ाए जाते हैं मानो वे हमारे पौराणिक ग्रंथों से नहीं आए, बल्कि उन्होंने हमारे देश को चलाने का बीड़ा उठा रखा है. पुस्तकों, उपन्यासों, बच्चों के कौमिक्सों, धारावाहिकों, फिल्मों आदि के जरिए उन की तसवीर दर्शायी जाती है मानो इस से अच्छा कहीं कुछ नहीं है.

इतिहास का पुनर्लेखन इस दृष्टि से जरूरी भी नहीं है क्योंकि हमारे यहां आम आदमियों को इतिहास का जो ज्ञान है वह पुस्तकालयों के मोटे ग्रंथों से नहीं, बल्कि सुनीसुनाई बातों, रामलीलाओं व कृष्णलीलाओं और मंदिरों में बने चित्रों से मिला है. इन सब में हिंदू धर्म का प्रचार ऐसे होता है जैसे लौटरी का होता है, ‘100 रुपए का टिकट खरीदो, अरबपति बन जाओ.’ सत्य तो सत्य रहेगा. इतिहास का पुनर्लेखन कर लेंगे तो भी किताबों में जो लिखा जा चुका है, वह मिट नहीं पाएगा. ये पुस्तकें दुनियाभर में फैली हैं. स्कूलों, कालेजों और पुस्तकालयों में नई किताबें लिखा कर पहुंचाई तो जा सकती हैं पर तथ्यों को छिपाया नहीं जा सकता.

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने भारतीय शिक्षा नीति आयोग का गठन किया है जो धार्मिक मानसिकता के अनुसार काम कर रहा है पर जब भी सरकार बदलेगी, यह काम धरा का धरा रह जाएगा. इतिहास लिखवाने की कोशिश दुनिया के सभी तानाशाहों ने हर युग में की है, कइयों ने तो पुस्तकालयों को जला डाला. ईसाइयों और मुसलिमों के धर्मगुरुओं ने, जहां भी वश चला, इतिहास को दोबारा लिखवाने की कोशिश की, बाइबिल या कुरान को जबरन पढ़वाया पर हुआ क्या? आज दुनिया का सब से तेज विकास कर रहा देश चीन है जहां कोई खास धर्म नहीं है. अमेरिका 200 साल तक धर्म को ताक पर रख कर खोजों में लगा रहा और उस ने तकनीक व नए ज्ञान के जरिए मानव को वे सहूलियतें प्रदान कीं जो उस के पास न थीं. जो संपदा इन देशों ने बिना अपने इतिहास के गुणगान से हासिल की वह इतिहास का पल्लू पकड़े रहे यूरोप, पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया के देश न पा सके.

क्रिकेट, सरकार, अदालत

सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के आंतरिक मामलों को सार्वजनिक संपत्ति मान कर अपने हस्तक्षेप और अपरोक्ष सरकारी नियंत्रण के रास्ते तो खोल दिए पर उस का यह कदम निरर्थक और निरुद्देश्य है. क्रिकेट हम भारतीयों के लिए एक नशा बन गया है. इस के विज्ञापन पर हजारों, करोड़ों खर्च होते हैं और इस पर लाखों, करोड़ों का सट्टा लगता है. वहीं, देशवासियों के साल के बीसियों घंटे इसी पर खर्च होते हैं. जिस चीज पर इतना खर्च हो, जिस की इतनी चिंता हो, उस में अदालतों से या सरकार के माध्यम से नियंत्रण होना चाहिए, यह सोच अपनेआप में गलत है. क्रिकेट में लोगों की जान बसती है पर फिर भी यह खेल मात्र है जो दुनिया के मुश्किल से 15 देशों का खेल है और बाकी देशों में इस खेल को वह वरीयता नहीं मिलती जो हमारे यहां मिलती है.

सभी देशों के अपने लोकप्रिय खेल हैं पर केवल कम्युनिस्ट खेमों के देशों को छोड़ कर सभी जगह खेल आम लोगों का अपना मामला रहा है और सरकार या अदालत केवल तभी दखल देते हैं जब उस में कोई आपसी विवाद हो. खेलों को छूट दी जाए, थोड़ाबहुत प्रोत्साहन दिया जाए. उन को सुविधाएं दे दी जाएं यह तो समझा जा सकता है पर सरकारें या अदालतें उन्हें अपने कब्जे में ले कर उन को कंट्रोल करने लगें, यह गलत है. जनरुचि के बहुत से मामले हैं जिन में जनता को शिकायतें होती हैं पर उन से सरकार पल्ला झाड़ लेती है. जो सरकार लोगों को सही व साफ सड़कें, सही सुरक्षा, सही चिकित्सा सुविधा, सही शिक्षा, सही वातावरण, सही न्याय मुहैया न करा सके उस सरकारी या अदालती शक्ति को क्रिकेट जैसे खेल पर नियंत्रण करने का कोई हक नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने बोर्ड औफ कंट्रोल फौर क्रिकेट इन इंडिया के मामलों में बहुत सुनवाइयां कीं, कई कमेटियां बनाईं, कई निर्देश दिए पर क्रिकेट के तमाशे को बंद न होने दिया. दूसरी तरफ अदालतों के आदेशों के कारण देश के लाखों कारखाने बंद हो गए हैं, उन के दफ्तरों पर रोलर शटर गिरे हुए हैं, घरों में जाले लग रहे हैं, अधबने मकान काई खा रहे हैं. सरकार व अदालतें हैं कि उन के पास फैसला सुनाने का समय नहीं है  क्रिकेट के प्रति यह मोह मायाजाल है और यह खतरनाक इसलिए है कि अमीरों के इस खेल को असल में जुआरियों ने अपना लिया है और असल खेल बंद कमरों में सट्टेबाज खेलते हैं जो खिलाडि़यों को पैसा दे कर मनमाफिक स्कोर बनवाते हैं, बोर्ड को नियंत्रित करने के लिए अरबों बहाते हैं.

इस बोर्ड का अध्यक्ष कोई भी हो, सर्वोच्च न्यायालय को चिंता करने की जरूरत नहीं, सरकार को दखल देने की जरूरत नहीं. आम आदमी को इस विवाद में अपनी मेहनत नहीं लगानी चाहिए. यह खेल है, खेल रहे, एक अच्छे नाटक की तरह, गोगिया पाशा के जादू की तरह.

