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अकेलापन समाधान है चाहे अधूरा ही

कुछ अरसे पहले एक फिल्म ‘बागबान’ आई थी, जिस में फिल्म का हीरो बैंक का मैनेजर होता है तथा जिस के 4 लड़के पढ़लिख कर अपनीअपनी गृहस्थी में मस्त रहते हैं. मैनेजर रिटायर होने पर खुश होता है कि अब वह आराम से बाकी जिंदगी अपने बच्चों के साथ गुजारेगा. लेकिन हालात कुछ ऐसे होते हैं कि चारों लड़के 6-6 महीने के लिए एक लड़का मां को तथा दूसरा 6 महीने अपने बाप को रखने का फैसला करते हैं.

हीरो, हीरोइन के अलगअलग रहने से दोनों का बुरा हाल हो जाता है तथा तंग आ कर हीरो, जो अबतक एक महान लेखक बन चुका होता है, हीरोइन को ले कर अलग रहने लगता है.

बूढ़े हीरोहीरोइन का बुढ़ापे का समाधान तो हो जाता है लेकिन जब इन दोनों में से एक नहीं रहेगा तो दूसरे का क्या होगा? मजबूरन बचे हुए साथी को अपने किसी न किसी बेटे के पास रहना पड़ेगा. उस की बची हुई जिंदगी कैसे बीतेगी, अंदाजा लगाया जा सकता है.

इसी के मद्देनजर कई लोगों से मुलाकात हुई जिन में से कुछ या तो अपनी पत्नी खो चुके थे या फिर कोई पति खो चुकी थी. उन में से हर एक की अपनीअपनी कहानी थी. जीवनसाथी के जाने के बाद हर कोई जीवन से विरक्त नजर आया, किसी को अपने बेटेबहुओं से शिकायत थी, तो कोई अपने को अपने ही घर में पराया महसूस करता था, तो कोई अपनी जिंदगी से इतना परेशान था कि उसे दुनिया को अलविदा कहने की जल्दी थी.

इन मुलाकातों में 1-2 लोग ऐसे भी थे जो जिंदादिल थे. पहली मुलाकात जिन साहब से हुई वे विधुर थे. उन की पत्नी को गुजरे हुए कुछ ही महीने हुए थे. पूछने पर उन्होंने बताया कि पत्नी के गुजरने के बाद वे बहुत उदास और खोएखोए से रहने लगे. औलाद होते हुए भी वे अपने को काफी अकेला महसूस करते थे. काफी सोचविचार के बाद उन्होंने एक दिन अखबार में इश्तिहार दे दिया कि वे 60 साल के विधुर हैं तथा तकरीबन इसी उम्र की विधवा के साथ अपना शेष जीवन बिताना चाहते हैं. उत्तर में उन्हें 2 पत्र प्राप्त हुए जिन में एक को उन्होंने अपना साथी चुन लिया. लेकिन वे दोनों विवाह नहीं करना चाहते थे. दोनों ने तय किया कि क्योंकि दोनों इकट्ठे रहेंगे तो कभी भी कुछ ऊंचनीच भी हो सकती है, जिस के लिए वे बाकायदा शादी न कर के गंधर्व विवाह कर लेते हैं जिस की न कोई कानूनी मान्यता होगी और न ही दोनों, कोई ऐसी बात होने पर, अपनेआप को कोस पाएंगे. वे दोनों दुनिया की अंटशंट बातों से बचने के लिए कसौली (हिमाचल) नाम के एक पहाड़ी स्थल पर साथसाथ रहने लगे. दोनों रिटायर्ड थे तथा पैंशन पाते थे, जिस से उन्हें रुपएपैसे की दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ता था.

कसौली में ही उन साहब से मुलाकात हुई थी. मैं ने उन से कहा कि आप ने अपने (दोनों के) एकाकी जीवन का बहुत अच्छा हल निकाला है, लेकिन क्या आप के बच्चे आप की इस बात को मान गए? उत्तर में बोले, हमारे दोनों के बच्चे इस बात को सुन कर सकपकाए जरूर, परंतु जब हम दोनों के समझाने पर कि यह केवल बाकी बची जिंदगी के अकेलेपन को दूर करने का एक बहाना है, और हम दोनों बाकायदा शादी नहीं कर रहे, तो दोनों परिवार मान गए. गरमी की छुट्टियों में अकसर कभी मेरे बच्चे तथा कभी इन के बच्चे 8-10 दिन को आ जाते हैं और हंसीखुशी रह कर चले जाते हैं.

उन का मानना था कि जब तक हम दोनों का साथ है तब तक तो कम से कम सकारात्मक सोच के साथ जीवन जिएं और मजे में जिएं. बाकी हम कोई अपने बच्चों से लड़ कर तो अलग रह नहीं रहे हैं. जो बच जाएगा वह अपनी शेष जिंदगी अपने बच्चों के साथ गुजारेगा.

दूसरी मुलाकात मनाली में हुई, जहां मुझे अपने दफ्तर के कुछ काम से जाना पड़ा था. काम खत्म हो जाने पर घूमतेघूमते मुझे प्यास लगी. मैं ने देखा कि एक बुजुर्ग अपने बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं. अंदर जाने के लिए मैं ने बाहर का गेट खटखटाया तो वे साहब बोले, ‘‘कहिए?’’ मैं ने कहा, ‘‘एक गिलास पानी मिल सकता है?’’ ‘‘जरूरजरूर.’’ वे साहब बोले और उन्होंने अंदर आने को कहा. बैठेबैठे ही आवाज लगाई, ‘‘अलका बेटे, अपनी मम्मी से कहो, 2 गिलास पानी दे जाएं.’’ जो स्त्री पानी लाई, वह मध्यम उम्र की थी.

वह पानी देने के बाद चली गई. उस स्त्री के जाने के बाद बातचीत का सिलसिला चल रहा था. इस बीच मैं ने उन साहब से पूछा, ‘‘सर, अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक बात पूछूं?’’ ‘‘पूछिए.’’ ‘‘अभी आप ने छोटी लड़की को अलका कह कर बुलाया, क्या वह आप की पोती है या दोहती?’’ मुसकराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘न तो यह मेरी पोती है और न ही दोहती. दरअसल, तकरीबन 3 साल पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद ही मैं रिटायर हो गया. मेरा बेटा अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ जरमनी में रहता है.

‘‘पत्नी के देहांत के बाद मैं अपने इकलौते बेटे के साथ कुछ समय जरमनी में रहा. मेरा मन वहां बिलकुल नहीं लगा. तकरीबन 6 महीने के बाद मैं भारत में वापस दिल्ली आ गया. लेकिन दिल्ली भी मुझे रास नहीं आई क्योंकि उन की याद दिल्ली के हर हिस्से में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में बसी हुई थी. तब मैं यहां मनाली आ गया.

‘‘यहां मेरी मुलाकात एक जरूरतमंद महिला से हुई जो काफी उदास थी. पूछने पर वह बोली, ‘सर, मकानमालिक कमरा खाली करने को कह रहा है, कहता है या तो कमरा खाली कर दे या किराया बढ़ाए. सर, आप को तो पता ही है कि मैं स्कूल में एक आया हूं, 5 हजार रुपए मिलते हैं, 1 हजार रुपए का कमरा ले रखा है तथा बाकी पैसों से जैसेतैसे अपना और बच्ची का गुजारा कर रही हूं.’

