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भोपाल गैस त्रासदी एंडरसन ही दोषी क्यों?

बीती 3 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी की 30वीं बरसी पर माहौल काफी कुछ बदला हुआ था. गैस पीडि़तों के हिमायती कोई आधा दर्जन संगठनों के आयोजनों और प्रदर्शनों से भावुकता व गुस्सा गायब थे लेकिन व्यावहारिकता और समझदारी कायम थी. दिलचस्प बात यह थी कि गैस पीडि़तों की तादाद के बराबर ही देशीविदेशी मीडियाकर्मी और भोपाल के बाहर से आए संगठनों के कार्यकर्ता थे.

कुल जमा लोग काफी कम थे. जाहिर है 30 साल बाद वही लोग बरसी में शिरकत करने आए थे जिन के कोई न कोई स्वार्थ थे. मसलन, कोई गैस त्रासदी पर बनाई अपनी फिल्म का प्रचार कर रहा था तो कुछ संगठन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कोसने की गरज से आए थे. तमाम धर्मगुरु अपना पसंदीदा काम गैस हादसे में मरे लोगों की आत्माओं को मुक्ति दिलाने की प्रार्थना कर रहे थे. राजनेताओं की मौजूदगी तो ऐसे मौकों पर जरूरी होती ही है.

प्रदर्शनों से एक और चीज नदारद थी जिसे लोग खासतौर से मीडियाकर्मी और प्रैस फोटोग्राफर्स 29 साल से देखने के आदी हो गए थे, वह थी यूनियन कार्बाइड के प्रमुख वारेन एंडरसन का पुतला जिसे पिछले साल तक गैस पीडि़त संगठन समारोहपूर्वक फांसी पर चढ़ाते रहे थे और एंडरसन को भोपाल लाओ के नारे लगाते थे.

दरअसल, इंसाफ मांगते गैस पीडि़तों ने जम कर जश्न इस साल की पहली नवंबर को मना लिया था जब वारेन एंडरसन की मौत की खबर आई थी. 92 वर्षीय एंडरसन की मौत हालांकि 29 सितंबर को ही अमेरिका के फ्लोरिडा में हो गई थी लेकिन मुद्दत से गुमनामी की जिंदगी जी रहे इस शख्स की मौत की पुष्टि और आधिकारिक तौर पर खबर 31 अक्तूबर को अमेरिका सरकार ने जारी की. उस के परिवारजनों को भी मौत के बाबत सूचना नहीं दी गई थी.

इस मौत में कोई रहस्य नहीं था जिस की पुष्टि फ्लोरिडा के एक सरकारी अस्पताल से मिले रिकौर्ड से हुई. वारेन एंडरसन एक बेहद मामूली अमेरिकन था जिस के मातापिता स्वीडन से न्यूयार्क आ कर बस गए थे. कोलगेट कंपनी की तरफ से दिए गए वजीफे से पढ़े एंडरसन ने 1942 में महज 21 साल की उम्र में अमेरिकी नौसेना में भरती होने से इनकार कर दिया था. वह लंबे समय तक मामूली सेल्समैन रहा और फिर देखते ही देखते कीटनाशक बनाने वाली प्रमुख कंपनी यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन बन बैठा.

एंडरसन गैरमामूली होना शुरू हुआ था 3 दिसंबर, 1984 की रात से जब भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली गैस मिथाइल आइसोसायनाइड से तकरीबन 3,700 लोग मारे गए थे. हालांकि गैस पीडि़त संगठनों के मुताबिक मृतकों की संख्या 25 हजार से भी ज्यादा थी. दुनिया की सब से बड़ी इस औद्योगिक त्रासदी में कुल कितने लोग मारे गए थे, ठीकठीक संख्या किसी के पास नहीं है.

एंडरसन ही क्यों

जितनी भी मौतें हुई थीं उन का गुनाहगार वारेन एंडरसन को मानते हुए भोपाल के गैस पीडि़त संगठनों ने 2 मांगें प्रमुखता से रखीं. पहली यह कि एंडरसन को फांसी दो और दूसरी यह कि गैस पीडि़तों को जितना ज्यादा हो सके मुआवजा दो. यह मुआवजा यूनियन कार्बाइड (1999 से डाउ कैमिकल्स) दे या अमेरिका या राज्य या फिर केंद्र सरकार. इस पर मांगने वालों ने कोई शर्त कभी नहीं रखी.

एंडरसन जब तक जिंदा था तब तक मुआवजे की आस ज्यादा थी. उस समेत 12 लोगों पर विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था. उन पर प्रमुख आरोप थे गैर इरादतन आपराधिक नरसंहार, आपराधिक लापरवाही जिस के चलते हजारों लोग मरे और वातावरण को प्रदूषित कर अस्वस्थकारी हालात पैदा किए गए. चूंकि ये सभी आरोप जमानती थे इसलिए एंडरसन को तुरंत जमानत मिल गई थी.

इस के बाद का घटनाक्रम बड़ा दिलचस्प और रहस्यमय रहा. जिस के तहत एंडरसन को मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने अमेरिका जाने दिया था. इस पूरे घटनाक्रम का वर्णन एक लेखक डेन कर्जमेन ने भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी अपनी किताब ‘किलिंग विंड’ में किया है.

बहरहाल, एंडरसन एक दफा अमेरिका गया तो फिर वापस नहीं आया. न ही अमेरिका ने उस के प्रत्यर्पण की भारत सरकार की मांग मानी. लेकिन एक महत्त्वपूर्ण बात यूनियन कार्बाइड द्वारा गैस पीडि़तों को 47 करोड़ डौलर की मुआवजा राशि देना रही थी जिस पर इतनी लूटखसोट मची थी कि रातोंरात हजारों फर्जी गैस पीडि़त पैदा हो गए थे.

धीरेधीरे भोपाल सामान्य हो गया लेकिन गैस पीडि़तों के हक की बात करने वाले संगठनों की तादाद बढ़ने लगी. ये सभी इस बात पर अड़े थे कि एंडरसन ही दोषी है और उसे फांसी होनी चाहिए. मानो खुद इन्होंने अपनी आंखों से एंडरसन को जहरीली गैस का पाइप खोलते देखा हो, फिर 29 साल तक उसे भोपाल के चौराहों पर प्रतीकात्मक फांसी लोग देते रहे.

एंडरसन ने एक बयान में माना भी था कि कंपनी का मुखिया होने के नाते हादसे का नैतिक जिम्मेदार मैं हूं लेकिन मैं दोषी नहीं हूं. पर गुस्साए पीडि़त और उन के संगठन एंडरसन को ‘मौत से कम कुछ नहीं’ के अलावा कुछ सुनने तैयार नहीं थे. उन्होंने कभी हादसे की रात ड्यूटी पर तैनात दूसरे मुलाजिमों की लापरवाही की बात नहीं की जिन का गैस रिसने से सीधा संबंध था. 30 साल में अधिकांश आरोपी मर चुके हैं लेकिन गुस्सा एंडरसन पर ही रहा. महज इसलिए कि वह इस कंपनी का मुखिया था.

यूनियन कार्बाइड का गुनाह किसी सुबूत का मुहताज नहीं लेकिन चौराहों पर अपनी अदालत चला रहे गैस पीडि़त संगठनों ने इस बात से वास्ता नहीं रखा कि गैस के पाइप खोलने या रिसाव होने देने की लापरवाही में और लोग भी शामिल हैं जिन में प्रबंधक स्तर के दूसरे मुलाजिम, टैक्नीशियन, सुपरवाइजर व हादसे की रात ड्यूटी पर तैनात दूसरे कर्मचारी प्रमुख हैं. क्या उन्होंने लापरवाही नहीं बरती थी?

एंडरसन की मौत पर भोपाल में गैस पीडि़तों ने दीवाली सी मना कर यह साबित कर दिया था कि कुछ और हो न हो पर यह बात जरूर मिथ्या है कि दुश्मन की मौत पर भी खुश मत हो. इस खुशी और जश्न के बीच नफरत भी साफसाफ देखी गई जब सैकड़ों गैसपीडि़तों ने एंडरसन के पोस्टर पर खुलेआम थूका. वितृष्णा भरा यह दृश्य कतई सभ्य समाज के उसूलों से मेल नहीं खाता.

इधर, तेजी से एक शब्द औद्योगिक सभ्यता चलन में आ रहा है. लेकिन सामाजिक सभ्यता गायब हो रही है. एंडरसन से हमदर्दी की कोई वजह नहीं पर बगैर अपराध साबित हुए उस से इतनी नफरत बताती है कि अदालतों पर लोगों का भरोसा नहीं है और न ही कानून पर. इसीलिए प्रतीकात्मक रूप में ही सही, न्याय वे खुद करते हैं. अगर हादसे के बाद कभी एंडरसन को धोखे से भी भोपाल लाया जाता तो उस की क्या दुर्गति होती, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

तमाम धर्म और संस्कृतियां उपदेश यह देते हैं कि शत्रु के दुख और मृत्यु पर भी अफसोस करो लेकिन भोपाल में इस का उलटा हुआ. एंडरसन की मौत पर मिठाइयां बंटी. यह कौन सी मानसिकता है और कौन सी संस्कृति है, बात समझ से परे है. एंडरसन की मौत से अगर 30 साल पहले का दर्द कम होता हो तो बात और है, न्याय मिलता हो तो कोई हर्ज नहीं, नुकसान की भरपाई होती हो तो भी कोई बात नहीं लेकिन उस से चिढ़ सिर्फ इसलिए है कि वह एक विदेशी था इसलिए बचे 11 देशी आरोपियों के बाबत सब हमेशा चुप रहे हैं. यह भी साफ है कि 11 में से बचे 7 मुजरिमों से धेला भी नहीं मिलना लेकिन एंडरसन चाहता तो और करोड़ों डौलर दिला सकता था.

32 दिन में बदले सुर

इस भड़ास  या प्रतिशोध का खात्मा अभी हुआ नहीं है, न ही कभी होगा क्योंकि गैस त्रासदी की बरसी अब पर्व की तरह मनाई जाने लगी है. इसे हर स्तर पर भुनाया जा रहा है. कुछ मानों में ही सार्थक काम हो रहे हैं पर वे नाकाफी हैं. उलट इस के, गैस पीडि़त संगठनों के कर्ताधर्ता मठाधीशों की सी आवाज में बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि यह मातम मनाना अब बंद होना चाहिए. यह जरूर मृतकों के प्रति अन्याय है, उन गैस पीडि़तों के प्रति ज्यादती है जो अपने दम पर उठ खड़े हुए और दौड़ रहे हैं. यह भोपाल का अपमान है कि हर साल एक हादसे को लोग रोतेझींकते रहें. गर्व इस बात पर समारोहपूर्वक मनाया जाना चाहिए कि भोपाल के लोगों ने एक हादसे का सब्र से सामना किया और हिम्मत नहीं हारी जिस की वजह से हरियाली और झीलों का यह शहर फिर से आबाद है.

