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बिकनी से तौबा

सैक्सी पूजा गुप्ता ने ‘बिकनी’ को ‘न’ कह दिया है. उन्होंने कहा कि फिल्म ‘शौर्टकट रोमियो’ के बाद वे किसी भी फिल्म में बिकनी नहीं पहनेंगी. इस से पहले ‘फालतू’, ‘गो गोआ गौन’ में भी उन्होंने बिकनी पहनी थी. वे कहती हैं कि अब वे न तो बिकनी वाली किसी स्क्रिप्ट को देखेंगी और न ही उस फिल्म में काम करेंगी. इतना ही नहीं, वे अब गोआ और मौरिशस में शूट भी नहीं करेंगी. देखना यह है कि पूजा गुप्ता अपने फैसले पर कब तक टिकी रहती हैं क्योंकि फिल्मों में काम पाने के लिए निर्देशक के निर्देश को तो मानना ही पड़ता है.

बिपाशा के प्रशंसक

निर्मातानिर्देशक विक्रम भट्ट ने थ्रीडी और ईएफऐक्स से युक्त फिल्म ‘क्रिएचर’ बनाई है, जिस में उन्होंने अपनी पसंदीदा हीरोइन बिपाशा बसु को शामिल किया है और अब वे बिपाशा की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं. वे कहते हैं, ‘‘बिपाशा बसु एक बहादुर लड़की है. वह आज जिस मुकाम पर है वहां तक अपनी अभिनय क्षमता की बदौलत पहुंची है. वह कभी किसी पुरुष कलाकार पर निर्भर नहीं रही.’’  बिपाशाजी, आप पर अभिनेता ही नहीं, निर्मातानिर्देशक भी फिदा हैं लेकिन बात तो तब बनेगी जब आप इसी तरह लगातार अपने फैंस को खुश करती रहेंगी.

सोनाक्षी की साड़ियां

इन दिनों सोनाक्षी सिन्हा की चर्चा विक्रम मोटावणे की फिल्म ‘लुटेरा’ के एक गीत ‘संवार लूं’ को ले कर हो रही है. इस गीत में दर्शक सोनाक्षी सिन्हा को 9 अलगअलग हैंडलूम की साडि़यां पहने हुए देख सकेंगे. मजेदार बात यह है कि इन साडि़यों को खुद सोनाक्षी सिन्हा ने पसंद कर के खरीदवाया. सोनाक्षीजी, आप खूब साडि़यां पहनिए आप की मरजी, दर्शक आप को साड़ी में कितना पसंद करते हैं, यह वे ही बताएंगे जब लुटेरा रिलीज होगी.

सर्जरी के मारे शाहरुख

हाल ही में मुंबई के लीलावती अस्पताल में कंधे की सर्जरी करवाने के बाद शाहरुख खान अब तक 11 बार अपने शरीर के विभिन्न अंगों की सर्जरी करवा चुके हैं. ये सर्जरी उन्हें कभी न कभी और कहीं न कहीं सैट पर ऐक्शन शौट देने के दौरान लगी चोटों के कारण करवानी पड़ी हैं. शाहरुख अब तक घुटने, कंधे, रीढ़ की हड्डी आदि कई नाजुक जगहों पर कईकई बार सर्जरी करवा चुके हैं. ऐसे में अगर कभी शाहरुख यह कह दें कि उन को अब आराम की जरूरत है तो हैरानी न होगी. लेकिन हम तो यही कहेंगे कि आप चाहे जितनी सर्जरी करवाएं मगर परदे पर बने रहें.

खुशमिजाज आलिया

महेश भट्ट की बेटी व अभिनेत्री आलिया भट्ट जब से इम्तियाज अली की फिल्म ‘हाईवे’ की शूटिंग कश्मीर के अरू वैली क्षेत्र में कर के वापस लौटी हैं तब से वे इस फिल्म को अपने कैरियर की खास फिल्म बताती नहीं थक रही हैं. वे कहती हैं कि उन्होंने कश्मीर में शूटिंग करते हुए स्वप्नलोक में पहुंचने का आनंद पा लिया. आलियाजी, आप खुश हो लें लेकिन महज कश्मीर की वादियां किसी फिल्म को हिट नहीं करातीं.

