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यों निहारो न कनखियों से

कुंआरी सुबह हो जाएगी
दोशीजा रात ढल जाएगी
रुख से हटा दो परदा

मेरी तकदीर बदल जाएगी
कातिल नाजो अदाएं
लजीली शोख कटारी चितवन
रेशमी आंचल लहरा दो

रुत बसंती दहल जाएगी
तू इंतजार में अपने
पलट कर हाल तो देख ले मेरा
डाल दे निगाहे करम

शबनमी चाहत पिघल जाएगी
बर्फ सी चमक
शोलों की खूबसूरत लपक है तुझ में
सामने देख कर

तबीयत हर एक की मचल जाएगी
दहकते सुर्ख लबो रुखसार
कसमसाती यौवन कलियां
छू लिया जो तुम्हें तो

मेरी उंगली ही जल जाएगी
नखशिख सोया है
मीठा मादक प्रणय संगीत तुझ में
तेरी चूडि़यों में, पायलों में

सरगम सी बिछल जाएगी
उनींदी पलकें, कजरारी आंखें
संगमरमरी गोरी बांहें
मौत भी आ गई हो

तो बहाने बना कर टल जाएगी
तू न चाहे तो तुझे पा कर भी
कोई कभी पा नहीं सकता
तू जो चाहे तो??

हंसी उल्फत जन्नत तक उछल जाएगी
ये तेरा ही नरम तसव्वुर है
या तेरी बेशुमार तमन्नाएं
तेरी यादों की नदिया

इक रोज मुझे निगल जाएगी
यों निहारो न कनखियों से
मेरी आरजू बहल जाएगी
संभाल नहीं पाओगी
तन से ओढ़नी फिसल जाएगी.

सुभाष चंद्र झा

पाठकों की समस्याए

मैं 40 वर्षीय महिला हूं, ऐसे पुरुष से प्यार करती हूं जो मेरी ही उम्र का है और विवाहित है. लेकिन एक ही घर में रहते हुए वह व उस की पत्नी अलगअलग रहते हैं. उस की 3 साल की बेटी है. मैं यह सब जानते हुए भी उस से प्यार कर बैठी. क्या मैं गलत कर रही हूं? अगर गलत है तो उपाय बताइए.

एक विवाहित पुरुष से, वह भी जिस की एक बेटी भी है, प्यार करना एक बड़ा जोखिम लेना और खुद से खिलवाड़ करना है. आप का ऐसा करना उन पतिपत्नी के रिश्ते में मुश्किलें ही नहीं खड़ी करेगा बल्कि आप के हाथ भी कुछ नहीं लगेगा. पतिपत्नी के बीच अलगाव के कई कारण हो सकते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह पुरुष आप के लिए अपनी पत्नी और बेटी को छोड़ ही देगा. और अगर छोड़ भी दे तो उस स्थिति में आप उस परिवार के बिखरने का कारण बनेंगी. इसलिए इस स्थिति में आप एक अच्छे दोस्त की तरह उस पुरुष से मात्र दोस्ती रखिए, उस के वैवाहिक जीवन में दरार का कारण मत बनिए. आप यह मान कर चलिए कि आप जो कर रही हैं उस में भविष्य में कोई लाभ न मिलेगा.

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मैं 23 वर्षीय महिला हूं. विवाह को 3 वर्ष हो गए हैं. पति पुलिस विभाग में कौंस्टेबल हैं. मुझे पता चला है कि शादी से पहले मेरे पति किसी लड़की से प्यार करते थे जिस की अब शादी हो चुकी है और उस का एक बेटा भी है. मैं ने कई बार अपने पति को उस से बात करते भी सुना है. मैं अपने पति से बहुत प्यार करती हूं. मेरे पति दूसरे शहर में रहते हैं. मैं जब भी उन को अपने साथ ले जाने को कहती हूं, वे इनकार कर देते हैं. मुझे डर है कि उस लड़की का मेरे पति से अब भी रिश्ता है. मुझे अपने पति को उस लड़की से दूर करने के लिए क्या करना चाहिए?

शादी से पहले के संबंधों को आप अधिक तूल मत दीजिए, खासकर जब वह लड़की अब शादीशुदा है और उस का एक बेटा भी है. जहां तक उस लड़की के साथ आप के पति द्वारा बात करने की बात है, उसे सामान्य समझिए. हां, आप अपने पति से जिद कर अपने साथ ले जाने को कहिए. अपने साथ न ले जाने का कारण पूछिए. क्या पता आप को साथ न ले जाने का कोई सही कारण हो. मसलन, वहां रहने की सही सुविधा न होना आदि. पति का प्यार से दिल जीतिए और जब एक बार आप दोनों साथ रहने लगेंगे तो वे पुराने रिश्ते को भूल भी जाएंगे.

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मैं 35 वर्षीय विवाहित पुरुष हूं और 2 बच्चों का पिता हूं. पिछले 5 वर्षों से मेरा एक तलाकशुदा महिला से बहुत गहरा संबंध था. मेरा यह संबंध शादी से पहले स्कूल टाइम में भी था. मेरी समस्या यह है कि कुछ दिनों पहले उस महिला की दूसरी शादी हो गई है और उस ने पूरी तरह से मुझ से रिश्ता तोड़ लिया है. यहां तक कि फोन पर भी बात करना छोड़ दिया है. उस का यह बदला व्यवहार मैं बरदाश्त नहीं कर पा रहा हूं. मैं पूरी तरह से टूट चुका हूं और शराब भी पीने लगा हूं. मैं क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा.

पहली बात तो यह कि एक विवाहित और 2 बच्चों के पिता को ऐसा संबंध रखना शोभा नहीं देता. लेकिन आप के केस में अच्छी बात यह है कि उस महिला की दूसरी जगह शादी हो गई है और उस ने स्वयं ही आप से सारे संबंध तोड़ लिए हैं. उस महिला की जुदाई में नशा करना समझदारी का काम नहीं है. आप के लिए अच्छा यही है कि आप अपना ध्यान अपने घरपरिवार और बच्चों पर लगाएं. धीरेधीरे सब सामान्य हो जाएगा.

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मैं 28 वर्षीय महिला हूं, मेरा विवाह हुए 10 वर्ष हो चुके हैं. मेरे 3 बच्चे भी हैं. समस्या यह है कि पिछले 2 साल से  पति के तेवर कुछ बदलेबदले नजर आ रहे हैं. मैं ने उन के 2-3 अफेयर पकड़े हैं. आजकल वेअफीम भी खाने लगे हैं. और तो और, उन्होंने काम करना भी छोड़ दिया है. मैं बहुत परेशान हूं, क्या करूं? सलाह दीजिए.

आप के पति गलत संगत में पड़ चुके हैं जिस की वजह से उन्होंने घरपरिवार की जिम्मेदारी से अनदेखी कर ली है और कामकाज छोड़ कर घर पर बैठ गए हैं. उन का ऐसा रवैया अधिक दिन नहीं चल सकता क्योंकि घरपरिवार की जिम्मेदारी बिना पैसों के पूरी नहीं हो सकती. इस से पहले कि वे अपनी इस आदत के कारण किसी अपराध में संलग्न हो जाएं या किसी अन्य मुसीबत में पड़ जाएं, वे जब भी सामान्य हों उन से साफसाफ बात कीजिए. अगर वे सुधर जाते हैं तो ठीक है वरना कानूनी मदद ले सकती हैं, जिस में उन्हें आप को गुजाराभत्ता तो देना ही होगा.

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मैं 30 वर्षीय विवाहित महिला हूं. विवाह को 8 वर्ष हो गए हैं. सासससुर साथ में रहते हैं. मेरी सास मुझ से बहुत बुरा व्यवहार करती हैं. घर काफी बड़ा है, साफसफाई को ले कर हमेशा ताने मारती हैं. मेरे 3 बच्चे भी हैं. कुल मिला कर हम 7 लोग हैं. सास तानाशाही चलाती हैं. कामवाली लगाने नहीं देतीं. हम अलग भी नहीं हो सकते. कृपया मेरी समस्या का समाधान बताइए.

जहां तक साफसफाई का सवाल है बड़ेबुजुर्गों को यह समस्या रहती है. वे अपने समय से तुलना करते हैं कि हम ऐसा करते थे, हम इतना काम अकेले कर लेते थे. लेकिन शायद वे नहीं जानते तब बड़ेबड़े परिवार हुआ करते थे जहां मिलजुल कर काम हो जाते थे. लेकिन आप के केस में आप के 3 छोटे बच्चे भी हैं और आप अकेली हैं. इसलिए पति से बात कीजिए और मदद के लिए किसी कामवाली को लगवाने को कहिए. आप अलग होने की मत सोचिए क्योंकि इस से न केवल आर्थिक बोझ बढ़ेगा बल्कि छोटे बच्चों की देखभाल में बुजुर्गों की जो सलाह व सहारा मिल रहा है उस से आप वंचित भी हो जाएंगी.

महिला सुरक्षा और अंधा समाज

29 वर्षीय रति त्रिपाठी जम्मूतवी से इंदौर जाने वाली मालवा ऐक्सप्रैस में दिल्ली से एस-7 कोच में सवार हुई थी. पेशे से दिल्ली के एक कोचिंग इंस्टिट्यूट में काउंसलर रति उज्जैन जा रही थी. मालवा ऐक्सप्रैस तड़के 4 बजे ललितपुर रेलवे स्टेशन पहुंची तो लफंगे से दिखने वाले 2 युवक रति की बर्थ पर आ कर बैठ गए. रति ने एतराज जताया तो दोनों उठ कर चले गए. रति चादर ओढ़, बेफिक्र हो कर दोबारा सोने का उपक्रम करने लगी पर आरक्षित कोच के यात्रियों की यह परेशानी उस के जेहन में आई कि कैसा महकमा है रेलवे का, जिसे देखो मुंह उठाए घुसा चला आता है और बर्थ पर बैठ जाता है. दूसरे आम लोगों की तरह इस अव्यवस्था पर रति पूरी तरह मन ही मन भुनभुना भी नहीं पाई थी कि दोनों युवक फिर आ धमके. ट्रेन अब तक रफ्तार पकड़ चुकी थी. इस दफा दोनों ने बजाय बैठने के सिरहाने रखा रति का पर्स उठा लिया. रति ने हिम्मत दिखाते अपना पर्स वापस खींचा तो झूमाझटकी शुरू हो गई. इसी झूमाझटकी में इन मवालियों ने रति को धकियाते हुए उसे दरवाजे के बाहर फेंक दिया और उड़नछू हो गए.

रति जहां गिरी वह बीना के नजदीक करोंद रेलवे स्टेशन था. सुबहसुबह गांव वालों ने पटरियों के किनारे पड़ी इस युवती को देखा तो पुलिस को खबर की. पुलिस आई, रिपोर्ट दर्ज की और रति को इलाज के लिए बीना भेज दिया. बेहोश रति के सिर में गंभीर चोट थी और उस की नाक भी टूट गई थी. हालत गंभीर देख उसे बीना से सागर और फिर वहां से भोपाल रैफर कर दिया गया. रति की मां मिथ्या त्रिपाठी 20 नवंबर की दोपहर बेटी को लेने उज्जैन स्टेशन पहुंचीं तो वह कोच में नहीं मिली. इस पर स्वाभाविक रूप से वे घबरा उठीं और उतर रहे व एस-7 कोच में बैठे यात्रियों से पूछताछ की तो पता चला रति का झगड़ा और झूमाझटकी ललितपुर स्टेशन के बाद 2 लोगों से हुई थी. तुरंत मिथ्या ने पति व बेटे को मोबाइल फोन से खबर दी. कुछ देर बाद पता चला कि रति भोपाल में अस्पताल में भरती है तो सारे लोग भागेभागे भोपाल गए.

इस बात पर बवंडर मचा पर उस से कुछ हासिल नहीं हुआ और जो हुआ वह बेहद चौंका देने वाला है. चौंका देने वाली बात यह नहीं है कि 2 गुंडों ने चलती ट्रेन से एक युवती को बाहर फेंक दिया. चौंका देने वाली बात यह है कि जब रति अपने व अपने पर्स के बचाव के लिए गुंडों से जूझ रही थी तब उस के आसपास के मुसाफिर चैन की नींद सो रहे थे. इन सो रहे यात्रियों में से कुछ ने उसी नींद में ही इस वारदात का ट्वीट किया था. बड़ी मशक्कत के बाद आरोपी पुलिस की गिरफ्त में आया.