पूंजी बाजार

दरों में कटौती से नई ऊंचाई पर बाजार

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने करीब पौने  2 साल बाद 15 जनवरी को ब्याज दरों में कटौती कर के अर्थव्यवस्था में सुधार की दौड़ के बीच कर्जदारों को जो राहत दी उस ने बाजार का माहौल एक झटके में बदल दिया. बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक एक दिन में 729 अंक बढ़ गया. 5 साल में सूचकांक की 1 दिन की यह सब से ऊंची छलांग रही. गवर्नर ने रेपो दर यानी रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को दिए जाने वाले कर्ज की दर 0.25 अंक घटा कर 7.75 प्रतिशत कर दी है. इस से पहले ब्याज दरें मई-2013 में घटाई गई थीं. ब्याज दरों में कटौती से निवेश के और बढ़ने की उम्मीद की जा रही है. राजन ने कहा है कि वित्तीय हालात यदि इसी तरह सकारात्मक रहते हैं तो साल के अंत तक ब्याज दर 7 प्रतिशत तक की जा सकती है. इसी बीच, विश्व मुद्रा कोष यानी आईएमएफ ने कहा कि 2016 में चीन को पछाड़ कर भारत दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बन कर उभरेगा. इस से भी बाजार का उत्साह बढ़ा और सूचकांक नए रिकौर्ड तक पहुंच गया.

बाजार के जानकार मानते हैं कि ब्याज दरों में अगली कटौती आम बजट के पेश किए जाने के बाद ही की जा सकेगी. ताजा कटौती से शेयर बाजार में जो उछाल आया है उस के कारण बाजार 2 माह के दौरान 16 जनवरी को सर्वाधिक साप्ताहिक ऊंचाई पर रहा. इस से 3 दिन पहले सूचकांक लगातार 3 दिन तक तेजी पर बंद हुआ. ब्याज दरों में कटौती का बैंकों ने भी जोरदार स्वागत किया और सरकारी क्षेत्र के यूनाइटेड बैंक औफ इंडिया तथा यूनियन बैंक ने तत्काल ब्याज दरों में कटौती कर दी. माना जा रहा है कि ब्याज दरों में कटौती से कर्ज की मांग बढ़ेगी और इस का सीधा फायदा आटो तथा रियल एस्टेट क्षेत्र को होगा. रुपया अच्छी स्थिति में नहीं है जबकि महंगाई की दर लगातार कम हो रही है. तेल की कीमत विश्व बाजार में 6 साल के निचले स्तर पर है. सरकार इन स्थितियों का फायदा उठा कर वित्तीय लक्ष्य को हासिल करना चाहती है और इस अनुकूल माहौल से शेयर बाजार को लाभ होगा. नतीजतन, बाजार में निवेश का प्रवाह बढ़ेगा.

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बैंकों को अधिक स्वायत्तता देने का फैसला

सरकार ने सुधारों को तेजी से लागू करने और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए बैंकों को और अधिक स्वायत्तता देने का फैसला किया है. इस नीति के तहत वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बैंकों को निर्देश जारी करते हुए कहा है कि वे निडर हो कर तथा किसी का पक्ष लिए बिना वित्तीय फैसले लें. उन्होंने आश्वासन दिया कि मानव संसाधन संबंधी वित्तीय स्वायत्तता के फैसलों में सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी. बैंकों से कहा गया है कि सभी निर्णय तथ्यों पर आधारित हों, साथ ही, उन्हें हिदायत दी गई है कि यदि किसी का बेजा पक्ष लिया जाता है या लापरवाही बरती जाती है तो दोषी के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाएगी. आर्थिक क्षेत्र के जानकार इसे अच्छा प्रयास मानते हैं. इस से बैंकों के काम में तेजी भी आएगी और उन्हें प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकेगा.

इस से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि बैंक नियमों का पालन करते हुए आर्थिक विकास को बढ़ाने के निर्णय लेते रहें. उन्होंने विश्वास दिलाया कि उन के निर्णय यदि उचित, संतुलित और अच्छे होंगे तो उन के काम में कोई बाधक नहीं बनेगा और अनुचित काम के लिए किसी तरह का दबाव उन्हें नहीं झेलना पड़ेगा. प्रधानमंत्री ने आश्वस्त किया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई फोन उन के द्वारा लिए गए निर्णयों के संबंध में नहीं आएगा. बैंकों की स्वायत्तता का यह अच्छा फैसला है लेकिन उन्हें निजी क्षेत्र के बैंकों की तरह ग्राहकों को धोखे में रखने की छूट नहीं मिलनी चाहिए. निजी बैंक हिडन चार्जेज यानी बिना बताए ग्राहकों का पैसा विभिन्न मदों के लिए काटते हैं. ऋण देते समय लुभावनी योजनाएं बता कर आकर्षित करते हैं और फिर ग्राहक को फंसा कर मनमाफिक उसे लूटते हैं.

आम आदमी का विश्वास है कि सरकारी बैंक ऐसा नहीं करते हैं. वहां हिडन चार्जेज नहीं हैं. सरकारी बैंकों पर जनता का यह विश्वास बना रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब तक प्रतिस्पर्धा के बहाने उन्हें ऐसा करने के लिए विवश नहीं किया जाता है. सामान्य आदमी निजी बैंकों में खाता खोलने से डरता है. उस का एक रुपया भी ज्यादा कटता है तो चिंतित हो जाता है. वह अपनी मेहनत की कमाई का एक पैसा बरबाद होते देख बेहद तकलीफ महसूस करता है. सरकारी बैंक भले ही उस का अतिरिक्त पैसा काट दें लेकिन उसे पूरा भरोसा है कि उस के साथ अन्याय नहीं हुआ होगा. यह भरोसा कायम रहना चाहिए और यह तभी संभव है जब बैंक कारोबार बढ़ाने की दौड़ में अपने ग्राहक के हित के लिए अत्यधिक सजग रहें.

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खाद्य उत्पादों का विपणन बढ़ाने का छलावा

सरकार आर्थिक प्रगति को चहुंमुखी बनाने की दिशा में काम करते हुए कृषि उत्पादों के विपणन को बढ़ावा देने को विशेष प्राथमिकता दे रही है. वह गांव के उत्पाद को अच्छा बाजार प्रदान कर के कृषि क्षेत्र को मजबूत बनाने की कोशिश कर रही है. राष्ट्रीय ग्रामीण और कृषि विकास बैंक को मजबूत आधार प्रदान किया जा रहा है. कृषि उत्पादों को बाजार में लाने के लिए मजबूत आपूर्ति व्यवस्था लागू की जा रही है और राज्य सरकारों को इस के लिए प्रोत्साहित करने की योजना बनाई जा रही है.