…देखती हूं मैं

अपनी आंखों से सोचती हूं मैं

और पोरों से देखती हूं मैं

जो भी हालत है मेरे अंदर की

सब से बेहतर जानती हूं मैं

 

इक अजब टूटफूट जारी है

अंदर ही अंदर मर रही हूं मैं

रातभर जागने में सोती हूं मैं

और सोते में जागती हूं मैं

 

इतनी वहशत है अपने होने से

अपनेआप से भागती हूं मैं

मेरा हो कर भी जो नहीं मेरा

दिलोजान उस पे वारती हूं मैं

 

कोई बस भी मेरा नहीं चलता

लाख इस दिल को टोकती हूं मैं

गरचे नाबीना (अंधा) ही सही ऐ गुल

दिल को आंखों से देखती हूं मैं.

-गुलनाज

बच्चों की परवरिश में न बरतें लापरवाही

बढ़ती महंगाई के चलते शहरी तो दूर देहाती इलाकों के लोग भी कमानेखाने में इतने मसरूफ हो चले हैं कि हर कोई कम से कम बच्चे पैदा कर रहा है. लोगों में परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता भी आ रही है कि इस से नुकसान तो कोई नहीं पर फायदे कई हैं.

यह बदलाव का वह दौर है जिस में गांवदेहात से बड़ी तादाद में बेहतर जिंदगी और सहूलियतों के लिए लोग शहर की तरफ भाग रहे हैं. इस भागमभाग से किसे क्या हासिल होता है, यह दीगर बात है. पर एक अच्छी बात इस में यह है कि छोटे और गरीब तबके के लोग भी बच्चों की अहमियत सम?ाते हुए उन्हें बेहतर तालीम दिलाने के लिए जीजान से कोशिश करते हैं और परवरिश पर भी खूब ध्यान देते हैं.

परेशानी उन लोगों को उठानी पड़ रही है जिन की महीने की आमदनी मात्र 5-6 हजार रुपए के आसपास है. यह तबका शहरी आबादी का तकरीबन 40 फीसदी है. गृहस्थी चलाने और बच्चे पालने के लिए मियांबीवी दोनों को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं जा कर उन का गुजारा हो पाता है. जैसेजैसे इन के बच्चे बड़े होते हैं वैसेवैसे खर्चे भी बढ़ने लगते हैं.

इन गरीब बच्चों की बदहाली कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही. इन में और अमीर बच्चों में एकलौती समानता यह है कि दोनों के मांबाप दिन में घर पर नहीं रहते. काम या नौकरी पर चले जाते हैं. अमीर तो बच्चों की देखभाल के लिए नौकर रख लेते हैं पर गरीब नहीं रख पाते. लिहाजा, उन के बच्चे प्रकृति के भरोसे पलते हैं और यह भरोसा अकसर महंगा साबित होता है जिस में बच्चों का कोई कुसूर नहीं होता.

बच्चों, खासतौर से बच्चियों की हिफाजत को ले कर देशभर में बवाल मचा हुआ है. उन के साथ अपराध बढ़ रहे हैं जिस को ले कर देशभर में जगहजगह विरोध दर्ज हो रहा है, धरनेप्रदर्शन हो रहे हैं और समाज के जागरूक लोग चिंतित भी हैं.

एक हादसा, कई सबक

किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा है कि मांबाप भी बच्चों की तरफ से इतने लापरवा हो चले हैं कि कई दफा बच्चों की जान पर बन आती है और देखनेसुनने व भुगतने वाले तक इसे एक हादसा समझ कर अहम गलती ढंक लेते हैं.