स्लीपर कोच की बनावट ऐसी होती है कि कोई जोर से छींके तो भी सहयात्रियों को दिक्कत होती है. फिर रति तो 2 गुंडों से उलझ रही थी. जाहिर है यह सब शांतिपूर्वक नहीं हो रहा था, इस में शोर भी मचा था और रति ने चिल्ला कर मदद के लिए गुहार भी लगाई थी. रेलवे के नियमकानूनों के मुताबिक कंडक्टर को कोच में मौजूद होना चाहिए था पर वह नहीं था. यह कडंक्टर अकसर नहीं मिलता. रात को टिकट देखने के बाद वह दूसरे कंडक्टरों की तरह एसी कोच में जा कर सो गया था. मुसाफिरों की हिफाजत के लिए चलती ट्रेन में ड्यूटी बजाने वाले रेलवे पुलिस के जवान नदारद थे. लिहाजा, हादसा तो होना ही था.

उदासीनता या डर

मुद्दे की बातें कई हैं पर उन में सब से अहम है रति के सहयात्रियों का सोते रहना. वे लोग दरअसल सो नहीं रहे थे बल्कि सोेने का नाटक कर रहे थे. यही आज का हमारा समाज और उस की उदासीनता है कि 2 गुंडे एक लड़की से झूमाझटकी कर रहे हैं तो उसे बचाओ मत, किसी लफड़े में मत पड़ो, लिहाफ ओढ़े सोते रहो और सुबह अपने गंतव्य पर उतर कर घर जाओ. और फिर चौराहों पर, दफ्तर में, घर में व यारदोस्तों के बीच जहां भी मौका मिले चटखारे लेले कर देश की कानून व्यवस्था, असुरक्षित माहौल और पुलिस को पानी पीपी कर कोसो. साथ ही, खुद को बहस के जरिए बुद्धिजीवी व जागरूक नागरिक साबित करो. यह वीरों की भूमि और बहादुरों का देश है जहां के मर्द एक लुटती युवती को देख दुबक जाते हैं और इस बुजदिली के पीछे उन की अपनी दलीलें हैं कि कौन बेवजह फसाद में पड़े. पहले गुंडों से पंगा ले कर जान जोखिम में डालो, फिर पुलिसअदालत के चक्कर में पड़ कर वक्त और पैसा जाया करो और हमें इस से मिलना क्या है.

मर्दों के दबदबे वाले हमारे समाज में ‘वाकई कोई मर्द है’ कहने में हिचक महसूस होती है. नामर्द कई हैं, यह कहना कतई शर्म की या घटिया बात नहीं. बातों के बताशों में बहादुरी जताने वाले लोग इतने संवेदनशील और कायर क्यों हैं कि एक लड़की की हिफाजत भी नहीं कर सकते? अगर उस दिन 2 लोग भी अपनी बुजदिली छोड़ कर गुंडों के मुकाबले में रति की मदद करते तो गुंडे दुमदबा कर भागते नजर आते. जरूरत इस बात की महसूस होने लगी है कि इन और ऐसे लोगों को भी सहअभियुक्त बनाया जाए, सहअभियुक्त उस कंडक्टर और उन रेलवे पुलिसकर्मियों को भी बनाया जाना चाहिए जिन की ड्यूटी थी. सच, कड़वा सच यह है कि पुरुष चाहते हैं कि औरत इसी तरह लुटतीपिटती रहे और बेइज्जत होती रहे. हम ने उस की हिफाजत का ठेका नहीं ले रखा है. उलटे यह सब करने की गुंडों को शह व छूट दे रखी है. शुक्र इस बात का है कि ऐसी वारदातों के वक्त सभ्य समाज के ये शरीफजादे गुंडों का साथ नहीं देते, यह उन का एहसान है, सामाजिक सरोकारों और नैतिक जिम्मेदारियों की तो बात करना बेमानी है.

अहम सवाल अब पुरुष मानसिकता का है जो औरत को ‘सामान’, ‘आइटम’, ‘पटाखा’, ‘फुलझड़ी’ और ललितपुर के गुंडों की भाषा में कहें तो ‘माल’ समझता व कहता है. अकेली लड़की को देख वे उस पर हमला करते हैं तो उन्हें मालूम रहता है कि कोई कुछ नहीं बोलेगा. इस वारदात ने साबित कर दिया है कि दबंग वे लोग नहीं हैं जो कान में ईयरफोन लगाए दीनदुनिया से बेखबर गीतसंगीत सुनते रहते हैं, फेसबुक और वाट्सऐप पर चैट करते रहते हैं. लंबीलंबी बातें, बहसें नैतिकता और आदर्शों की करते हैं. असल दबंग वे हैं जो सरेआम एक लड़की का पर्स लूट कर उसे मरने के लिए फेंक देते हैं और फिर हाथ झाड़ कर चलते बनते हैं.

कैब और बलात्कार

29 वर्षीय रीतिका (बदला नाम) गुड़गांव की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में एग्जीक्यूटिव है. जाहिर है नए जमाने की उन करोड़ों युवतियों में से एक है जो अपने बलबूते पर नौकरी करते सम्मान और स्वाभिमान से जिंदगी गुजार रही हैं. शुक्रवार, 5 दिसंबर यानी वारदात के दिन रीतिका ने शाम 7 बजे अपनी शिफ्ट खत्म होने के बाद एक रैस्टोरैंट में दोस्तों के साथ डिनर लिया. उस के एक दोस्त ने उसे अपने वाहन पर बसंत विहार छोड़ा जहां से उसे अपने घर इंद्रलोक जाना था. लेटेस्ट गैजेट्स की आदी रीतिका को बेहतर यही लगा कि कैब (टैक्सी) कर ली जाए. लिहाजा, उस ने मोबाइल ऐप के जरिए अमेरिकी कंपनी उबेर की कैब बुक करा ली. कैब आई और उस के शिवकुमार यादव नाम के ड्राइवर ने इज्जत से दरवाजा खोला. दिनभर की थकीहारी रीतिका डिनर के बाद की सुस्ती का शिकार हो गई. लिहाजा, कैब में उसे झपकी आ गई. पीछे की सीट पर अकेली खूबसूरत लड़की को देख शिवकुमार का मन डोल गया और उस ने टैक्सी का रास्ता बदल दिया. रीतिका की नींद खुली तो कैब सुनसान में खड़ी थी. उस ने दरवाजा खोलने की कोशिश की तो वह नहीं खुला. शिवकुमार ने गेट लौक कर दिए थे. रीतिका ड्राइवर का इरादा भांपते चिल्लाई तो शिवकुमार ने उस की पिटाई कर दी और धमकी दी कि अगर शोर मचाया तो पेट में सरिया घुसा दूंगा. अब बचाव के लिए कुछ नहीं बचा था, इसलिए बाज के पंजे में फंसी चिडि़या की तरह फंसी रीतिका गिड़गिड़ाई कि प्लीज, मुझे छोड़ दो, मैं तुम्हारे हाथपैर जोड़ती हूं.

लेकिन अपनी पर आमादा हो आया शिवकुमार पसीजा नहीं. उस ने रीतिका का बलात्कार टैक्सी में ही किया और समझदारी कह लें या चालाकी कि रीतिका को घर के बताए पते के नजदीक उतार दिया. रीतिका ने बलात्कार सहने के बाद भी होश नहीं खोया था. इस के बाद खुद को संभालते रीतिका ने 100 नंबर डायल किया. पीसीआर वैन आई और रीतिका को थाने ले गई. महिला पुलिसकर्मियों ने उस से पूछताछ की और एक सरकारी अस्पताल में जा कर उस की मैडिकल जांच कराई. इसी बीच, रीतिका ने फोन कर अपने मम्मीपापा को भी बुला लिया. विदेश में भी एक कंपनी में नौकरी कर चुकी रीतिका अपने मांबाप की इकलौती संतान है. वह कुछ महीनों पहले ही दिल्ली शिफ्ट हुई थी और खुश थी कि अब मम्मीपापा के पास रहेगी. उस के पापा ने निर्भया कांड के प्रदर्शन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. अपनी ही बेटी को इस हालत में देखा तो हफ्तेभर उस के साथ बैठे आंसू बहाते रहे.

बलात्कार, बवाल और पुलिस

सुबह होतेहोते दुष्कर्मों के लिए कुख्यात हो चुकी दिल्ली में खासा बवाल मच गया कि लो, एक और लड़की की इज्जत लुट गई, वह भी टैक्सी में  बलात्कार के बाद रीतिका को रातभर पुलिस की पूछताछ और मैडिकल जांच से गुजरना पड़ा था. सालों पुरानी इन कानूनी खानापूर्तियों से पीडि़ता को जरूर समझ आता है कि दरअसल बलात्कार क्या होता है और क्यों पीडि़ताएं रिपोर्ट नहीं लिखवातीं. मैडिकल जांच किस बेरहमी और अमानवीय तरीके से की जाती है, यह बात भी किसी सुबूत की मुहताज नहीं. शिवकुमार 40 घंटे बाद मथुरा से गिरफ्तार कर लिया गया. यह पुलिस की मुस्तैदी नहीं बल्कि मजबूरी हो चली थी क्योंकि इस बलात्कार पर निर्भया मामले जैसी हायहाय मचने लगी थी. बाद में पता चला कि शिवकुमार आदतन अपराधी है और पहले भी बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार हो कर जेल जा चुका है. इस के बाद भी पुलिस ने उसे चरित्र प्रमाणपत्र दे दिया था जो इस मामले में बलात्कार करने का लाइसैंस साबित हुआ. दिल्ली में सामाजिक संगठनों और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया लेकिन पहले सा यानी निर्भया कांड जैसा समर्थन उसे नहीं मिला.

इधर, हंगामा देख झल्लाए केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने एक वाजिब बात यह भी कही कि क्या रेल में दुष्कर्म हो तो रेल और जहाज में हो जाए तो जहाज बंद कर दें. गडकरी बलात्कार बंद या कम करने के बाबत कुछ नहीं बोले, जिस की कि जरूरत व अहमियत थी. जल्द ही मामला अमेरिका की उबेर कंपनी के इर्दगिर्द आ कर सिमट गया कि 2,480 अरब रुपए वाली 52 देशों में कारोबार करने वाली इस कंपनी पर नीदरलैंड, स्पेन और कई अन्य देशों में भी रोक लगी है. बात दुष्कर्म की न हो कर कैब और कैब टैक्सियों की होने लगी कि रेडियो कैब शहर आधारित टैक्सी सेवा है, इस का खास नंबर होता है. निगरानी के लिए सारी कैब जीपीएस सिस्टम से जुड़ी रहती हैं और सवारी भुगतान ड्राइवर को करती है. वेब आधारित कंपनी स्मार्ट फोन के जरिए ग्राहक को सेवाएं देती है जिस का भुगतान डैबिट या क्रैडिट कार्ड के जरिए किया जाता है जो सीधे कंपनी के खाते में पहुंचता है, वगैरह.

उपेक्षा और प्रताड़ना

गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी कुछ कहा, जिस का सार यह था कि सभी कैब टैक्सियों पर रोक लगेगी और इस के लिए राज्यों को निर्देश जारी कर दिए गए हैं. पुलिस ने शिवकुमार यादव के साथसाथ उबेर टैक्सी सर्विस के खिलाफ भी धोखाधड़ी का मामला दर्ज कर लिया. आरोप यह लगाया कि यह कंपनी सुरक्षित सफर और वैरिफाइड ड्राइवर्स का दावा मात्र करती है, जबकि ऐसा नहीं है. कंपनी के जीएम राजन भाटिया को दिल्ली महिला आयोग ने तलब किया तो उन की गिरफ्तारी की सुगबुगाहट भी शुरू हो गई. चर्चा संसद में भी हुई पर पीडि़ताओं, महिला सुरक्षा पर नहीं बल्कि इस बात पर कि सभी राज्य वैब टैक्सियों पर रोक लगाएं, रजिस्ट्रेशन के बाद यह पाबंदी हटा ली जाएगी. गृहमंत्री के इस बयान के उलट नितिन गडकरी का कहना यह था कि पाबंदी लगाने से लोगों को परेशानी होगी. खामी लाइसैंस सिस्टम में है. 30 फीसदी लाइसैंस फर्जी हैं, उसे सुधारने की जरूरत है. रति और रीतिका जैसी पीडि़ताएं इस बौद्धिक, प्रशासनिक और संसदीय बहस में कहीं नहीं थीं गोया कि लाइसैंसधारी ड्राइवर बलात्कार करें, तभी इस बारे में सरकार सोचेगी.