यह सच है कि सभी राजनीतिक दल किसान के हित की बात करते हैं और सत्ता में आते ही अपनी योजनाओं का खाका भी तैयार करते हैं लेकिन जमीन पर कुछ बदलता नहीं है. कृषि उत्पाद का लाभ हर बार बिचौलिए खा जाते हैं. किसान को उस की फसल की कीमत तक नहीं मिल पाती है. किसान की हालत लगातार खराब हो रही है लेकिन सरकारी दावे और उस के आंकड़े निरंतर मजबूत हो रहे हैं. समस्याओं का मारा किसान आएदिन आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है. वह अपने खेत में जो भी फसल उगा रहा है उस की मामूली कीमत ही उसे मिल रही है. वह ज्यादा पैदावार करता है तो फसल खेतों में ही सड़ जाती है. मजबूर हो कर किसान औनेपौने दाम पर बिचौलियों को उत्पाद बेचता है. बिचौलिए बिना मेहनत किए मालामाल हो रहे हैं और खूनपसीना एक कर के पैदावार बढ़ाने वाला किसान खून के आंसू रो रहा है. सरकारी नीति के शब्दों के आडंबर और योजनाओं को आकर्षक खाके में फंसाने के बजाय किसान को उसी की शैली में मदद पहुंचाने की जरूरत है. वह चाहता है कि खेत पर जो फसल तैयार हो उस की न्यूनतम लागत उसे मिलती रहे. इस स्तर पर वह सुनिश्चित होना चाहता है लेकिन उसे इस स्तर पर भी पक्का भरोसा नहीं मिल रहा है. किसान दलालों की तरह बिना मेहनत किए मोटी रकम हासिल नहीं करना चाहता, वह मात्र आश्वस्त होना चाहता है कि उस के खेत पर जो फसल उगे वह बरबाद न हो और उसे उस की मेहनत के बराबर कीमत मिलती रहे.

सेंट में उलझे नेताजी

एक नेताजी बस में यात्रा कर रहे थे. थोड़ा अजीब लगता है लेकिन उस दिन शायद उन की कारें पत्नी के रिश्तेदारों की सेवा में लगी होंगी. यही एक ऐसी जगह होती है जहां किसी मर्द की कोई अपील काम नहीं करती. सो, उस दिन वे बस में यात्रा करने को मजबूर थे. लेकिन उन के पड़ोस वाली सीट पर एक सुंदर स्त्री आ कर बैठी जिस ने निहायत उम्दा सेंट लगा रखा था. वह यों महक रही थी कि नेताजी का ईमान डोलने लगा. वे धीरेधीरे उस के पास सरकने लगे. धीरेधीरे पास सरकने की या अवसर से न चूकने की कला सभी नेताओं को मानो घुट्टी में ही पिलाई जाती है.

सो, नेता सरकसरक कर महिला से एकदम सट गए. बिलकुल दबोच दिया उन्होंने उस बेचारी को. महिला बड़े संकट में फंसी थी. वह उन के अंदर के पुरुष का सम्मान भले न करती हो पर शुद्ध खद्दर और गांधी टोपी का लिहाज उसे था. कहे तो क्या कहे. जब बिलकुल ही सट गए, महिला को सांस लेना दूभर होने लगा तो फिर नेताजी ने ही कहा, ‘क्षमा करें, आप ने यह कौन सा सेंट लगा रखा है? मैं अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं.’ बोलतेबोलते नेताजी ने उस का हाथ अपने हाथ में लिया.

उस महिला ने मीठे स्वर में कहा, ‘जो गलती मैं ने की है उसे आप भी दोहराएंगे?’ नेताजी कुछ समझे नहीं. उन्होंने कहा, ‘मैं कुछ समझा नहीं.’ महिला ने उन के हाथ पर से हाथ फेरते हुए कहा, ‘क्या आप पसंद करेंगे कि अन्य लोग आप की पत्नी के इतने करीब आएं, उन के शरीर से बिलकुल सट कर पूछें कि आप ने कौन सा सेंट इस्तेमाल किया है, मैं भी अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं?’

जोक हिट तो स्टार हिट

हंसनेहंसाने के लिए मजाक किए जाते हैं, जोक्स बनाए जाते हैं, चुटकुले सुनाए जाते हैं. आज इंटरनैट के दौर में किसी ने कुछ गलत कहा नहीं कि उस पर मजेदार रिऐक्शंस सामने आ जाते हैं. इस से बौलीवुड की सैलिब्रिटीज भी बच नहीं पातीं. उन की कही बातों पर खूब मजे लिए जाते हैं. इस का थोड़ा मजा आप भी लीजिए :

आलिया भट्ट और वरुण धवन दोनों वाक कर रहे थे. तभी उन्हें 1 हजार रुपए का नोट पड़ा मिला.
आलिया : हम क्या करें?
वरुण : चल, 50-50 कर लेते हैं.
आलिया : यार, तो बाकी बचे 900 रुपयों का क्या होगा?

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आलिया भट्ट ने हैल्प डैस्क को कंप्यूटर की प्रौब्लम बताने के लिए फोन किया. 
आलिया : जब भी मैं अपना पासवर्ड डालती हूं तो स्टार, स्टार बन जाते हैं. इस में क्या खराबी है?
हैल्प डैस्क : डियर लेडी, स्टार आप की सेफ्टी के लिए दिखते हैं ताकि आप के पीछे खड़ा व्यक्ति आप का पासवर्ड न देख ले.
आलिया : हां, पर जब भी मैं टाइप करती हूं तब मेरे पीछे तो कोई खड़ा नहीं होता है.

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आलिया : सफोला औयल तो दे दिया भैया, इस के साथ का फ्री गिफ्ट नहीं दिया.
दुकानदार : मैम, इस के साथ कोई गिफ्ट नहीं है.
आलिया : उल्लू मत बनाओ, इस में तो लिखा है ‘कोलैस्ट्रौल-फ्री’.

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वरुण : तुम खाली पेट कितने सेब खा सकती हो?
आलिया : मैं 6 सेब खा सकती हूं.
वरुण : नहीं, तुम सिर्फ 1 सेब ही खा सकती हो क्योंकि दूसरा सेब खाने के बाद तुम्हारा पेट खाली थोड़ी न रहेगा.
आलिया : वाउ, क्या मस्त जोक था यह. मैं अपनी सहेली को बताती हूं.
आलिया अब श्रद्धा से : तू खाली पेट में कितने सेब खा सकती है?
श्रद्धा : मैं 10 सेब खा सकती हूं.
आलिया : पागल, 6 बोलती तो मैं तुझे मस्त जोक सुनाती.