जरूरत त्रासदियों को भुलाने की है, भुनाने की नहीं. लेकिन 3 दशकों से भोपाल में 3 दिसंबर को याद कर आंसू बहाए जाते हैं, नईनई बातें कही जाती हैं. एंडरसन की मौत एक खास आदमी की मौत नहीं थी बल्कि एक सामान्य बात थी जिस पर महीनेभर बाद ही लोगों के सुर बदले नजर आए.

मुआवजे की बढ़ती मांग

इस दिन भोपाल गैस पीडि़त महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार ने राज्य सरकार पर आरोप लगाया कि वह गैस पीडि़तों के सही आंकड़े केंद्र सरकार को नहीं भेज रही है जिस से ग्रुप औफ मिनिस्टर ने मुआवजा बढ़ाने से इनकार कर दिया है. इसी तरह एंडरसन की मौत को भुलाते हुए भोपाल गैस पीडि़त संघर्ष सहयोग समिति की प्रमुख साधना कार्णिक का कहना था कि हर गैस पीडि़त को 25 लाख रुपए मुआवजा मिलना चाहिए.

ये तमाम मांगें एंडरसन को भूलते हुए मुआवजों के इर्दगिर्द थीं जिन से गैस पीडि़तों के मन में लालच पैदा होता है और वे साल में 4-6 बार प्रदर्शन करने को इकट्ठे हो जाते हैं. यही गैस पीडि़त मानते हैं कि अब तक मिले मुआवजे का बड़ा हिस्सा फर्जी गैस पीडि़त डकार गए हैं.

3 दिसंबर के आयोजनों में एक आकर्षण भोपाल गैस त्रासदी पर एक निर्देशक रवि वर्मा द्वारा बनाई फिल्म ‘द प्रेयर फौर रेन’ का शो भी था जिस में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित उन के मंत्रिमंडल के कई सदस्य मौजूद थे. फिल्म देखने के तुरंत बाद शिवराज सिंह ने उसे टैक्सफ्री कर दिया लेकिन राज्य के गृहमंत्री बाबूलाल गौर बुरी तरह बिफरे हुए थे. उन का कहना था कि यह फिल्म एंडरसन का गुणगान करती हुई है जिस में हादसे के लिए कारखाने के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया गया है. ऐसा इसलिए किया गया है कि त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन के प्रति भारतीयों के मन की नफरत को हमदर्दी में बदला जा सके.

बकौल गौर, फिल्म की मंशा देश और देश के बाहर यूनियन कार्बाइड के कारखानों के विरोध को शांत करने की थी जो कि गलत है.

फिर सही क्या है? अगर एंडरसन ही दोषी था तो बात और विवाद उस की मौत के साथ ही खत्म हो जाने चाहिए लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा. अब उस की जगह यूनियन कार्बाइड को निशाने पर लिया जा रहा है जिस से किसी को कोई फायदा नहीं होने वाला. यह विरोध जिस की अगुआई कई लोग कर रहे हैं, एक रस्मभर बनता जा रहा है जिसे नए तरीके से निभाने पर यह सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की 26 जनवरी की यात्रा का विरोध किया जाए या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी ओबामा से गैस त्रासदी के बाबत बात करें, यानी मुआवजा मांगें. जाहिर है नरेंद्र मोदी ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जो गैरजरूरी हो.                  द्य

डौक्यूमैंट्री, फिल्म और त्रासदी

एक तरफ जहां सामाजिक संगठन भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं वहीं फिल्म, टीवी और नए प्रचार माध्यमों के जरिए भी इन की आवाज और दर्द को दुनिया के सामने रखा जा रहा है.

हाल ही में रिलीज रवि कुमार निर्देशित अंगरेजी फिल्म ‘भोपाल प्रेयर फौर रेन’ में इस मुद्दे को वारेन एंडरसन के नजरिए से पेश किया गया. इस में हौलीवुड कलाकार मार्टिन शीन, मिशा बर्टन, काल पेन ने काम किया है. जबकि 1999 में इसी विषय पर ‘भोपाल ऐक्सप्रैस’ नाम की फिल्म महेश मिथाई ने बनाई थी. उस में के के मेनन, नसीरुद्दीन शाह, नेत्रा रघुरामन और जीनत अमान ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं.

बीबीसी ने इस त्रासदी पर 2004 में ‘वन नाइट इन भोपाल’ नाम की डौक्यूमैंट्री बनाई थी. इस में पीडि़तों की आपबीती उन्हीं की जबानी दिखी. इस के अलावा फिल्मकार वैन मैक्समिलियन कार्लसन ने विषय को आगे ले जा कर हादसे के बाद पीडि़तों के हालात और स्थिति पर आधारित डौक्यूमैंट्री बनाई थी. इस डौक्यूमैंट्री का नाम ‘भोपाली’ था.

फिल्मकार जोसेफ मेलन ने ‘संभावना’ शीर्षक से डौक्यूमैंट्री बनाई. इस में दिखाया गया कि कैसे एक छोटे से अस्पताल ने हजारों पीडि़तों को मुफ्त में उपचार और चिकित्सा दे कर मानवीयता की मिसाल पेश की थी. इसी लिस्ट में ‘द यस मैन फिक्स द वर्ल्ड’ का भी नाम आता है. इसे एंडी बिचलबम और माइक बोनान्नो ने मिल कर बनाया था.

खतरा अभी टला नहीं

भोपाल गैस त्रासदी के बाद के 30 वर्षों के दौरान कई तरह के अध्ययन हुए हैं जिन में सीएसई यानी सैंटर फौर साइंस ऐंड एनवायरमैंट दिल्ली द्वारा किया गया प्रयास उम्मीद जगाता है.

इस संस्था ने अध्ययन के साथसाथ पूरे देश के ऐक्सपर्ट के साथ बैठ कर इस घातक प्रदूषण से मुक्ति पाने की कार्ययोजना बनाई ताकि वर्तमान और आने वाली पीढ़ी को इस का नुकसान न झेलना पड़े. यह अपनी तरह की पहली सामूहिक पहल है.

गौरतलब है कि संयंत्र के बंद होने के बाद कई वर्षों से यहां 350 टन से ज्यादा कचरा फैला है. इस जहरीले कचरे के रिसाव के चलते मिट्टी और भूजल में घातक संक्रमण फैल रहा है. यह संक्रमण लगातार बढ़ता रहा तो आने वाले दिनों में इस के 10 किलोमीटर तक फैलने की आशंका है.

सीएसई की बैठक में ऐक्सपर्ट्स ने स्वीकार किया कि इस जहरीले कचरे से बड़ी चुनौती तो मिट्टी और भूजल को घातक संक्रमण से मुक्त बनाना है. अगले 5 वर्षों में अगर कचरे का निबटारा नहीं होता है तो इस के घातक परिणाम सामने आएंगे.

सीएसई के उप निदेशक चंद्रभूषण कहते हैं कि वर्षों से जमा कचरे से यहां की मिट्टी और भूजल संक्रमित होने लगे हैं, जिस से आसपास रहने वाले लोगों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है. सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में पिछले 20 सालों में यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे पर हुए 15 अध्ययनों की रिपोर्टों को शामिल किया है, जिन्हें सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं ने तैयार किया है. इस में सर्वप्रथम तात्कालिक उपाय दूसरे चरण के मध्य और लंबी अवधि के उपाय बताए गए हैं.

आशा कर सकते हैं कि इस बार पहले जैसी लापरवाही नहीं दोहराई जाएगी और जल्द ही इस कचरे से होने वाले साइड इफैक्ट्स को नियंत्रित किया जा सकेगा.

महानायक का सपना देखते चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग

दुनिया की सब से बड़ी आर्थिक शक्ति और ताकतवर मुल्क बनने की राह पर चल रहे चीन और इस मुल्क के राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर सब की निगाहें हैं. चीन को इस मुकाम पर लाने में अहम भूमिका निभाने वाले जिनपिंग की असल जिंदगी, राजनीतिक व अंतर्राष्ट्रीय रणनीतियों और विवादों की परत दर परत पड़ताल कर रही हैं गीतांजलि.

दुनिया के कई देशों के नेतृत्व में बीते कुछ समय में उथलपुथल या व्यवस्थित तरीके से बदलाव आए हैं. इस में अमेरिका, रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान समेत कई खाड़ी देश हैं. लेकिन इन सब में से दुनिया की नजरें जिस देश और उस के नेतृत्व पर टिकी हैं, वह चीन है. इस की एक वजह यह है कि चीन के समाचार वहीं की सरकारी एजेंसियों के हवाले से ही दुनिया के सामने आ पाते हैं. दूसरी बात, अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सब से बड़ी आर्थिक ताकत बन चुके चीन पर उस से ज्यादा और कम ताकतवर देशों की नजरें हैं. तीसरी और सब से अहम बात यह है कि लंबे समय से चीन में माओत्से तुंग या डेंग शियाओपिंग जैसा प्रभावशाली और ताकतवर नेतृत्व सामने नहीं आया था जिस ने अपनी नीतियों से अमेरिका समेत दुनिया को प्रभावित किया था. चीन के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस दिशा में धीरेधीरे ही सही, कदम बढ़ा रहे हैं. करीब 2 साल के भीतर ही उन्होंने घरेलू और विदेशी दोनों मोरचों पर अपनी छाप छोड़नी शुरू कर दी है.

वैसे तो राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दिए नारे काफी पसंद किए जाते हैं लेकिन उन का यह कहना, ‘वे न तो पुराने रास्ते पर चलेंगे और न ही गलत रास्ते पर’ बताता है कि उन के पास चीन के भविष्य के लिए एक विजन है. उन्होंने चीन के सपने को पूरा करने का बीड़ा उठाया हुआ है. इस के तहत उन्हें अपने देश में निवेश की गति बरकरार रखते हुए आर्थिक विकास की दर को हरगिज नीचे नहीं आने देना है और जनहितकारी नीतियों को भी पूरा करना है.