सोचने की बातें ये हैं कि पीडि़ताओं को क्यों गैरजरूरी लंबी पुलिस और अदालती कार्यवाही से हो कर गुजरना पड़े जबकि उन की कोई गलती ही नहीं, सिवा इस के कि वे औरत हैं. पुलिस थानों में यह नहीं देखा जाता कि पीडि़ता पर क्या गुजरी है, बलात्कार, हिंसक लूट और छेड़खानी में ज्यादा फर्क नहीं है. इन सभी की शिकार महिलाओं को रिपोर्ट लिखाने के लिए घंटों बैठना पड़ता है जो उन की मानसिक यंत्रणा को बढ़ाने वाली बात है. मैडिकल जांच की एक गैरजरूरी बात है. इस का कानूनी महत्त्व बताना या गिनाना कानूनी तकनीक नहीं, बल्कि कानूनी तकलीफ की बात है, जिस का फायदा अकसर आरोपी को ही मिलता है. बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. सामाजिक उपेक्षा और प्रताड़ना झेल रही पीडि़ता को कई बार आपबीती, कहानी की शक्ल में दोहराना पड़ती है. बलात्कार पीडि़ता की तो मानो शामत आ जाती है. अपराधी का खौफ तो उस के सिर मंडराता ही रहता है पर वकीलों की बहस उसे सोचने को मजबूर करती है कि अगर यही इंसाफ का तरीका है तो बलात्कार के बाद खामोशी से घर आ कर सो जाना बेहतर था.

मर्द बदलें अपनी सोच

बी आर चोपड़ा की फिल्म ‘इंसाफ का तराजू’ में इस तकलीफ को बेहद बारीकी से दिखाया गया था. माहौल आज भी वही है. वकील बना कोई श्रीराम लागू जो सवाल पूछता है, उन पर कानूनी रोक आज भी नहीं है. सरकारें हल्ला खूब मचाती रही हैं कि ऐसा नहीं है और है तो खत्म किया जाएगा. शिवकुमार का वकील रीतिका से पूछेगा कि इतनी छोटी जगह में बलात्कार कैसे किया गया था. आप ने बचाव के लिए हाथपैर चलाए होते तो टैक्सी के कांच टूटने चाहिए थे. वह अपने मुवक्किल के इस कथन को सच साबित करने की कोशिश करेगा कि यह संबंध सहमति से बना था. रीतिका के हक में इकलौती बात यही है कि अगर बलात्कार नहीं हुआ था तो उस ने रिपोर्ट क्यों लिखाई. दो कौड़ी के टैक्सी ड्राइवर से उस के क्या स्वार्थ हो सकते थे जिस की महीनेभर की पगार उस की एक दिन की तनख्वाह के बराबर होती है. यह या कोई टैक्सी ड्राइवर इतना प्रतिष्ठित भी नहीं होता कि उसे धूमिल किया जा सके. दिनभर थाने और अदालत में पीडि़ता को बैठाना उसे दिमागी तौर पर तोड़ने वाली बात ही है. आधा तो अपराधी उन्हें पहले ही तोड़ चुका होता है. रीतिका कांड पर बयानबाजी भी खूब हुई. ‘बलात्कारी को फांसी हो’ की मांग फिर दोहराई गई पर यह मांग करने वाले नहीं जानते कि बलात्कार बंद कैसे होंगे.

फिल्मकारों का फोकस

इस कांड पर जो सलीके वाली बातें कही गईं उन में एक अभिनेत्री सोनम कपूर ने कही कि भारत में मूलतया मर्दों की परवरिश ही गलत ढंग से होती है. दिल्ली कैब रेप कांड को सोनम ने पुरुषों की कुत्सित मानसिकता को गलत दोषी नहीं ठहराया. बकौल सोनम, आज भी लड़कों को बड़े लाड़प्यार से पाला जाता है लेकिन उन्हें यह नहीं सिखाया जाता कि औरतों की इज्जत कैसे करनी चाहिए. लड़का कुछ भी गलत हरकत करे तो मांबाप उस का बचाव करते यही कहते हैं कि हमारा लाड़ला तो ऐसा कर ही नहीं सकता. सोनम की नजर में लड़कियों पर कई पाबंदियां लगाई जाती हैं. मसलन, देर रात तक घर के बाहर मत रहो, पार्टियों में मत जाओ, जींस मत पहनो वगैरह. ये पाबंदियां समस्याओं का हल नहीं हैं. बलात्कार के लिए औरत को नसीहत न देने की वकालत करने वाली सोनम मर्दों की सोच बदलने पर जोर देती हैं. दूसरी उल्लेखनीय बात अभिनेता अक्षय कुमार ने अपना खुद का उदाहरण देते कही कि ऐसे हादसों से मुझे डर लगता है. मैं अपनी बेटी को ले कर प्रोटैक्टिव हूं लेकिन उस की सुरक्षा और खुशियों को ले कर हमेशा डर बना रहता है. एक पिता होने के नाते उस की हिफाजत मेरी जिम्मेदारी है लेकिन मैं चाहता हूं कि सरकार भी उस की रक्षा करे, सड़कों को सुरक्षित बनाना उस का काम है.

अक्षय के मुताबिक, हम टैक्स इसलिए भरते हैं कि बिना किसी डर के घर के बाहर निकल सकें. बलात्कार करने वालों को तत्कालीन सजा के तौर पर उन्हें नपुंसक बना देना चाहिए क्योंकि बलात्कारी बारबार अपराध करते हैं और मुझे नहीं लगता कि जेल में ज्यादा से ज्यादा सजा भी उन्हें इस तरह के जुर्म करने से रोक सकती है. इन दोनों फिल्मकारों की बातों का फोकस समाज, बच्चों की परवरिश के तौरतरीकों और कानून के इर्दगिर्द है लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि पुरुष प्रधान समाज अभी भी औरत को पांव की जूती समझता है. वह असंगठित होते हुए भी महिला अत्याचारों के मामले में संगठित है. बीते 2 दशकों में तेजी से लड़कियां नौकरियों में आई हैं, उन की आर्थिक निर्भरता पुरुषों पर कम हो चली है लेकिन सामाजिक निर्भरता बनी रहे इसलिए उन के प्रति छेड़छाड़, हिंसा और बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं. यह पुरुष का सामाजिक अहं है जो अपराधों के जरिए व्यक्त होता है. चौंका देने वाली बात यह है कि अधिकांश पुरुष अपराधी एक अलग वर्ग के हैं.

जैसे भी हो औरत को दबाए रखो, यह सोच मूलतया धर्म से समाज और परिवारों में आई है. औरत अभी भी ताड़न की अधिकारी है. यह ताड़नाप्रताड़ना अब चोला बदल रही है. कसबों से ले कर महानगरों तक में युवतियां काम करते हुए अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को कायम रख रही हैं. यह बात पुरुषों को रास नहीं आ रही है इसलिए औरतों की हिफाजत के सवाल पर हर बार बवाल मचने पर उन्हें ही दोष देने के अलावा बात कैब, वैब और लाइसैंस में उलझ जाती है. सामाजिक माहौल, पुलिस और कानून प्रक्रिया में सुधार की बात करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता.

मोबाइल की दुनिया का टाइटेनिक नोकिया डूब गया

भारत में मोबाइल क्रांति में अहम भूमिका निभाने वाली मोबाइल कंपनी का ऐसा हश्र होगा, किस ने सोचा था. एक समय देश में मोबाइल का पर्याय रही नोकिया को जब माइक्रोसौफ्ट कंपनी ने अधिगृहीत किया तभी तय हो गया कि अब यह कंपनी किस्सेकहानियों में ही दोहराई जाएगी. ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम किया चेन्नई के समीप श्रीपेरंबुदूर में मौजूद नोकिया के दूसरे सब से बड़े संयंत्र को बंद करने के निर्णय ने. फिलहाल किसी समय दुनिया के सब से बड़े मोबाइल हैंडसैट ब्रैंड रहे नोकिया ने जब भारत में अपना उत्पादन संयंत्र करीब 9 साल तक चलाने के बाद अब बंद करने का फैसला कर लिया तब तक दुनिया इस बात से वाकिफ हो चुकी थी कि मोबाइल का कभी सब से बड़ा खिलाड़ी रहा नोकिया अब खत्म हो चुका है. सवाल है कि आखिर इतनी बड़ी मोबाइल कंपनी की ऐसी हालत हुई क्यों? कैसे इस कंपनी को उस से कमतर मोबाइल कंपनियों ने सिर्फ पछाड़ ही नहीं दिया, बल्कि बाजार से खदेड़ भी दिया. आइए जानते हैं :

नोकिया का अधिग्रहण

कई सालों से मोबाइल के बाजार में नोकिया की वैसी साख नहीं बची थी जिस के लिए वह जानी जाती थी. यही वजह थी बाजार में नोकिया की जगह सैमसंग, सोनी और आईफोन जैसी कंपनियों ने कब्जा जमा लिया. जब स्मार्टफोन की दौड़ में नोकिया पिछड़ने लगी तो उस ने सौफ्टवेयर दिग्गज कंपनी माइक्रोसौफ्ट के साथ एक करार किया इस करार के तहत तय हुआ कि नोकिया के एंड्रोएड फोन अब माइक्रोसौफ्ट के साथ काम करेंगे. यानी अब मोबाइल का हार्डवेयर नोकिया का होगा और सौफ्टवेयर माइक्रोसौफ्ट का. इसी करार के तहत नोकिया की लूमिया सीरीज ने काफी हद तक बाजार में अपनी जगह बनानी शुरू कर दी थी. लेकिन कहते हैं न कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, ठीक वैसे ही माइक्रोसौफ्ट ने अपनी मजबूत होती जगह का फायदा उठाया और नोकिया से अलग हो कर खुद के ब्रैंड को बेचने का फैसला किया. इसी सिलसिले में असहाय हो चुकी फिनलैंड की मोबाइल निर्माता कंपनी नोकिया का 25 अप्रैल को माइक्रोसौफ्ट ने 7.2 अरब डौलर में अधिग्रहण कर लिया.

भारत में असर

नोकिया के अधिग्रहण के होते ही कंपनी ने चेन्नई स्थित संयंत्र को बंद करने का फैसला लिया. इस फैसले के मद्देनजर 6,600 कर्मचारियों ने कंपनी के प्रस्ताव पर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली, जबकि 1,600 कर्मचारियों का भविष्य अभी भी अधर में है. हालांकि अभी कई पेंच हैं, मसलन, कंपनी की तरफ से कहा जा रहा है कि 6,600 कर्मियों ने खुद से इस्तीफा दे दिया या फिर सेवानिवृत्ति ले ली, जबकि कर्मचारियों का कहना है कि तमाम कर्मचारियों को जबरन इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया. दरअसल, इस संयंत्र के बंद होने के पीछे मुख्य वजह माइक्रोसौफ्ट द्वारा इस संयंत्र के साथ ट्रांजिशनल सेवा करार यानी टीएसए रद्द होना था. इस बाबत नोकिया इंडिया के अधिकारी का बयान गौरतलब है, ‘‘जैसी कि पहले घोषणा की जा चुकी है कि चेन्नई स्थित अपने संयंत्र को हम 1 नवंबर से बंद करने जा रहे हैं, क्योंकि हमारी पैतृक कंपनी माइक्रोसौफ्ट ने मोबाइल खरीद समझौते को रद्द कर दिया है.’’

माइक्रोसौफ्ट ने नोकिया के उपकरण और सेवा कारोबार का अधिग्रहण किया है. इस के तहत यह संयंत्र उसे मिलना था. लेकिन आयकर विभाग ने जब इस पर 21 हजार करोड़ रुपए का नोटिस थमा दिया तो संयंत्र को सौदे से बाहर कर दिया गया. बाद में तमिलनाडु सरकार ने भी इस संयंत्र के लिए नोकिया को 2,400 करोड़ रुपए का बिक्री कर का नोटिस दिया है. दोनों मामले अभी अदालत में लंबित हैं. मामला भले ही लटक गया हो लेकिन इतना साफ है कि सैकड़ों कर्मचारी बेरोजगारी के शिकार हो चुके हैं. नोकिया द्वारा श्रीपेरंबुदूर के पास स्थित संयंत्र में अपना परिचालन स्थगित करने की घोषणा के बाद कंपनी के कर्मचारियों का संगठन कानूनी कार्यवाही करने पर विचार कर रहा है. नोकिया को खरीदते ही माइक्रोसौफ्ट ने अपने ब्रैंड के मोबाइल की रीब्रैंडिंग शुरू कर दी है. इस रीब्रैंडिंग के तहत माइक्रोसौफ्ट के साथ अब तक नोकिया के जितने भी मोबाइल, खासतौर से लूमिया सीरीज, बाजार में बिक रहे हैं, धीरेधीरे उन से नोकिया के लोगो को हटाया जाएगा. इस रीब्रैंडिंग के तहत माइक्रोसौफ्ट का पहला लूमिया स्मार्टफोन बिना नोकिया ब्रैंडिंग के बाजार में आ चुका है. कंपनी की कोशिश है कि जल्दी ही नोकिया ब्रैंड के स्मार्टफोन्स भारतीय बाजार में माइक्रोसौफ्ट के नाम से मिलने लगें. इस के लिए माइक्रोसौफ्ट ने विश्वभर में रीब्रैंडिंग ऐक्सरसाइज शुरू कर दी है. सब से पहले फ्रांस में ब्रैंड बदला जाएगा. वहां फेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल मीडिया अकाउंट्स पर ‘माइक्रोसौफ्ट लूमिया’ नोकिया की जगह लेगा. फिर यही तरीका बाकी देशों में भी अपनाया जाएगा. दरअसल, माइक्रोसौफ्ट चाहता है कि जल्द से जल्द उपभोक्ता लूमिया सीरीज को नोकिया का ब्रैंड समझने के बजाय माइक्रोसौफ्ट का ब्रैंड समझने लगें. चूंकि माइक्रोसौफ्ट भारत के कंप्यूटर बाजार में पहले से ही जमा है, ऐसे में मोबाइल की दुनिया में पहचान बनाने में उसे ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, यह बात वह अच्छी तरह से समझता है. बाद में माइक्रोसौफ्ट अपने ब्रैंड की नई मोबाइल सीरीज भी लांच करेगा. जाहिर है तब तक लोग नोकिया को पूरी तरह से भूल चुके होंगे.

