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कंगना की निकल पड़ी

इन दिनों कंगना का सितारा बुलंदी पर है. हर खबर उन के लिए खुशखबरी की शक्ल में आ रही है. पिछले दिनों रिलीज उन की फिल्म ‘क्वीन’ ने सफलता के झंडे गाड़े, अब उन्हें फिल्म ‘कहानी’ बना चुके निर्देशक सुजाय घोष की फिल्म मिल गई है. ‘दुर्गा रानी सिंह’ नाम से बनने वाली इस फिल्म में कंगना मुख्य भूमिका निभाएंगी.

चर्चा है कि इस फिल्म के लिए पहले विद्या बालन को चुना गया था लेकिन किन्हीं कारणों के चलते वे इस फिल्म से बाहर हो गईं. सो, कंगना की चांदी हो गई. फिल्म दुर्गा रानी सिंह एक आम औरत के संघर्ष की कहानी है. जाहिर है यह महिला प्रधान फिल्म है और कंगना की अब तक महिला प्रधान फिल्मों की सफलता का प्रतिशत बेहतर रहा है.

रंजीत के घर लाश

बीते दिनों अभिनेता आयुष्मान खुराना के घर उन के नौकर की लाश मिली थी. इस बार गुजरे जमाने के खलनायक रंजीत के घर भी इसी तरह का हादसा हो गया. दरअसल, रंजीत के घर उन के ड्राइवर का शव उन के स्विमिंग पूल से बरामद हुआ. रंजीत के मुताबिक अभी यह तय नहीं हो पाया है कि यह आत्महत्या है या हादसा.

नागराज नाम के जिस शख्स का शव बरामद हुआ है वह रंजीत का ड्राइवर भी था, जो पिछले 30 सालों से रंजीत के साथ काम कर रहा था. रंजीत बताते हैं कि जब हम ने ड्राइवर का शव स्विमिंग पूल में पाया तो उसे तुरंत बाहर निकाल कर हौस्पिटल ले गए, लेकिन वहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. फिलहाल मामला जुहू पुलिस थाने में दर्ज है.

हम तो यही चाहेंगे कि इस मामले में रंजीत किसी भी तरह कानूनी झमेले में न फंसें तो ही उन के लिए अच्छा है.

 

बुरे फंसे सैफ

मारपीट का एक पुराना मामला सैफ का पीछा नहीं छोड़ रहा है. 2 साल पहले सैफ अली खान का कोलाबा के एक होटल में एनआरआई से विवाद हो गया था. उसी मामले में अदालत ने सैफ और उन के 2 मित्रों, शकील लडाक एवं बिलाल अमरोही के खिलाफ आरोप तय किए हैं लेकिन तीनों खुद को बेकुसूर बता रहे हैं.

गौरतलब है कि 22 फरवरी, 2012 को एक रैस्तरां में इकबाल मीर शर्मा की शिकायत के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया था. बाद में तीनों को जमानत मिल गई थी. लेकिन उस मामले ने 2 साल बाद एक नई करवट बदली है और हो सकता है आने वाले समय में सैफ अली खान की मुश्किलें बढ़ जाएं. हालांकि सैफ का कहना है कि मारपीट के लिए उन्हें एनआरआई ने उकसाया था. लिहाजा वे बेकसूर हैं.

 

 

घोटालों की कौमेडी

इन दिनों भ्रष्टाचार और मीडिया एकदूसरे के सामने खड़े नजर आ रहे हैं. वैसे भी स्टिंग के जरिए इलैक्ट्रौनिक मीडिया किसी न किसी का भंडाफोड़ करती नजर आ ही जाती है. बहरहाल, इसी मसले को भुनाने के लिए सलमान खान ने अपने बैनर तले एक फिल्म बनाई है, ‘ओ तेरी’. अतुल अग्निहोत्री बतौर निर्माता इस फिल्म से जुड़े हैं.

यह भी कहा जा रहा है कि ‘ओ तेरी’ राष्ट्रमंडल खेल घोटाले पर आधारित है. फिल्म 2 पत्रकारों के इर्दगिर्द घूमती है जो रोजमर्रा की सामान्य खबरों से जूझते हैं. लेकिन फिर उन के कैरियर में नया मोड़ आता है. फिल्म में अनुपम खेर का किरदार राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी से मिलताजुलता बताया जा रहा है. हालांकि निर्माता इस बात से इनकार कर रहे हैं लेकिन फिल्म वास्तविक जीवन की घटनाओं पर आधारित है, इस बात को जरूर मान रहे हैं.