‘‘‘ठीक है,’ मैं ने कहा, ‘देखता हूं, तुम्हारे लिए अगर मैं कुछ कर सकता हूं, तुम कल स्कूल के बाद शाम को तकरीबन इसी समय मुझ से मेरे घर पर मिलना.’

‘‘अगले दिन कई जानपहचान वालों से बात की पर कोई इतने कम पैसों में घर देने को राजी नहीं हुआ. मैं चिंतित हो गया कि अब इस बेचारी की कैसे मदद करूं. तभी खयाल आया कि मेरे घर के पीछे एक कमरा है जिस में फालतू के कुछ सामान पड़े हुए हैं. अगर उसे खाली करवा कर साफसफाई कर दी जाए तो शायद कुछ बात बन सकती है. दूसरे दिन मैं ने उस से कहा, ‘देखो, अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो मेरे घर का पीछे वाला कमरा तकरीबन खाली है, अगर चाहो तो वहां रह सकती हो.’

‘‘‘ठीक है, सर, मैं कल ही सामान ले आऊंगी. लेकिन सर, मैं 1 हजार रुपए से अधिक किराया नहीं दे सकूंगी.

‘‘‘नहीं, किराया मैं एक पैसा भी नहीं लूंगा. तुम जब तक चाहो, यहां रहो, और न ही तुम अपना खाना अलग से बनाओगी. घर की रसोई में ही तुम भी अपना खाना बनाओगी, और न ही तुम अपना राशनपानी अलग से लाओगी.’

‘‘‘सर, ऐसे कैसे हो सकता है, किराया भी नहीं लेंगे, खाना खाने का सामान भी नहीं लाने देंगे. तो सर, ठीक है, आप की बात मैं मान लेती हूं लेकिन आप को भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी. आप झाड़ूपोंछे वाली को हटा देंगे तथा आप का चायनाश्ता और खाना भी मैं ही बना दूंगी और आप को मेरी सारी तन्ख्वाह हर महीने लेनी पड़ेगी. क्योंकि जब सबकुछ मुझे और मेरी बेटी को आप के यहां से मिल जाएगा तो मैं रुपएपैसे का क्या करूंगी.’

‘‘‘सवाल ही नहीं उठता. इस का मतलब तो तुम मेरी नौकरानी हो गईं. नौकर रखना होता तो मैं कभी का रख चुका होता. नाश्ता, खाना बनाना और बागबानी करना ही तो मेरा समय काटने का साधन है. चलो ठीक है, ताकि तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे, तुम मुझे अपनी तन्ख्वाह से हर महीने 2 हजार रुपए दे दिया करो, बाकी रुपए तुम अपने तथा अपनी बेटी पर खर्च करना.’ फिर उस के द्वारा दिए गए रुपए मैं चुपचाप उस की बेटी के नाम डाकखाने में जमा करवा दिया करता.’’

बातोंबातों में पता चला कि उस औरत का नाम चारू है तथा वह बंगाल में 24 परगना की रहने वाली है. शादी एक मिलिटरी जवान से हुई थी, परंतु लड़ाई के दौरान उस का आदमी मारा गया. अलका, जो उस की लड़की है, उन दिनों उस के पेट में थी. पति की मृत्यु के बाद चारू को सरकार से पैसे मिले, तब तक तो तकरीबन उस के ससुराल वालों ने उसे ठीकठाक रखा, लेकिन अलका के होने के बाद उन का व्यवहार बिलकुल बदल गया, क्योंकि वे लड़के की उम्मीद रखे हुए थे.

इन्हीं दिनों इस के आदमी का कोई जानपहचान वाला, जोकि इस का दूर का रिश्तेदार भी था, इस की दुखभरी जिंदगी देख कर उसे यहां मनाली में ले आया तथा अपने अफसरों से कह कर एक तिब्बती स्कूल में नौकरी लगवा दी.

बहरहाल, समाज में बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं जिन्हें उस औरत का वहां रहना खलता होगा, तरहतरह की बातें करते होंगे लेकिन बिना परवा किए उन्होंने अपनी बेटी की तरह उन्हें रखा और उस की मदद की. या यों कहिए कि उन्होंने अपने एकाकी जीवन का पूरा समाधान निकाल लिया.

यही समाधान दूसरे लोग भी अपना लें (जिन के हालात इजाजत देते हों) तो न केवल उन का एकाकी जीवन का पूरा समाधान हो जाएगा बल्कि किसी बेसहारा औरत की जिंदगी भी कुछ हद तक तो संवर ही जाएगी. पति या पत्नी की मौत के बाद इंसान को बाकी बचे हुए पल गुजारने में बहुत मुश्किल होती है और जिंदगी दूभर हो जाती है. हालात से समझौते के अलावा इस समस्या का कोई पूरा समाधान नहीं है.

बुजुर्गों से दूर होते अपने

बच्चों को बुजुर्गों से दूर करने पर बुजुर्गों के जीवन में उदासी छा जाती है, वहीं बच्चों की मानसिकता पर भी असर पड़ता है.

मोहित, अंशिका का नाम पुकारते हुए कानपुर के कृष्णचंद अपनी आखिरी सांसें गिन रहे थे. मोहित और अंशिका कृष्णचंद के इकलौते बेटे रोहन के बच्चों के नाम हैं. मोहित के 5वें जन्मदिन के वक्त सास और बहू के बीच थोड़ी गहमागहमी हो गई थी, जिसे वजह बना कर 2 दिनों बाद रोहन और उस की पत्नी अलग रहने लगे. कृष्णचंद और उन की पत्नी सविता का अपने पोतेपोती से बेहद लगाव था. घर छोड़ने के बाद रोहन और उस की पत्नी कभीकभार घर आते. उस पर भी मोहित और अंशिका को साथ न लाते. बारबार मिलने की इच्छा जताने के बावजूद कृष्णचंद और सविता अपने पोतेपोतियों का मुंह न देख सके.

बच्चों के विरह ने कृष्णचंद की जिजीविषा को ही समाप्त कर दिया और आखिरकार वे दुनिया से चल बसे. उन की पत्नी सविता रक्तसंबंधों के विघटन की पीड़ा न सह सकीं. कुछ महीनों बाद अकेलेपन और नैराश्य के जीवन से उन्हें भी मुक्ति मिल गई. दादादादी के स्नेह से हमेशा की दूरी की खबर ने मोहित और अंकिता के मन को झिंझोड़ कर रख दिया.

आज की नई पीढ़ी की सोच ने घर के बड़ेबूढ़ों के सम्मान और महत्ता को खत्म कर दिया है. इस में कोई दोराय नहीं कि बुजुर्ग परिवार की रीढ़ होते हैं.

ज्यादातर मातापिता की सोच होती है कि बुजुर्गों के लाड़प्यार से बच्चे बिगड़ सकते हैं. वे यह नहीं सोच पाते कि बुजुर्गों के सान्निध्य में रह कर बच्चों को अपनापन महसूस होता है. प्रसिद्ध फैमिली काउंसलर व मनोवैज्ञानिक संजोय मुखर्जी का कहना है, ‘‘बुजुर्गों के स्नेह और साथ का बच्चों पर बेहद सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. उन के विकास को एक नई गति मिलती है.’’