ऐसे हुए लोकप्रिय

चीनी राष्ट्रपति शी जनता के बीच छा जाने की कला में माहिर हैं. इस के लिए वे सरकारी और गैरसरकारी मीडिया की भी मदद ले रहे हैं. राह चलते किसी रैस्टोरैंट में लंच करना हो या किसी मिनीबस में सफर करना या फिर लोगों के बीच जा कर उन से बातचीत करना, लोगों को उन का अंदाज पसंद आ रहा है. यही नहीं, वे अपनी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से भी देशवासियों को प्रभावित करने में सफल रहे हैं. उन्होंने एक समय में कड़ाई से पालन होने वाली ‘एक बच्चे’ की नीति में भी ढील दे कर थोड़ी वाहवाही बटोरी है. आज शी इतने लोकप्रिय हैं कि उन्हें देशवासियों से निक नेम ‘शी दादा’ भी मिल गया है.

माना जा रहा है कि चीन में माओ के बाद कोई इतना लोकप्रिय नेता सामने आया है. समयसमय पर शी के दिए नारे भी लोगों में काफी पसंद किए जा रहे हैं. चाहे वे ‘चीन के सपने’ की बात करें या भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में दिए गए नारे ‘ताकत को पिंजरे में कैद करना हो’, हाथोंहाथ लिया जा रहा है.

ऐसे बने ताकतवर

जैसे ही शी देश की कमान संभालने के लिए तैयार हुए, उन्होंने चीनी सेवान पीएलए को अपने करीब रखने के लिए विशेष अभियान शुरू किया. सत्ता संभालने के 100 दिनों के भीतर ही शी ने थलसेना, वायुसेना, अंतरिक्ष कार्यक्रम एवं मिसाइल कमांड केंद्रों का दौरा किया और सीएमसी के चेयरमैन के रूप में 4 सामान्य विभागों और 7 सैन्य क्षेत्रों में वरिष्ठ कर्मचारियों का बड़े पैमाने पर तबादला किया. उन का पहला महत्त्वपूर्ण दौरा दक्षिण चीन सागर में ग्वांगझू सैन्य क्षेत्र का था, जहां उन्होंने घोषणा की कि वे चीनी सेना यानी पीएलए को बेहतर प्रशिक्षण, उपकरण और पुनर्गठन के जरिए एक आधुनिक लड़ाकू बनाना चाहते हैं.

अपने सत्तासीन होने के 6 महीनों के भीतर ही उन्होंने सरकार, सेना और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ग्रहण कर लिया. पिछले 2 दशकों से चीन को पोलित ब्यूरो के सदस्य सामूहिक रूप से चला रहे थे लेकिन अब कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शी ब्यूरो के बाकी सदस्यों से ऊपर हैं जैसा कि माओ और डेंग ने अपने समय में किया था.

ब्रिक्स में चीन का दबदबा

ब्रिक्स देशों में भारत के अलावा ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश शामिल हैं और चीनी अर्थव्यवस्था अकेले ही बाकी सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं से बड़ी है. पिछले वर्ष जुलाई में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में पश्चिमी देशों के प्रभुत्व वाले विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ पर निर्भरता कम करने के लिए ब्रिक्स देशों ने आपात कोष के साथ ही एक विकास बैंक की स्थापना की.

चीन का दबदबा इसी बात से दिख जाता है कि विरोध के बावजूद वह इस बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में ले जाने में सफल रहा और भारत को सिर्फ इस बात से संतुष्ट होना पड़ा कि इस बैंक का पहला सीईओ भारत से होगा.

ब्रिक्स दौरे पर ब्राजील पहुंचने के साथ ही चीनी राष्ट्रपति शी ने भारतीय प्रधानमंत्री को एपेक यानी एशिया ऐंड पैसेफिक सम्मेलन का न्योता दे कर अपनी कूटनीतिक समझदारी का परिचय दिया. इस दौरान चीनी राष्ट्रपति की कही गई लाइन दुनियाभर की मीडिया में सुर्खियां बनी. चीन और भारत जब मिलते हैं तो दुनिया देखती है. दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बीच 1 घंटे से लंबी चली वार्त्ता में चीन ने भारत के सर्विस सैक्टर में व्यापार बढ़ाने और शंघाई कोऔपरेशन और्गनाइजेशन में भारत की भागीदारी बढ़ाने के मामले उठाए. भारत ने सीमा पर शांति, आर्थिक रिश्ते सुधारने, भारत में निवेश बढ़ाने, आतंकवाद से मिल कर निबटने के मामलों को तरजीह दी.

हालांकि, इस दौरान चीन ने सीमा विवाद पर अपना पुराना रुख दिखाया और 4,057 किलोमीटर लंबी सीमा यानी एलओसी पर विवाद होने की बात को मानने के बजाय कहा कि अरुणाचल प्रदेश से लगी 2 हजार किलोमीटर लंबी सीमा जिसे चीन, दक्षिणी तिब्बत का नाम देता है, पर ही विवाद है. यही नहीं, इस सम्मेलन में भारत के विरोध के बावजूद व्यापार नियमों में ढील देने वाले व्यापार समझौते को लागू करने पर सहमति बनाई गई जिस में भारत के साथ चीन का भी हाथ था. भारत ने इस से अपने देश में सब्सिडीयुक्त अनाज पाने वाले गरीबों के प्रभावित होने की बात रखी लेकिन उसे नजरअंदाज कर दिया गया.

क्या कह गया भारत दौरा

भारत दौरे पर आने से पहले चीनी राष्ट्रपति शी और मुंबई में चीनी उपदूत ने भारत में 100 बिलियन डौलर निवेश की बात कही थी लेकिन इसी साल सितंबर में शी के दौरे पर महज 20 बिलियन डौलर निवेश की डील ही साइन हो सकी. माना जा रहा था कि शी भारत और जापान के बीच बढ़ती करीबी के बीच में पड़ने के लिए जापान के भारत में 35 बिलियन डौलर के निवेश से कम से कम दोगुने निवेश की घोषणा करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. जबकि, शी के इस दौरे के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रोटोकाल तोड़ा और 1962 के बाद पहली बार किसी चीनी नेता का सार्वजनिक स्वागत किया गया.

इस दौरे में भारत ने सीमा विवाद के मामले को उठाया लेकिन दोनों नेताओं की बैठक के बाद के बयानों से साफ जाहिर हुआ कि इस पर एकराय नहीं बन सकी है. यही नहीं, इस मामले पर भारत के लिए सम्मान और कूटनीतिक तौर पर अहम माने जाने वाले मामले अरुणाचल प्रदेश के निवासियों के लिए नत्थी यानी स्टेपल वीजा पर भी कोई सुलह नहीं हो सकी, न ही तिब्बत में चीन के निर्माण पर बात हो सकी. बल्कि शी के दौरे के समय चीन के हजारों सैनिक भारतीय सीमा में 2 बार घुसे, हालांकि कुछ देर बाद वापस चले गए.

अमेरिका से तनातनी तो रूस से नजदीकियां

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल ही में अपने चीन दौरे पर अमेरिकी छात्रों, उद्यमियों और पर्यटकों के लिए वीजा नियमों को आसान बनाने वाले समझौते पर हस्ताक्षर किए. हालांकि चीन ने, अमेरिका की उस के समुद्री क्षेत्र में निर्माण न करने की अपील को नकार दिया और कहा कि उसे इस क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए वहां रडार आदि स्थापित करने की जरूरत है.

चीन वर्ष 2020 तक अमेरिका के प्रशांत महासागर में उतरने की योजना को ले कर भी नाराज चल रहा है. अमेरिका के बाद दूसरे नंबर की महाशक्ति चीन है और कहा जा सकता है कि चीन और अमेरिका एशिया और दुनिया को बिना आपस में लड़े जीतना चाहते हैं.

इसी तरह कुछ समय पहले रूसी दौरे पर शी ने कहा था कि वे रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तरह होना चाहेंगे. यहां उन का आशय घरेलू और विदेशी नीतियों को कड़ाई से सामने रखने और लागू करने से था, जैसा कि रूस ने देश में विरोध और दुनिया में अकेले पड़ने के बावजूद घरेलू नीतियों और यूक्रेन-यूरोप के मामले में किया.

जी-20 सम्मेलन से पहले ही चीन और रूस को पता चल गया था कि वहां उन के लिए कुछ खास नहीं रखा है, इसलिए शायद ठीक उसी समय रूसी रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगू को चीन भेजा गया था जबकि अमेरिका, आस्ट्रेलिया  और जापान के शीर्ष नेता साथ बैठकें कर रहे थे.

चीन और रूस को पता है कि पश्चिमी देश उन के साथ नहीं हैं. यूक्रेन के मसले पर रूसी राष्ट्रपति के साथ जी-20 में हुआ रूखा व्यवहार भी यही साबित करता है. इसलिए भी दोनों देश आपस में रक्षा क्षेत्र में करीब आ रहे हैं. बीजिंग में एपेक सम्मेलन के दौरान भी पुतिन और शी जिनपिंग ने एकदूसरे को सदाबहार दोस्त बताया और कहा कि चाहे दुनिया में कुछ भी हो, वे हमेशा दोस्त रहेंगे और इसी दौरान दोनों देशों के बीच ऊर्जा क्षेत्र में अहम समझौता भी हुआ.

दक्षिण एशिया में समुद्र का बादशाह

चीन का भले ही इस समय पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर के संबंध में जापान, वियतनाम, फिलीपींस, मलयेशिया, ताइवान, ब्रूनेई और भारत के साथ विवाद चल रहा हो लेकिन वह इस इलाके में सब से ताकतवर देश है. सेनकाकू द्वीपों के खनिजों पर अधिकार को ले कर उस का जापान के साथ विवाद चल रहा है. स्पार्टली द्वीप पर उस के रनवे बनाने की खबरें आई हैं. श्रीलंका में समुद्र किनारे अहम निर्माण कर वह भारत को भी बांधना चाहता है.

हाल ही में चीनी सैनिकों की एक बोट भारतीय समुद्र सीमा में आ गई थी, जिसे ले कर भारतीय मीडिया और सुरक्षा तंत्र में काफी हलचल पैदा हो गई थी, भारत के सामने तो चीन की ताकतवर स्थिति का अंदाज लगाने के लिए यही उदाहरण काफी है कि जब हम अपनी सीमा में आई विदेशी नौका से घबरा गए थे.

सामरिक और विदेशी मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि भारत और जापान की बढ़ती करीबियों जैसे पिछले साल जापानी प्रधानमंत्री को भारत में गणतंत्र दिवस का मुख्य अतिथि बनाना, भारत में जापानी निवेश बढ़ाने से भी चीन के माथे पर बल पड़े हैं लेकिन वह इन में से किसी को अपना प्रतिद्वंद्वी मानने के बजाय अमेरिका को ध्यान में रख कर कोई कदम उठाता है. भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलेपन के कारण चीन पहले ही इसे काफी नुकसान पहुंचा चुका है और चीन की बनी हर छोटीबड़ी चीज आज हमारे देश में आसानी से उपलब्ध है.