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बिल गेट्स : आप का फेवरेट एमएस प्रोडक्ट कौन सा है? मेरा तो पावरपौइंट है.
आलिया : मेरा फेवरेट एमएस धौनी है.

ये कुछ जोक्स हैं जो बीते कुछ दिनों से हम सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर पढ़ कर खूब हंसते हैं और आलिया के लो आईक्यू लेवल का मजाक बनाते हैं. आखिर, आलिया भट्ट इन चुटकुलों की क्यों शिकार हो रही हैं, आइए जानते हैं :

‘राधा तेरी चुनरी’ गाने पर सैक्सी डांस करने वाली युवा अभिनेत्री आलिया भट्ट भले ही इस समय युवाओं की नं. 1 पसंद हों लेकिन वे बी टाउन में अपनी लो आईक्यू को ले कर सब से ज्यादा चर्चाओं में रहती हैं. आलिया के खुद के फैंस भी उन का सब से ज्यादा मजाक बनाते हैं लेकिन इस से उन की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ता. बीते कुछ समय से बी टाउन के सैलिब्रिटीज का सोशल मीडिया में जम कर मजाक उड़ाया गया है लेकिन बेवकूफी कहें या कम जानकारी, जिस के चलते सिर्फ आलिया भट्ट ही चर्चित रहीं. इस की शुरुआत डायरैक्टर करण जौहर के टीवी शो ‘कौफी विद करन’ शो से हुई, जहां आलिया कुछ सवालों के जवाब न दे सकीं और जिन के दिए तो काफी फनी दिए. इस के बाद से ही फेसबुक और ट्विटर पर उन के लो आईक्यू का जम कर मजाक बनाया गया. हालांकि, आलिया ने इस का बुरा नहीं माना और खुद पर बने चुटकुलों का भी मजा लिया. आखिर, आलिया इन जोक्स से खुश क्यों न हों, क्योंकि इस से वे फिल्मों के औफ सीजन के बावजूद पूरे साल चर्चा में जो बनी रहीं. अब पब्लिसिटी के लिए इतना तो सहना ही पड़ता है.

जरूरी नहीं लगती पढ़ाई

यह तो जगजाहिर है कि बौलीवुड इंडस्ट्री में स्टार किड्स को हाथोंहाथ लिया जाता है. एक पीढ़ी के सक्सैसफुल हो जाने पर उन के बच्चों के लिए दरवाजे खुल जाते हैं. अब इन में भी 2 कैटेगरी हैं. एक तो वे जो पकीपकाई खिचड़ी खाना चाहते हैं. दूसरे, थोड़ा हाईफाई व मौडर्न जमाने की दौड़ में शामिल कुछ युवा थोड़ीबहुत ऐक्ंटग सीख या बाथरूम सिंगिंग कर इस दौड़ में शामिल होते हैं. फिल्मों में जल्दी आने की होड़ में स्टार किड्स अपनी पढ़ाई तक पूरी नहीं करते और इंडस्ट्री का रुख कर लेते हैं. इस बात का एक उदाहरण देखिए :

स्कूल ड्रौपआउट आलिया भट्ट ने कुछ समय पहले प्रैसिडैंट का नाम पृथ्वीराज चौहान बता डाला. यही कारण है कि पढ़ाई पूरी न करने और कम जानकारी के चलते ही आलिया ने यह जवाब बड़े ही कौन्फिडैंट हो कर दिया. इस दौड़ में सिर्फ आलिया भट्ट ही नहीं, बल्कि कई युवा स्टार शामिल हैं. स्टार किड्स बी टाउन का रुख तो कर लेते हैं पर इस के लिए जरूरी बातों पर ध्यान देना जरूरी नहीं समझते.

कई स्टार किड्स तो पढ़ाई तो छोडि़ए, बी टाउन की जरूरी तैयारी भी नहीं करते. फिजिक, डांस, ऐक्शन और ऐक्ंटग यही बेसिक चीजें हैं जो किसी ऐक्टर या ऐक्टै्रस में सब से पहले देखी जाती हैं. इस दौड़ में शामिल अभिषेक बच्चन, तुषार कपूर, प्रतीक बब्बर, आर्य बब्बर, अरमान कोहली, फरदीन खान, सोहेब खान, तनीशा मुखर्जी, उदय चोपड़ा, बौबी देओल, जायद खान, इमरान खान, ऐशा देओल आदि शामिल हैं. ऐसे ही कुछ स्टार किड्स की एजुकेशन का हाल देखिए :

करिश्मा कपूर ने छठी क्लास पास की तो सलमान खान ने 10वीं पास कर कालेज ड्रौपआउट कर दिया तो वहीं मिस्टर परफैक्शनिस्ट आमिर खान ने भी 12वीं के बाद की पढ़ाई करनी जरूरी नहीं समझी.

किसकिस का बना मजाक

सोशल मीडिया पर आलिया भट्ट पर बने जोक्स की भरमार है तो वहीं कई और भी अभिनेता व अभिनेत्रियां हैं जिन पर भी सोशल मीडिया में जम कर मजाक बना है. आइए देखिए :

करिश्मा तन्ना : बिग बौस सीजन 8 में करिश्मा तन्ना की भी लो आईक्यू लेवल का खूब मजाक उड़ाया जा रहा है. जनरल नौलेज की कम जानकारी और मैथ्स की कैलकुलेशन गलत करने को ले कर करिश्मा सोशल मीडिया व खबरों में छाई हुई हैं. मिस तन्ना को इस वजह से खूब पब्लिसिटी मिल रही है और दर्शक भी उन्हें फाइनलिस्ट बनाने की दौड़ में शामिल करने के लिए धड़ाधड़ वोटों की बौछार कर रहे हैं. सीजन 8 में मेकअप करने वाली करिश्मा को अब उन की लो आईक्यू लेवल के लिए ज्यादा पहचाना जा रहा है, जिस का करिश्मा को फायदा ही मिल रहा है.

टाइगर श्रौफ : अपनी पहली फिल्म के पहले से ही चर्चित जैकी श्रौफ के बेटे युवा टाइगर श्रौफ के लुक्स और उन की फेयरनैस पर मजाक बनाया गया. हालांकि, टाइगर ने अपने पर बने जोक्स का खुल कर मजा लिया. अब टाइगर मजा लें भी क्यों न, आखिर उन की पहली फिल्म ‘हीरोपंती’ जो आने वाली थी. वैसे भी शर्मीले स्वभाव के टाइगर का कहना है कि अगर उन का काम अच्छा हुआ तो लोग उन्हें इस के लिए याद रखेंगे.