उधर, बुजुर्गों की सेवा और देखभाल करने से हमें अपने कर्तव्यों को निभाने का अवसर मिलता है साथ ही, हम समाज में तारीफ के पात्र भी बनते हैं. इस के अलावा बच्चों की नजरों में हमारे लिए और भी स्नेह और सम्मान पनपता है.

संयुक्त परिवार में रहते समय कोई झगड़ा हो या बुजुर्गों की किसी बात पर असहमति हो, तो उन से शांतिपूर्वक बात करनी चाहिए ताकि उन के सम्मान को ठेस न पहुंचे.

यदि आप को ऐसा लग रहा हो कि बच्चों के प्रति उन के अधिक लाड़प्यार से उन पर कोई गलत असर पड़ सकता है तो मधुर भाषा का प्रयोग करते हुए बुजुर्गों को समझाएं. इस से उन की गरिमा पर कोई आंच नहीं आएगी और बात सुलझ जाएगी. चंद मधुर शब्द रिश्तों को और भी मजबूत बना देते हैं.

मधुर प्रयासों के बावजूद बात न बने तो समय रहते अलग होने में ही भलाई है. पर यह अलगाव मात्र शरीरों का होना चाहिए, भावनाओं का नहीं.

बच्चों को समयसमय पर दादीदादा, नानीनाना से मिलवाने ले जाएं, उन के भीतर बुजुर्गों के प्रति किसी भी प्रकार की कड़वाहट को पनपने न दें.

अनमोल हैं रिश्ते

आजकल घरों में अधिकतर मातापिता दोनों ही नौकरीपेशा होते हैं. ऐसे में कुछ मातापिता अपने बच्चों को पालनाघर में छोड़ आते हैं तो कुछ नौकरों के भरोसे. इस वजह से बच्चों पर नौकरों द्वारा बच्चों को प्रताडि़त करने व उन के उत्पीड़न किए जाने के मामले अकसर सामने आते रहते हैं. इस से बचने और साथ ही बच्चों की अच्छी परवरिश के बारे में सोच कर बुजुर्गों को साथ रखना चाहिए. वे आप की गैरहाजिरी में न केवल बच्चों का ध्यान रखेंगे बल्कि आप के काम में भी हाथ बटाएंगे.

कुछ ऐसे भी परिवार हैं जहां सभी साथ तो रहते हैं पर मातापिता बच्चों को बुजुर्गों से दूर रखते हैं. ऐसे दुर्व्यवहार से बुजुर्गों के मन पर गहरा आघात पहुंचता है. अपनों के प्रेम का अभाव उन के दुखों और बीमारी का कारण बनते हैं. साथ रहने से दादादादी अपने छोटेछोटे पोतेपोतियों के लिए भागदौड़ करते हैं तो भविष्य में वही बच्चे उन की सेवा करने से पीछे नहीं हटते.

नतीजतन, दोनों के बीच भावनात्मक जुड़ाव बनता है. इस से बुजुर्गों की सक्रियता भी बनी रहती है. यही सक्रियता उन के स्वस्थ जीवन का आधार बनती है.

परिवार को मिलती नई पहचान

घर के बड़ेबूढ़े कई दशकों का अनुभव रखते हैं. उन के साथ परिवार का इतिहास जुड़ा होता है. अकसर दादीनानी किस्सेकहानियों में अपने घर का इतिहास, बड़ों की सफलता व वीरता की कहानियां सुनाती हैं. इस से आज की नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों, रीतिरिवाजों के बारे में जानकारी मिलती है.

पूर्वजों की वीरता व उपलब्धियों की बातें सुन कर बच्चों में उन के प्रति आदर व सम्मान जागता है. उन के भीतर एकजुट रहने की भावना प्रबल होती है. परिवार की नई पीढ़ी पूर्वजों के संस्कारों में अपने विचारों से कुछ नयापन भी लाती है. परिवार में नए नियम व आधुनिक संस्कृति जन्म लेती है. जिन की जड़ें पूर्वजों के इतिहास में समाई होती हैं, ऐसे परिवार को समाज में एक अलग नजरिए से देखा जाता है और परिवार की अपनी अलग पहचान बनती है.

अहम यह है कि बुजुर्गों को अपने से दूर करते समय हम यह क्यों भूल जाते हैं कि समय का चक्र घूम कर हमारी ओर भी आएगा. एक दिन हम भी वृद्ध होंगे और तब हमें अपने बच्चों की जरूरत होगी. और अगर हम अपने बुजुर्गों की इज्जत नहीं करेंगे, उन का खयाल नहीं रखेंगे तो भविष्य में जब हम बुजुर्ग हो जाएंगे तो हमारी संतानें हमारी इज्जत नहीं करेंगी, न हमारा खयाल रखेंगी. कुल मिला कर बुजुर्गों से किसी की भी दूरी नहीं होनी चाहिए.

वृद्धों की सेवा या आफत

ऋचा बढ़ेबूढ़ों का जिक्र आते ही मुसकरा पड़ती हैं और कहती हैं, ‘‘बच्चेबूढ़े एक समान होते हैं. उन्हें जिस काम को करने से मना किया जाता है वे उसे करने के लिए अतिउत्साहित रहते हैं.’’ ऋचा आगे कहती हैं, ‘‘एक बार मेरी सासूमां को मौडर्न बनने का भूत सवार हुआ. वे घर में काम करने वाली लड़की से बाल ट्रिम करवाने और आईब्रो बनवाने की जिद पकड़ बैठीं. जब उस ने ऐसा करने से मना कर दिया तो उन्होंने उस के हर काम में गलती निकालना शुरू कर दिया.’’

न्यूकासेल यूनिवर्सिटी के हैल्थ प्रमोशन रिसर्च ग्रुप के बुजुर्गों में पनपे सामाजिक अलगाव और एकाकीपन को ले कर किए गए अध्ययन के अनुसार, ‘बढ़ती उम्र के साथ बुजुर्ग अकेलेपन और सामाजिक अलगाव का शिकार होने लगते हैं और इसी अकेलेपन और भावनात्मक अलगाव का परिणाम होता है कि बुजुर्ग अपना महत्त्व दिखाने के लिए बच्चों जैसे काम करने लगते  हैं और तब समस्या शुरू होती है उन से जुड़ी अगली पीढ़ी की जो अपने बुजुर्गों की सेवा करना चाहती है मगर बड़ेबूढ़ों की जिद और आदतों के चलते उन की सेवा करना आसान नहीं रह जाता.’

एक डाक्टर का कहना है कि उन के पास अकसर ऐसे ओल्डऐज पेशेंट्स आते हैं जिन की समस्याएं निराली होती हैं जिन्हें सुलझाने के लिए कई बार उन के बच्चों से भी बात करनी पड़ जाती है. उन के पास एक ऐसी बुजुर्ग पेशेंट आती हैं जिन की बेटी ने बताया कि उन की मां अचानक रात को उन के कमरे का दरवाजा भड़भड़ाने लगती हैं क्योंकि वे चाहती हैं कि बेटी उन के पास आ कर सोए. अपने जीवनसाथी की मृत्यु के बाद उन्हें अकेलापन इतना काटता है कि उन्हें अकेले रहने से डर लगता है. दिन का सूनापन वे अपने छोटेछोटे नातीनातिन से बांट लेती हैं मगर रात का भयावह सूनापन उन्हें इतना खलता है कि वे चाहती हैं कि उन का कोई अपना पास हो, जिस के साथ वे अपना एकाकीपन बांट सकें. उन की मां की ऐसी आदत से उन की स्थिति बड़ी असमंजस वाली हो गई है. समझ नहीं आता कि वे इस पसोपेश से कैसे निकलें.