भारत बनाम चीन या चीन बनाम अमेरिका

शी के गद्दी पर बैठने के बाद चीन के पड़ोसी और कूटनीतिक तौर पर एशिया में अहम माने जाने वाले भारत में भी लोकसभा चुनाव हुए और करीब 3 दशक बाद कोई पार्टी बहुमत ले कर सत्ता में आई. इस से दुनिया की नजरें भारत की ओर भी गईं.

चीन ने इस दौरान अपनी घरेलू और विदेशी नीतियों से वैश्विक राजनीति में अहम जगह बनाई और अपने लिए अहम रोल चुना है. इसी तरह भारत की नई सरकार ने भी अपनी घरेलू नीतियों और नेपाल, म्यांमार, पाकिस्तान, जापान, आस्ट्रेलिया के अलावा चीन व अमेरिका के साथ किए समझौते से अपनी स्थिति को महत्त्वपूर्ण बनाने की कोशिश की.

हालांकि, चीन के नए शासक के किए गए समझौतों पर नजर डालें तो पता चलता है कि वह दुनिया के नंबर एक देश अमेरिका को आर्थिक व भौगोलिक तौर पर बांधने व मजबूर करने की कोशिश में लगा है. हां, नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान में उस के द्वारा निर्माण और रक्षा क्षेत्र में उठाए जा रहे कदम भारत को ध्यान में रख कर उठाए जा रहे हैं लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है. पाकिस्तान को एशिया में अमेरिका का मददगार देश माना जाता है और चीन ने उसे अपने पाले में करने की कोशिश की है, इसी तरह श्रीलंका में भी वह प्रशांत महासागर में अमेरिका की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए बंदरगाह, रनवे आदि बना रहा है.

ऐसे में भारत के सामने भले ही पहला लक्ष्य चीन की बराबरी या उस की टक्कर हो लेकिन चीन का पहला लक्ष्य अमेरिका को टक्कर देना या उस की बराबरी करना है. चीन के सामने भारत एक बाजार के तौर पर खतरा हो सकता था लेकिन ऐसा होने से पहले ही उस ने खुले भारतीय बाजार को अपने उत्पादों से पाट दिया है. और चीन बारबार भारत के साथ नए आर्थिक रिश्ते और व्यापार बढ़ाने पर जोर दे रहा है.

शी के घरेलू अभियान

शी ने अपने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से दुनियाभर का नहीं तो अपने देशवासियों का ध्यान तो अच्छे तरीके से खींचा ही है. उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाई जिस में पार्टी, सेना और सरकार के, पहले तो जूनियर, फिर कई सीनियर अधिकारी भी फंसे. इस से लोगों में उम्मीद जगी है कि उन की मुहिम रंग लाएगी. यही नहीं, उन्होंने एकसाथ देश के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास का वादा किया है. इस के लिए वे अपने पूर्ववर्तियों से ही नहीं, बल्कि दुनिया के इतिहास से भी सीख लेने की बात कहते रहे हैं. उन्होंने कई क्षेत्रों में सरकारी क्षेत्र के निवेशकों को हटा कर प्राइवेट फर्मों को काम करने का मौका दिया है.

उन्होंने माओ के समय के घरों की गिनती करने वाले काम को फिर से आगे बढ़ाया है जिस से शहरीकरण और विस्थापन की समस्या से जूझ रहे चीन को कुछ नजात मिले. यही नहीं, डेंग के समय की व काफी आलोचना में घिरी नीति ‘एक कपल-एक बच्चे’ में भी राहत दी है.

सेना का विरोध

हाल ही में अमेरिका समर्थित एक प्राइवेट न्यूज सर्विस ने दावा किया था कि चीन में कई बार विद्रोह और तख्तापलट होतेहोते रह गया. इस के लिए उस ने सैनिकों की मूवमैंट, गुप्त बैठकों, चीन के कुछ शहरों में सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाए जाने जैसी गतिविधियों का हवाला दिया. ठीक इसी समय, हौंगकौंग की एक पत्रिका ने भी दावा किया कि शी की कई बार हत्या की कोशिश हो चुकी है और वे इस में बालबाल बचे हैं. शायद इसलिए भी शी अपने भाषणों में कहते रहे हैं कि उन्हें अपनी जान की कोई परवा नहीं है, वे देश में सुधार कार्यक्रम जारी रखेंगे. माना जा रहा है कि यह उन के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान का असर है जिस में सरकार, सेना और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के कई शीर्ष नेता फंस रहे हैं.

इतना ही नहीं, शी के भारत दौरे पर सीमा विवाद पर होने जा रही वार्त्ता से ठीक पहले 1 हजार चीनी सैनिकों की दक्षिणी लद्दाख में घुसपैठ को भी शी के खिलाफ सेना के शीर्ष अधिकारियों की हरकत के तौर पर देखा जा रहा है. इन्हें हटाने के लिए भारत को अपने 1,500 सैनिकों को मौके पर भेजना पड़ा था. इस के अगले दिन भी कुछ चीनी सैनिकों ने टैंट गाड़ लिए थे जो सड़क बनाने का सामान भी साथ ले कर आए थे.

बहरहाल, शी जिनपिंग के कदमों से तो यही प्रतीत होता है कि वे आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए अपनी सरकार के कार्यक्रमों को न सिर्फ जारी रखेंगे बल्कि उन्हें और भी धार देते रहेंगे. उन्होंने अपने मुल्क को ‘सपनों का चीन’ बनाने का बीड़ा उठाया हुआ है और वे इस ओर आगे बढ़ते रहेंगे. वक्त और चीनी जनता का उन्हें कितना सा?थ मिलता है, यह भविष्य ही बताएगा.                   द्य

पेंग लियुआन शी जिनपिंग से कम नहीं

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दुनिया के कद्दावर नेताओं मे गिने जाते हैं. जितनी चर्चित शख्सीयत वे खुद हैं उतनी ही चर्चित उन की बेगम यानी चीन की फर्स्ट लेडी पेंग लियुआन भी हैं. कहा तो यह भी जाता है वे एक दौर में जिनपिंग से भी ज्यादा लोकप्रिय थीं. बीते दिनों पेंग लियुआन 2 कारणों से ज्यादा चर्चा में रही. पहली तो लियुआन ने अपने भारत दौरे के दौरान सब का ध्यान खींचा और दूसरी वजह रही रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की दिलफेंक मिजाजी. दरअसल, बीजिंग में एशिया पैसिफिक सम्मेलन से पूर्व एक आतिशबाजी का शो देखने एकत्र हुए 3 विकसित देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी में व्लादिमीर पुतिन ने पेंग लियुआन को शाल उढ़ा दी. हालांकि ऐसा उन्होंने उन्हें सर्दी से बचाने के लिए किया था लेकिन पुतिन की कैसोनोवा छवि के चलते यह मसला चीन में काफी विवादित रहा. इस फुटेज के टीवी पर आते ही यह औनलाइन वायरल हो गया. लेकिन जल्दी चीन के इंटरनैट से यह वीडियो और इस से जुड़ी सभी सामग्री चीन प्रशासन ने हटा दी.

राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उन की पत्नी पेंग लियुआन की लवस्टोरी की भी चर्चा हर जगह फैली हुई है. बता दें कि दोनों की लवस्टोरी वाला एक म्यूजिक वीडियो इंटरनैट पर वायरल हो गया है. इस वीडियो को अब तक 2.2 करोड़ लोग देख चुके हैं. इस वीडियो का नाम ‘सी दादा लव्स पेंग ममा’ रखा गया है. वीडियो में दोनों काफी रोमांटिक मूड में नजर आ रहे थे.

बहरहाल, चीन की फर्स्ट लेडी को ले कर दुनिया भर में आकर्षण इसलिए भी है क्योंकि पेंग एक समय में सितारा हैसियत गायिका रही हैं. जब शी जिनपिंग कम्युनिस्ट पार्टी औफ चाइना के मध्यम स्तर के अधिकारी थे तब पेंग पूरे चीन में एक गायिका के रूप में मशहूर थीं और उन के वहां करोड़ों प्रशंसक थे. 1986 में लियुआन और जिनपिंग की पहली मुलाकात हुई थी.

चीनी मीडिया की खबरों की मानें तो 40 मिनट की इस मुलाकात में जिनपिंग ने लियुआन से अपने प्रेम का इजहार कर दिया था. कहा जाता है पहले पेंग के मातापिता इस शादी के लिए तैयार नहीं थे लेकिन जिनपिंग ने उन से अकेले में मुलाकात कर शादी के लिए किसी तरह मनाया.

आखिरकार 1 सितंबर, 1987 को दोनों ने आपसी सहमति से शादी कर ली. शादी के बाद जब जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने का रास्ता साफ हो गया तो उन्होंने संगीत कार्यक्रम करने कम कर दिए. हालांकि उन के मुल्क में आज भी उन की गीतों के जरिए देशभक्ति का भाव जगाने वाली पहली लोक गायिका के रूप में खास पहचान है. इतना ही नहीं चीनी मीडिया उन के फैशन व अन्य गतिविधियों पर बारीक नजर रखता है.

पेंग लियुआन का जन्म चीन के शौंगडौंग प्रांत के पेंग गांव में 1962 को हुआ था. उन की मां स्थानीय कला मंडली में थीं. पिता स्थानीय कल्चर ब्यूरो के प्रमुख के तौर पर एक संग्रहालय के क्यूरेटर थे. 80 के दशक में वे पहली चीनी महिला थीं, जिस ने लोक गायिकी में मास्टर डिगरी हासिल की. लियुआन 18 वर्ष की उम्र में ही सेना में शामिल हो गई थीं.

फिलहाल वे चीन की लाल सेना की आर्ट एकेडमी की डीन हैं और उन का पद सेना में मेजर जनरल के बराबर का है. उन की लोकप्रियता का अंदाजा इस से भी लगाया जा सकता है कि इस साल फोर्ब्स ने उन को विश्व की 57वीं सब से ताकतवर महिला माना है जबकि 2013 में वह टाइम की 100 सब से प्रभावी हस्तियों की लिस्ट में शामिल थीं. फर्स्ट लेडी के तौर पर पेंग लियुआन चीन में एचआईवी एड्स और धूम्रपान विरोधी मुहिम की गुडविल एंबैसेडर भी हैं.