एक दुखद हादसा भोपाल के कोटरा सुल्तानाबाद इलाके की गंगानगर बस्ती की 3 बच्चियों की 25 अप्रैल को हुई मौतों का है. 7 वर्षीय शालिनी उर्फ शालू, पिता टिंकू जगत, 7 वर्षीय सुभाषिनी, पिता संन्यासी धुर्वे और 9 वर्षीय कमला, पिता किशोर नेताम अपने घर वालों के साथ नेहरूनगर इलाके गई थीं जहां एक सरकारी योजना के तहत बन रहे मकान इन्हें मिलने थे. इन के साथ इन की 2 और सहेलियां, रेशमा और निर्जला भी थीं. साथ आए लोग तो मिलने वाले घर को देख आने वाले कल के सुनहरे ख्वाबों में डूब गए कि उन्हें जल्द पक्का मकान मिल जाएगा जिस में सारी सुविधाएं होंगी पर पांचों बच्चियां खेलतेबतियाते नजदीक ही कलियासोत बांध पहुंच गईं. गंगानगर बस्ती के बाशिंदों की मानें तो ये पांचों पक्की सहेलियां थीं और एकसाथ खेलती व उठतीबैठती थीं.

बांध के पास पहुंचते ही इन पांचों की इच्छा पानी में खेलने की हुई और एकाएक ही शालिनी का पैर फिसल गया. वह डूबने लगी. चिल्लाने पर कमला उसे बचाने दौड़ी, उस ने शालिनी के बाल पकड़ उसे खींचने की कोशिश की पर खुद भी पानी में डूब गई. दोनों को डूबता देख घबराई सुहासिनी भी उन्हें बचाने पहुंची और डगमगा गई. नतीजतन, देखते ही देखते तीनों पानी में डूब कर मर गईं.

रेशमा और निर्जला ने बजाय डूबती सहेलियों को बचाने के ओर दौड़़ लगाई और लोगों को हादसे के बारे में बताया. लोग आए लेकिन जब तक तीनों बच्चियां डूब चुकी थीं. खबर आग की तरह भोपाल में फैली और गंगानगर बस्ती तो देखते ही देखते मातम में डूब गई. आलम यह था कि 3 नन्ही बच्चियों की अकाल मौत पर हर कोई रो रहा था. कमला की मां लीला सदमे में आ कर बारबार चिल्ला रही थी कि मेरे कलेजे के टुकड़े को वापस ला दो, मैं उस के बगैर जी नहीं पाऊंगी. रोतेरोते वह बेहोश हो कर गिर पड़ी. यही हाल बाकी दोनों बच्चियों की मां का भी था.

पुलिस वालों ने जैसेतैसे तीनों की लाशें बरामद कीं और उन का अंतिम संस्कार कर दिया गया. तीनों बच्चियों के मांबाप इतने गरीब थे कि उन के पास बेटियों के कफन के लिए पैसे नहीं थे. चंदा इकट्ठा कर उन का अंतिम संस्कार किया गया.

पुलिस वाले उस वक्त दिक्कत में पड़ गए जब तीनों के घर वाले पोस्टमार्टम न होने देने पर अड़ गए. बहुत सम?ानेबु?ाने और राहत मिलने का वादा किया गया तब कहीं जा कर लाशों का पोस्टमार्टम हो पाया.

हादसा बेशक दुखद है लेकिन इस में मांबाप की लापरवाही साफ दिख रही है. इन्हें मालूम था कि नेहरूनगर के पास ही गहरा कलियासोत बांध है जिस में आएदिन लोग डूब कर मर जाते हैं फिर भी उन्होंने बच्चियों पर ध्यान नहीं दिया.

बच्चों की परवरिश से ताल्लुक रखता लापरवाही का यह पहला मौका नहीं था. भोपाल समेत देशभर में आएदिन ऐसे हादसे होते रहते हैं. कहीं बच्चा करंट लगने से मर जाता है तो कहीं खेलतेखेलते गड्ढे में गिर कर मर जाता है. मौत के बाद दुखी मांबाप अपना गम भुला कर फिर कमानेखाने में लग जाते हैं पर कोई ऐसे हादसों से यह सबक नहीं सीखता कि बच्चों की हिफाजत उन का फर्ज है. किसी भी तरह की लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है.