यामी गौतम : फेयर ऐंड लवली की ऐड फिल्म से चर्चित यामी गौतम का खूब मजाक बना. ‘गोरा निखार पाएं सिर्फ सात दिनों में’ को ले कर यामी सोशल मीडिया पर छाई रहती हैं. यामी ने अपने पर बने मजाकों पर कोई रिऐक्शन नहीं दिया. आखिर देना भी क्यों, यामी ने तो जैसे फेयर ऐंड लवली ऐड फिल्म का कौपीराइट ही ले लिया हो. अगर यामी बोलेंगी तो फसेंगी.

आलोक नाथ : आलोक नाथ का मजाक तो उन के लिए बड़ा ही अच्छा साबित हुआ. आखिर हो भी क्यों न, कोई उन्हें ‘बाबूजी’ कहता तो कोई संस्कारी पुरुष कह रहा था. कुछ लोग तो उन्हें यह भी कहते हैं कि बाबूजी तो बचपन से ही संस्कारी हैं. आलोक नाथ ने फिल्मों में जो काम किया था उन में उन का किरदार या तो संस्कारी होता या फिर वे एक गार्जियन की भूमिका में नजर आते. खैर, आलोक नाथ ने अपने पर बने इन चुटकुलों का खूब मजा लिया. अब भला आलोक को रिऐक्ट करने की कोई वजह मिली नहीं और फिर संस्कारी इमेज उन्हें अपने अनुरूप ही लगती भी है.

नील नितिन मुकेश : ये एकमात्र ऐसे ऐक्टर हैं जिन के नाम पर ही मजाक बना. हुआ यह कि लोगों ने इन के बर्थडे पर कह डाला कि क्या नील, 3 लोगों का बर्थडे मना रहे हो और क्या 3 लोग एकसाथ ही चलते हैं, अच्छा नील यहां हैं, तो बाकी लोग कहां हैं आदि. इन्हीं कमैंट्स से परेशान नील नितिन मुकेश ने रिऐक्ट करना शुरू कर दिया. उन्होंने अपने पर बनाए गए जोक्स को सीरियसली ले लिया. इस के बाद तो वे कई दिनों तक सोशल मीडिया में छाए रहे.

सोशल मीडिया से फायदा

आलोक नाथ स्पैशल मीडिया पर सब से पहले ट्रैंड बने यानी बाबूजी ने इंटरव्यू में माना है कि उन्हें इन मजाकों से काफी फायदा हुआ है. सोशल मीडिया पर ट्रैंड बनने के बाद आलोक नाथ कई कौमिक म्यूजिक वीडियो, न्यूज चैनल्स में भी दिखाई दिए और उन्हें कई टीवी सीरियल्स और कुछ फिल्में भी मिली हैं. ऐसे ही टाइगर श्रौफ अपनी फिल्म रिलीज के वक्त खूब चर्चा में बने रहे, भले ही मजाक की वजह से क्यों न हुआ हो. आलिया भट्ट चुटकुलों के चलते तब तक भले ही एक फिल्म की थी पर फिर भी वे अपनी दूसरी फिल्म के आने तक सोशल मीडिया पर छाई रहीं. खैर, कुल मिला कर इन चुटकुलों से अभी तक आलिया को फायदा ही मिला है.

हालांकि इन सब से पहले और सब से ज्यादा चुटकुले जिस स्टार पर बने, वे हैं रजनीकांत. रजनी के बारे में कहा जाता है कि वे मौर्निंग वाक पर निकलते हैं तो अमेरिका तक हो आते हैं या मोबाइल स्विच औफ होने पर सिर्फ रजनीकांत ही कौल कर सकते हैं. ऐसा रजनी के ऐक्शन और फिल्मों में चमत्कृत कर देने वाले कारनामों के चलते हुआ. इस सब से जाहिर है कि सैलिब्रिटीज इन दिनों गुड हों या बैड, हर तरह की पब्लिसिटी चाहते हैं और इस तरह सोशल मीडिया सभी की इनडायरैक्टली मदद ही कर रहा है. इस पर न तो पैसे खर्च होते हैं, न ही खबर में रहने के लिए न्यूज चैनलों का मुंह ताकना पड़ता है.

आलिया बनी होशियार

सोशल मीडिया पर आलिया के लो आईक्यू और चुटकुलों की लंबी फेहरिस्त से जहां उन्हें जम कर पब्लिसिटी मिली वहीं खुद पर बने जोक्स का आलिया ने भी खूब मजा लिया. इतना सब होने के कुछ दिनों बाद ही आलिया का एक कौमिक वीडियो रिलीज हुआ जिस में आलिया खुद पर बनी वीडियो पर हंस रही थीं और इस में उन्होंने खुद के होशियार होने वाली बातें भी कीं. इस वीडियो के रिलीज होते ही सब ने कहा, अब आलिया में भी दिमाग आ गया है और वे अब होशियार हो गई हैं.

महमूद की कौमिक टाइमिंग कमाल की थी : बोमन ईरानी

अभिनय जगत में 44 साल की उम्र में कदम रखने वाले हास्य अभिनेता बोमन ईरानी की जिंदगी की यात्रा काफी रोचक रही है. मुंबई में वेफर की दुकान पर नौकरी करने वाले बोमन फोटोग्राफर बने, फिर थिएटर से जुड़े और आज वे बौलीवुड के सफल चरित्र अभिनेता हैं. कुछ समय पहले प्रदर्शित फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ में उन के अभिनय को काफी सराहा गया. पेश हैं उन से हुई बातचीत के खास अंश : 

आप एक बेहतरीन अभिनेता हैं. पर 44 साल की उम्र में अभिनय को कैरियर बनाने की बात दिमाग में कैसे आई?

इस का मेरे पास जवाब नहीं है. मुझे स्कूल दिनों से ही अभिनय से लगाव रहा था. फिल्मों से जुड़ने से पहले मैं फोटोग्राफी करने के साथसाथ थिएटर किया करता था. उस से पहले 32 साल की उम्र तक मैं ने एक वेफर की दुकान में नौकरी की. फिर फोटोग्राफी करनी शुरू की. बतौर फोटोग्राफर, मैं मोटरसाइकिल और मोटरसाइकिल रेस की फोटो खींचा करता था. फिर शामक डावर और अलिक पदमशी से मुलाकात हुई. अलिक पदमशी के साथ मैं ने पहला नाटक ‘रोशनी’ किया था. उस के बाद 10 साल तक थिएटर से जुड़ा रहा. एक दिन फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा ने मुझे फोन किया और पूछा कि क्या मैं फिल्म में अभिनय करना चाहूंगा. उस के बाद मैं फिल्मों से जुड़ गया.

