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ढहा भाजपा का किला

भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को ले कर कांग्रेस बैकफुट पर दिख रही थी, कर्नाटक चुनाव के बाद वे मुद्दे गौण होते दिखे. वहीं, जीत का दावा ठोंकने वाले भाजपा के स्टार प्रचारक और पीएम पद के प्रबल दावेदार नरेंद्र मोदी बुरी तरह से फ्लौप हो गए हैं. ऐसे में भाजपा का राजनीतिक भविष्य कैसा होगा

राजनीति लड़ाई के किसी मैदान से कम नहीं होती है. एक भी गलत कदम जीती बाजी को पलटने की क्षमता रखता है. भाजपाइयों का नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में आगे बढ़ाने का कदम कुछ ऐसा ही है. इस से भाजपा की अगुआई वाले एनडीए गठबंधन में दरार पैदा हो गई है. खुद भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लिस्ट लंबी हो गई है. नरेंद्र मोदी के अलावा लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि के नाम समर्थकों द्वारा सुझाए जा रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के समर्थक मानते हैं कि राजनाथ सिंह ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच दूरियां पैदा कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की कुरसी हासिल कर ली थी, उसी तरह से केंद्र में वे लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी के बीच दूरियां पैदा कर के प्रधानमंत्री की कुरसी हासिल कर लेंगे.

जिस दिन से भाजपा में प्रधानमंत्री पद की दौड़ शुरू हुई है, एक के बाद एक 3 प्रदेशों से सत्ता उस के हाथों से निकल चुकी है. शह और मात के इस खेल में भाजपा के 3 मुख्यमंत्री उत्तराखंड के भुवन चंद्र खंडूरी, हिमाचल प्रदेश के प्रेम कुमार धूमल और कर्नाटक के जगदीश शेट्टार चुनावी युद्ध में परास्त हो गए हैं.

भाजपा की इस नाकामी से कांगे्रस को अपने ऊपर लगे आरोपों को धोने का मौका मिल गया कि देश में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है.

कर्नाटक चुनाव के पहले भाजपा यह दावा कर रही थी कि इस चुनाव में कांगे्रस की सचाई सामने आ जाएगी. भाजपा ने कर्नाटक चुनाव में भ्रष्टाचार को भुनाने के लिए येदियुरप्पा को हटाया. इस के बाद ताश के पत्तों की तरह पहले सदानंद गौड़ा, फिर जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाया.

इतने उलटफेर के बाद भी भाजपा को जब अपनी नाव डूबती नजर आई तो उस ने गुजरात के योद्धा और प्रधानमंत्री पद के प्रबल उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार के लिए बुलाया.

नरेंद्र मोदी का जादू यहां नहीं चला. इस से एक बात यह साबित हो गई कि नरेंद्र मोदी का असर गुजरात के बाहर नहीं है. नरेंद्र मोदी को पता था कि कर्नाटक चुनाव से उन के वजन को तौला जाएगा इसलिए उन्होंने अपनी रणनीति के तहत प्रचार के लिए 3 शहरों बेंगलुरु, मंगलौर और बेलगाम को चुना. ये कर्नाटक के वे हिस्से थे जहां भाजपा की पकड़ मजबूत थी.

बेंगलुरु शहर की पहले 28 सीटें भाजपा के पास थीं. नरेंद्र मोदी के प्रचार के बावजूद भाजपा को महज 12 सीटें ही मिलीं. इसी तरह से मंगलौर और बेलगाम में भाजपा को पहले के मुकाबले कम सीटें ही हासिल हो सकीं.

नरेंद्र मोदी कर्नाटक चुनावों से अपने कद को बढ़ाना तो चाहते थे, पर उन्होंने इस चुनाव से जुड़ी किसी जिम्मेदारी को पूरा नहीं किया. नरेंद्र मोदी भाजपा की केंद्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य थे. इस के बावजूद कर्नाटक में उम्मीदवार तय करने की पार्टी की किसी मीटिंग में वे शामिल नहीं हुए. नरेंद्र मोदी ने जो प्रचार किया, वह नाममात्र के लिए था.