ऐसे हादसों की बढ़ती तादाद देख जरूरी यह लगने लगा है कि मांबाप को भी इस बात का एहसास कराया जाए कि हादसों में बच्चों की मौत पर उन्हें बख्शा नहीं जाएगा.

बात कहने, सुनने, सम?ाने में कड़वी जरूर है पर है मांबाप के भले की जो बड़े अरमानों से औलादों को पालते हैं, उन के भविष्य के सपने देखते हैं और उन्हीं के लिए मेहनत से पैसा कमाते हैं. पर जब बच्चे ही नहीं रहेंगे तो इस से फायदा क्या?

बात अमीरी और गरीबी की नहीं बल्कि बच्चों की जिंदगी की है जिस की भरपाई पैसे या सरकारी इमदाद से पूरी नहीं हो सकती. बात बच्चों के जीने के हक की भी है जिस की जिम्मेदारी आखिरकार बनती तो मांबाप की ही है. लापरवाही या अनदेखी अगर यह हक छीनती है तो उस से कब तक मुंह मोड़े रखा जाएगा. पैसा एक बड़ी कमी है पर एहतियात बरतने में तो कुछ खर्च नहीं होता.

हम हैं राही कार के

इस फिल्म का टाइटल 1993 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म ‘हम हैं राही प्यार के’ से मिलताजुलता है. फिल्म के निर्माता देवेंद्र गोयल ने अपने बेटे देव गोयल को लौंच करने के लिए इस फिल्म को बनाया है. उस ने 80 के दशक में कई हिट फिल्में बनाईं मगर अफसोस, अपने बेटे को लौंच करते वक्त उस ने एकदम बेसिरपैर की फिल्म बना डाली है.कार जैसे विषय पर हाल ही में 2-3 फिल्में और?भी बनी हैं, जैसे ‘फरारी की सवारी’, ‘मेरे डैड की मारुति’ आदि मगर ‘हम हैं राही कार के’ की यह कार एकदम खटारा है और इस में बैठने वाले एकदम बौड़म. इस फिल्म में संजय दत्त, अनुपम खेर, चंकी पांडे और जूही चावला जैसे पुराने कलाकार भी हैं. फिर भी फिल्म आकर्षित नहीं कर पाती. फिल्म देखते वक्त दर्शकों का धैर्य जवाब देने लगता है.

शम्मी सूरी (देव गोयल) और प्रियंका लालवानी (अदा शर्मा) मुंबई में एक साथ रहते हैं. शम्मी सौफ्टवेयर इंजीनियर है और प्रियंका एक कौलसैंटर में काम करती है. दोनों दोस्त हैं. शम्मी की मां शम्मी को एक शादी में शामिल होेने के लिए घर बुलाती है. बौस शम्मी को छुट्टी नहीं देता मगर वह प्रियंका को साथ ले कर अपनी कार से पुणे के लिए निकल पड़ता है. 2 घंटे का सफर पूरी रात तक चलता है. इस दौरान दोनों को अजीब सी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है.  अंत में दोनों में प्यार हो जाता है. फिल्म की इस कहानी में काफी उलझाव है. चंकी पांडे की 5?भूमिकाएं हैं. एक वही ऐसा कलाकार है जो कुछ प्रभावित करता है बाकी सब बेकार हैं.

फिल्म का निर्देशन काफी घटिया है, गीतसंगीत कमजोर. इस खटारा कार के राही न ही बनें तो अच्छा है.