आप ने फिल्मों में कौमेडी के साथसाथ कुछ गंभीर किस्म के किरदार भी निभाए हैं. मगर आप की पहचान एक कौमेडी कलाकार के रूप में बनी हुई है?

मैं ने खुद को किसी सीमा में बांधने का प्रयास कभी नहीं किया पर लोगों को जो परफौर्मेंस अच्छी लगती है, उसे वे याद रखते हैं. जब कौमेडी ऐक्टर के रूप में मेरी पहचान बन गई तो इसे तोड़ने के लिए मैं ने ‘खोसला का घोंसला’ जैसी फिल्म भी की.

पुरानी कौमेडी फिल्मों के मुकाबले अब लोग सैक्स कौमेडी बनाने लगे हैं?

कितनी सैक्स कौमेडी वाली फिल्में बनीं? एक ‘ग्रैंड मस्ती’ बनी. इसे दर्शकों ने पसंद किया. 100 करोड़ का बिजनैस किया. देखिए, फिल्में लंबे समय को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं. दर्शक अपनी पसंद की फिल्में देखने जाता है. इसलिए यह नहीं कहा जाना चाहिए कि अब यह दौर चल रहा है. ‘शोले’ सुपरहिट थी, पर उस के बाद दूसरी ‘शोले’ नहीं बनी. यह मूर्ख लोग सोचते हैं कि यह फिल्म हिट हुई तो मैं भी इसी तरह की फिल्म बनाऊंगा. ‘शोले’ के बाद हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘गोलमाल’ हिट हुई थी. ‘शान’ असफल नहीं थी, उस ने अच्छा बिजनैस किया था.

कौमेडी वाले किरदार में इमोशन कितना जरूरी?

इमोशन के बिना कौमेडी, हर चरित्र बेकार है. इमोशन भी दिल से निकलना चाहिए.

आप की कौमेडी को लोग बहुत पसंद करते हैं. आप किस तरह की कौमेडी के पैरोकार हैं?

मुझे हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्मों की कौमेडी पसंद है. मैं एडल्ट या सैक्स कौमेडी नहीं कर सकता. पर मैं इन्हें बुरी फिल्म की श्रेणी में भी नहीं मानता. आखिर सैक्स कौमेडी वाली फिल्म ‘ग्रैंड मस्ती’ ने सौ करोड़ का बिजनैस किया. इस का मतलब हुआ कि इस तरह की फिल्में दर्शक देखना चाहते हैं. लेकिन इस तरह की फिल्मों में मैं खुद को सहज नहीं पाता. मुझे ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ और ‘थ्री इडियट्स’ जैसी फिल्में करने में ज्यादा आनंद आया. मैं यह बताना चाहूंगा कि मैं ‘थ्री इडियट्स’ के वायरस के किरदार को फनी नहीं, बल्कि डार्क किरदार मानता हूं.

आप हृषिकेश मुखर्जी की कौमेडी पसंद करते हैं. मगर आप ने हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘शौकीन’ के रीमेक में काम करने से मना कर दिया?

आप ने एकदम दुरुस्त फरमाया. मैं हृषिकेश मुखर्जी जैसी कौमेडी फिल्मों को खूब पसंद करता हूं. इस के बावजूद यह महज इत्तफाक है कि मैं ने उन की ‘शौकीन’ के रीमेक फिल्मों को करने से मना कर दिया. इस की वजह यह नहीं थी कि वे सब कहानियां वल्गर थीं. मुझे स्क्रिप्ट पसंद नहीं आई. पुरानी ‘शौकीन’ इसलिए हिट हुई थी क्योंकि उस में कुछ चार्मिंग था. मैं ‘ग्रैंड मस्ती’ या ‘क्या कूल हैं हम’ के खिलाफ नहीं हूं.

आप किस हास्य कलाकार के प्रशंसक हैं?

मैं महमूदजी का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं. वे सही मानों में अदाकार थे. उन की कौमिक टाइमिंग कमाल की थी. मजेदार बात यह है कि कौमेडी के साथ ही उन्होंने सामाजिक संदेश देने वाली फिल्में भी कीं. मेरी राय में वे सिर्फ मेरे ही नहीं बल्कि तमाम कलाकारों के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं. यदि मैं ने अपने कैरियर में महमूद के मुकाबले 20 प्रतिशत भी सफलता पा ली, तो यह मेरे लिए गर्व की बात होगी. उन के बाद मैं जौनी लीवर का प्रशंसक हूं. उन्हें प्रकृति ने अनुपम उपहार दिया है. वे आप के कमरे के अंदर आएंगे और कुछ ऐसा कहेंगे कि आप हंसतेहंसते लोटपोट हुए नहीं रह सकते.

हर कलाकार बड़ी फिल्मों का हिस्सा बनना चाहता है?

बड़ी फिल्मों का हिस्सा बनना अच्छी बात है मगर हर कलाकार को खुद के लिए भी खड़ा होना आना चाहिए. शाहरुख खान और आमिर खान जैसे कलाकारों के साथ काम करना सब से बड़ी चुनौती होती है. क्योंकि उस वक्त कलाकार के तौर पर अपनी पहचान को खोने न देने का मुद्दा हावी रहता है.

आप को कब हंसी आती है?

मुझे तो कई बार अति गंभीर बातों या हालात पर भी हंसी आ जाती है. तो कई बार हास्यप्रद घटनाएं भी हंसा नहीं पातीं. कई बार हास्यप्रद जोक्स सुनाने वाला इंसान भी फनी नहीं लगता.

आप की नजर में सब से दुखद बात?

जब आप जोक्स सुनाएं और किसी को भी हंसी न आए.

कलाकार के तौर पर सैट पर आप किस तरह से काम करते हैं?