अर्श से फर्श तक का सफर

दिल्ली के करन अरोड़ा मोबाइल के बहुत शौकीन हैं. बाजार में मोबाइल का कोई भी नया मौडल आ जाए, उन के शौक से नहीं बचता. फिर चाहे वह आईफोन का नया संस्करण आईफोन 6 हो या सैमसंग का नोट 4. लेकिन जब उन के चहेते फोन के बारे में पूछा जाता है तो वे अपने सालों पुराने या कहें अपने पहले फोन नोकिया 1100 का नाम लेते हैं. इस फोन से उन की कई यादें जुड़ी हैं. करन जैसे सैकड़ों उपभोक्ता होंगे जिन का पहला मोबाइल नोकिया का रहा होगा. यह वह दौर था जब भारत में मोबाइल का मतलब नोकिया होता था. उस दौर में सैमसंग, सोनी, पैनासोनिक, मोटोरोला और एलजी जैसे मोबाइल ब्रैंड भी थे लेकिन तब उन्हें नोकिया के मुकाबले कमतर ब्रैंड समझा जाता था. किस ने सोचा था, ये ही कमतर  ब्रैंड नोकिया को पीछे छोड़ देंगे. एक जमाने में जहां नोकिया का बोलबाला था, वह जगह अब सैमसंग और आईफोन ले रहे हैं.

दुनियाभर में मोबाइल के आंकड़े जुटाने वाली इंटरनैशनल डाटा कौर्पोरेशन यानी आईडीसी के अनुसार, वर्ष 2005 में भारत में 32 प्रतिशत लोगों के पास नोकिया के फोन थे जबकि मोटोरोला का 17.7 प्रतिशत पर कब्जा था. सैमसंग 12.5 प्रतिशत और एलजी 6.7 प्रतिशत पर लोगों के पास थे. यह आंकड़ा अब बिलकुल बदल चुका है.आज अधिकतर लोगों के पास स्मार्टफोन हैं. आईडीसी के आंकड़ों की मानें तो इस समय स्मार्टफोन बाजार में सैमसंग का दबदबा है और 38.8 प्रतिशत लोगों के पास सैमसंग के फोन हैं. दूसरे नंबर पर भारत में एप्पल है जिस का मार्केट शेयर 15.5 प्रतिशत है. स्मार्टफोन बाजार में नोकिया पिछड़ कर 7.3 प्रतिशत पर जा चुका था. खैर, अब तो वह खत्म ही हो गया.

क्यों डूबा नोकिया

भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के अनुसार वर्ष 2000 में भारत में करीब 19 लाख मोबाइल कनैक्शन थे जबकि आज करीब 92 करोड़ मोबाइल कनैक्शन हैं. भारत में मोबाइल दरें भी दुनिया में सब से कम हो गई हैं. ये तमाम आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मोबाइल का बाजार अभी मंदा नहीं पड़ा. तो फिर सोचने वाली बात तो यह है कि इतना ज्यादा बिकने वाला नोकिया आखिर डूब क्यों गया. एक्सपर्ट तो नोकिया की खराब कारोबारी योजना को इस के पतन का जिम्मेदार बता सकते हैं लेकिन नोकिया का पतन उसी समय शुरू हो गया था जब स्मार्टफोन बाजार में उतरे. स्मार्टफोन बाजार में सब से मजबूत पकड़ एंड्रोएड ने बनाई है.

गूगल का एंड्रोएड सब से तेजी से उभरता औपरेटिंग सिस्टम बना. इस प्लेटफौर्म पर देखते ही देखते सोनी से ले कर सैमसंग और मोटोरोला ने अपने नए मौडल उतार दिए लेकिन नोकिया, एंड्रोएड और स्मार्टफोन के सुनहरे भविष्य को भांप नहीं पाया और खुद को पुराने जावा के ही प्लेटफौर्म तक सीमित रखा. उधर, सस्ते होते स्मार्ट फोन और आकर्षक डेटा पैकेज उपलब्ध होने की वजह से भी स्मार्टफोन की बिक्री को मदद मिली. नीलसन इनफौर्मेट के सर्वे के अनुसार, भारतीय अपने स्मार्टफोन के साथ बिताए समय का एकचौथाई से भी कम भाग यानी करीब 18 प्रतिशत समय कौल और एसएमएस पर लगाते हैं. वहीं, 24 प्रतिशत समय ब्राउजिंग और 21 प्रतिशत ऐप्स के प्रयोग में खर्च करते हैं. एंड्रोएड की लत ऐसी लगी कि सैमसंग, सोनी और मोटोरोला के साथसाथ माइक्रोमैक्स, स्पाइस, इंटैक्स समेत कई मोबाइल ब्रैंड्स भारतीय बाजारों में धड़ल्ले से बिकने लगे. नहीं बिका तो नोकिया का फोन.

खैर, नोकिया को अब तक यह बात समझ आ चुकी थी कि बिना एंड्रोएड के मोबाइल की दुनिया में टिकना आसान नहीं है, इसीलिए उस ने आननफानन माइक्रोसौफ्ट के साथ मिल कर एंड्रोएड की लूमिया सीरीज शुरू की थी और काफी हद तक वापसी भी कर रही थी लेकिन शायद तब तक देर हो चुकी थी और हश्र सब के सामने है. कहते हैं बदलाव प्रकृति का नियम है और जो समय के साथ नहीं बदलता उस का अस्तित्व खतरे में पड़ते देर नहीं लगती. खासतौर पर, जब तकनीक की दुनिया की बात हो तो हर परिवर्तन क्रांति ले कर आता है. नोकिया खुद को समय के साथ बदल नहीं पाई और पिछड़ गई. उम्मीद है कि माइक्रोसौफ्ट नोकिया वाली गलती नहीं दोहराएगी, क्योंकि माइक्रोसौफ्ट नोकिया से गुजर कर ही मोबाइल की दुनिया में उतर रही है.

मोबाइल और दिलचस्प तथ्य

नोकिया 9000 कम्युनिकेटर पहला स्मार्टफोन था जो 1996 में आया, जिस में उस समय के मोबाइल फोन के मुकाबले अधिक सुविधाएं थीं. इस ने स्मार्टफोन की अवधारणा को विकसित किया.

केवल 15 सालों में देश की 63.5 फीसदी जनता के पास मोबाइल आ गए थे.

आज एस्टोनिया में पूर्ण पार्किंग शुल्क मोबाइल के द्वारा नियंत्रित किया जाता है और इस क्रिया में से अपराध खत्म हो चुका है.

15 साल पहले जब पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु और पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री सुखराम ने पहली बार भारत में मोबाइल फोन के जरिए बातचीत की थी तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि भारत में मोबाइल फोन उपयोगकर्ताओं की संख्या 635.51 मिलियन तक पहुंच जाएगी.

मिमिक बैंकों और क्रैडिट कार्ड के लिए प्रथम व्यावसायिक भुगतान प्रणाली मोबाइल औपरेटरों, ग्लोब और स्मार्ट, के साथ फिलीपींस में 1999 में शुरू हुई थी.

आज मोबाइल भुगतान, मोबाइल बैंकिंग, मोबाइल क्रैडिट कार्ड से मोबाइल व्यापार तक, एशिया, अफ्रीका और चुने हुए यूरोपीय बाजारों में बहुत ही व्यापक रूप से प्रयोग किए जाते हैं.

मोबाइल फोन पर प्रकट हुई पहली डाटा सेवा 1993 में व्यक्ति को लिखित संदेश के रूप में शुरू हुई.

विज्ञान कोना

कार में जैट प्लेन का मजा

हम अभी सिर्फ 160 किलोमीटर रफ्तार की ट्रेन को चलाने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हुए हैं जबकि दुनिया में 1,600 किलोमीटर रफ्तार की कार चलाने का मसौदा तैयार हो गया है. ब्रिटेन में एक ऐसी कार बनाने पर काम चल रहा है जिस की रफ्तार प्रति घंटा 1 हजार मील से ज्यादा होगी. ब्रिटिश ब्लडहाउंड के इस प्रोजैक्ट को विमान इंजन बनाने वाली कंपनी रौल्स रौयस प्रायोजित कर रही है. रौल्स रौयस इस के लिए वित्तीय और तकनीकी, दोनों तरह की मदद मुहैया कराएगी. इस सुपर कार में ईजे 200 जैट इंजन लगाया जाएगा जिस का इस्तेमाल अकसर लड़ाकू विमान यूरोफाइटर टाइफून में होता है. ब्लडहाउंड का कहना है कि पहले जैट इंजन का इस्तेमाल कर कार की रफ्तार को लगभग 350 मील प्रति घंटा किया जाएगा. उस के बाद उस की रौकेट मोटर को शुरू कर दिया जाएगा जिस से कार को सुपरसोनिक रफ्तार मिलेगी. इस प्रोजेक्ट का मकसद अगले साल जमीनी रफ्तार के मौजूदा रिकौर्ड 763 मील प्रति घंटा को तोड़ना है. इस के बाद 2015 में इस की स्पीड को बढ़ा कर 1 हजार मील प्रति घंटा यानी 1,610 किलोमीटर प्रति घंटा तक ले जाने की योजना है. एरोडायनेमिक शेप में डिजाइन की गई कार का डिजाइन स्वेनसिया विश्वविद्यालय की टीम ने तैयार किया है. अगर हमारे देश में यह कार आती है तो पत्नियों को मायके जाने के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ेगा.

30 साल बाद देखी दुनिया

जन्म से ही अंधेपन का शिकार हुए लारी हैस्टर ने कभी नहीं सोचा था कि वे इस रंगरंगीली दुनिया को देख पाएंगे. अमेरिका के नौर्थ कैरोलिना के लारी हैस्टर 30 साल के बाद बायोनिक आंख की बदौलत आज देख पा रहे हैं. बायोनिक आंख रोशनी के सिग्नलों को दिमाग तक भेजती है.  बायोनिक आंख का इस्तेमाल करने वाले मरीजों को खास चश्मा पहनना पड़ता है. इस चश्मे में वीडियो कैमरा, बेहद छोटा सा कंप्यूटर, सैंसर आदि लगे होते हैं. बायोनिक आंख (चश्मे) पर लगा वीडियो कैमरा वस्तुओं को देखता है, फिर इसे कंप्यूटर के पास भेजता है, इस के बाद आंख में स्थापित सैंसर को संदेश भेजा जाता है. यह संदेश नस को भेजा जाता है, जो दिमाग को दिखाई देने वाली वस्तुओं के बारे में संदेश भेजती है. नतीजतन, मरीज को किसी भी वस्तु की आकृति सहजता से दिख जाती है. 

दौड़ेगा, दहाड़ेगा नहीं

भारत में चीता और शेरों की घटती संख्या से चिंता है जबकि अमेरिका में टाइगर की संख्या में अचानक तेजी आ गई है. यह टाइगर जंगलों में रहने वाला जीव नहीं, मशीनी टाइगर है, जो आम चीते की तरह दौड़ लगा सकता है, छलांग लगा सकता है पर दहाड़ नहीं सकता. इसे वाशिंगटन स्थित मैसाचुएट्स ‘इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी’ यानी एमआईटी के शोधकर्ताओं ने बनाया है. यह मैकेनिकल बिग कैट 4 टांगों का प्राणी है जो कि गियर्स, मोटर्स और बैटरीज के सहारे चलता है. पहले इसे एक केबल के जरिए मेन पावर से जोड़ा गया था. इस रोबोट को वाइल्ड कैट का नाम दिया गया है. हाल ही में इसे 10 किलोमीटर प्रति घंटे की स्थिर रफ्तार से दौड़ता हुआ फिल्माया गया. शोधकर्ताओं का मानना है कि इस की रफ्तार 30 किलोमीटर प्रति घंटे तक बढ़ाई जा सकती है.     

 

क्या गीता ५११५ साल पुरानी है?