लियुआन की चर्चा इसलिए भी ज्यादा होती है क्योंकि बतौर फर्स्ट लेडी उन्होंने कई पुरानी मान्यताओं और प्रचलनों को तोड़ा है और दुनिया भर में चीन की एक अलग तसवीर पेश की है. राजनीति एक्सपर्ट बताते हैं कि लियुआन से पहले अन्य चीनी फर्स्ट लेडी जब विदेशी दौरे पर जाती थीं तो आमतौर पर शांत और रस्मअदायगी तक ही खुद को सीमित रखती थीं. लेकिन पेंग ने इस चलन को बदला. वे न सिर्फ हर मसले पर अपनी खुली राय रखती हैं बल्कि उन के फैशन, अंदाज और उन की गतिविधियां भी चर्चा का विषय बनती हैं. शायद यही वजह है कि इंटरनैशनल मीडिया में उन की तुलना अमेरिकी प्रैसिडैंट और इंगलैंड के प्रिंस की पत्नी से की जाती है.

51 साल की उम्र में भी वे जिस शाही ढंग से खुद को पेश करती हैं, उन की चर्चा होनी लाजिमी है. वरना याद कीजिए किसी भारतीय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की पत्नी की विदेशी दौरों के दौरान मीडिया में इस तरह चर्चा हुई हो. इस में कोई शक नहीं कि दुनिया में जो मजबूत कद शी जिनपिंग का है, उन की पत्नी लियुआन उस कद के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं.     -राजेश कुमार 

शी की चुनौतियां

घरेलू और विदेशी मोरचों पर बड़ी जंग लड़ रहे शी के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं. उन की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को विश्लेषकों का बहुत अच्छा साथ नहीं मिल पा रहा है. उन के आलोचकों का मानना है कि इस मुहिम में अब तक कम्युनिस्ट पार्टी औफ चाइना में शी के प्रमुख राजनीतिक विरोधी और विरोधियों के सहयोगी ही फंस रहे हैं.

विश्लेषकों का कहना है कि सिर्फ हजारों अधिकारियों को पकड़ने से भ्रष्टाचार पर रोक नहीं लगाई जा सकती. इस के लिए आय का खुलासा, व्यवस्था में पारदर्शिता, इन घोटालों को उजागर कर सकने वाले मीडिया के अधिकारों को बहाल करना, सरकार की ताकत पर रोक लगाना, न्यायपालिका के अधिकारों को बहाल करना जैसे अहम मुद्दे हैं जिन पर काम करने की पहले जरूरत है.

लंबित मामलों का सच

अदालतों में जो करोड़ों मामले पैंडिंग पड़े हैं उन पर हर न्यायाधीश, मुख्य न्यायाधीश और कानून गंभीर चिंता जताता है, कुछ सुझाव देता है और फिर अपनी सीट पर बैठ वही काम करने लगता है जिन से बकाया केसों की गिनती बढ़ती जाती है. सुप्रीम कोर्ट से ले कर मुंसिफ की अदालत में हर रोज एक जज या जजों की बैंच पर 30-40 मामले लगे होते हैं जबकि व्यावहारिक बात यह है कि कोई अदालत दिन में 2 या 3 से ज्यादा मामले सुन ही नहीं सकती.

मामलों का बकाया होना असल में जनता को लूटने का नायाब तरीका बन गया है जो चिटफंड कंपनियों, बाबाओं के आश्रमों, माफिया गैंगों और चंबल के डाकुओं से भी ज्यादा चतुराई व गहराई वाला है. इस तरीके का ओरछोर पता ही नहीं चलता. किस ने बनाया, कौन चला रहा है, कैसे चल रहा है किसी को नहीं मालूम, पर लाभ सब उठा रहे हैं. सब का मतलब, जिन के पास अधिकार हैं, जिन्होंने दूसरों का पैसा दबा रखा है या जो दबंग हैं.

पहली अदालत में जब मामला पहुंचता है तब से खेल शुरू हो जाता है. आपराधिक मामलों के लिए सरकार ने इतने कानून बना रखे हैं कि हर रोज सैकड़ों नहीं, लाखों चालान, समन, वारंट जारी कर दिए जाते हैं बिना दिमाग लगाए और बिना सोचे. जब दूसरा पक्ष हांफताकलपता अदालत पहुंचता है, वकील को मोटी फीस देता है तब पता चलता है कि उस का मामला तो घोंघे की तरह चलेगा, हर पेशी पर 2-3 मिलीमीटर. क्यों, यह किसी को पता नहीं. क्यों नहीं पहले ही दिन दोनों पक्षों, दोनों के गवाहों, दोनों के सुबूतों और दोनों के वकीलों को आमनेसामने खड़ा कर फैसला कर दिया जाता, जैसा कि फिल्मी अदालतों में दिखाया जाता है. इसलिए कि फिर ज्यूडीशियल सिस्टम से पैसा कैसे बनेगा, न वकीलों को मिलेगा, न पुलिस वालों, न वाद दाखिल करने वालों को, न गवाहों को. देरी ही तो वह चाबी है जिस से अदालत में पहुंचे लोगों की सेफों को खोला जाता है और खाली किया जाता है.

सरकार ने जानबूझ कर हजारों कानूनों, हर कानून में नियम और हर नियम में नीतियां बना रखी हैं ताकि आम आदमी को निचोड़ने का पूरा काम किया जा सके. कोई भी न्यायाधीश, मुख्य न्यायाधीश या कानून मंत्री उन्हें खत्म करने की बात नहीं करता क्योंकि ये ही तो शासन और कानून से मोटी कमाई करने वालों का सहारा हैं.

धर्म की डफली

पुराना जनता दल अब भारतीय जनता पार्टी से निबटने के लिए फिर से एक हो रहा है. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला, मुलायम सिंह यादव आदि मिल कर नई पार्टी बनाने के चक्कर में हैं ताकि वोटों के बंटवारे का लाभ भाजपा को न मिल सके. भारतीय जनता पार्टी इस बार केवल 31.2 प्रतिशत मत पा कर पूरा बहुमत पा गई क्योंकि वोट कांगे्रस व जनता दलों में बंट गए.

उम्मीद है कि ममता बनर्जी, वामपंथी दल और दूसरे दल भी मिल जाएंगे और कांगे्रस भी निकट आ कर सहयोग देगी.

वोटों का बंटवारा न हो, यह तो समझा जा सकता है पर भारतीय जनता पार्टी में ऐसा क्या अवगुण है कि ये सारे दल उस का मुकाबला करने के लिए अपने वर्षों पुराने मतभेदों और गरूर को भुला रहे हैं? जैसे भाजपा राज करने के लिए आई है और वैसे ही ये सारे दल भी राज करना चाहते हैं.

भाजपा का धर्म का अपना खास एजेंडा है पर क्या इन दलों के नेता धर्म का व्यापार नहीं करते? लालू यादव तो इन में खास हैं जो धर्म की डफली बजाते रहते हैं. केवल मुसलमानों का हिमायती बनने को धर्म की दुकानदारी न करना नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारत का मुसलमान तो खुद धर्म के दुकानदारों के हाथों बुरी तरह बिका हुआ है.

जनता परिवार के दलों की खासीयत यह है कि वे हिंदू वर्णव्यवस्था के शिकार भारी जनसमूह, आबादी का लगभग 95 प्रतिशत का मानसिक प्रतिनिधित्व करते हैं. इस देश पर हिंदू राज असल में 3 प्रतिशत लोगों ने किया और जब राजा हिंदू नहीं थे तब भी समाज पर इन्हीं लोगों का शास्त्रों के हवाले से राज था.

पर क्या जनता परिवार उन शास्त्रों, उन परंपराओं, उस सोच, उस व्यवहार का विरोध कर रहा है जिस ने देश के हर गांव को दसियों हिस्सों में बांट रखा है? हर हिस्सा दूसरे का शोषण तो करता ही है, मारपीट और हिंसा करने से भी बाज नहीं आता. दलितों का तो इस देश में रहना आज भी दूभर है लेकिन जनता परिवार की राजनीति से सक्षम हुए कल तक के शूद्र आज अपने को श्रेष्ठ और महापंडित समझ कर ऐसे अत्याचार करने लगे हैं जो शास्त्रों में भी वर्णित नहीं हैं.

जनता परिवार का औचित्य तो तब सिद्ध होगा जब उस के नेता उस सड़ीगली, बदबूदार सोच का विरोध करें जिस के सहारे भाजपा चुनाव जीती है और जिसे वह फिर से थोपना चाहती है. केवल मुसलमानों को कट्टर हिंदुओं से संरक्षण नहीं चाहिए, यहां तो सवर्णों तक की औरतों, विधवाओं, निपूतियों, कुंआरियों को कट्टरपंथियों के कहर से मुक्ति चाहिए.

जनता परिवार और कांगे्रस की पिछले 60 सालों में कमजोरी यह रही है कि उन्होंने उस हिंदू संस्कृति को आगे बढ़ाया है जिस ने भारत की रगरग को कमजोर कर रखा है, जो लोगों को काम करने नहीं देती, जो बांटती है, जो धर्म के नाम पर निठल्लों को हलवापूरी खिलाने को उकसाती है, जो रिवाजों के नाम पर घर में और घर के बाहर औरतों, बच्चों, लड़कियों पर कहर ढाती है.

अगर जनता परिवार सामाजिक क्रांति नहीं ला सकता तो भारतीय जनता पार्टी में क्या खराबी है जो कम से कम महान भारत का सपना तो दिखा ही रही है. नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता, भ्रष्टाचार राहत, मेक इन इंडिया, गुड गवर्नैंस जैसे नारे तो दिए हैं जो पिछली सरकारों की अराजकता को ठीक करने वाले हैं. केवल गद्दी पाने के लिए अगर ये एक हो भी जाते हैं तो चार दिन में टूट जाएंगे क्योेंकि इन में जनभक्ति और जनसेवा की गोंद अब बची नहीं रह गई, वह सत्ता की चाहत के सैलाब में कब की धुल चुकी है.

क्यों जरूरी है संस्कृत

संस्कृत पढ़ाने की अनिवार्यता, कम से कम केंद्रीय सरकारी अंगरेजी माध्यम स्कूलों में, को ले कर स्मृति ईरानी अड़ी हुई हैं जबकि इस का जम कर विरोध हो रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय को गलत तो नहीं ठहराया है क्योंकि इस प्रकार के निर्णय लेने का हक सरकार ही को है, अदालतों को नहीं पर यह जरूर कहा है कि सत्र के बीच जरमन छुड़वा कर संस्कृत शुरू करना बेकार है.