अकेलापन ऐसी समस्या है जो किसी उम्र में हो सकती है मगर बुढ़ापे में उपजे अकेलेपन के कई कारण होते हैं. मसलन, एकाएक जीवनसाथी का ढलती उम्र में साथ छूट जाना, जीवनसाथी के होते हुए भी उस का अपनेआप में मस्त रहना, परिवार में 2 पीढि़यों के बीच अस्तित्व की लड़ाई आदि.

असुरक्षा की भावना

वर्षों के अटूट साथ के बाद जब पतिपत्नी में से कोई एक दुनिया छोड़ देता है तो दूसरे के लिए पनपा अकेलापन उसे असुरक्षा का अनुभव कराने लगता है. ऐसे में अपने एकाकी होने की भावना से बचने के लिए अकेला रह गया इंसान अपने बच्चों व आसपास रहने वालों से अपनेपन की उम्मीद करता है और जब वह प्रत्युत्तर में बेरुखी पाता है तो सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नएनए तरीके अपनाता है.

कुछ ऐसा ही हाल 65 वर्षीय वीणा का भी है. बेटेबहू की परेशानी का सब से बड़ा कारण यह है कि वीणा रात को किसी भी पल घबराहट और सीने में दर्द की शिकायत करती हैं. ऐसा होने पर बेटाबहू डाक्टर बुलाते हैं और उन का पूरा चैकअप करवाते हैं. मगर अकसर डाक्टर चैकअप के बाद किसी भी तरह की स्वास्थ्य समस्या के होने से इनकार करते हैं.

वीणा के बेटेबहू के अनुसार, ‘‘हमारी समस्या यह है कि अगर हम मां की कंप्लेंट्स को बहाना मान कर इग्नोर कर दें और कभी वास्तव में उन्हें कोई मैडिकल प्रौब्लम हो जाए तो हम अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे.’’

दरअसल, अपने अकेलेपन से भागते बुजुर्ग अपने प्रति निष्ठावान बच्चों को अपनी अटपटी आदतों से ऐसे परेशान कर देते हैं जिस से कई बार स्थिति ऐसी हो जाती है कि न चाह कर भी बच्चे मातापिता को इग्नोर करने लगते हैं.

अकेलेपन से बचें

कई बार जीवनसाथी का साथ होते हुए भी एक की मस्तमौला फितरत दूसरे लाइफपार्टनर को एकाकी का एहसास कराती है. ऐसे में पनपा अकेलापन भी उस में कुंठाएं और अतृप्तता का भाव जगा देता है. तब ऐसी कुंठाओं का उद्गार वह अपनी अजीबोगरीब हरकतों से करने लगता है. श्रेया के 62 वर्षीय पति दिवाकर हाल ही में हुए रिटायरमैंट के बाद घर पर रहने लगे हैं.

नौकरी के दौरान अपने काम और सहयोगियों में मस्त रहने वाले दिवाकर सेवानिवृत्ति के बाद खाली हो गए और इस उम्र में वे पत्नी का साथ और सहयोग की इच्छा रखते हैं पर अपने कामों, गृहस्थी और आसपड़ोस में मस्त रहने वाली श्रेया अपनी बेफिक्री में पति की जरूरतों को समझ नहीं पाई और अकेलेपन को झेलते दिवाकर बाबू ने अपने अकेलेपन से छुटकारे का अजीबोगरीब तरीका ढूंढ़ निकाला.

वे सुबहसुबह ही तेज आवाज में रेडियो चलाने लगे. उन की इस झक के कारण आसपास के घरों में रहने वाले, पढ़ने वाले बच्चे सभी परेशान रहने लगे. दिवाकर परिवार का लिहाज करने वाले पड़ोसी कुछ दिन तो चुप रहे पर असह्य होने पर शिकायतें उन के घर पहुंचने लगीं. बुजुर्गवार की झक और भूल ने परिवार को परिहास का निशाना बना दिया.

बुजुर्गों का करें सम्मान

2 पीढि़यों के बीच उम्र का अंतराल उन के अनुभव, समझ और उम्र के फर्क के कारण उन की सोच अलगअलग होती है जिस से दोनों पीढि़यों की एकदूसरे को समझने की प्रक्रिया अकसर नाकामयाब हो जाती है. इस समस्या को जेनरेशन गैप कह कर जस का तस छोड़ दिया जाता है.

परिवारों के बुजुर्गों की एकाकीपन की समस्या के लिए किसी एक पीढ़ी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. नई पीढ़ी जहां अपने बड़ेबूढ़ों के तजरबे और अनुभवों को पुरानी सोच कह कर नकारती है वहीं पुरानी पीढ़ी समय के अनुसार अपनेआप में बदलाव नहीं ला पाती. घर के बड़ेबूढ़े चाहते हैं कि जैसे आज तक घर के शासन की बागडोर उन के हाथों में रही वैसे ही आगे भी रहे. यथार्थ न स्वीकार कर पाने की स्थिति उन में कुंठा भरने लगती है क्योंकि जो बच्चे मातापिता का हाथ पकड़े बिना घर से बाहर नहीं निकलते थे, अपना परिवार, बच्चे होते ही, वे अपना प्रमोशन चाहते हैं.

परिवार में अपने अस्तित्व की लड़ाई 2 पीढि़यों में अलगाव बढ़ा देती है. जबकि ऐसे में जरूरत होती है कि नई पीढ़ी बुजुर्गों के प्रति सम्मान और उन के लिए अपने दायित्वों को समझे और दूसरी ओर परिवार के बुजुर्गों का कर्तव्य है कि वे नई पीढ़ी की सोच और समझ को अपने अनुभवों से परिपक्व बनाएं.

कई लोग ऐसे हैं जो अपने मातापिता या बुजुर्गों की सेवा करना चाहते हैं, उन्हें सुख देना चाहते हैं मगर बड़ेबूढ़ों की बालहठ और उन का जड़ स्वभाव बच्चों की सकारात्मक सोच को नकारात्मक बना देता है. इस से एक बात स्पष्ट होने लगती है कि बड़ेबूढ़ों की सेवा करना आसान काम नहीं.

ना ना करते ब्याह तुम्हीं से कर बैठे

ढलती उम्र में देश के प्रमुख नेता 88 वर्षीय नारायणदत्त तिवारी ने अपनी पहले की प्रेमिका 70 साल की उज्ज्वला शर्मा के साथ शादी कर ली है. देश में वे पहले ऐसे हाई प्रोफाइल राजनेता हैं जिन्होंने ऐसा किया है. नारायणदत्त तिवारी को ऐसा करने का साहस इसलिए हो सका क्योंकि अब उन का राजनीतिक जीवन खत्म सा हो गया है. कांग्रेस पार्टी ने उन से किनारा कर लिया है. 15 मई, 2014 को जब नारायणदत्त तिवारी ने उज्ज्वला शर्मा से लखनऊ के मालएवेन्यू स्थित सरकारी आवास में शादी की तो उन के परिवार की तरफ से कोई भी मौजूद नहीं था. शादी में शामिल मेहमानों से ज्यादा मीडिया के लोग थे. नारायणदत्त तिवारी के साथ लंबे समय से रह रहे उन के निजी सचिव यानी ओएसडी भवानी भट्ट इस शादी से खुश नहीं थे. वे उन का साथ छोड़ कर चले गए.