हिंदुओं में एक वर्ग ऐसा है जो हर हिंदू किताब को, हर हिंदू धर्मग्रंथ को, पुराने से पुराना सिद्ध करने पर तुला रहता है. वह वर्ग यह समझता है कि शायद जो ग्रंथ जितना पुराना होता है उतना ही प्रामाणिक होता है. उस का यह सोचना उस की अस्वस्थ सोच का परिचायक है, क्योंकि प्राचीनता प्रामाणिकता न पर्याय होती है और न हो सकती है. इसीलिए कई बार प्राचीन इमारतों और प्राचीन वृक्षों को नगरपालिका के अधिकारियों को, लोगों की जान की रक्षा करने के लिए गिराना पड़ता है और पुरानी पड़ चुकी व ऐक्सपाइरी डेट लांघ चुकी दवाओं को नष्ट करना पड़ता है. यदि यह नियम हो कि ‘जितनी पुरानी, उतनी प्रामाणिक’ तो इन पुरानी हो चुकी जर्जर इमारतों, पुराने वृक्षों और ऐक्सपाइरी डेट लांघ चुकी दवाओं को तो ज्यादा लाभकारी व प्रामाणिक होना चाहिए, न कि इन्हें लोगों के भले के लिए, उन की रक्षा हेतु, नष्ट व ध्वस्त करना चाहिए. ऐसे में पता नहीं क्यों हिंदू अतीतवादियों का एक वर्गविशेष हर पोथी को पुरानी से पुरानी सिद्ध करने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाए रहता है.

निराधार गणना

पिछले दिनों एक राजनीतिक दल ने अपने कुछ पंडेपुरोहितों को इकट्ठा कर गीता जयंती का आयोजन किया था, जिस में यह इतिहास विरोधी घोषणा की गई कि गीता 5115 वर्ष की हो गई है जबकि इतिहासकारों का कहना है कि 3515 वर्ष पहले भारत में गीताकार और गीताभक्तों के आदि पूर्वजों (आर्यों) तक का कहीं कोई नामोनिशान तक नहीं था. अतीतवादी पंडेपुजारी कलियुग की शुरुआत और द्वापर युग के अंत की बात किया करते हैं और उन के आधार पर वर्षों की, बिना किसी आधार के और बिना किसी सन के, गिनती किया करते हैं. यदि पूछा जाए कि ये कलियुग आदि कहां से टपक पड़े तो पंडेपुजारी व उन के पैरोकार पुराणों का नाम ले लिया करते हैं, जबकि पुराण ग्रंथ स्वयं अप्रामाणिक और अर्धसत्य हैं. आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना है कि पुराण विषमिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं. यदि पल भर के लिए पुराणों को प्रामाणिक मान भी लें तो प्रश्न पैदा होता है कि तुम जिस कलियुग की शुरुआत की बात करते हो, आप के आदरणीय पुराण उस कलियुग की शुरुआत की गई तिथियां बताते हैं, जिन में हजारों वर्षों का अंतर है.

इस विषय पर डा. अंबेडकर ने ‘रिडल्स औफ हिंदुइज्म’ नामक पुस्तक में विस्तार से लिखा है और कम से कम 2 अध्यायों में विषय की प्रामाणिक चर्चा की है. यदि भारत की ऐतिहासिक सामग्री पर विचार करें तो ईसा की 7वीं शताब्दी से पहले किसी भी दस्तावेज में कलियुग का उल्लेख नहीं मिलता. कलियुग का सब से पहला उल्लेख 610 ई. से 642 ई. तक शासन करने वाले पुलकेशिन (द्वितीय) के एक शिलालेख में हुआ है. वहां 2 तिथियां अंकित हैं : शक संवत 556 और कलि संवत 3735. इसी को आधार बना कर कलियुग का आरंभ 3101 ई. पूर्व माना जाता है, जो एकदम गलत है.

‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ नामक ग्रंथ (5 बड़ेबड़े भागों में) लिखने वाले और इसी के लिए भारतरत्न से सम्मानित किए गए डा. पांडुरंग वामन काणे ने उक्त गलती को पकड़ा था और घोषणा की थी कि 3101 ई. पूर्व न तो महाभारत के युद्ध की तिथि है और न ही कलियुग के आरंभ होने की. इस गलत तिथि को आधार बना कर गीता की जो उम्र बताई जाती है वह सही कैसे हो सकती है : 3101+2014=5115? क्या गीता इतने मात्र से महान हो जाएगी कि वह 5115 वर्ष पुरानी है? गीता की इस गलत उम्र से भी ज्यादा उम्र की चीजें दुनिया में मौजूद हैं. मिस्र के पिरामिड इस गलत उम्र से भी हजारों वर्ष पहले के हैं और उन की उम्र भी किसी गलत तथ्य पर घोषित नहीं की गई है तो उम्र की दृष्टि से क्या वे गीता से ज्यादा महान नहीं बन जाते?

डा. काणे ने पुराणों और अन्य ग्रंथों के आधार पर यह दर्शाया है कि 3101 ई.पूर्व कल्प के आरंभ की तिथि है, कलि के आरंभ की नहीं. जिस पंडे ने शिलालेख पर तिथि अंकित की उस ने ‘कल्पादि’ शब्द को जल्दबाजी में ‘कल्यादि’ पढ़ कर कुछ का कुछ बना दिया. महाभारत की तिथि पुराणों के अनुसार 1263 ई.पूर्व बनती है. इस तरह पुराणों के अर्धसत्यों के अनुसार, गीता ज्यादा से ज्यादा 1263+ 2014=3277 वर्ष की सिद्ध होती है, न कि 5115 वर्ष की. एकदूसरे विद्वान गोपाल अय्यर की गणना के अनुसार, कलियुग का आरंभ 1177 ई.पूर्व हुआ, क्योंकि परीक्षित का राजतिलक और श्रीकृष्ण का देहांत इसी दिन हुआ था. तदनुसार, गीता 3191 वर्ष पुरानी ही हो सकती है, न कि 5115 वर्ष पुरानी.

भिन्नभिन्न मत

इस तरह हम देखते हैं कि अतीतवादी पंडेपुरोहित व उन के पैरोकार जिन हिंदू पुराणों के आधार पर हिसाबकिताब लगाते हैं, वे खुद ही गड़बड़ हैं. उन में 1 नहीं, 3 भिन्नभिन्न तिथियां मिलती हैं. ऐसे पुराण प्रामाणिक कैसे माने जा सकते हैं? भारतीय विद्वानों ने गीता की उम्र जानने के लिए बहुत प्रयत्न किए हैं, परंतु कोई भी विद्वान गीता को ई.पूर्व हजारों वर्षों की नहीं बताता. इतिहासकार आर जी भंडारकर, गीता को ई.पूर्व चौथी सदी की रचना मानते हैं, तो देशभक्त बाल गंगाधर तिलक लंबीचौड़ी दलीलें पेश करने के बाद यह कहने को विवश हैं कि जिस रूप में गीता आज उपलब्ध है, उस रूप में वह ई.पूर्व 5वीं सदी में मौजूद थी.

जी एस खैर का ‘द क्वैस्ट फौर द ओरिजिनल गीता’ में कहना है कि गीता 500 ई. पूर्व से 300 ई.पूर्व के दौरान 3 भिन्नभिन्न व्यक्तियों द्वारा लिखी गई– पहले ने 6 अध्यायों के कुछ अंश लिखे, दूसरे ने 6 अध्याय अपनी ओर से जोड़ दिए तथा तीसरे ने पूरी पुस्तक को फिर लिखा और 6 अध्याय अपनी ओर से जोड़ने के अतिरिक्त यहांवहां श्लोक भी फिट कर दिए. डा. राधाकृष्णन का कहना है कि यह ई.पूर्व 5वीं शताब्दी की रचना है. जवाहर लाल नेहरू, स्वामी वीरेश्वरानंद जैसे लोगों का कहना है कि गीता बुद्ध से पहले की रचना है, परंतु डी डी कौशांबी ने अपनी पुस्तक ‘मिथ ऐंड रियलिटी’ में (पृ. 16 पर) यह तथ्य दर्शाया है कि नेहरू के गुरु गांधी के आश्रम की प्रार्थनासभा में गीता के अध्याय 2 के 55 से 72 तक के जो श्लोक प्रतिदिन गाए व दोहराए जाते थे, वे कभी रचे नहीं जा सकते थे यदि गीता बुद्ध से पहले की रचना होती.

गीता में कहीं निर्वाण अथवा ब्रह्मनिर्वाण, कहीं ‘शरण’, कहीं मध्यममार्ग, कहीं ब्रह्मविहार और कहीं कुछ ऐसा मिलता है जो इस बात का प्रबल प्रमाण है कि बुद्धिज्म की शब्दावली तब वातावरण में चारों ओर गूंजती थी और गीता रचनाकार चाह कर भी उस के प्रभाव से अपने को बचा नहीं पाया. नतीजतन, गीता में बहुत कुछ ऐसा है जो बौद्ध है. सो, गीता किसी भी प्रकार बुद्ध के पहले की रचना नहीं हो सकती. इसलिए इसे 5115 वर्ष की बताना इतिहास से एक भद्दा मजाक ही कहा जा सकता है. ‘बुद्धिज्म और गीता’ शीर्षक पुस्तिका में एकएक श्लोक उद्धृत कर के दर्शाया गया है कि कैसे गीता ने बुद्धिज्म के पारिभाषिक शब्दों, विशिष्ट शब्दावली, संकल्पों, यहां तक कि वाक्यों व कथनों को भी उठा कर अपने कलेवर में रख लिया है. परंतु उन का पता नहीं बताया है. उसे एकदम छिपा लिया है ताकि भंडा न फूट जाए. गीता ने उपनिषदों के श्लोक भी इसी तरह चुपचाप उठा लिए हैं और उन का पता छिपा लिया है. यह कौपीराइट कानून का उल्लंघन है और साहित्यिक चोरी का मामला है. गीता को 5115 वर्ष की बताने पर भी ये तथ्य धुल नहीं जाते.

हमारे विचार से गीता ईसा की 5वीं शताब्दी की रचना है. यह चौथी अथवा 5वीं शताब्दी में रचित ब्रह्मसूत्रों पर आधारित है. गीता के कई श्लोकों में ब्रह्मसूत्र शब्दश: प्रयुक्त हुए हैं. एक जगह तो साफतौर पर यह कह भी दिया गया है कि इस का गान ब्रह्मसूत्र के निश्चित और तर्कसंगत पदों (वाक्यों) द्वारा किया गया है :

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:

(गीता, 13/4)

जब तक गीता में ब्रह्मसूत्रों की मौजूदगी है, जो चौथीपांचवीं शताब्दी की रचना है, तब तक गीता को ईसा की 5वीं शताब्दी से ज्यादा पुरानी सिद्ध करने का कहीं कोई तर्क नहीं है. ब्रह्मसूत्र गीता को हजारों साल पुरानी सिद्ध करने वालों के गले की फांस सिद्ध हो रहे हैं. गीता 1514 वर्षों से ज्यादा पुरानी नहीं है. तथ्यों के आधार पर यह इस से ज्यादा पुरानी सिद्ध नहीं की जा सकती. हां, गप हांकनी हो तो जितनी चाहे उस की उम्र बताते जाओ– 5115 बताओ या 51015 साल बताओ.  आप का मुंह है और जो मुंह में आए कहने का आप को अधिकार है. परंतु बुद्धिमान जानते हैं कि इतिहास और मिथ्याहास एवं गप में जमीनआसमान का अंतर होता है. इसलिए कोई विद्वान पंडेपुजारियों व पेशेवर साधुसंतों द्वारा बताई तिथि को इतिहास नहीं मानता. इस गीता को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित करने की मांग कुछ लोगों द्वारा की जा रही है, परंतु वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि इस में ऐसा क्या है जो इसे राष्ट्रीय ग्रंथ बनाया जाए. इस में राष्ट्र की किसी समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि यह तो ताऊ और चाचा के पुत्रों अर्थात चचेरे भाइयों में पैतृक संपत्ति के विवाद तक को भी हल करने में असमर्थ रही है.

इस के वक्ता श्रीकृष्ण ने इस विवाद का जातिवादी हल बताते हुए कहा है कि अर्जुन, तुम क्षत्रिय हो और क्षत्रिय का कर्तव्य लड़ना होता है. इसलिए तुम अपने चचेरे भाइयों से भिड़ जाओ और उन के समर्थन में जो भी रिश्तेदार, गुरुजन आदि आएं, उन को नष्ट कर दो. उसे आगे बताया है कि तुम उन के केवल शरीरों को ही नष्ट कर सकते हो, इसलिए उन्हें नष्ट कर दो. उन्हें मारने पर तुम्हें पाप नहीं लगेगा क्योंकि उन की आत्माएं अमर हैं, जिन्हें तीर या तलवार से नष्ट नहीं किया जा सकता. तुम अपना वर्णधर्म, अपनी जाति का कर्म करते जाओ और फल की परवा न करो.