 

‘आप’ की गुल

आम चुनाव में इस बार लगभग सभी पार्टियों ने फिल्मी हस्तियों को मैदान में उतारा है. इस फेहरिस्त में अभिनेत्री गुल पनाग का नाम भी जुड़ गया है.

बता दें कि अभिनेत्री  गुल पनाग आम आदमी  पार्टी की चंडीगढ़ से लोकसभा उम्मीदवार हैं. गुल ने बीते दिनें जल संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए होली के कई समारोहों में हिस्सा भी नहीं लिया. उन के मुताबिक होली के दौरान बहुत पानी बरबाद होता है. गुल ने ट्विट किया, ‘‘गंभीर जल संकट से जूझ रहे चंडीगढ़वासियों के साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए मैं होली नहीं खेल रही हूं. प्राकृतिक रंगों के साथ एक सुरक्षित और पर्यावरण अनुकूल होली खेलें और महिलाओं व बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित कराएं.’’?

वाह गुल, आप तो चुनाव लड़ने से पहले ही नेतागीरी के गुर सीख गईं.

 

बेवकूफियां

यशराज बैनर के लिए इस फिल्म की निर्देशिका नूपुर अस्थाना ने इस से पहले इसी बैनर के लिए ‘मुझ से फ्रैंडशिप करोगे’ फिल्म बनाई थी. वह फिल्म युवाओं के मतलब की थी, मगर चल नहीं पाई थी. अब उन्होंने फिर से युवाओं के लिए ‘बेवकूफियां’ बनाई है.

इस में ‘विकी डोनर’ फिल्म में काम कर चुके आयुष्मान खुराना और सोनम कपूर जैसी युवा जोड़ी को ले कर निर्देशिका ने हलकीफुलकी बेवकूफियां ही दिखाई हैं. ये बेवकूफियां बेमतलब, बेतुकी, बेमजा और बेकार सी हैं.

फिल्म युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई गई है. इस फिल्म का कौंसेप्ट आर्थिक मंदी और बदलती जीवनशैली है. आर्थिक मंदी का बुरा असर किस तरह युवाओं पर पड़ा कि पैसे के अभाव में उन्हें अपने प्यार तक का बलिदान करना पड़ा, इस फिल्म में यही दिखाया गया है. ‘बिना पैसे के प्यार करना बेवकूफी है’ और ‘प्यार चाहिए या पैसा चाहिए’ जैसा जुमला यह फिल्म चरितार्थ करती है. युवा अगर अपनी गर्लफ्रैंड के साथ इस फिल्म को देखने की सोच रहे हैं तो जरा ठहरिए, कहीं ऐसा न हो कि फिल्म देखने के बाद आप की गर्लफ्रैंड ब्रेकअप कर ले.

कहानी मोहित (आयुष्मान खुराना) और मायरा (सोनम कपूर) की है. दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं. दोनों नौकरी करते हैं. मायरा के पिता विनोद सहगल (ऋषि कपूर) आईएएस अफसर हैं और कड़क हैं. वे मायरा की शादी किसी पैसे वाले से करना चाहते हैं. इधर, रिसैप्शन के दौरान मोहित की नौकरी चली जाती है. मायरा इस बात को अपने पापा से छिपाती है. मोहित भी मायरा के पापा के सामने खुद को बिजी दिखाने में लग जाता है. तभी किसी बात पर मोहित और मायरा का ब्रेकअप हो जाता है. विनोद सहगल मोहित के बारे में सब पता कर लेते हैं. वे मोहित और मायरा को मिलाने का प्लान बनाते हैं. मोहित वैसे तो एमबीए है लेकिन मजबूरी में उसे एक वेटर की नौकरी करनी पड़ती है. आखिरकार, मायरा के पिता अपने प्लान में सफल होते हैं और मायरा व मोहित को आपस में मिलाते हैं.

मध्यांतर से पहले यह कहानी कछुआ चाल से चलती है. मध्यांतर के बाद भी फिल्म बहुत ज्यादा इसलिए आकर्षित नहीं कर पाती क्योंकि फिल्म के मुख्य किरदार आयुष्मान खुराना और सोनम कपूर फ्लैट से नजर आते हैं. सोनम कपूर ने बिकनी पहन कर और लिप टु लिप किस सीन दे कर सैक्सी दिखने की असफल कोशिश की है.