नारायणदत्त तिवारी की शादी लखनऊ के जिस आवास में हो रही थी उस से मात्र 5 किलोमीटर दूर महानगर में उन के बडे़ भाई रमेश तिवारी का परिवार रहता है. 84 साल के रमेश तिवारी इस शादी से बेहद दुखी और परेशान थे.

भवानी भट्ट कहते हैं, ‘‘नारायणदत्त तिवारी की इस समय तबीयत ठीक नहीं रहती है. उन की मानसिक हालत ठीक नहीं रहती है. इस समय उन से कुछ भी कराया जा सकता है. इस का मतलब यह नहीं कि उस में नारायणदत्त तिवारी की सहमति है.’’ भवानी आगे कहते हैं कि जिस समय नारायणदत्त तिवारी की उज्ज्वला शर्मा से शादी हो रही थी उस समय तिवारी का परिवार रो रहा था. 

यही नहीं, इस शादी के दौरान उज्ज्वला और नारायणदत्त तिवारी के पुत्र रोहित शर्मा को भी नहीं देखा गया. उज्ज्वला शर्मा की ओर से उन के परिवार के कुछ करीबी लोग ही शामिल थे. नारायणदत्त तिवारी उत्तर प्रदेश के 3 और उत्तराखंड के 1 बार मुख्यमंत्री रहे. केंद्र सरकार में मंत्री और आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे. इस के बाद भी उन की शादी में कोई बड़ा नेता शामिल नहीं हुआ. इस से साफ पता चलता है कि समाज अभी ऐसी शदियों को स्वीकार करने को तैयार नहीं है.

नारायणदत्त तिवारी की पहली पत्नी का निधन हो चुका है और उन के कोई संतान न थी. इस कारण खुल कर किसी ने इस शादी का विरोध भले न किया हो पर उज्ज्वला शर्मा के लिए आगे की जिंदगी सरल नहीं है. नारायणदत्त तिवारी बडे़ नेता हैं, ऐसे में उन का खुल कर विरोध करने का साहस किसी में भले न हो सका हो पर दबी जबान से सभी इस कदम को सही नहीं मान रहे हैं.

नारायणदत्त तिवारी और उज्ज्वला शर्मा के रिश्ते को नाम तबमिला जब 88 साल के नारायणदत्त तिवारी ने 70 साल की उज्ज्वला शर्मा से विधिवत शादी की. इस शादी में 100 से अधिक मेहमान हिस्सा ले रहे थे. दिन में करीब 12 बजे सोलहशृंगार किए उज्ज्वला शर्मा बाहर निकलीं.

दूल्हा बने नारायणदत्त तिवारी बारबार उज्ज्वला की भाभी को बातचीत के लिए अपने पास बुला रहे थे. उज्ज्वला की भाभी ने ही उन का सिंदूरदान किया. उज्ज्वला ने खुद ही मंडप सजाया था. दोनों ने सात फेरे ले कर अपने संबंधों को शादी का रूपदिया. 

शादी को कानूनी जामा पहनाने के लिए 19 मई को उज्ज्वला शर्मा के साथ नारायण दत्त तिवारी लखनऊ कचहरी गए और अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन कराया. शादी का प्रमाणपत्र पा कर उज्ज्वला शर्मा को लग सकता है कि उन की जीत हो गई है. लेकिन सही मानों में उन की जीत तभी होगी जब समाज उन को स्वीकार कर लेगा. यह शादी अपनेआप में बहुत अलग है.

गिरतीसंभलती जिंदगी

लंबी अदालती लड़ाई लड़ने के बाद रोहित शर्मा यह साबित कर पाए कि वे नारायणदत्त तिवारी और उज्ज्वला शर्मा के पुत्र हैं. ‘पितृत्व विवाद’ के नाम से मशहूर हुए इस मुकदमे का फैसला डीएनए टैस्ट रिपोर्ट के जरिए किया गया जिस से रोहित शर्मा को नारायणदत्त तिवारी का ‘जैविक पुत्र’ माना गया. इस पूरे घटनाक्रम को याद कर आज भी उज्ज्वला की आंखें भर आती हैं.

उज्ज्वला कहती हैं, ‘‘तिवारीजी के कोई संतान न थी. इसलिए वे खुद बच्चों का जन्म चाहते थे. रोहित के जन्म के 14 साल तक मैं इंतजार करती रही कि वे अपनी तरफ से पहल करें लेकिन हुआ कुछ नहीं. वे मिलने आते थे, रोहित के लिए उपहार लाते थे, उसे प्यार करते, उस का जन्मदिन मनाते थे. फिर धीरेधीरे रिश्तों का रंग उतरने लगा.

‘‘साल 2002 में एक बार हमारा रिश्ता बना. पर 2005 तक फिर सब खत्म हो गया. इस के बाद रोहित ने साल 2008 में अपने हक की लड़ाई शुरू की. अंत में अदालत ने डीएनए टैस्ट के बाद रोहित को उन का बेटा मान लिया. इस के बाद तिवारीजी के साथ रहने वाले कुछ लोग नहीं चाहते थे कि हम साथसाथ रहें पर अब सब ठीक हो गया है.’’

 उज्ज्वला ने नारायणदत्त तिवारी की पूरी जिम्मेदारी खुद पर ले ली है. वे खुद सुबह उठती हैं. इस के बाद 10 बजे नारायणदत्त तिवारी उठते हैं. शाम को दोनों सैर पर जाते हैं. घर में आने वाले मेहमानों से मिलते हैं. उज्ज्वला कहती हैं, ‘‘दोनों के बीच फिलहाल नई शादी होने जैसा प्यार है.

2020 तक सामाजिक क्षेत्र में नौकरियों की बहार

सरकार ने अप्रैल में नया कंपनी अधिनियम बनाया है. इस कानून के तहत कंपनियों को सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन आवश्यक रूप से करना है. उस कानून के दायरे में आने वाली कंपनियों को अपनी कुल कमाई का 2 फीसदी खर्च सामाजिक जिम्मेदारियों पर करना पड़ेगा. नए कानून के तहत जिन कंपनियों का कुल लाभ 5 करोड़ रुपए अथवा कुल कारोबार 1 हजार करोड़ रुपए है उन्हें आवश्यक रूप से 2 फीसदी पैसा अपने कुल लाभ का सामाजिक विकास के लिए खर्च करना होगा. कंपनियों को यह पैसा शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला तथा बाल कल्याण जैसी योजनाओं पर खर्च करना होगा.