गीता का सारा उपदेश अर्जुन को चचेरे भाइयों से लड़ने के लिए ही दिया गया है. इस उपदेश से प्रेरित हो कर अर्जुन निर्ममता से अपने चचेरे भाइयों, गुरुजनों, स्वजनों आदि को मौत के घाट उतार देता है. यह एक परिवार का मामला है. पैतृक संपत्ति का विवाद आपसी मारकाट के बाद तो असभ्य और जंगली लोग भी सुलझा लेते हैं और इस के लिए उन्हें कभी किसी गीतोपदेश की जरूरत नहीं पड़ती. क्या शाहजहां के पुत्रों ने बिना गीतोपदेश के आपस में लड़कट कर पैतृक सिंहासन का विवाद नहीं सुलझा लिया था? गीता की महानता तो तब थी, जब वह उस विवाद को उस तरह सुलझाने का कोई मार्ग बताती जिस तरह आज चुपचाप और आपसी सद्भाव से दुनिया भर में करोड़ोंअरबों सभ्य लोग सुलझाते हैं.

यदि गीतोपदेश तब दिया गया होता जब विदेशियों ने भारत पर आक्रमण किया होता और इस उपदेश से प्रेरित हो कर अर्जुन ने देश की आजादी एवं अखंडता की रक्षा की होती, तब तो इसे राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग का कोई औचित्य होता, परंतु एक परिवार की गृहकलह व चचेरे भाइयों की आपसी क्षुद्र लड़ाई का राष्ट्र के लिए क्या महत्त्व हो सकता है?

औचित्य पर सवाल

यह देश सदियों तक गुलाम रहा. मुट्ठीभर लोग यहां आ कर साम्राज्य स्थापित करते रहे. परंतु तब न कोई गीता अवतरित हुई, न कोई अर्जुन ही कहीं दिखाई दिया. सैकड़ों वर्षों की गुलामी से जब अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दबाव में आजाद हुए भी तो आधा देश लुटा कर आजाद हुए. ऐसे में गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का क्या औचित्य है? इस की क्या प्रासंगिकता है? वर्तमान गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का अर्थ होगा लोगों की पैतृक जायदाद के लिए हो रही क्षुद्र घरेलू कलहों को महिमामंडित करना, जो किसी भी तरह राष्ट्र के भले के लिए नहीं होगा. राष्ट्र का भला इसी में है कि लोगों में, परिवारों में, आपस में प्रेम बढ़े, वे संस्कारी हों. वे अर्जुन तथा दुर्योधन के परिवारों जैसे झगड़ालू और घरेलू समस्याएं हल करने के अयोग्य न हों.

कुछ आँखों देखि कुछ कानों सुनी

बिहार में रेखा

बिहार के पर्यटन मंत्री जावेद अंसारी के उत्साह की दाद देनी होगी जो मशहूर फिल्म अभिनेत्री और सांसद रेखा को बिहार पर्यटन का ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाने की पहल कर रहे हैं. इस राज्य में किसी सरकार ने पर्यटन विकास के बारे में न कभी कुछ सोचा, न किया. बीमारू राज्यों की गिनती में इस के शुमार होने की एक बड़ी वजह पर्यटन के प्रति उदासीनता भी रही है.जावेद की सोच स्वागत योग्य है जिन्होंने गुजरात से सबक सीखा कि पर्यटन को बढ़ावा देना है तो अमिताभ बच्चन जैसी किसी मशहूर सैलिब्रिटी को लाओ. वैसे उन्हें बिहार के पर्यटन स्थलों की बदहाली पर ध्यान देते हुए प्रचारप्रसार पर जोर देना चाहिए और देश के बाकी हिस्सों के लोग बिहार जाने के नाम से क्यों कतराते हैं, यह भी जावेद को सोचना चाहिए. रेखा हां करें या न, यह बाद की बात है लेकिन बिहार सरकार की प्राथमिकता पर्यटन को व्यवसाय बनाने की होनी चाहिए.

सोनिया का दम

चिंतनमनन करने के लिए अस्पताल भी बुरी जगह नहीं है जहां बिस्तर पर लेटेलेटे दलिया, सूप और जूस का सेवन करते हुए सोचने के मामले में अधीनस्थों की निर्भरता से मुक्त हुआ जा सकता है. यही तरीका कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपनाया. 3 दिन के लिए दिल्ली के एक अस्पताल में भरती रह कर वे वापस घर आईं तो जोश से भरी दिखीं.इसी जोश में उन्होंने निष्प्राण होती कांग्रेस में मार्च से नई जान फूंकने का ऐलान कर डाला. हालांकि यह दुष्कर काम कैसे होगा, यह उन्हें ही पता होगा लेकिन यह तय है कि सोनिया फिर इस शाश्वत ज्ञान की तरफ बढ़ रही हैं कि देश रसातल में जा रहा है, सांप्रदायिक ताकतें हावी हो रही हैं. ऐसे में जरूरी है कि कांग्रेस खत्म न हो. यह जोश 10 जनपथ तक ही सिमटा नजर आया, मुमकिन है कोई चमत्कारी तरीका वे अपनाएं और नए रूप में अवतरित हों.

फंदा सुनंदा का

कांग्रेसी सांसद शशि थरूर अपनी पत्नी सुनंदा की मौत के मामले में फंसते जा रहे हैं जो 17 जनवरी, 2014 को हुई थी. धन्य है हमारी पुलिस जो अब तक जांच ही कर रही है जिस से शशि परेशान हैं और बयान भी दे चुके हैं कि पुलिस उन्हें और घरेलू नौकरों को पूछताछ की आड़ में परेशान कर रही है. अब नया खुलासा यह हुआ है कि सुनंदा को धीमा जहर दे कर मारा गया था.यह हाईप्रोफाइल मौत या हत्या अब पुराने जासूसी उपन्यासों सरीखी होती जा रही है जिस में प्यार, रहस्य, रोमांच वगैरह सब हैं. दिक्कत की बात पुलिसिया तरीका है जिस में शशि थरूर शक के दायरे से बाहर नहीं हैं. जब तक मामले पर खात्मा नहीं हो जाता तब तक परेशानी तो उन्हें उठानी ही पड़ेगी क्योंकि केंद्र में अब कांग्रेस की नहीं, भाजपा की सरकार है.

दलित रत्न

बसपा प्रमुख मायावती इन दिनों बेहद बौखलाई हुई हैं. उन की बौखलाहट की कई राजनीतिक और गैरराजनीतिक वजहें हैं जिन में प्रमुख यह है कि बसपा अब कहीं गिनती में नहीं है. दलितों का मोह उस से भंग हो चला है. इस भंग मोह को जोड़ने के लिए उन्होंने भारतरत्न पर भी जातिवाद का आरोप मढ़ डाला कि सरकार एक ही जाति के लोगों को यह खिताब दे रही है. यह ज्योति बा फुले और कांशीराम को भी दिया जाना चाहिए. दलित समुदाय ने इस खुलासे पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. उलटे, सवाल यह उछलने लगे कि इन 2 महान हस्तियों ने आखिर ऐसा किया क्या था. सवाल बड़ा पेचीदा है जिस का जवाब बेहद साफ है कि देश के लिए कोई कुछ नहीं करता, देश लोगों के लिए करता है, तमाम पुरस्कार देना उन में से एक है.

सावधान आप सर्वेलेंस में हैं

मौल में आप ऐस्कलेटर पर खड़े हैं. नीचे भीड़ में फैशनेबल दिखने वालों को जांच रहे हैं, आसपास होर्डिंगों पर नजर दौड़ा रहे हैं, ऊपर पहुंचतेपहुंचते दुकानों के उभरते डिस्प्ले आंक रहे हैं. तभी अचानक आप की नजर सामने मौनीटर पर पड़ती है और आप चौंक जाते हैं. अरे, यह तो मैं हूं, अपने आप से कह कर शुरू में तो चौंके, फिर तुरंत, सर्वेलेंस कैमरा है, समझ, मन ही मन मुसकराए और अपने बालों पर हाथ फेर कर उन्हें ठीक करने में लग गए. मौल में सर्वेलेंस होना उचित है. वापस घर में पत्नी का कामकाज में कुछ हाथ बंटाया. बच्चों को होमवर्क में मदद कर सोने भेज दिया. फिर थोड़ी देर कंप्यूटर के सामने बिताया. फेसबुक पर गए, पिछली ऐंट्री में किस ने क्या कमैंट डाले, कितने लाइक्स मिले, नोट किए, ईमेल जांची, थोड़ी खबरें पढ़ीं, फिर इधरउधर की वैब सर्फिंग कर घंटा बिता दिया. सोने जब गए तो तकिए पर सिर रख कर यही खयाल आया न, ‘होम, स्वीट होम’. लेकिन सावधान हो जाइए, कोई आप को अब भी सर्वे कर रहा है.

यह कैमरे वाली सर्वेलेंस नहीं, डेटाबैलेंस की बात हो रही है. वह जो रोज रात को बिना जाने आप इंटरनैट पर खुद अपनी डिजिटल आईडैंटिटी बनाते हैं, आप के व्यवहार, हाल की गतिविधियां, आप के बारे में कोई भी बदलती जानकारी, उस सब पर कोई है जो छिप कर निगरानी रखे हुए है और कर भी क्या सकता है बेचारा. अगर वह सीधेसीधे आप को इन सब जानकारियों के लिए फौर्म पकड़ाए, तो क्या आप उसे भरने को राजी होंगे? वह जो आज औफिस में बौस ने यों ही बातोंबातों में विदेश से बेटे की हवाना सिगार ले कर आने की बात छेड़ी थी और फिर आप ने शाम को इंटरनैट में उत्सुकतावश सिगारों की खोज की थी, तब से आप की आईडैंटिटी पर कोई 4 या 5 सिगरेट कंपनियां रुचि दिखा रही हैं. कल ईमेल खोलिएगा, तो इनबौक्स में न सही, स्पैम फोल्डर में उन के संदेश जरूर पाइएगा.

फेसबुक क्या आया, दुनिया की एक- चौथाई जनसंख्या के समक्ष इंटरनैट में अपनीअपनी जीवनियां प्रस्तुत करने का बड़ा मौका सामने आ गया. लेकिन क्या आप को यों नहीं लगता कि आप के जन्म की तारीख से ले कर आप के औफिस के हाल की जानकारियां जरूरत से ज्यादा लोगों के कान में पड़ रही हैं. मेरी बहन भाग्यवंती, जो दिन में 5-6 बार अपना फेसबुक अकाउंट जांचती है, की तो यही शिकायत है कि पता नहीं क्यों इंटरनैट में चाहे जो भी पेज क्यों न खुला हो, बगल में हमेशा वही 50 साल या उस से ऊपर उम्र के दिलचस्प मर्दों से मिलने वाला विज्ञापन दिखता है. हैपिली मैरिड भाग्यवंती को गुस्सा इस बात पर नहीं आता कि इन अमेरिकी डेटिंग कंपनियों की मजाल कैसे हुई मुझे ऐसे ऐड भेजने की, बल्कि वह तो इस बात से चिढ़ जाती है कि मुझे ये लोग हमेशा 50 साल या उस से ऊपर की उम्र वाले मर्द ही क्यों सुझाते हैं.

डेटा माइनिंग की गतिविधियां

फेसबुक के अनुसार, एक महीने के अंदर अमेरिका में 168 मिलियन, ब्राजील में 63 मिलियन, भारत में 62 मिलियन, कुल मिला कर 1 बिलियन से अधिक उपयोगकर्ताओं ने जोरों से फेसबुक का इस्तेमाल किया. गूगल और याहू के आंकड़े भी लगभग इसी के आसपास हैं. ये सभी कंपनियां सोशल मीडिया सर्विस का प्रबंध करने के अलावा, डेटा माइनिंग की गतिविधियों में भी व्यस्त हैं. ये कंपनियां आप में, आप की प्रवृत्तियों और उन में बदलाव खोजने में और आमतौर पर आप के निजी डेटा में बेहद दिलचस्पी रखती हैं. वे आप की और आप के जैसे अन्य उपयोगकर्ताओं के विवरण बड़े डेटाबेसों में इकट्ठा कर के खास कंप्यूटर प्रोग्रामों द्वारा उपयोग करने लायक बना कर रखती हैं जहां से ये जानकारियां आप की आदतों और शौकों में रुचि रखने वाली संस्थाओं, कंपनियों को बेचती हैं. तभी जब आप इंटरनैट में सर्फ कर रहे होते हैं तो पन्नों के किनारों पर वे विज्ञापन होते हैं जो उन के अनुमान के मुताबिक आप के लिए रुचिकर होंगे.