यमला पगला दीवाना-2

धर्मेंद्र और उस के बेटों की फिल्म ‘यमला पगला दीवाना-2’ उन की पिछली फिल्म का सीक्वल है. इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है. पूरी फिल्म मैड कौमेडी से भरी पड़ी है. सारे कलाकार पागलपंती करते नजर आते हैं. अपनी इस फिल्म के बारे में खुद धर्मेंद्र का कहना है कि यह फिल्म उन लोगों के लिए है जिन्हें पागलपन से परहेज नहीं है. अब भला ऐसी पागल बना देने वाली फिल्म देखने जाने की क्या तुक है? फिर भी अगर आप फिल्म देखने जाना चाहते हैं और इस तिगड़ी की पागलपंती को देखना चाहते हैं तो अपने दिमाग को घर पर रख कर जाएं.

पिछली फिल्म की कहानी में परमवीर (सनी देओल) अपने पिता और भाई को ढूंढ़ने कनाडा से वाराणसी आता है. जबकि इस बार वह स्कौटलैंड में है और आईपैड के जरिए अपने पिता व भाई से चैट करता है.

इस फिल्म की कहानी स्कौैटलैंड से शुरू होती है जहां सनी देओल की ऐंट्री होती है. अगले ही सीन में कैमरा बनारस के एक घाट का सीन दिखाता है जहां यमला बाबा का भेष धारण किए धरम सिंह (धर्मेंद्र) और उस के छोटे बेटे गजोधर (बौबी देओल) को लोगों को बेवकूफ बनाते हुए दिखाया जाता है. वहीं घाट पर गजोधर की मुलाकात लंदन के एक बिजनैसमैन सर योगराज खन्ना (अन्नू कपूर) की बेटी सुमन (नेहा शर्मा) से होती है. योगराज खन्ना को मालदार आसामी समझ यमला बाबा उसे चूना लगाने के बारे में सोचता है. वह भेष बदल कर खुद को ओबेराय सेठ बता कर योगराज का दिल जीत लेता है और गजोधर के साथ लंदन पहुंच जाता है. वहां वह अपने बड़े बेटे परमवीर को योगराज खन्ना के मैनेजर के रूप में देख कर चौंक जाता है. धरम सिंह सुमन की शादी गजोधर के साथ तय कर देता है लेकिन जैसे ही धरम सिंह को पता चलता है कि सुमन योगराज की सगी बेटी नहीं है बल्कि रीत (क्रिस्टीना अखीवा) उस की अपनी बेटी है तो वह गजोधर को?भेष बदल कर उसी के जुड़वां भाई के रूप में पेश करता है ताकि वह रीत की शादी उस से करा सके. अंत में झूठ का परदाफाश होता है और गजोधर को सुमन तथा परमवीर को रीत मिल जाती है.

फिल्म की इस कहानी में एक औरंगउटान भी है. इस जानवर ने दर्शकों को खूब हंसाया है और कमजोर कहानी को आगे बढ़ाया है.

पूरी फिल्म देओल तिगड़ी के कंधों पर टिकी है. धर्मेंद्र की मैड कौमेडी कुछ अच्छी है. सनी देओल ने जम कर ऐक्शन सीन दिए हैं. क्लाइमैक्स में सूमो पहलवानों से लड़ने में उस ने गजब की फुर्ती दिखाई है. अन्नू कपूर ने निराश किया है.

फिल्म की सब से बड़ी कमजोरी अनुपम खेर और जौनी लीवर हैं. एक डौन की भूमिका में अनुपम खेर जोकर ज्यादा लगा है. जौनी लीवर भी दर्शकों को हंसाने में नाकाम रहा है. पूरी फिल्म में वह चीखताचिल्लाता नजर आया है. नेहा शर्मा और क्रिस्टीना अखीवा दोनों सुंदर लगी हैं, मगर क्रिस्टीना नेहा पर भारी पड़ी है.

फिल्म का निर्देशन सामान्य है. लगता है निर्देशन में देओल तिगड़ी ने अपनी मनमानी की है. पिछली फिल्म के मुकाबले संगीत कमजोर है. टाइटल गीत ही कुछ अच्छा बन पड़ा है. फिल्म के सैट और लोकेशनें अच्छी हैं. छायांकन काफी अच्छा है.

 

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