फिल्म की ज्यादातर शूटिंग दिल्ली में की गई है. गीतसंगीत औसत है. टाइटल सौंग थोड़ाबहुत ठीक है. फिल्म सिर्फ टाइमपास बन कर रह गई है.

गैंग औफ घोस्ट्स

‘गैंग औफ घोस्ट्स’ एक हौरर कौमेडी है, जिस में हौरर कम कौमेडी ज्यादा है. भूतों के इस गैंग में बहुत से कलाकार हैं जिन में प्रमुख हैं शरमन जोशी, अनुपम खेर, यशपाल शर्मा, माही गिल, मीरा चोपड़ा, चंकी पांडे, राजपाल यादव, असरानी आदि. ये सारे भूत एक बंगले में रहते हैं और शराब पीते हैं, डांस करते हैं, मौजमस्ती करते हैं परंतु किसी को परेशान नहीं करते. फिर भी निर्देशक ने फिल्म शुरू होने से पहले हनुमान चालीसा का पाठ किया है. लगता है वह खुद भी भूतों पर विश्वास करता है.

‘गैंग औफ घोस्ट्स’ बंगाली फिल्म ‘भूतेर भविष्येत’ पर आधारित है. निर्देशक सतीश कौशिक ने इस फिल्म के किरदारों को आज के जमाने के अनुरूप दिखाया है. उन किरदारों के कौस्ट्यूम्स आधुनिक हैं. उन की चालढाल एकदम आधुनिक है. बस, वे किसी को दिखाई नहीं देते, जब वे खुद चाहते हैं तो दिखाई देते हैं. निर्देशक ने इन भूतों से खुल कर कौमेडी कराई है. फिल्म देख कर लगता ही नहीं कि ये भूत हैं. अच्छा होता कि निर्देशक भूतों की कल्पना न कर कुछ और सोचता, दर्शकों को अंधविश्वास की खाई में तो न धकेलता.

फिल्म के क्लाइमैक्स में बिल्डर माफिया पर व्यंग्य कर संदेश देने की कोशिश की गई है कि बिल्डर्स कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं. शहरों में बड़ेबड़े मौल्स बना कर वे अपनी तिजोरियां भर रहे हैं जबकि गरीब लोगों के पास रहने तक की जगह नहीं होती.

फिल्म की कहानी फिल्मों की कहानियां लिखने वाले राजू (शरमन जोशी) नाम के एक स्ट्रगलर के मुंह से कहलवाई गई है. वह यह कहानी एक फिल्ममेकर को सुनाता है.

शहर में रौयलमैंशन नाम से एक भूतिया बंगला है. बंगले के मालिक राम बहादुर गेंडामल हेमराज (अनुपम खेर) का भूत उस बंगले में रहता है. उस के साथ उस के भाई (चंकी पांडे) की प्रेमिका मनोरंजना देवी (माही गिल) का भूत भी वहां रहता है. उस बंगले में कई अन्य भूत भी रहने आ जाते हैं. गेंडामल का भूत सभी भूतों का इंटरव्यू ले कर उन्हें वहां रहने की स्वीकृति दे देता है. तभी एक दिन गेंडामल के भूत को पता चलता है कि उस के पोतों ने उस बंगले को भूतेरिया नाम के एक बिल्डर को बेच दिया है. वह बिल्डर उस बंगले को तोड़ कर वहां एक मौल बनाना चाहता है. सभी भूत मीटिंग करते हैं. वे एक गुंडे बाबूभाई हथकटा (जैकी श्रौफ) को बुलाते हैं जो उस बिल्डर को डरा कर भगा देता है और बिल्डर वहां मौल न बनाने का फैसला करता है. सारे भूत उस बंगले में फिर से रहने लगते हैं.

यह कहानी राजू एक फिल्म निर्माता को सुनाता है, साथ ही इस रहस्य से भी परदा उठाता है कि वह खुद एक भूत है. कुछ दिन पहले ही कुछ गुंडों ने उस की हत्या कर दी थी और वह भी उस बंगले में रहने चला गया था.

फिल्म की विशेषता है इस के गाने. इस फिल्म के सभी गाने पंजाबी में हैं और पुरानी फिल्मों की तर्ज पर गाए गए हैं. भूतों द्वारा मनाई गई पिकनिक और पुराने गानों पर बनी पैरोडी दिलचस्प है.