इस पर शिक्षा मंत्रालय ने कहा है कि संस्कृत पढ़ाई तो जाएगी पर परीक्षा नहीं ली जाएगी. इस का अर्थ क्या है? यही कि हर स्कूल में संस्कृत अध्यापकों की नियुक्ति तो होगी पर छात्रों को इस भाषा का जो थोड़ाबहुत ज्ञान होना चाहिए वह भी न होगा.

यह तो हमारी संस्कृति के बिलकुल अनुकूल है. हमारे शास्त्र यही तो कहते हैं कि पंडितों को हर अच्छेबुरे समय पर बुलाओ, उन से संस्कृत में रटेरटाए मंत्र पढ़वाओ, उन्हें समझने की जुर्रत भी न करो और दानदक्षिणा दे कर विदा कर दो. हमारे धर्मग्रंथों में राजा के कर्तव्यों में बारबार कहा गया है कि वह यज्ञ, हवन आदि कराए. संस्कृत के पाठ पढ़वाए, ऋषिमुनियों की सेवा का प्रबंध करे, उन की सुरक्षा करे और वे किसी काम के हों या न हों, उन्हें भरपूर दान दे.

स्मृति ईरानी यही तो कर रही हैं. बच्चों को संस्कृत का ज्ञान तो दिलाने की इच्छा ही नहीं है क्योंकि इस भाषा का ज्ञान अगर हो गया तो लोग हिंदू धर्मग्रंथ पढ़ने लगेंगे और पढ़ कर जान जाएंगे कि इन में आखिर किस तरह का ज्ञान है. जो लोग हिंदू धर्म की पोल खोलते हैं वे वही हैं जिन्होंने संस्कृत पढ़ी और जाना कि यह भाषा चाहे कितनी शुद्ध व्याकरण में लिखी गई हो, चाहे जैसी लच्छेदार बातें हों, आज के लिए नितांत अनुपयोगी है.

भारत में तीसरी भाषा का जनून केवल गैर हिंदीभाषियों को खुश करने के लिए है. यहां हिंदीभाषियों को यदि अंगरेजी और हिंदी आती है तो वे आसानी से सारे देश में काम कर सकते हैं. तीसरी भाषा गैर हिंदीभाषियों को चाहिए जिन के लिए हिंदी सीखना जरूरी है.

यह विवाद कुछ लाख नौकरियों के लिए है, सरकारी पक्की नौकरियों के लिए. इस का संस्कृत पढ़वा कर संस्कृत की पोल खोलने का उद्देश्य तो कतई नहीं है.

उलटा पड़ गया दांव

जब से देश के हिंदू नेताओं को यह एहसास हुआ है कि हमारी गुलामी, 2000 सालों की गुलामी, का कारण भारी संख्या में वे अछूत और शूद्र हैं जो हिंदू समाज की वर्णव्यवस्था के कारण दूसरे धर्मों में चले गए, उन पर उन की शुद्धीकरण करने का भूत चढ़ा हुआ है. यह जानते हुए भी कि शुद्धि के बाद इन नए बने तथाकथित हिंदुओं का कोई कल्याण न होगा, ये नेता आबादी का संतुलन ठीक करने के नाम पर इस मरे डायनासोर को जिंदा कर के अपने पुरखों के पापों का प्रायश्चित्त करने का यत्न करते रहते हैं.

आगरा में बजरंग दल के साथ जुड़े एक उत्साही नेता की 50 बंगलाभाषी मुसलमानों को हिंदू बनाने की चेष्टा इस बार उलटी पड़ गई क्योंकि इस से विपक्ष को नरेंद्र मोदी की सरकार को घेरने का मौका मिल गया और जनता में यह संदेश पहुंचने लगा कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार का एजेंडा न विकास है, न गुड गवर्नैंस है, न भ्रष्टाचारमुक्त भारत है, न स्वच्छ भारत है, और न ही भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देना है. भाजपा का मकसद तो हिंदू श्रेष्ठता को सिद्ध करना है. अपने को जगद्गुरु मनवाना है, हिंदूग्रंथों को थोपना है.

भारत में बसे मुसलमान और ईसाई कहीं बाहर से नहीं अपितु उन में से अधिकांश यहीं धर्मपरिवर्तन कर बने. इस में कोई नायाब बात नहीं है क्योंकि विश्वभर में सदियों से ऐसा होता रहा है. पूरा यूरोप, अमेरिकी महाद्वीप उस धर्म को मानता है जो एशिया के छोटे शहर जेरुशलम में शुरू हुआ. अफ्रीका व एशिया का बड़ा हिस्सा मक्का में शुरू हुए धर्म को मानता है. एशिया में भारत में इसलाम के अलावा बौद्ध धर्म को माना जाता है जो भारत में शुरू हुआ.

ये सब धर्म धर्मपरिवर्तन के कारण फैले. यह अच्छी बात थी या बुरी, इसे छोड़ दें तो भी ऐतिहासिक तथ्य हैं, अब चीन कहना शुरू कर दे कि वह बौद्ध धर्म वालों की शुद्धि कर के उन्हें कंफ्यूशियस जीवन शैली में ढालना चाहता है या जापान तंबू लगा कर बौद्धों को श्ंिजे पढ़ाना शुरू कर दे या यूरोप में बाजेगाजे के साथ ईसापूर्व के पेगान धर्म को वापस लाने की शुद्धि करनी शुरू कर दी जाए तो इसे पागलपन कहा जाएगा, निरर्थक और निरुद्देश्य.

लोगों ने जबरन नया धर्म अपनाया, अपने धर्म से ऊब कर या दूसरे धर्म से प्रभावित हो कर, यह बात अब बेकार है. शुद्धीकरण कर के अपनी गिनती नहीं बढ़ाई जा सकती. अपने धर्म में नए भक्त ला कर, चाहे वापस लाना हो, न अपने धर्म का उद्धार होगा न उन का जो आएंगे. 2-4 दिन उन के लिए बाजे बजेंगे, फिर उन्हें धर्मघुसपैठिए मान लिया जाएगा.

जो हिंदू हैं उन्हें ही ये लोग एक पंक्ति या मूर्ति तक सीमित नहीं रख सकते. कभी संतोषी माता चढ़ जाती है, कभी वैष्णो देवी, कभी बालाजी ऊपर हो जाते हैं तो कभी साईं बाबा. जब हिंदुओं की कट्टर धार्मिक किस्म की निष्ठा को एक जगह टिका कर नहीं रखा जा सका तो फिर इस धर्म में नए लोगों को लाने की आखिर जरूरत क्या है?

इस तरह की नाटकीयता से सरकार का नाम बदनाम होगा क्योंकि भाजपा से बेहतर शासन की उम्मीद की जा रही थी पर शासन की जगह सरकार कभी संस्कृत को ले कर उलझ रही है, कभी धर्मशुद्धि को ले कर तो कभी रामजादों को ले कर. इस सरकार को वही सीढि़यां गिराने की कोशिश में दिख रही हैं जिन पर चढ़ कर उसे सत्ता मिली है.

क्या मुसलमानों की बदलेगी सोच?

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित एमआईएम मुखिया असदुद्दीन ओवैसी देश के अन्य राज्यों के चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं.

वर्ष 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मुसलिम विधायकों की संख्या 11 से घट कर 9 हो गई. कहने को 2 सीटों का नुकसान हुआ लेकिन राज्य में जिस तरह मजलिस इत्तेहादुल मुसलेमीन यानी एमआईएम ने 2 सीटें हासिल कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है, उस से सियासी पंडितों की बेचैनी बढ़ी है. यह सवाल चर्चा का विषय बना हुआ है कि क्या मुसलिम मतदाताओं की सोच में तबदीली आ रही है? क्या अब मुसलमानों ने भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना से डरना छोड़ दिया है? क्या एमआईएम के पीछे भाजपा है ताकि हिंदू वोटरों को एकजुट रखा जा सके?

ये सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि एमआईएम ने न केवल 2 सीटों पर कामयाबी हासिल की बल्कि कई सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही और कुछ सीटों पर तीसरे स्थान पर.

पार्टी इस कामयाबी से इतनी खुश है कि वह अब देश के अन्य राज्यों–दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी अपने उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है. जबकि मुंबई नगर निकाय चुनाव में हिस्सा लेने की घोषणा ने सियासी तापमान को बढ़ा दिया है.

महाराष्ट्र में मुसलमानों की जनसंख्या कुल आबादी की 10.6 फीसदी है और वह राज्य का सब से बड़ा अल्पसंख्यक समूह है लेकिन यदि उन का सियासी प्रतिनिधित्व आंकड़ों में देखा जाए तो 1999 की विधानसभा में मुसलिम विधायकों की संख्या 12 थी, 2004 में यह संख्या 11 रह गई, 2009 के चुनाव में 1 मुसलिम विधायक और कम हो कर 10 रह गई जिस में 6 विधायक मुंबई शहर से निर्वाचित हुए थे. 288 सदस्यीय विधानसभा में कम से कम 40 क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुसलिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.

हालिया चुनावी नतीजे इस की पुष्टि नहीं करते. इस से मुसलिम वोटबैंक का भ्रम टूट गया व मुसलिम वोट सिर्फ कांगे्रस और राष्ट्रवादी कांग्रेस यानी एनसीपी को नहीं मिले बल्कि भाजपा और शिवसेना को भी मिले. मुसलिम उम्मीदवारों की भीड़ ने वोटरों को बुरी तरह विभाजित किया और भिवंडी, जहां हमेशा मुसलिम उम्मीदवार चुनाव जीतता था इस बार वहां शिवसेना और भाजपा को कामयाबी मिली.

मजलिस इत्तेदाउल मुसलेमीन ने कुल 24 उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में उतारे थे जिन में से 2 सीटों पर उसे कामयाबी मिली. मुंबई के बाइकला से एडवोकेट वारिस पठान जीते हैं और औरंगाबाद सैंट्रल से एक महीने पहले सियासत में आए पत्रकार इम्तियाज जलील कामयाब हुए हैं जबकि 3 अन्य उम्मीदवारों ने अपने प्रतिद्वंद्वी को कड़ी टक्कर दी है.

इन में शोलापुर (सैंट्रल), प्रबनी और औरंगाबाद (ईस्ट) सीटें शामिल हैं. 8 सीटों पर इस के उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे. इन में नांदेड़ (साउथ), औरंगाबाद (वैस्ट), वडेंदा (ईस्ट), सोनार, मालेगांव, मुंबरा और मुंबादेवी सीटें शामिल हैं.