यदि सरकार के इस नियम का सख्ती से पालन होता है तो इन संगठनों के लिए कंपनियों को आज के हिसाब से एक अनुमान के अनुसार 22000 करोड़ रुपए इस क्षेत्र में लगाने होंगे. यह निधि यदि सामाजिक विकास के लिए सही तरीके से खर्च होती है तो अगले 6 साल में इस क्षेत्र में 1 लाख से अधिक युवकों के लिए नौकरी के अवसर उपलब्ध हो सकेंगे. नए नियम के तहत 16 हजार से अधिक कंपनियां आ रही हैं. इस कानून का ज्यादा फायदा दूसरी और तीसरी श्रेणी के शहरों को मिलेगा. इसलिए रोजगार के ज्यादा अवसर भी उन्हीं शहरों में उपलब्ध होंगे. जाहिर है इस क्षेत्र में भी प्रोफैशनलों को ही महत्त्व दिया जाएगा. उस में प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, गरीबी उन्मूलन, कौशल विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों के प्रोफैशनलों के लिए ही नौकरी के अवसर होंगे. मतलब, जिन युवकों के पास उन क्षेत्रों में अच्छी काबिलियत होगी, विशेषज्ञता हासिल होगी उन्हें 3 से 6 लाख रुपए तक की सालाना सैलरी आसानी से इस क्षेत्र में मिल जाएगी. यह खुलासा ईवाई (अर्नस्ट ऐंड यंग) के अध्ययन में हुआ है. यह एक सलाहकार कंपनी है.

भारत डेढ़ दशक में सब से निचले पायदान पर

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को किसी भी विकासशील देश के ढांचागत विकास की धुरी माना जाता है. विकासशील ही नहीं विकसित, देशों को भी अपने सतत विकास के लिए ढांचागत सुधार की सुविधा को जारी रखना आवश्यक है और इस प्रक्रिया के सुचारु संचालन के लिए विदेशी निवेश यानी एफडीआई का प्रवाह आवश्यक है. एफडीआई उसी देश में ज्यादा होता है जहां निवेशकों को लगता है कि देश की आर्थिक नीति अनुकूल है और उन्हें इस निवेश से फायदा होगा. ताजा सूचना के अनुसार, भारत विदेशी निवेशकों का विश्वास अर्जित करने वाले प्रमुख देशों की सूची से फिसल कर 7वें स्थान पर चला गया है. वैश्विक सलाहकार संस्था एटी कीर्नी ने करीब 300 निवेशक कंपनियों में एक सर्वेक्षण कराया है जिस में कहा गया है कि भारत के प्रति निवेशकों का सम्मान घटा है.

वर्ष 2005, 2007 तथा 2012 में भारत दूसरे स्थान पर था और 2010 में हम इस क्रम में तीसरे स्थान पर रहे लेकिन इस बार भारत 7वें स्थान पर आ गया है. जून के पहले पखवाड़े में जारी इस सूची के अनुसार, 2001 के बाद भारत की रैंकिंग इस क्षेत्र में सब से निचले पायदान पर है. इस बार अमेरिका पहले स्थान पर है जबकि पिछले वर्ष चीन को पहला स्थान हासिल था. भारत के आर्थिक विकास के लिए एफडीआई का प्रवाह निरंतर बना रहना आवश्यक है और निवेशकों का विश्वास तब ही अर्जित किया जा सकता है जब राजनीतिक स्थिरता, सरकार की आर्थिक नीतियां आक्रामक और विकासपरक हों.

जानकारों का कहना है कि एफडीआई विकास की प्रक्रिया में तेजी लाता है, इसलिए विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए.

बैंक का पैसा डकारना आसान नहीं होगा

जालसाजी हमारी धड़कनों में इस तरह से रचबस गई है कि बेईमान आज सामाजिक प्रतिष्ठा का हकदार बन गया है. बेईमानी कर के पैसा कमाने वाला स्मार्ट है, समझदार है, प्रगतिशील है, परिवार का नाम रोशन करने वाला है और प्रतिष्ठा का हकदार है. शादीविवाह की बात हो तो जरूर पूछा जाता है कि लड़के की ऊपर की कितनी कमाई होती है. भ्रष्टाचार को मिटा कर राजनीति की नौका पर सवार हो कर देश का भाग्यविधाता बनने का सपना देख रहे आम आदमी पार्टी का नेता अरविंद केजरीवाल जब कहता है कि मुझे पैसे ही कमाने होते तो आयकर कमिश्नर रह कर ही कमा लेता. इस का सीधा मतलब है कि आयकर विभाग का आयुक्त भ्रष्टाचारी होता है. भ्रष्टाचार का खेल जिस भूमि पर चल रहा हो और उसे नियंत्रित करने के बजाय इस तरह से उसे महिमामंडित किया जा रहा है तो यह उम्मीद करना ठीक नहीं है कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं.’

बहरहाल, जिन लोगों ने बैंकों से पैसा लिया है और उस पैसे को हजम करना चाहते हैं, हालांकि उन की पैसा लौटाने की क्षमता है, ऐसे बेईमानों पर नकेल कसने के लिए आयकर विभाग और सरकारी क्षेत्र के बैंकों के बीच सहमति बनी है. सहमति के तहत आयकर विभाग कर्जदार की संपत्ति की पूरी सूचना बैंकों को उपलब्ध कराएगा. सूचना के आधार पर बैंक अपना पैसा वसूल करने का प्रयास करेगा. बैंक कानूनी तौर पर कर्जदार की संपत्ति जब्त नहीं कर सकता लेकिन उस के पास कर्जदार का जो विवरण होगा और उस की जो जानबूझ कर पैसा नहीं लौटाने की मंशा है, उस आधार पर बैंक ऋणवसूली न्यायाधिकरण यानी डीआरटी में शिकायत दर्ज कर सकता है और ट्रिब्यूनल बैंक को जानबूझ कर कर्ज लौटाने से बच रहे कर्जदार की संपत्ति को बेचने का आदेश दे सकता है.

सार्वजनिक बैंकों का इस तरह के लोगों पर करीब पौने 2 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है जिस की वापसी की बैंकों को कम उम्मीद है लेकिन यदि यह सूत्र काम कर गया तो सरकारी बैंकों में एक तरह से डूबे हुए ऋण की वसूली से नया उत्साह आएगा.’

शेयर बाजार में रिकौर्ड उत्साह

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने केंद्र की नई सरकार के कार्यकाल में पहली बार मौद्रिक नीति की घोषणा की और बैंक दरों को यथावत बनाए रखा. ब्याज दरों को पहले की तरह यथावत बनाए रखने के साथ ही उन्होंने बैंकिंग क्षेत्र के लिए अच्छीखासी निधि देने की भी घोषणा की ताकि ऋण का प्रवाह बना रहे. उन की इस नीति का शेयर बाजार ने स्वागत किया और सूचकांक रिकौर्ड 25000 अंक पर बंद हुआ.

हालांकि रुपए को यह रास नहीं आया और रुपया 3 सप्ताह के निचले स्तर पर चला गया. मई के आखिरी सप्ताह में रुपया शुरुआती बढ़त के बावजूद गिरावट पर रहा. 29 मई को डौलर के मुकाबले रुपया लगातार चौथे सत्र में गिरावट पर बंद हुआ.

जून का पहला कारोबारी दिवस शेयर बाजार के लिए उत्साह भरा रहा और बाजार ने 3 सप्ताह में एक दिन में सर्वाधिक 467 अंक की छलांग लगाई. बाजार में यह तेजी वैश्विक बाजार के असर के कारण भी देखने को मिली. विदेशी निवेशकों के साथ ही खुदरा निवेशकों ने बाजार में खूब उत्साह बनाए रखा. यही उत्साह है कि सूचकांक कारोबार के दौरान 25 हजार अंक का रिकौर्ड छू चुका है.