निर्देशक ने क्लाइमैक्स में भूतों के दर्द को बयां किया है. माही गिल ने अच्छी ऐक्टिंग की है. अनुपम खेर ने भी हंसाया है. मीरा चोपड़ा प्रियंका चोपड़ा की कजिन है. अब तक वह दक्षिण की फिल्मों में ही अभिनय करती थी. हिंदी की यह उस की पहली फिल्म है. उस ने अपना ग्लैमर दिखाने की कोशिश की है. छायांकन अच्छा है.

 

आंखों देखी

कहते हैं न, सुनीसुनाई बात में सचाई नहीं होती. जो अपनी आंखों से देखा जाए वही सच होता है. इसी कौंसेप्ट पर रजत कपूर ने यह फिल्म बनाई है. फिल्म मल्टीप्लैक्स कल्चर की है. इस में रिश्तों की सचाई है. एक निम्नमध्यवर्गीय के परिवार का खाका खींचा गया है. परिवार में अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर एक भाई का दूसरे भाई के प्रति प्यार को दिखाया गया है. हालांकि इस तरह की फिल्में कमर्शियली हिट नहीं होतीं फिर भी वे अच्छी होती हैं.

‘आंखों देखी’ हर किसी के मतलब की फिल्म नहीं है, लेकिन इस फिल्म में गहराई है. निर्देशक ने हर किरदार का चित्रण बारीकी से किया है. चूंकि रजत कपूर काफी अरसे से थिएटर से जुड़े रहे, इसलिए इस फिल्म में भी किसी नाटक के मंचन का सा आभास होता है.

फिल्म के लीड रोल में अपनी ऐक्ंिटग का लोहा मनवा चुका संजय मिश्रा है. उस ने अब तक कई फिल्मों में कौमेडी भूमिकाएं की हैं. इस फिल्म में उस की भूमिका एक परिवार के मुखिया की है. बढ़ी दाढ़ी, सिर पर गोल टोपी, फटीचर हालत में वह पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों के एक मकान में अपने छोटे भाई, उस की पत्नी, अपनी पत्नी, बेटी व बेटे के साथ रहता है. खुद वह एक ट्रैवल एजेंसी में नौकरी करता है. निर्देशक रजत कपूर ने इस परिवार का खाका बहुत ही खूबसूरती से खींचा है.

फिल्म की कहानी पुरानी दिल्ली के एक मकान में रह रहे बाबूजी (संजय मिश्रा) के परिवार की है. बाबूजी अपने व भाई के परिवार के साथ 2 कमरों के मकान में रहते हैं. एक दिन उन्हें पता चलता है कि उन की बेटी रीटा एक लड़के अज्जू से प्यार की पींगें बढ़ा रही है. घर में तूफान सा उठता है. लेकिन बाबूजी को लगता है कि अज्जू नेक है. वे चुप्पी साध लेते हैं और तय कर लेते हैं कि वे सिर्फ उसी बात पर विश्वास करेंगे जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा हो. इसी चक्कर में उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है. घर में उन्हें पत्नी (सीमा भार्गव) की बातें भी सुननी पड़ती हैं. छोटा भाई (रजत कपूर) अपने परिवार के साथ घर छोड़ कर अलग रहने लगता है. जवान बेटे को जुए की लत लग जाती है.

बाबूजी अपने बेटे को जुआरियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए उस के द्वारा ली गई कर्ज की रकम को चुकाने के लिए खुद जुआ खेलने लगते हैं और जीती रकम से उस का कर्ज चुकता करते हैं. उन्हें उसी जुआघर में 20 हजार रुपए की नौकरी मिल जाती है. वे अपनी बेटी की शादी उसी लड़के से कर देते हैं. शादी में बाबूजी का छोटा भाई सपरिवार शामिल होता है.

अपने सभी दायित्वों से मुक्त हो कर बाबूजी पत्नी के साथ पहाड़ पर छुट्टियां मनाने जाते हैं. वहां वे एक पहाड़ से खाई में छलांग लगा देते हैं. उन्हें लगता है अब उन्हें मुक्ति मिल गई है और वे खुले आकाश में मानो उड़ रहे हों.

फिल्म की यह कहानी एक परिवार की है. बाबूजी के किरदार में संजय मिश्रा को धीरगंभीर दिखाया गया है. इस किरदार को कभी गुस्सा नहीं आता. पत्नी इरिटेट होती है तो भी वह शांत रहता है. अपने प्रेमी से मिलने की जिद पर बेटी खाना नहीं खाती तो वह मानमनुहार कर उसे अपने हाथों से खाना खिलाता है.