अहम रहे चुनाव

इन में सभी उम्मीदवार मुसलिम नहीं थे बल्कि कुछ गैरमुसलिम भी उम्मीदवार थे. कांगे्रस, एनसीपी, भाजपा, शिवसेना, एमएनएस और समाजवादी पार्टी सभी ने मुसलिम उम्मीदवार उतारे थे जिन्हें कुल मिला कर 19 लाख वोट हासिल हुए जबकि मजलिस के 24 उम्मीदवारों को कुल 5,16,632 वोट मिले. यानी कुल वोटों का 27 फीसदी मजलिस को मिला.  कांगे्रस को 31 फीसदी मुसलिम वोट मिले और एनसीपी को 21 फीसदी मुसलिम वोट हासिल हुए. 2009 के विधानसभा चुनाव में मुसलिम वोटों का 70 फीसदी कांग्रेस-एनसीपी गठजोड़ को मिला था.

महाराष्ट्र विधानसभा का यह चुनाव इस प्रसंग में बहुत अहम रहा कि मुसलिम मतदाताओं के विभाजन से मुसलमानों से ज्यादा नुकसान कांगे्रस और एनसीपी अथवा तथाकथित सैक्युलर पार्टियों को हुआ. कांगे्रस और एनसीपी के बहुत से नेता सिर्फ इसलिए चुनाव हार गए कि मुसलमानों ने उन्हें निरस्त कर दिया. मुसलिम वोट जो एकजुट हो कर उन्हें मिलते थे, इस बार उन्हें नहीं मिले बल्कि विभिन्न उम्मीदवारों में बंट गए. कांगे्रस विधायक आरिफ नसीम खां इस के लिए मजलिस को दोषी ठहराते हैं. वे इसे वोट कटवा पार्टी बताते हैं कि जिस की वजह से सैक्युलर वोट बंट गया और सांप्रदायिक ताकतों को फायदा हुआ.

आम मुसलमानों की धारणा है कि कांगे्रस हमेशा भाजपा और शिवसेना का डर दिखा कर मुसलिम वोट हासिल करती रही है. जहां तक मुसलमानों के लिए काम करने की बात है तो 11 फीसदी मुसलिम आबादी वाले इस राज्य की जेलों में बंद मुसलमानों की संख्या 27 फीसदी है. चुनावी मुहिम में मजलिस ने इस मामले को बड़े जोरशोर से उठाया था.

हो गया मोहभंग

इन चुनावों से यह बात खुल कर सामने आ गई है कि मुसलमानों के लिए कोई सियासी पार्टी अछूत नहीं रह गई है और वह सैक्युलरिज्म के नाम पर बंधुआ मजदूर बनने को तैयार नहीं है. इन तथाकथित सैक्युलर पार्टियों से उस का मोह भंग होता जा रहा है. शिवसेना और भाजपा को भी वह अब आजमाने लगा है.

मजलिस अपनी इस कामयाबी से उत्साहित हो कर मुंबई कौर्पोरेशन में अपने उम्मीदवार खड़े करने की तैयारी कर रही है. मुंबई कौर्पोरेशन में समाजवादी पार्टी को काफी सीटें मिल जाया करती थीं और वे आमतौर पर मुसलिम क्षेत्रों से ही जीत कर जाती थीं. मजलिस के इस फैसले से यह संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि इन सीटों पर एमआईएम का कब्जा हो जाएगा. इस डर से मजलिस को भाजपा का एजेंट बताया जा रहा है. यह खतरा सभी सैक्युलर कहलाने वाली पार्टियों को हो गया है.

हालिया दिनों में हुए जनता परिवार के महामोरचा गठन को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए जो अपने वजूद को बचाने के लिए सैक्युलरिज्म की दुहाई देते हुए एक बार फिर एकजुट होने की जुगत में है.

मेरी कल्पना में

कुछ प्रतिरूप
मेरी कल्पना में विचरते हैं
कुछ क्षणभंगुर
ख्वाब बन कर बिखरते हैं

हौले से बढ़ कर जब
नाकामियां गले लगाती हैं
जिंदगी दर्द से थोड़ी सी
छटपटाती है

तन कर खड़ी होती
फिर साहस जुटा कर
नई दिशा की ओर
पग फिर चहकते हैं

जीवन नए तानेबाने बुनता
अपने अंदर नए अनुभव चुनता
कुछ करने की आरजू लिए
बीज दांवपेंच के बिखरते हैं

मंजिल पर सुकूं सा
आभास होता है
थोड़ा पाया, ज्यादा खोने का
एहसास होता है

फिर पीड़ा मन की
जलने लगती है
फिर हासिल की
चाह पलने लगती है

तब शुरू होता है
एक कमजोर संघर्ष
जिस में लड़ते हुए
काया के रूप बिखरते हैं

कुछ प्रतिरूप
मेरी कल्पना में विचरते हैं
कुछ क्षणभंगुर
ख्वाब बन कर बिखरते हैं.

– सिद्धू शेंडे

बढ़ रहा है प्लैटिनम का बाजार

सोने के बाद अब बारी है प्लैटिनम की. अभी कुछ समय पहले ही सोने को पीछे छोड़ प्लैटिनम आगे निकल गया है. सोने की तुलना में यह कहीं अधिक दुर्लभ धातु है. सर्राफा बाजार के जानकारों का मानना है कि इस की कीमत में लगातार उतारचढ़ाव के बावजूद भारत में सोने की तरह प्लैटिनम की मांग पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, इस की मांग दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है. वैसे, इस बार दीवाली में हीरे के बजाय प्लैटिनम की बिक्री अधिक रही. खासकर 15 से 30 वर्ष के युवाओं के बीच प्लैटिनम ने अपनी जगह बना ली है. युवाओं के बीच प्लैटिनम रिंग, लव बैंड व कपल बैंड की मांग अधिक रही.

लगभग एक दशक पहले तक प्लैटिनम की मांग पश्चिम भारत में थी लेकिन हाल के वर्षों में पूरे भारत में इस की मांग में इजाफा हुआ है. हालांकि, दीवाली से पहले विश्व बाजार में प्लैटिनम की कीमत में 1.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई और यह 1,285 डौलर प्रति औंस हो गया. जबकि इस की कीमत का सर्वोच्च स्तर पर 2,500 डौलर प्रति औंस भी रहा. भारत में यह साढ़े 28 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम से ले कर 30,600 रुपए प्रति 10 ग्राम तक गया. मौजूदा कीमत 32 हजार प्रति 10 ग्राम है जबकि पिछले वर्ष नवंबर में इस की कीमत 28 हजार रुपए से 29,080 के बीच थी.

भारत में खपत

भारत में प्लैटिनम की खपत लगातार बढ़ रही है. औटोमोटिव, जेवर और फार्मा क्षेत्र में इस का उपयोग बढ़ने से खपत बढ़ रही है. मौजूदा समय में भारत में इस का बाजार लगभग 12 टन से अधिक है. 2003 में इस की खपत देश में महज 6 टन थी. 2006-07 तक इस की खपत बढ़ते हुए 9 टन हो गई. 2008-09 तक यह 10 टन और 2010 तक इस ने 12 टन के आंकड़े को छू लिया. अब इस की खपत 20 टन तक पहुंच गई है. कोलकाता  के नामी ज्वैलर्स इंडियन जेम ऐंड ज्वैलर्स के सीईओ प्रयास दुग्गड़ का कहना है कि पहले प्लैटिनम केवल रईसों के लिए हुआ करता था लेकिन आज बहुत सारी ऐसी कंपनियां बाजार में हैं जो हलके प्लैटिनम की ज्वैलरी ले कर बाजार में उतरी हैं. इसी कारण इस की मांग बढ़ रही है.

सोने की तुलना में प्लैटिनम का घनत्व अधिक होता है इसीलिए इस का अगर कोई जेवर बनाना हो तो सोने की तुलना में प्लैटिनम अधिक लगता है. इसलिए सोने के जेवर की अपेक्षा इस की कीमत अधिक हो जाती है. हीरे में जिस तरह से सोने का इस्तेमाल होता है, उस की शुद्धता 18 कैरेट होती है यानी इस में 75 फीसदी सोना होता है. लेकिन प्लैटिनम तैयार होता है 14 कैरेट सोने से.

बहरहाल, सोने की तरह प्लैटिनम पर भी नक्काशी संभव है. सोने की तुलना में वजन अधिक होने के बावजूद 14 कैरेट सोने की तुलना में प्लैटिनम कुछ नरम धातु है. इसी कारण इस में खरोंच या गलने की भी आशंका होती है. वहीं लगातार इस्तेमाल से सोने के जेवर घिस जाते हैं और उन का वजन कम हो जाता है. जबकि प्लैटिनम के जेवर के साथ ऐसा नहीं होता. प्लैटिनम का रंग सफेद होता है इसलिए इसे सफेद सोना भी कहा जाता है. यहां जानना जरूरी है कि बहुत कुछ एक जैसा होने के बावजूद सफेद सोना यानी व्हाइट गोल्ड प्लैटिनम नहीं होता. यह कम ही लोग जानते हैं कि 14 कैरेट सोना यानी 58.5 प्रतिशत की शुद्धता वाले सोने में खाद मिला कर और उस के ऊपर रोडियम की प्लेटिंग कर के व्हाइट गोल्ड तैयार किया जाता है. इसी कारण बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने पर इस की सफेदी पीले रंग में बदल जाने की आशंका रहती है. ऐसा प्लैटिनम के साथ नहीं होता. इसलिए प्लैटिनम के जेवर जब कभी खरीदें तो इस की विशुद्धता का सर्टिफिकेट जरूर लें.

चीन के पीछे भारत

भारत के अलावा चीन भी एक ऐसा देश है जहां जेवरों के लिए महंगी धातु की पूछ है. सोने की खरीदारी में ये दोनों देश पहले ही दुनिया में अव्वल रहे हैं, अब प्लैटिनम के जेवरों की खरीदारी में भी भारत और चीन ने रिकौर्ड बनाया है. हाल ही में कीमती धातु के कारोबार के लिए विश्वभर में पहचानी जाने वाली कंपनी जौनसन मैथे की ओर से कराए गए सर्वे के नतीजे से पता चला है कि पूरी दुनिया में प्लैटिनम के जेवरों की बिक्री मुख्य तौर पर चीन पर निर्भर है. उस के बाद भारत का स्थान आता है.

2006 तक सोने की खपत जहां 800 टन हुआ करती थी, वहीं प्लैटिनम की बिक्री महज 2-3 टन थी. जानकार बताते हैं कि आने वाले समय में इस की मांग में 30-40 फीसदी का उछाल देखने को मिलेगा. गौरतलब है कि प्लैटिनम का इस्तेमाल न केवल जेवरों में होता है, बल्कि आटोमोबाइल (59 फीसदी) के साथ कुछ औद्योगिक (20 फीसदी) क्षेत्र में भी इस का उपयोग होता है. इस के कई गुण हैं. यह जंगरोधी होने के साथसाथ घर्षणरोधी भी है.