यही बात ईमेलों के साथ भी लागू होती है. ईमेल प्रबंधकों के लिए उपयोगकर्ताओं के ईमेल स्कैन करना आम बात है. मकान खरीदने के सिलसिले में ईमेल लिख रहे हैं तो वैब पेज के अगलबगल में अच्छे रेट का वादा करने वाले बैंकों के इश्तिहार देखने को मिलेंगे. गाड़ी खराब हो गई तो आटो इंश्योरैंस के ऐड, अपनी किताब के लिए पब्लिशर ढूंढ़ रहे हैं तो ऐमेजौन की सैल्फ पब्लिश्ंिग स्कीम बारबार सामने आने लगेगी. यह है आज अमेरिका में इंटरनैट प्रयोगकर्ताओं का हाल, जहां व्यवसायियों में अपने उत्पाद बेचने की होड़ चरम पर है. दुनिया के सभी देशों में शायद स्थिति इस हद तक न पहुंची हो मगर यह जानना जरूरी है कि व्यवसायों का इस प्रकार का व्यवहार आज हर देश में संभव है. इश्तिहार झुंझलाहट ला सकते हैं लेकिन असल में चिंताजनक तो वे ‘बिग ब्रदर’ बड़े भैया हैं जो पीछे से हरदम हम पर निगरानी रखे हुए हैं या उस की सामर्थ्य रखते हैं.

कौन चाहता है ये डाटा

बिग ब्रदर नाम का प्रचलन 1949 में छपी जौर्ज और्वेल के उपन्यास ‘1984’ से हुआ. स्टालिन के सोवियत संघ और द्वितीय युद्धकालीन इंगलैंड में लोकतांत्रिक सिद्धांतों के पतन से प्रेरित 1984 हर नागरिक पर बिग ब्रदर के नेतृत्व में सर्वसत्तावादी समाजवादी पार्टी का लगातार सर्वेलेंस पर एक व्यंग्यात्मक उपन्यास था. आज अमेरिकी सरकार के पैट्रियौट ऐक्ट के तहत अमेरिकी सरकार संदिग्ध जनों की खोज में हर किसी पर कानूनन निगरानी रख सकती है. आप की छोटी से छोटी ‘पोस्ट’, जैसे कि आप ने कोई फिल्म देखी, चाहे वह आप को पसंद आई या न आई हो, आप ने यह बात तुरंत अपने फेसबुक में लिख डाली और आप को लगेगा कि इस महत्त्वहीन बात में कौन दिलचस्पी दिखाएगा, को डेटा माइनर तुरंत दर्ज कर लेता है और इसी तरह की आप के द्वारा इंटरनैट में व्यक्त की गई छोटीबड़ी बातों, आप की गतिविधियों, सर्फिंग की आदतों, विश्वासों, सोशल कनैक्शनों को इकट्ठा कर वह जो आप की विस्तृत रूपरेखा बनाता है, उस को ऐडवाइज और टैलौन जैसे प्रोग्राम का इस्तेमाल कर सरकार यह तय कर सकती है कि आप किसी प्रकार (राजनीतिक या सैनिक तौर) से देश के लिए खतरनाक तो नहीं हैं.

उधर फेसबुक, याहू, गूगल और पिकासा व यू-ट्यूब जैसे अन्य शेयरिंग साइट चीन में संपूर्ण रूप से प्रतिबंधित हैं. जहां एक तरफ चीन में सुधार उस देश को सुदृढ़ रूप से मार्केटअर्थव्यवस्था की ओर ले जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इंटरनैट पर ये प्रतिबंध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अपने मूल्यों और राजनीतिक विचारधाराओं के संरक्षण हेतु प्रयत्न हैं. ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि चीन में इंटरनैट पर प्रतिबंधों को अमल में लाने के लिए तकरीबन 30 हजार इंटरनैट पुलिस तैनात है. 1980 के दशक में चीनी नेता डैंग शाओ पिंग ने कहा था कि जब ताजी हवा के लिए खिड़की खोलते हैं तो मक्खियां भी अंदर आती हैं. इंटरनैट पर ये प्रतिबंध कुछ उन मक्खियों को मसलने के समान है ं. अजीब विडंबना तो यह है कि इंटरनैट और खासतौर पर फेसबुक के फैलते प्रभाव से प्रेरित आज चीनी सरकार फेसबुक की बड़ी हिस्सेदारी खरीदने के प्रयत्नों में भी लगी है.

बेचना जरूरी है

सरकार और आतंकवादी इंटरनैट का स्वाभाविक इस्तेमाल तो करेंगे ही, लेकिन लोकतंत्र में आम आदमी को शायद कौर्पोरेट बड़े भैया से चौकस रहना ज्यादा जरूरी है. कैपिटलिस्टिक अर्थव्यवस्था में सिर्फ एक चालक है. धन और उपभोक्ताओं के जरिए ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा करने के प्रयत्नों में व्यवसाय इंटरनैट के इस्तेमाल में सब से अधिक सफल सिद्ध हुए हैं. आज आप के खर्च करने की प्रवृत्ति का पूर्वानुमान लगाने में कंपनियों के लिए आप की निजी साइटों तक पहुंचना अत्यावश्यक हो गया है. इन्हें तो सिर्फ दिलचस्पी है कि जैसे भी हो सके, आप को अपने उत्पाद बेच पाएं, चाहे आप को उस की जरूरत हो या न हो. उदाहरण के तौर पर दुनिया के सब से ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले खोज इंजन गूगल की कार्यशैली देखिए : 

18 महीनों की अवधि तक गूगल अपने इंजन से की गई हर खोज आईपी ऐडे्रस समेत अपने डेटाबेस में रखती है.

अपनी जीमेल सेवा के प्रयोक्ताओं की ईमेलें स्कैन कर उन की रुचि के ऐड उन के स्क्रीन में लगातार पेश करती है.

अपने ‘कुकीज’ आप के कंप्यूटर में छोड़ कर इंटरनैट में आप की संपूर्ण गतिविधियों को लगातार ट्रैक करती रहती है और इस तरह आप की सर्फिंग की आदतों को समझती है. फिर आप की रूपरेखा तैयार कर अन्य कंपनियों को बेचती है.

कइयों को व्यवसायों के इस ध्येय से ज्यादा एतराज न भी हो लेकिन ऐसे अनेक लोग भी होंगे जिन्हें अपने निजी जीवन में इन का अनावश्यक हस्तक्षेप नापसंद होगा. कुछ को अनजान लोगों की रुचि का अनुमान लगा कर उन के सामने लगातार कुछ सीमित किस्म के ऐड डालने वाली बात माइंडकंट्रोल के समान लगेगी या खुद अपने शौक की चीज उपलब्ध करने की स्वतंत्रता को छीनने के समान लगेगी. जिस पर औरों का जवाब यह होगा कि आप के सामने कोई कितना भी कुछ पेश करे, आप के निर्णय लेने की जबरदस्ती तो कोई नहीं कर सकता.

शौकों पर नजर

डेटा माइनिंग पूर्णतया कंप्यूटर एल्गोरिश्मों द्वारा किया जाता है. डेटामाइनिंग कंपनियों को हमारे संपूर्ण निजी डेटा को छानने में कोई मुश्किल नहीं होती. ये कंपनियां व्यक्तिगत रूप से हम में रुचि नहीं रखतीं. वे केवल हमारे शौकों और हमारे शौकों में किसी प्रकार की नई तबदीलियों को ढूंढ़ती हैं, फिर भी गूगल, फेसबुक, ट्विटर, विभिन्न ब्लौग व वैबसाइटें हमारी हर छोटीबड़ी हलकीफुलकी बात को दर्ज करती हैं, उन्हें वर्गीकृत करती हैं और औनलाइन में खोजने लायक बनाती हैं. इस तरह से इन का डेटाबेस निश्चित तौर से बहुत बड़ा तो है ही, प्रभावशाली भी कम नहीं है. उदाहरणस्वरूप गूगल के फ्लू ट्रैंड्ज को ही देखें. गूगल के शोधकों ने इंटरनैट में कुछ खोज शब्दों को विश्वभर में डेंगू या फ्लू के उदित होने में अच्छा संकेतक पाया है. और इस तरह उन शब्दों का अनुश्रवण कर वे डाक्टरों से भी पहले विश्व में हर उस जगह, जहां सक्रिय इंटरनैट प्रयोक्ता हैं, महामारी की प्रवृत्ति पहचान सकते हैं.

इसी प्रकार कोई भी नया ट्रैंड, चाहे वह भाषा में हो, वेशभूषा में या उभरते अभिनेता या सैलिब्रिटी, डेटामाइनिंग के जरिए फौरन पहचाना जा सकता है. एक बार ट्रैंड पहचान में आ जाए, उस के उत्थान को एकसाथ जोरदार बढ़ावा दिया जा सकता है. इसी प्रकार के ट्रैंड सुझाते हैं गूगल के गूगल ट्रैंड्ज और गूगल ऐनालिटिक्स. तो डेटामाइनिंग, जो पहली प्रतिक्रिया के रूप में खौफ जगाती है, असल में कई दिलचस्प, बल्कि यों कहना चाहिए कि विकासशील उपयोग रखती हैं. फिर भी जिन लोगों को ये कंपनियां सिर्फ एक अवांछनीय सामाजिक प्रयोग लगती हैं, टैक्नोलौजी के पास उन के लिए भी कोई उपाय हैं. ये लोग याहू जैसे दखलंदाज खोज इंजन का उपयोग छोड़ डकडकगो जैसे इंजन, जो स्वच्छ इंटरफेस प्रदान करने के अलावा प्रयोक्ता को ट्रैक भी नहीं करते, का इस्तेमाल कर सकते हैं. ईमेल में चरम श्रेणी की गोपनीयता चाहते हैं तो विकर का सैल्फडिस्ट्रक्ंिटग मैसेजिंग इस्तेमाल कर सकते हैं. ईमेल में जो मरजी आए लिखें और भेजने से पहले खुद इस के नष्ट होने का वक्त तय करें. तय किए पल के बाद मैसेज का कहीं पर कोई नामोनिशान नहीं रहेगा. वाकई में टैक्नोलौजी हर स्थिति के लिए कुछ न कुछ उपचार ढूंढ़ ही लेती है.

आतंक दहेज कानून का

‘‘मेरी शादी को 9 साल हो गए हैं. मेरे 60 वर्षीय एडवोेकेट ससुर ने दहेज प्रताड़ना कानून 498ए की धमकी दे कर मुझे परेशान कर रखा था. मेरी बीवी 6 महीने से मायके में है. वह अपनी सारी ज्वैलरी व सामान भी ले गई है. अब उन लोगों ने मेरे खिलाफ दहेज प्रताड़ना व घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज करा दी है. जब मैं ने शिकायत वापस लेने की बात की तो उन्होंने मेरे खिलाफ भरणपोषण का केस दाखिल कर दिया.’’ ‘‘मेरी भाभी ने हमारा जीना मुहाल कर रखा है. बातबात पर वे मेरे बूढ़े मांबाप और मुझे जेल भिजवाने की धमकी देती रहती हैं, छोटेछोटे घरेलू विवाद को वे दहेज प्रताड़ना का नाम देती हैं. इस तरह इस कानून का वे नाजायज फायदा उठा रही हैं. हम बहुत परेशान हैं.’’

आंकड़े क्या कहते हैं?

वर्ष 2011 में दहेज प्रताड़ना में 99,135 केस दाखिल हुए, 2012 में 1,06,527 केस दाखिल हुए, 2013 में 1,197,762 केस दाखिल हुए, नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के अनुसार, 2011 में 47,746 महिलाओं ने आत्महत्या की वहीं 87,839 पुरुषों ने आत्महत्या की. 2012 में 46,992 महिलाओं ने आत्महत्या की जबकि आत्महत्या करने वाले पुरुषों की संस्था 88,453 थी. इन सभी आंकड़ों में अधिकांश विवाहित पुरुष हैं और आत्महत्या का कारण घरेलू झगड़े हैं.

ये घटनाएं और आंकड़े एक बानगी भर हैं जहां सैकड़ों परिवार दहेज कानून के आतंक के चलते प्रताडि़त हो रहे हैं, तलाक के बजाय ज्यादा घर दहेज प्रताड़ना कानून के चलते बरबाद हो रहे हैं. छोटेछोटे घरेलू विवाद दहेज प्रताड़ना में तबदील हो रहे हैं. कई बार बहू और उस के परिवार वाले अन्य मामलों के विवाद का बदला लेने के लिए इस कानून का सहारा लेते हैं जिस के चलते लड़के के परिवार वालों का जीवन प्रभावित होता है.