फिल्म का एक सीक्वैंस काफी अच्छा बन पड़ा है, जब बाबूजी को लगता है कि शेर वाकई में दहाड़ता है या नहीं, इस के लिए वे लावलश्कर के साथ चिडि़याघर पहुंचते हैं. वहां जब सच में शेर दहाड़ता है तभी उन्हें यकीन होता है.

कहानी में कोई घुमावफिराव नहीं है. निर्देशन अच्छा है. निर्देशक ने सभी किरदारों को जीवंत दिखाने की कोशिश की है.

संजय मिश्रा के अलावा सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. पार्श्व संगीत अनुकूल है. छायांकन ठीकठाक है.

 

क्षेत्रीय सिनेमा की चिंगारी को हवा देती भोभर

राजस्थानी सिनेमा को नए सिरे से स्थापित करती फिल्म भोभर के लेखक व गीतकार रामकुमार सिंह काफी  उत्साहित हैं कि आज भी भोभर को ले कर उत्साही प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं. हाल ही में हुई बातचीत में उन्होंने क्षेत्रीय सिनेमा से  जुड़े कई पहलुओं पर राजेश कुमार से बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश :
फिल्म भोभर के शाब्दिक तौर पर क्या माने हैं और इस सिनेमाई यात्रा के अनुभव कैसे रहे?
भोभर एक राजस्थानी शब्द है. इस का शाब्दिक अर्थ है राख में दबी आग. गांवकसबों में ज्यादातर लोग इस आग से परिचित हैं. चूंकि हमारी कहानी एक ऐसी दबी हुई भावना पर है जो आग की तरह राख के नीचे सुलगती रहती है, हमें यह टाइटल मुफीद लगा. फिल्म का मुख्य किरदार एक दिन अपने घर में अपने मित्र को चोरी से घुसते हुए देखता है, उस दोस्त से हुई झड़प और उलाहने से अपनी पत्नी पर शक करने लगता है. सालों तक दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती. एक वक्त ऐसा आता है जब दोनों एकदूसरे के सामने आते हैं और दोनों के रिश्ते भोभर की तरह सुलगने लगते हैं.
दरअसल, मैं और मेरे मित्र गजेंद्र एस श्रोत्रिय काफी दिनों से राजस्थानी भाषा में एक अच्छी फिल्म बनाना चाहते थे. इस भाषा में इतना कुछ है, इस के बावजूद हमें आश्चर्य होता था कि यहां सिनेमा अपने पैरों पर क्यों खड़ा नहीं हो पा रहा है. इसी दौरान मेरी लिखी कहानी ‘शराबी’ गजेंद्र ने पढ़ी और उन्हें इस पर एक फिल्म बनाने की संभावना नजर आई. हम लोगों के पास बजट नहीं था. फिर भी हम ने हिम्मत कर अपने पैसों से राजस्थानी कलाकारों के साथ यह फिल्म पूरी की.
राजस्थान में इस फिल्म को ले कर क्या प्रतिक्रिया रही और भोभर को बाहर कैसा रिस्पौंस मिला?
‘भोभर’ जयपुर में एक हिंदी फिल्म के साथ रिलीज हुई. ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी हिंदी फिल्म के मुकाबले क्षेत्रीय फिल्म का राजस्थान में बौक्स औफिस पर जादू चला. राज्य के बाहर भोभर का वर्ल्ड प्रीमियर यूनान के कोरिंथी शहर में भी हुआ. वहां से भी रेस्पौंस अच्छा था.
इस के अलावा तीसरे जयपुर इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में हमें काफी प्रशंसा मिली. बेंगलुरु में चौथे स्टैपिंग स्टोन इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में भी भोभर की स्क्रीनिंग हुई.
फिल्म भोभर के निर्माण और इस के मुख्य कलाकारों के बारे में?