टीवीएस स्टार सिटी प्लस का स्मार्ट लुक

बाजार में वैसे तो विभिन्न कंपनियों के अनेक मौडल मौजूद हैं लेकिन टीवीएस ने मोटरसाइकिल की सवारी करने वालों के लिए अपने स्टार सिटी मौडल को नए रूप में उतारा है. यह नई मोटरसाइकिल ‘टीवीएस स्टार सिटी प्लस’ है. प्लस का अर्थ पहले से कुछ बेहतर है और नया होना है.

इस मोटरसाइकिल के इंजन की बात करें तो इस में 109.7 सीसी का इकोथ्रस्ट इंजन है. यह नया इंजन 8.3 हौर्सपावर की शक्ति देता है. 50-60 किलोमीटर प्रतिघंटे की स्पीड में चलाने पर इस में कोई वाइबे्रशन या आवाज नहीं होती. अगर आप 90 की स्पीड में भी इसे टौप गियर में चलाते हैं तो भी थोड़ी सी ही आवाज या वाइबे्रशन होती है लेकिन यह किसी भी तरह से आप के ड्राइविंग के आनंद को कम नहीं करती. यह एक तेज गति की मोटरसाइकिल है.

109 किलोग्राम की यह हलकी मोटरसाइकिल स्टीयरिंग के साथ बखूबी मेल खाती है. इस का सस्पैंशन बेहतर है जो वाहन चलाने वाले को अच्छा अनुभव देता है. टेढ़ेमेढ़े, गड्ढे वाले रास्तों पर यह बिना संतुलन खोए तेज गति से चलती है. इस का एनवीएच स्तर बहुत ही अच्छा है.

स्टार सिटी प्लस एक स्मार्ट दिखने वाली मोटरसाइकिल है. इस के नए डिजाइन को टीवीएस द्वारा ‘मौडर्न फ्लो मोशन’ का नाम दिया गया है. नई बाइक को अपमार्केट अपील देने के लिए डिजाइनर्स ने स्टार सिटी के कर्व्स की जगह शार्प लाइंस दी हैं. इस में फाइव स्पोक के एलौय व्हील्स हैं जो सड़क पर अधिक ग्रिप देते हैं. इस में एनालौग/ डिजिटल इंस्ट्रूमैंट क्लस्टर के साथ सर्विस इंडिकेटर, क्लीयर लैंस, इंडीकेटर, क्रोम हैंडल बार, रंगीन शौक औब्जर्वर स्ंिप्रग जैसे नए फीचर्स हैं, जो इसे स्टाइलिश लुक देते हैं. हैंड्सबार, सीट व फुट पैग्स के बीच सही अंतर दिया गया है. इस की फोम की सीट न ज्यादा मुलायम है न ज्यादा सख्त यानी बैठने में आराम.

नई स्टार सिटी सुपर रिफाइंड और सुपर कंफर्टेबल है. हालांकि नई स्टार सिटी प्लस में डिस्क बे्रक का विकल्प नहीं है लेकिन बाइक के ड्रम बे्रक इस की प्रतियोगियों को टक्कर देने के लिए काफी हैं. कुल मिला कर टीवीएस के हाथों में एक विजेता है जो बाइकलवर्स को अवश्य पसंद आएगा.

-दिल्ली प्रैस की अंगरेजी पत्रिका मोटरिंग वर्ल्ड से

देवदासियां: धर्मगुरुओं की हवसपूर्ति

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को कर्नाटक के मुख्य सचिव को दिए एक निर्देश में कहा था कि वे सुनिश्चित करें कि किसी भी मंदिर में किसी लड़की को देवदासी की तरह इस्तेमाल न किया जाए. इस के बावजूद धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण का सिलसिला थमता नहीं दिखता. कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों सहित मुल्क के तमाम हिस्सों में औरत को देवदासी बना कर धर्म की बलि चढ़ाया जा रहा है. लंबे अरसे से प्रशासन इस कुप्रथा से बेखबर बना हुआ है.

मंदिरों में देवदासियों द्वारा सेवा करना नई बात नहीं है. खासतौर से दक्षिण भारतीय मंदिरों में देवदासियों का चलन प्राचीन समय से चला आ रहा है. ये देवदासियां सफेद साड़ी पहनती हैं और मंदिरों के पुजारियों के हर आदेश का पालन करना अपना धार्मिक फर्ज समझती हैं. इन देवदासियों को बताया जाता है कि पुजारी का स्थान भगवान से भी बड़ा होता है और उस के हर आदेश का पालन करना उन की जिंदगी का एकमात्र मकसद होना चाहिए.

कई वर्ष पहले दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक 10 वर्षीय अबोध बालिका को देवदासी बनाया गया था, जो वहां के पुजारी के हर आदेश को मानने के लिए विवश थी. बाद में उस की बड़ी बहन भी देवदासी बनी और ये बहनें पुजारी के शोषण और जुल्म का शिकार होती रहीं.

इसी तरह आंध्र प्रदेश के एक मंदिर में 5 देवदासियां वहां के पुजारी की हवस का शिकार होती रहीं. दिलचस्प बात यह है कि इन लड़कियों के मातापिताओं के धर्मगुरुओं ने इन्हें यहां देवदासी के रूप में सौंपने का आदेश दिया था क्योंकि वे भी जल्द धर्म का प्रसाद और भगवान की कृपा हासिल करना चाहते थे. इतनी कम उम्र में देवदासी के रूप में लड़कियों को सौंपने के पीछे अंधविश्वास तो है ही, गरीबी भी एक बहुत बड़ा कारण है. इन देवदासियों की स्थिति ‘रखैल’ जैसी है, यह बात इन के मातापिता और ग्रामसमाज के लोग भी जानते हैं. लेकिन कोई प्रतिरोध नहीं करता है. कारण साफ है, सभी को यह डर सताता है कि यह धर्म के खिलाफ हो जाएगा.

जिन मंदिरों में ये देवदासियां रहती हैं, वहां खूब भीड़ होती है. मंदिर के पुजारी की आज्ञा के बगैर इन देवदासियों को किसी से बात करने की मनाही होती है.

देवदासी प्रथा का प्रचलन सनातन धर्म में शताब्दियों से है. दक्षिण भारत के कई राज्यों में हजारों की तादाद में सनातन हिंदू धर्म के मंदिरों में देवदासी धर्मगुरुओं, पुरोहितों, ब्राह्मणों, स्वामियों और धर्माधिकारियों की सेवा करती थीं. वैसे तो यह कहा जाता था कि ये मंदिर और देवमूर्तियों की सेवा (सफाई और साजसज्जा) करती हैं लेकिन परदे की आड़ में ये मंदिर के पुजारी की ‘रखैल’ के रूप में रहती थीं. देवदासियां जाति के मुताबिक ‘निम्न’ जाति की ही होती थीं, आज भी दक्षिण में नीची कही जाने वाली जाति की ही देवदासियां मंदिरों में तथाकथित ‘देवसेवा’ में लगी हुई हैं.

इस तरह आज भी आधुनिक समाज में हजारों लड़कियां धर्म के नाम पर देवदासी बनने के लिए मजबूर की जाती हैं. हैरानी की बात यह भी है कि जिन राज्यों में हजारों की तादाद में देवदासियों का खुल्लमखुल्ला शोषण होने की बात कही जा रही है उन राज्यों में देवदासी प्रथा के खिलाफ अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है.