मेरी कोशिश होती है कि मैं सिर्फ चरित्र को न निभाऊं, मैं चरित्र निभाने के साथसाथ कहानी को भी ले कर चलता हूं. दूसरी बात, मैं हर चरित्र को ले कर तैयारी करता हूं. सैट पर हर सीन के फिल्मांकन से पहले मैं अपनी तरफ से निर्देशक को 4-5 तरीके से उस सीन को कर के दिखाता हूं और उसे चुनने का मौका देता हूं कि उसे क्या चाहिए. कलाकार के तौर पर निर्देशक के सामने चौइस रखना हमारा काम है. मेरी राय में कलाकार को संकोची और बेशर्म दोनों होना चाहिए.

किसी चरित्र को निभाने में लुक की कितनी अहमियत होती है?

लुक बहुत बाद में आता है. पहले तो स्क्रिप्ट पढ़ कर स्क्रिप्ट के मूड को पकड़ना जरूरी होता है. फिल्म की थीम को समझ कर वहां से चरित्र को निकालो. पर लुक महत्त्व रखता है. जींस पहनने पर टोन अलग होता है. पजामा पहनने पर टोन अलग होता है. लुक से आप का बिहेवियर परिभाषित होता है.

आप का अपना स्वभाव?

मैं स्पष्टवक्ता हूं. इमोशनल इंसान हूं. बिना किसी से प्रतिस्पर्धा किए अपने सपनों को पूरा करना चाहता हूं.

आप की सफलता का राज?

मैं अपने हर चरित्र को ले कर सैकड़ों सवाल किया करता हूं-कब, क्यों, कैसे, कहां. मसलन, फिल्म ‘बींग सायरस’ में मैं खुद आश्चर्यचकित था कि मेरा पात्र प्रेम इस कदर गुस्सैल कैसे हो सकता है?

आप की सब से बड़ी ताकत?

मेरी पत्नी. वे एक अच्छी पार्टनर हैं. मैं एक इंसान के तौर पर उन्हें बहुत इज्जत देता हूं. जब भी मैं कहीं गलत होता हूं तो वे मुझे बताती हैं कि मुझे क्या करना चाहिए. वे कहती हैं कि इसे मेरी राय नहीं बल्कि केयर मान कर चलें.

आप अपने बेटे के साथ भी एक फिल्म कर रहे हैं?

जी हां, मनीष झा एक कामैडी फिल्म ‘द लीजेंड औफ माइकल मिश्रा’ निर्देशित कर रहे हैं, जिस में मैं अपने बेटे कायोजी ईरानी के साथ नजर आऊंगा. इस में अरशद वारसी और अदिति राव हैदरी भी हैं. इस में हम दोनों पितापुत्र की भूमिका में नहीं हैं. हम दोनों के किरदार अलगअलग हैं. मेरे किरदार का नाम ‘फुल पैंट’ और मेरे बेटे कियाजो के किरदार का नाम ‘हाफ पैंट’ है. हम दोनों बिहारी बने हुए हैं.

क्या यह माना जाए कि आप के लिए एक निर्देशक शिक्षक की तरह होता है?

बिलकुल नहीं, एक अच्छे कलाकार के लिए निर्देशक कभी भी शिक्षक नहीं होता. निर्देशक एक गाइड की तरह कलाकार को चरित्र निभाने में साथ देता है. कई बार ऐसा होता है कि हमें उन किरदारों के लिए प्रशंसा मिलती है जिन के लिए हमें ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती, तो वहीं जिन के लिए हम सब से ज्यादा मेहनत करते हैं, उस पात्र के लिए हमें एक शब्द भी सुनने को नहीं मिलता.

आप के पसंदीदा निर्देशक?

फरहा खान और राज कुमार हिरानी बेहतरीन निर्देशक हैं. मैं तो फरहा खान को आज का मनमोहन देसाई मानता हूं. मैडनेस, स्पिरिट सब कुछ बेहतरीन. मुझे उन पर गर्व है. उन के साथ हीरो बन कर आया, रोमांटिक फिल्म की और एंजौय किया.

आप को अपनी कौन सी फिल्म सब से ज्यादा पसंद है?

मैं सब से बड़ा आलोचक हूं. इसलिए मैं अपनी फिल्में कभी नहीं देखता.

इन दिनों फिल्म प्रमोशन पर बहुत जोर दिया जाता है. इस पर आप की क्या राय है?

फिल्म का प्रमोशन न करने का अर्थ यह होता है कि हमें घमंड आ गया है. मैं चरित्र अभिनेता हूं फिर भी मैं ने फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के लिए 140 दिन शूटिंग की थी. इतनी मेहनत करने के बाद यदि हम फिल्म को प्रमोट नहीं करते हैं तो इस से हमारे अंदर का ईगो ही सामने आता है. फिल्म को प्रमोट करने से दर्शकों के बीच अवेयरनैस पैदा होती है. शाहरुख खान की फिल्म है तो सफल होना तय है. इस वजह से हमें ऐसा काम नहीं करना चाहिए जो हमें घमंडी साबित करे. हम प्रमोट करते हुए बताते हैं कि हमारी फिल्म में क्या है. यदि हमारी फिल्म के कंटेंट को दर्शक नहीं देखना चाहता, तो वह थिएटर के अंदर नहीं आएगा. महंगा टिकट खरीद कर उसे अफसोस तो नहीं होगा.

फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के प्रमोशन के लिए तो आप विदेशों में स्लैम टूर करने गए थे?

‘हैप्पी न्यू ईयर’ का सीक्वल बनना है. इसीलिए स्लैम टूर किया गया. 135 लोगों का पूरा ग्रुप गया था. यह हंसीमजाक नहीं है. सिर्फ फिल्म के प्रमोशन के लिए यह टूर नहीं था. हम अमेरिका के गूगल मुख्यालय भी गए. इस स्लैम टूर के दौरान मैं ने डांस किया, कौमेडी की.

अब आप थिएटर को ‘मिस’ करते हैं या नहीं?

बहुत ज्यादा मिस करता हूं.

पाठकों की समस्याएं

मेरी मां की उम्र 70 वर्ष है. पिता के गुजर जाने के बाद उन्हें अकेलापन महसूस होता है. वे किसी सोशल नैटवर्किंग से जुड़ना चाहती हैं जहां वे अपना खाली समय बिता सकें और जरूरतमंदों की सहायता भी कर सकें. कृपया मार्गदर्शन करें. 