कवच बना हथियार

दरअसल 498ए यानी दहेज प्रताड़ना कानून के तहत दहेज के लिए पत्नी को प्रताडि़त करने पर पति व उस के रिश्तेदारों के खिलाफ कार्यवाही का प्रावधान किया गया था. दहेज प्रताड़ना का मामला गैरजमानती है और इसे संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है. लेकिन यह कानून लीगल टेररिज्म यानी कानूनी आतंक का रूप लेता जा रहा है. लड़की व उस के परिवार वाले पतिपत्नी के बीच अहं, मामूली पारिवारिक विवाद, अलग रहने की इच्छा के चलते इस कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. इस कानून के दुरुपयोग का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘‘यह कानून सुरक्षा कवच बनने के बजाय हथियार की तरह इस्तेमाल हो रहा है.’’ कोर्ट के अनुसार, 2012 में धारा 498 के तहत अपराध के लिए 19,772 व्यक्ति गिरफ्तार किए गए और गिरफ्तार व्यक्तियों में करीब एकचौथाई पतियों की मां, बहन, बुजुर्ग थे. यह भारतीय दंड संहिता के तहत हुए कुल अपराधों का 4.5 फीसदी है जो चोरी और चोट पहुंचाने जैसे अपराधों से कहीं अधिक है. 498ए के मामलों में चार्जशीट की दर 93.6 प्रतिशत है जबकि सजा की दर मात्र 15 प्रतिशत है.

सुप्रीम कोर्ट का भी मानना है कि इस कानून का प्रयोग कर महिलाएं झूठे मुकदमे दर्ज करवाती हैं. कई बार तो साथ न रहने वाले सासससुर पर भी दहेज के लिए प्रताडि़त करने का आरोप लगाती हैं. एक सर्वेक्षण, जिस में विख्यात पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी भी शामिल थीं, के अनुसार दहेज विरोधी कानून के तहत जितने मुकदमे दर्ज कराए जाते हैं उन में से अधिकांश झूठे व निराधार होते हैं. वे गलत इरादों से दर्ज कराए जाते हैं.

संस्था को बदनाम करता कानून

एक महिला एडवोकेट, जो अपने खुद के परिवार में इस कानून के दुरुपयोग की गवाह हैं, का कहना है, ‘‘यह कानून पैसे कमाने का जरिया बन गया है. उन की खुद की भाभी ने उन के खिलाफ केस दर्ज किया हुआ है. भाभी ने 498ए के साथ सीआरपीसी की धारा 125, धारा 406 का झूठा मुकदमा दर्ज कराया है.’’ इस एडवोकेट के पास रिकौर्डेड मैसेज भी है : ‘‘अगर मेरे सासससुर मर जाएं और मेरे नाम यह मकान कर दें तो अभी मैं ससुराल चली जाऊंगी.’’

इस एडवोकेट का कहना है, ‘‘इस कानून को लड़कियों ने ससुराल वालों से पैसा उगाहने का जरिया बना लिया है. वे ससुराल वालों के पैसों के जरिए अपना मायके का खर्च चलाना चाहती हैं. वे प्रौपर्टी ग्रैबिंग के चक्कर में 498ए का दुरुपयोग कर रही हैं. परिणामस्वरूप घर बरबाद हो रहे हैं. विवाह की संस्था बदनाम हो रही है. यह कानून लेनदेन का जरिया बन गया है. इस कानून के जरिए समाज में गंदगी फैल रही है. छोटे बच्चों, जिन्हें दादादादी के प्यार की छांव तले रहना चाहिए, से कोर्ट में  झूठ बुलवाया जा रहा है.’’

इस कानून के तहत मिले अधिकारों से लैस पुलिस प्रशासक व वकील भी आतंकवादी जैसे बनते जा रहे हैं. पैसे ले कर केस रजिस्टर कर रहे हैं, वकील विवाहित लड़कियों को गलत सलाह दे रहे हैं. वे 498ए के साथसाथ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत प्रतिमाह अपने और अपने बच्चे के लिए भरणपोषण की राशि मांगने का केस दाखिल करने की सलाह दे रहे हैं. वकील कह रहे हैं कि आप शादी के समय दिए गए सामान की लिस्ट बनाइए और शिकायत दर्ज कराइए. पति, परिवार वाले फाइनैंशियल सपोर्ट नहीं देते तो मेंटिनैंस का केस दायर कीजिए. इस कानून का उद्देश्य महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से बचाना था लेकिन इस का प्रयोग पुरुषों के विरुद्ध हो रहा है. पत्नियां इस कानून का सहारा ले कर पतियों को ब्लैकमेल कर रही हैं, उन्हें घरपरिवार अलग होने, जमीनजायदाद उन के नाम करने के लिए धमका रही हैं. बहुएं कानून की दहशत फैला कर मनमानी कर रही हैं.

एडवोकेट विवेक गुप्ता, जो ऐसे केसेज में मध्यस्थता का भी काम करते हैं, का कहना है, ‘‘ज्यादातर केसेज में ऐसे परिवार, जिन में अकेली बेटी या सिर्फ बेटियां हैं और वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं या उन के ससुराल वाले आर्थिक रूप से संपन्न हैं, इस कानून का अधिक सहारा लेते हैं और लड़के वालों से सीआरपीसी की धारा 125 के तहत मोटी रकम वसूलते हैं.’’ उन्होंने यह भी बताया, ‘‘हाल ही में उन की एक क्लाइंट स्वाति (बदला हुआ नाम) को 1 करोड़ रुपए से अधिक की रकम ससुराल वालों से हासिल हुई है. विवाहित लड़कियां पतियों पर नपुंसकता व व्यभिचार का आरोप लगा कर उन से मनमानी रकम वसूलती हैं. इस कानून का दुरुपयोग कर के वे बेगुनाहों को भी शिकार बनाती हैं.’’

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

दहेज प्रताड़ना के मामलों यानी 498ए के मामलों में बड़ी तादाद में हो रही गिरफ्तारियों और इस के बढ़ते आतंक पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चिंता जताई है. 2 जुलाई, 2014 को दहेज से जुड़े एक मामले का निर्णय देते हुए कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में गिरफ्तारी के समय पुलिस के लिए निजी आजादी व सामाजिक व्यवस्था के बीच संतुलन रखना जरूरी है. कोर्ट ने कहा कि दहेज प्रताड़ना सहित 7 साल तक की सजा के प्रावधान वाले मामलों में पुलिस केस दर्ज होते ही आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती. उसे गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त कारण बताने होंगे. 498ए में कोई भी शिकायत आए तो गिरफ्तारी तब तक न हो जब तक कोई सबूत या गवाह उपलब्ध न हो. एफआईआर की अप्लीकेशन में जो आरोप, जैसे विवाह में दहेज की मांग, लगाया जा रहा हो, उस को साबित करने के लिए दो गवाह या सुबूत मांगे जाने चाहिए, तभी एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए, ताकि 498ए के संज्ञेय और गैर जमानती होने के कारण असंतुष्ट व लालची पत्नियां इस का इस्तेमाल सुरक्षा कवच के बजाय हथियार के रूप में न कर सकें.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि इस कानून में ऐसे भी प्रावधान होने चाहिए जिन से केस को लंबित करने व केस के  झूठे होने पर वादी को सजा मिल सके ताकि 498ए कानून के दुरुपयोग को रोका जा सके. कोर्ट ने पुलिस को भी यह हिदायत दी है कि दहेज उत्पीड़न के केस में आरोपी की गिरफ्तारी, सिर्फ जरूरी होने पर ही, की जाए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिन किन्हीं मामलों में 7 साल की सजा हो सकती है उन की गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने यह अपराध किया ही होगा. इस कानून के दुरुपयोग ने शादी को तोड़ना आसान बना दिया है व निभाना कठिन. विवाहित महिलाएं आंतरिक कलह का बदला दहेज का केस कर के लेने लगी हैं. इस से घरपरिवार तबाह हो रहे हैं, ससुराल वालों को आर्थिक, मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा है. इस कानून के चलते बहू पहले पति व ससुराल वालों को अभियुक्त बनाती है सिर्फ इस सोच के साथ कि बाद में समझौते के तहत अधिक से अधिक एकमुश्त रकम प्राप्त कर सके.

इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए दहेज देने वाले व लेने वाले दोनों को गुनाहगार मानना होगा. सिर्फ लेने वाले के खिलाफ केस दर्ज हो लेकिन देने वाले के खिलाफ नहीं, इसे बदलना होगा. शादी के समय लेनदेन को पंजीकृत किया जाए व उस लेनदेन पर मुहर लगाई जाए कि वह दानस्वरूप है या दहेजस्वरूप. यदि लेनदेन दहेजस्वरूप है तो शादी को तुरंत खारिज कर दिया जाए व कानून के तहत दहेज देने वाले को कानून के तहत तुरंत जेल भेजा जाए. जिस ने दहेज दिया है उस की कमाई के जरियों की जांच हो ताकि उस पर टैक्स लगाया जा सके. वैवाहिक संस्था की गरिमा बनी रहे, इस के लिए बदलते समय के साथ स्त्रीपुरुष के बदलते रिश्तों में भी संतुलन लाना होगा जिसे किसी कानून द्वारा कायम नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी के बीच अहं व मामूली पारिवारिक विवाद में दहेज कानून का सहारा ले कर पत्नियों द्वारा पति को ब्लैकमेल किया जा रहा है.

ममता की साख गिरी माकपा के दिन फिरे

देश में अच्छे दिन आएं या न आएं, पर वाममोरचा के प्रमुख घटक दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा के अच्छे दिन जरूर आते दिख रहे हैं. सारदा घोटाले के जाल में फंसी है ममता बनर्जी सरकार. विधानसभा चुनाव के 1 साल के बाद ही पश्चिम बंगाल की जनता के बीच ममता बनर्जी द्वारा लाए गए ‘परिवर्तन’ पर सवाल उठने लगे थे. रहीसही कसर सारदा चिटफंड घोटाले ने पूरी कर दी. घोटाले की सीबीआई जांच से जैसेजैसे परदा उठ रहा है, राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी माकपा के लिए जमीन तैयार होती जा रही है.

बंगाल में 34 सालों तक गठबंधन की राजनीति का इतिहास रचने वाला वाम मोरचा 2011 के विधानसभा चुनाव में पराजित हो गया. वाम मोरचा का सब से बड़ा घटक माकपा इस बात का इंतजार कर रही थी कि तृणमूल कांगे्रस के प्रति बंगाल की जनता का भ्रम टूटे. एक हद तक अब यह हो भी गया है. पिछले 3 सालों में ममता के प्रति शहरी और ग्रामीण दोनों जनता का मोहभंग हुआ है.

सारदा घोटाले के रूप में लगभग 6 हजार करोड़ रुपए का चिटफंड छींका आखिर टूट ही गया. छींका टूटने की ‘धम’ से माकपा अपनी शीतनिद्रा से जाग गई. अब अगले 2 साल बंगाल में चुनाव की गहमागहमी रहने वाली है. 2015 में पहले कोलकाता नगर निगम समेत अन्य नगरपालिका चुनावों के बाद 2016 में विधानसभा चुनाव होने हैं. अब तक ‘वेट ऐंड वाच’ की नीति पर चल रही माकपा ने सारदा कांड के भरोसे एक बार फिर से चंगा होने की कवायद शुरू कर दी है. पिछले 1 महीने से माकपा लगातार सड़क के नुक्कड़ों पर जनसभाएं आयोजित कर ममता बनर्जी और उन की पार्टी तृणमूल कांगे्रस के खिलाफ हवा बना रही है. इस के लिए भाजपा से उधार लिए गए स्लोगन – भाग ममता भाग – तक का सहारा लेने से भी वह पीछे नहीं हट रही है. आजकल माकपा की रैलियों में पार्टी के नेताओं के मुंह पर भाजपा का स्लोगन चस्पां है. बड़ी बात यह है कि ये जनसभाएं सफल भी नजर आ रही हैं.

अन्य पार्टियों को जनसभा बुलाने से रोकने की हर संभव कोशिश की गई. भाजपा को जनसभा के लिए अनुमति न देने में पूरा प्रशासन जुट गया. आखिरकार कोर्ट के निर्देश के बाद लोकसभा चुनाव में 2 सीट मिलने के बाद भाजपा भी शक्ति प्रदर्शन के इस खेल में शामिल हो ही गई है. राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि सारदा घोटाले से ममता बनर्जी की सरकार की साख गिरने के बाद तृणमूल नेताओं और कार्यकर्ताओं का भय व आतंक कम हुआ है. इसीलिए भाजपा या माकपा की जनसभाओं में भीड़ नजर आ रही है. राजनीतिक विश्लेषक पार्थ चटर्जी का कहना है कि अगले साल होने वाले नगर निगम और नगरपालिकाओं के चुनाव बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं. भाजपा और तृणमूल कांगे्रस दोनों हिंदूमुसलिम मतदाताओं को ले कर धु्रवीकरण की लगातार कोशिश कर रही हैं. जबकि बंगाल के बहुसंख्यक मतदाता धर्मनिरपेक्ष हैं. इस का फायदा भारतीय जनता पार्टी को नहीं, माकपा व वाममोरचा को ही मिलेगा.

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