कीमत में उछाल की वजह

प्लैटिनम की कीमत में उछाल का जहां तक सवाल है, अर्थशास्त्र के नियम के तहत मांग के अनुरूप कीमत बढ़ती है. लेकिन कीमत में बढ़ोत्तरी की एक और वजह है. प्रयास दुग्गड़ कहते हैं कि हाल ही में प्लैटिनम की दुनिया की सब से बड़ी कंपनी एंग्लो अमेरिकन प्लैटिनम के सर्वे में पाया गया है कि दक्षिण अफ्रीका में मजूदरों की हड़ताल को प्लैटिनम की कीमत में उछाल का एक कारण माना जा रहा है. दरअसल, फरवरी 2008 के दौरान एक तरफ दक्षिण अफ्रीका खदान में बिजली की कमी तो दूसरी तरफ विश्व की तीसरी बड़ी प्लैटिनम उत्पादक कंपनी लौनमिन द्वारा नियंत्रित खदानों में शृंखलाबद्ध विस्फोट के कारण प्लैटिनम का उत्पादन प्रभावित हुआ. तब इस के भाव में जबरदस्त उछाल आया था. इस दौरान इस का भाव 2,500 डौलर प्रति औंस तक पहुंचा. इसी साल प्लैटिनम की कीमत 1,470.25 डौलर रही. वहीं अगर भारत में सोने और प्लैटिनम की कीमत की तुलना की जाए तो सोने की कीमत प्रति 10 ग्राम अगर 2,600 रुपए है तो प्लैटिनम की कीमत 3 हजार रुपए से भी ऊपर है. वैसे, 2012 के शुरुआत में प्लैटिनम की कीमत सोने से कम ही थी जबकि प्लैटिनम सोने से कहीं महंगी धातु मानी जाती है. लेकिन इस की कीमत में कमी का कारण वैश्विक मंदी है. मंदी के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति साफ नहीं होने के कारण सोने में निवेश की धूम मच गई थी.

दरअसल, प्लैटिनम की कीमत में उछाल आने के कई कारण हैं. एक, विश्व की 75 फीसदी प्लैटिनम खदान दक्षिण अफ्रीका में हैं और इन खदानों में काम की सुविधा व सुरक्षा साधनों की कमी के कारण मजदूर हड़ताल पर चले गए. इस के बाद कंपनी ने लगभग 1,400 मजदूरों की छंटनी कर दी. इस को ले कर भी बहुत बवाल मचा. दो, खदान से प्लैटिनम निकाले जाने की लागत में भी बहुत अधिक (लगभग 15 फीसदी) इजाफा हो चुका है.

ऐसी स्थिति में यहां की छोटीबड़ी सभी कंपनियां उत्पादन से अपना हाथ खींच रही हैं. तीन, जिंबाब्वे में प्लैटिनम का उत्पादन करने वाली एक और कंपनी इंफाला प्लैटिनम की खदान भी संकट में है. आशंका जाहिर की जा रही है कि जिंबाब्वे सरकार इस कंपनी की खदान के जबरन 51 फीसदी शेयर लेने जा रही है. यही कुछ कारण हैं कि प्लैटिनम का बाजार सुलग रहा है.

प्लैटिनम का बढ़ता क्रेज

कुल मिला कर सोने, चांदी और हीरे की ज्वैलरी के बीच प्लैटिनम ज्वैलरी ने भी अपने लिए जगह बना ली है. इन दिनों जेवर पहनने के शौकीन महिला और पुरुष, पीली धातु के बाद अब सफेद धातु यानी प्लैटिनम का भी रुख कर रहे हैं. वहीं टीनएज के बीच भी प्लैटिनम का क्रेज है. वैसे तो सफेद धातु में तो चांदी भी आती है लेकिन महिलाओं का झुकाव चांदी के बजाय प्लैटिनम पर अधिक है. प्लैटिनम आज ज्वैलरी का एक नया बाजार बन गया है. यही कारण है कि इस व्हाइट गोल्ड के जेवर का कारोबार करने वाली बहुत सारी कंपनियां बाजार में धाक जमा रही हैं. कोलकाता के एक प्रतिष्ठित ज्वैलर्स का मानना है कि प्लैटिनम की कीमत में कुल मिला कर उपभोक्ता खासतौर पर शहरी उपभोक्ता 15-20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी को बरदाश्त कर सकते हैं. सोना और प्लैटिनम की मांग में पहले 19 फीसदी का अंतर है. सब से ज्यादा मांग अंगूठी और कपल बैंड की रही है.

वर्ष 2013 से प्लैटिनम ज्वैलरी के चैन स्टोर्स, औनलाइन शौपिंग समेत परंपरागत ज्वैलरी स्टोर्स में इस की बिक्री में लगभग 40 फीसदी की वृद्धि हुई है. उम्मीद है कि यह वृद्धि जारी रहेगी.                

आज से ही संवारें बच्चे का कल

मातापिता हमेशा अपने बच्चों का भला चाहते हैं. उन की अच्छी शिक्षा, बेहतरीन शादी और सुरक्षित भविष्य की कामना करते हैं. लेकिन जिंदगी में सभी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पैसे की जरूरत होती है. प्रतिष्ठित संस्थानों में स्कूलिंग, इंजीनियरिंग अथवा एमबीए करने में लाखों रुपए लगते हैं. यदि समय रहते आप ने अपने बच्चों के भविष्य के लिए बचत नहीं की, निवेश की योजना नहीं बनाई तो अ?ाप पर सेवानिवृत्ति के लिए जमा की गई संपत्ति के खत्म होने अथवा कर्ज के बोझ तले दबने का दबाव आ जाता है.

सवाल यह भी उठता है कि क्या आप के द्वारा की गई बचत पर्याप्त है? क्या उन से आप अपने बच्चे के भविष्य के लिए देखे गए सपनों को पूरा कर सकेंगे? कड़वी सचाई है कि अगर आप उचित निवेश मार्गों में अपने बच्चों के लिए सही समय पर निवेश करना प्रारंभ नहीं करते तो उन की भविष्य की आकांक्षाओं पर खतरा मंडराता रहेगा.

जल्दी शुरुआत करें

बच्चों के भविष्य के लिए निवेश की शुरुआत करने से पूर्व सब से पहले बच्चे की शिक्षा या शादी की अनुमानित लागत निकालें और निश्चित समयसीमा में वित्तीय लक्ष्यों को पंक्तिबद्ध करें. बढ़ती मुद्रास्फीति आप के लक्ष्य के लिए तय किए गए रिटर्न को प्रभावित कर सकती है. उदाहरण के लिए, किसी मशहूर इंजीनियरिंग कालेज में आज शिक्षा का खर्च 5 लाख रुपए सालाना है तो यह 10 वर्ष बाद भी इतना ही नहीं रहेगा. जितनी जल्दी आप शुरुआत करेंगे, आप को पैसा जमा करने का उतना ही अधिक समय मिलेगा और आप कंपाउंडिंग ब्याज की ताकत से लाभान्वित होंगे.

यदि आप 5-10 वर्ष की समयसीमा के साथ निवेश करते हैं तो बच्चों के लिए निवेश का व्यापक हिस्सा इक्विटी में लगाना बेहतर रहता है. छोटी अवधि के दौरान इक्विटीज में अस्थिरता हो सकती है लेकिन दीर्घकालिक अवधि में इन में अन्य परिसंपत्ति वर्गों को पछाड़ने और सर्वोत्कृष्ट रिटर्न प्रदान करने का दमखम रहता है.

सही इंस्ट्रूमैंट का चयन करें

दीर्घकालिक वित्तीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए पोर्टफोलियो में इक्विटी का होना आवश्यक है लेकिन बिना किसी जानकारी और विशेषज्ञता के इक्विटी बाजारों में सीधे प्रवेश करना ठीक नहीं है. इसलिए म्यूचुअल फंड रूट का प्रयोग कम लागत में पेशेवर प्रबंधन का लाभ प्रदान करेगा. इस के लिए बाजार में चाइल्ड केयर म्यूचुअल फंड उतारे गए हैं. ये योजनाएं विशिष्ट रूप से आप के बच्चे की जिंदगी में बेहतर शुरुआत करने के लिए डिजाइन की गई है, जिन में इक्विटी और डेट बाजारों के अवसरों और गतिशीलता का लाभ उठाया जा सकता है.

ऐसे फंड ग्रोथ अवसरों का लाभ उठाने के लिए इक्विटी और इक्विटी संबंधित सिक्युरिटीज में 65 प्रतिशत से अधिक रकम का निवेश करते हैं. शेष राशि आप के निवेश को स्थिरता प्रदान करने के लिए सामान्य तौर पर डेट सिक्युरिटीज में लगाई जाती है. 65 प्रतिशत से अधिक इक्विटी में निवेश और बेहतर रिटर्न की पेशकश के अलावा ये फंड कराधान दक्षता भी सुनिश्चित करते हैं. इन फंडों में 1 वर्ष से अधिक किए गए निवेश पर पूंजीगत लाभ कर नहीं लगता.

उचित परिसंपत्ति संचयन करें

ये म्यूचुअल फंड प्लान अग्रैसिव के साथसाथ कंजर्वेटिव वैरिएंट में उतारे गए हैं. आप निवेश सीमा के आधार पर इन का चयन कर सकते हैं. यदि आप जल्दी निवेश प्रारंभ करते हैं यानी जब आप का बच्चा किसी खास उपलब्धि से काफी दूर है, तो अग्रैसिव चाइल्ड केयर योजनाओं में निवेश करें. इन योजनाओं में इक्विटीज में अधिक संपदा संचयन किया जाता है. लेकिन यदि आप अपने बच्चे के वित्तीय लक्ष्य के करीब हैं तो स्थिरता प्राप्त करने के लिए कंजर्वेटिव योजनाओं का विकल्प अपनाना बेहतर रहेगा. कुल मिला कर, बच्चों के लिए निवेश करने के लिए व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. इस के अंतर्गत बच्चे के निर्माणात्मक वर्षों में इक्विटी में अधिक एक्सपोजर होना चाहिए तथा बाद की अवस्था में डेट फंडों में निवेश बढ़ाना चाहिए.

लेखक आईसीआईसीआई प्रुडैंशियल
एएमसी के एमडी एवं सीईओ हैं.

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