अगर आप की मां शिक्षित हैं तो उन से कहिए कि वे छोटे बच्चों को पढ़ाने का कार्य करें. इस से उन का समय तो व्यतीत होगा ही, बच्चों को शिक्षित करने में खुशी भी मिलेगी. आमदनी होगी सो अलग. इस से उन का अन्य लोगों से मेलजोल भी बढ़ेगा. अगर वे खाना पकाने में दक्ष हैं तो कुकरी क्लासेज या कैटरिंग का काम भी घर बैठे कर सकती हैं. मदद के लिए सहायक रख लें. ऐसा करने से आर्थिक मदद तो होगी ही, साथ ही समय का सदुपयोग भी होगा. इस आयु के हर जने को उम्र के इस पड़ाव की समस्याओं के प्रति एहसास भी होना चाहिए क्योंकि ज्यादा काम या तनाव नुकसानदायक भी हो सकता है.

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मैं विवाहित पुरुष हूं. विवाह को 7 साल हो गए हैं. विवाह के बाद बहुत देर से मेरे बच्चा हुआ है. मैं अपनी बीवी और बच्चे को बहुत प्यार करता हूं. समस्या यह है कि दूर के रिश्ते में मेरी एक भाभी हैं. उन के विवाह को 10 वर्ष हो गए हैं. उन के अभी तक कोई संतान नहीं है. डाक्टरों का कहना है कि पति की शारीरिक कमी के कारण वे मां नहीं बन पाएंगी. भाभी चाहती हैं कि संतान उत्पत्ति में मैं उन का साथ दूं ताकि वे मां बनने का सुख प्राप्त कर सकें. मैं क्या करूं, उचित सलाह दीजिए.

आज के वैज्ञानिक युग में नित नए आविष्कार हो रहे हैं. निसंतानों के लिए संतानप्राप्ति के लिए आईवीएफ जैसी तकनीक उपलब्ध है जिस के सहारे कोई भी दंपती संतानप्राप्ति का सुख पा सकता है. इस के लिए आप किसी आईवीएफ स्पैशलिस्ट से संपर्क करने को कहें. भाभी की मदद का खयाल मन से निकाल दें. यह बेवकूफीभरा कदम होगा जो न केवल आप के व आप की पत्नी के बीच के रिश्ते को उलझाएगा बल्कि आप के भाभी के साथ के रिश्ते को भी कठिन बना देगा व समाज भी इसे गलत निगाह से देखेगा.

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मैं 20 वर्षीय अविवाहित हूं. मैं जहां नौकरी करता हूं वहां मेरे साथ एक अन्य लड़की भी कार्य करती है. मैं उस से प्यार करने लगा हूं. समस्या यह है कि मैं हिंदू धर्म का हूं और वह लड़की मुसलिम धर्म की है. वह मेरे धर्म के बारे में कुछ नहीं जानती. मैं जब भी उस की ओर देखता हूं वह भी मुड़मुड़ कर मेरी तरफ देखती है. मैं उस से अपने प्यार का इजहार करने से डरता हूं. मुझे लगता है कि कहीं वह सब के सामने मना न कर दे या उसे बुरा लगे और वह मेरे साथ कोई गलत व्यवहार कर दे. मैं क्या करूं, राय दीजिए.

प्यार के बीच धर्म कहां से आ गया. अगर आप उसे पसंद करते हैं, चाहते हैं तो उस से अपने प्यार का इजहार कीजिए. उस की भावनाओं को जानिए कि क्या वह भी आप से प्यार करती है या सिर्फ दोस्ती चाहती है. अगर उस की तरफ से जवाब हां में मिलता है तो बात को आगे बढ़ाइए. अपने परिवार वालों से इस बारे में बात कीजिए. बिना लड़की की फीलिंग्स जाने खयाली पुलाव मत पकाइए.

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मैं विवाहिता हूं. विवाह को 6 वर्ष हो चुके हैं. विवाह के बाद कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा लेकिन बाद में पता चला कि वे विवाह से पूर्व शराब बहुत पीते थे. उन्होंने अब फिर से शराब पीनी शुरू कर दी है. मैं मना करती हूं, समझाती हूं तो मानते नहीं और मुझ पर शक अलग करते हैं, मारपीट करते हैं. मैं और वे आंगनवाड़ी में कार्य करते हैं. वे अपनी आय का कोई हिसाब नहीं देते. मैं एक अनाथ हूं. दुनिया में मेरा कोई और नहीं है. मैं अलग रहने के लिए कहती हूं, तो अलग रहने नहीं देते. बहुत परेशान हूं. क्या करूं, राय दीजिए.

आप के केस में अच्छी बात है कि आप आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. नशा किसी भी खुशहाल परिवार को बरबाद करने का कारण बनता है. यही आप के साथ भी हो रहा है. आप अपने पति की नशे की लत को छुड़ाने के लिए किसी नशामुक्ति केंद्र से संपर्क करें. उन से खुल कर सीधेसीधे बात करें. अगर मानते हैं तो ठीक है वरना कानूनी कदम उठाने की धमकी दीजिए. ऐसा करने से वे अवश्य राह पर आ जाएंगे.

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मैं 22 वर्षीय विवाहिता हूं. विवाह को 2 वर्ष होने वाले हैं. समस्या यह है कि मैं एक संयुक्त परिवार में रहती हूं जिस में रहने के नाम पर केवल 2 कमरे हैं और सदस्य काफी अधिक हैं. एक कमरे में मेरे जेठ, जेठानी और उन का बच्चा सोता है जबकि दूसरे कमरे में मैं, मेरे पति, सास, ससुर व ननद सोती है जिस की वजह से हमारे बीच पतिपत्नी का रिश्ता भी नहीं बन पाया है. मैं पति से कई बार अलग कमरे के लिए कह चुकी हूं पर वे मेरी बात को टाल देते हैं. मैं ने इस बारे में सास से भी बात की है. वे भी मेरी बात को टाल देती हैं. इसी वजह से हम परिवार बढ़ाने के बारे में भी नहीं सोच पा रहे हैं. क्या करूं, समझ नहीं आता. सलाह दीजिए.

यह सरासर आप के साथ ज्यादती है. आप इस बारे में खुल कर सख्त शब्दों में घर वालों से बात कीजिए. सास आप की बात को इसलिए अनदेखा कर रही हैं क्योंकि वे इस से प्रभावित नहीं हैं. जिंदगी आप की प्रभावित हो रही है, इस के लिए आप को ही कदम उठाना होगा. आप पति से साफसाफ कहिए कि वे अलग कमरे का इंतजाम करें वरना मैं मायके चली जाऊंगी. वे इसे बहुत दिनों तक बरदाश्त नहीं कर पाएंगे, साथ ही घर वाले भी समाज के सामने यह बात जाहिर नहीं होने देना चाहेंगे. इसलिए वे जरूर आप की बात सुनेंगे और हल निकालेंगे.  

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