आप को दिवंगत संगीतकार दान सिंह का आखिरी कंपोजिशन दर्शकों को ‘भोभर’ में मिलेगा. राजीव थानवी और जयनारायण त्रिपाठी की धुनें भी सुनेंगे. गीतों को स्वर दिया है डा. सुमन यादव, राजीव थानवी व शिखा माथुर ने. बैकग्राउंड म्यूजिक अमित ओझा का है तथा सिनेमेटोग्राफी योगेश शर्मा ने की है. फिल्म में लगभग सभी कलाकार राजस्थान के ही हैं और रंगमंच में काम करते रहे हैं. मुख्य भूमिका में अमित सक्सेना (रेवत के किरदार में), उत्तरांशी (सोहनी के किरदार में) और विकास पारीक (पूरण के किरदार में) हैं वहीं रंगमंच के वरिष्ठ कलाकार सत्यनारायण पुरोहित, हरिनारायण और वासुदेव भट्ट ने भी अभिनय किया है. राजस्थान के ही कई कलाकार मसलन, विनोद आचार्य, बबीता मदान, संजय विद्रोही, अनिल मारवारी, निधि जैन, अजय जैन आदि ने भी काम किया है.
गजेंद्र एस श्रोत्रिय से कैसे जुड़े?
गजेंद्र एस श्रोत्रिय, इंजीनियरिंग गे्रजुएट और एमबीए हैं. सिनेमाई जनून के चलते वे इस क्षेत्र में आए हैं. उन की कई लघु फिल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में दिखाई गई हैं. बतौर निर्देशक उन की पहली फीचर फिल्म भोभर है. राजस्थानी फिल्म भोभर महज 2 लाख रुपए में बनाई गई है. जहां मैं ने इस फिल्म में लेखक और गीतकार के साथसाथ कोप्रोड्यूसर, प्रोडक्शन इंचार्ज और डिस्ट्रीब्यूटर की जिम्मेदारी संभाली वहीं गजेंद्र ने निर्माण में भी सहयोग दिया.
राजस्थान सिनेमा के अब तक स्थापित न हो पाने के मुख्य कारण क्या हो सकते हैं?
कई कारण हैं. पहला यही कि राजस्थान में कई गीतसंगीत कंपनियां बाजार में छाई तो हैं लेकिन फिल्मों को ले कर कुछ गंभीरता से नहीं किया गया. चालू मसाला फिल्में बनाई गईं. इस के अलावा अगर कोई फिल्मकार अच्छी फिल्म बनाए तो यहां के सिनेमाघर सपोर्ट नहीं करते. हिंदी फिल्मों के लिए तो सारी सुविधाएं हैं लेकिन राजस्थानी फिल्मों के लिए कुछ नहीं. एक बड़ा दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं आप को. हम भोभर की रिलीज के सिलसिले में एक मल्टीप्लैक्स चेन से बात कर रहे थे. वे आम फिल्मों की तुलना में हमारी फिल्मों की टिकट दर बढ़ा रहे थे. कारण पूछने पर उन का कहना था कि राजस्थानी ग्रामीण फिल्म देखने वाले बड़े गंवार होते हैं. वे थिएटर को बहुत गंदा करते हैं. इसलिए हम ऐसा कर रहे हैं. अब आप ही बताइए, कैसे होगा राजस्थानी सिनेमा एस्टैब्लिश?
क्षेत्रीय फिल्मों का भाषा के चलते क्षेत्रविशेष में सिमट जाने का खतरा नहीं होता?
बिलकुल होता है. विशेष भाषा होने के चलते फिल्म को उसी इलाके से जुड़े लोग समझ पाते हैं और वृहद दर्शक वर्ग तक फिल्म नहीं पहुंच पाती. लेकिन भोभर के साथ ऐसा नहीं है. हमारी फिल्म भले ही राजस्थानी में हो लेकिन सीन और संवाद इस तरह से लिखे हैं कि हिंदी जानने वालों को भी आसानी में समझ आ जाएं.
राजस्थानी सिनेमा पर काम जारी रहेगा?
बिलकुल जारी रहेगा. हमारी असली ताकत तो यही सिनेमा है. हमारा यहां बड़ा दर्शकवर्ग है. हमारे पास कई सब्जैक्ट हैं जिन पर चर्चा हो रही है. फिलहाल मेरी ही एक कहानी पर चाणक्य जैसा धारावाहिक और ‘पिंजर’ फिल्म बना चुके निर्देशक डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ‘जेड प्लस’ नाम की फिल्म बना रहे हैं.
फिल्मों में गीतकारों की मौजूदा स्थिति क्या है?
वक्त चाहे क्षेत्रीय फिल्मों का हो या हिंदी फिल्मों का, हर जगह गीतकारों को उन के हिस्से का हक नहीं मिल रहा है. खासकर, चालू मसाला फिल्मों के दौर में स्थिति और भी खराब है.
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