जिन देवदासियों का मानसिक व यौन शोषण होता है वे उस परिवार से संबंध रखती हैं जो अमूमन निर्धन तो होता ही है, अशिक्षित और अंधविश्वासी भी होता है. पहले ऐसे परिवार की खोज मंदिर के पुजारी के जरिए करवाई जाती है. और ऐसे परिवारों को वरीयता दी जाती है जहां लड़कियां सुंदर और मांसल हों. फिर मंदिर के पुजारी का आमंत्रण ‘देवपूजा’ के नाम पर उस परिवार को दिया जाता है और यह भी बताया जाता है कि तुम्हारे भाग्य चमके हैं, अब तुम्हारी खराब आर्थिक स्थिति का अंत होने वाला है. तुम परिवार के साथ ‘देवता की सेवा में’ फलां तारीख को आ जाना.

आमंत्रण पा कर वह मजबूर और धर्मभीरु परिवार निर्धारित तारीख को परिवार के साथ पहुंच जाता है. पहुंचते ही उस के परिवार की शानदार आवभगत की जाती है. इतनी इज्जत पा कर वह सबकुछ मानने को तैयार हो जाता है, जो पुजारी कहता है. धर्म की दुहाई, आर्थिक मदद और स्वर्ग दिलाने की ठेकेदारी पुजारी की तरफ से दी जाती है. परिवार पुजारी को लड़कियां सौंप कर चला जाता है. पुजारी लड़कियों को यह समझाने में कामयाब हो जाता है कि उन की शादी मंदिर की मूर्ति से कर दी जाएगी. इस से देवता प्रसन्न होंगे और उन की सारी (हर तरह की) परेशानियां दूर हो जाएंगी. नाम तो होता है पत्थर के देवता के साथ शादी होने का लेकिन हनीमून उन के संग मंदिर का पुजारी ही मनाता है.

यह भी होता है

यह एक देवदासी की आपबीती है. बात कुछ साल पहले की है. आंध्र प्रदेश का एक गांव, जहां जोगरी पैदा हुई और पलीबढ़ी. परिवार दलित और गरीब. प्रथम दरजे का अंधविश्वासी और अशिक्षित भी. पास के ही एक गांव से एक दिन वहांके मंदिर के पुजारी का आमंत्रण आया. आमंत्रण पुजारी ने एक नौकर के जरिए भिजवाया था. परिवार के साथ एक खास उत्सव में बुलवाया गया था. साथ में यह भी लिखा था कि देवता की कृपा हासिल करने के लिए मेरे मातापिता को चढ़ावे के रूप में अपनी 1 या 2 लड़कियों की देवता से शादी कर देनी चाहिए.

जोगरी का मानना था कि मैं खुशीखुशी मंदिर गई क्योंकि मुझे बताया गया था कि मंदिर के देवता की कृपा मुझे मिलेगी और परिवार की सारी दिक्कतें हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी. एक दिन परिवार के साथ मैं मंदिर पहुंची. शाम हो चुकी थी. गरीब होने के कारण हम सब पैदल ही आए थे. उस दिन 6 घंटे पैदल चलना पड़ा था. मैं थक चुकी थी. मंदिर परिसर में पहुंचते ही मैं ने एक हट्टाकट्टा आदमी देखा जो कंट्ठीमाला गले में डाले हुए था और जिस के माथे पर चंदन से बना हुआ त्रिशूल चमक रहा था. मैं देखते ही डर गई थी लेकिन मातापिता ने मुझे समझाते हुए कहा कि डरो नहीं, ये हमारे देव हैं, इन के निमंत्रण से ही हम सब यहां आए हैं.

इस के बावजूद मैं डर रही थी. थोड़ी देर बाद उत्सव शुरू हो गया. मुझे खूब सजाया गया और फिर मुझे बताया गया कि मैं आज से देवता की जोगिन बन कर यहीं रहूंगी. मंदिर के पत्थर के देवता से मेरी मरजी के खिलाफ मेरीशादी कर दी गई. फिर चुपके से मेरे पापा और मां मुझे छोड़ कर चले गए.

रात में वह हट्टाकट्टा पुजारी मेरे पास आया. मैं देखते ही डर गई थी. तब मेरी उम्र केवल 12 वर्ष थी. मैं न शादी का मतलब जानती थी और न ही हनीमून का. उस पुजारी ने मेरे साथ हरकत करनी शुरू की तो मैं ने उसे मना किया. मैं बहुत डर रही थी, उस रात तो उस ने मेरी प्रार्थना पर मुझे और परेशान नहीं किया लेकिन अगली रात उस ने जबरन मेरे साथ बलात्कार किया. मैं चीखतीचिल्लाती रही और हबशी मेरी इज्जत लूटता रहा.

पुजारियों की स्थिति

देवदासियों की स्थिति जहां बद से बदतर है वहीं देवदासियों के रूप में और आंध्र प्रदेश की जोगिन कही जाने वाली महिलाओं की हालत भी बद से बदतर है. लेकिन मंदिर के पुजारियों की ऐयाशी भरी जिंदगी पर उंगली उठाने वाला कोई नहीं. न तो सामाजिक संस्थाएं और न ही राज्य सरकारें इन के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाती हैं.

पुजारियों के घर में उन के इस कुकृत्य के खिलाफ न तो उन की पत्नियां कदम उठाती हैं और न घर के दूसरे सदस्य ही. बल्कि घर वाले हर तरह से इन की मदद ही करते हैं. ऐसा लगता है ‘रखैल’ के रूप में देवदासियों के साथ ताल्लुकात रखने की यहां एक लंबी परंपरा चल रही है.

गीता, रामायण या पुराणों में देवदासियों का कोई जिक्र भले ही न हो लेकिन दक्षिण के राज्यों की तमाम पौराणिक पुस्तकों में इस के बारे में वर्णन किया गया है. दरअसल, दक्षिण भारत में देवदासीप्रथा को धर्म का एक हिस्सा ही मान लिया गया है. दक्षिण के पौराणिक ग्रंथों में धर्मगुरुओं, पुरोहितों और पुजारियों को भगवान जैसी प्रतिष्ठा दी गई है. इन का कोई भी कुकर्म अपराध नहीं माना गया है. आम आदमी धर्मग्रंथों के मकड़जाल में फंस कर अपनी लड़कियों को इन्हें सौंप आता है, जिन की हालत जानवरों से भी गईबीती कर दी जाती है.

जिल्लतभरी जिंदगी

जिन धर्मस्थानों और मंदिरों को मानवता के रक्षक के रूप में प्रचारित किया जाता है उन जगहों पर सदियों से कैसीकैसी काली करतूतें की जाती रही हैं, उन्हें समझना है तो देवदासियों की जिंदगी में झांक कर देखा जा सकता है. युवावस्था तो त्रासदी में कटती ही है, ढलती उम्र में उन्हें लावारिस गाय की तरह छोड़ दिया जाता है.

आज जरूरत है इस प्रथा को जड़ से खत्म करने की. जो महिलाएं मंदिरों पर धर्मगुरुओं की हवस की शिकार हैं उन्हें नई जिंदगी दे कर, रोटी, कपड़ा और मकान का सहारा दिया जाए. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को इस प्रथा को खत्म करने के लिए आगे आना चाहिए और उन समाजकर्मियों को भी जो अंधविश्वासों, पाखंडों, गंदी प्रथाओं व सामाजिक बुराइयों के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं

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