मुश्किलें अभी और भी हैं

वर्ष 2013 में भाजपा के लिए मुश्किलों का दौर यहीं खत्म होता नहीं दिख रहा है. लोकसभा चुनाव के पहले इस साल के अंत तक मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने हैं. मोटे तौर पर देखें तो इन 4 राज्यों में कांगे्रस और भाजपा के बीच सीधी लड़ाई है.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के मुख्यमंत्री हैं. राजस्थान और दिल्ली में कांगे्रस की सरकार है. इन चुनावों का असर लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी तीसरी पारी खेल रहे हैं. गुजरात चुनाव के पहले भाजपा में नरेंद्र मोदी के बराबर उन का वजन तौला जा रहा था. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबी नेताओं में शिवराज सिंह चौहान का नाम लिया जाता था. इस के बाद भी भाजपा की केंद्रीय संसदीय बोर्ड में नरेंद्र मोदी को शामिल किया गया, शिवराज चौहान को किनारे कर दिया गया. भाजपा जिस तरह से नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग कर रही है उस में शिवराज सिंह चौहान की उपेक्षा हो रही है.

एक तरह से देखें तो शिवराज सिंह चौहान भी नरेंद्र मोदी की तरह 3 बार चुनाव जीत कर सरकार बना चुके हैं. चौथी बार भी वे अच्छा प्रदर्शन कर सकते थे. जिस तरह से उन की उपेक्षा पार्टी में की गई उस से उन का मनोबल टूटा है. ऐसे में मध्य प्रदेश के चुनाव परिणाम प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे.

छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार भी अच्छा काम कर रही है. वे भी लंबे समय से प्रदेश में सरकार चला रहे हैं. शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह दोनों ही बिना किसी दाग के सरकार चला रहे हैं. उन पर नरेंद्र मोदी जैसा दाग नहीं लगा है. इस के बावजूद भाजपा में इन 2 नेताओं को हाशिए पर डाल दिया गया है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा अपना जादू चलाने में सफल होगी, यह बात सवालों के घेरे में है.

दिल्ली में शीला सरकार के खिलाफ आम आदमी पार्टी के प्रचार से ऐसा लग रहा है जैसे वहां विपक्ष के रूप में भाजपा नहीं केवल आम आदमी पार्टी ही रह गई है. ऐसे में वोटों का गणित कहीं एक बार फिर शीला दीक्षित के लिए निर्णायक न बन जाए. इस से भाजपा की मुश्किलें बढ़ जाएंगी.

राजस्थान में कांगे्रस के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ कोई ऐसा बड़ा मामला नहीं है जिस से भाजपा अपने लिए कोई बड़ी उम्मीद देख सके. कुल मिला कर देखें तो इन चारों राज्यों में भाजपा को बहुत बढ़त हासिल होती नजर नहीं आ रही है. कांगे्रस इस का लाभ उठाने की पूरी कोशिश करेगी.

कर्नाटक में भाजपा की हार के 3 प्रमुख कारण थे. नेताओं में तालमेल का अभाव, केंद्रीय नेताओं का हस्तक्षेप और येदियुरप्पा विवाद. इन में से पहले 2 कारण मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और दिल्ली में भी कायम हैं. कांगे्रस ने इसी कमी को मुद्दा बनाया और चुनाव जीत लिया.

उत्साह में कांगे्रस

कर्नाटक में कांगे्रस की जीत के साथ ही पार्टी के चेहरे पर गायब मुसकान वापस आ गई. उस के नेताओं ने नारा लगाना शुरू कर दिया कि ‘कर्नाटक तो ?ांकी है पूरा देश अभी बाकी है.’

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांगे्रस अभी तक बैकफुट पर थी. कर्नाटक चुनाव के बाद पार्टी में उत्साह बढ़ गया है. अब वह नरेंद्र मोदी के मसले पर भी नए सिरे से हमले तेज करेगी.

वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘उत्तर प्रदेश और बिहार चुनाव की हार का ठीकरा जिस तरह से राहुल गांधी के सिर पर फोड़ा गया था, उस से उबरने का मौका उन को मिल गया है. अब मोदी और राहुल की तुलना में राहुल कमजोर नहीं दिखेंगे.’’

कांगे्रस नरेंद्र मोदी पर निशाना साध कर यह साबित करने की कोशिश करेगी कि स्थायी सरकार देने के लिए कांगे्रस को वोट दें. नरेंद्र मोदी के नाम पर जिस तरह से भाजपा के अंदर और उस के सहयोगियों में एकमत नहीं है उस से कांगे्रस को लाभ होता दिख रहा है.

भाजपा और कांगे्रस के बिना तीसरा मोरचा भी चुनाव के पहले कोई शक्ल लेता नहीं दिखेगा. ऐसे में यह साफ लग रहा है कि स्थायी सरकार के नाम पर जनता कांगे्रस को प्राथमिकता दे सकती है.

योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘कांगे्रस सरकार पर भ्रष्टाचार के जो आरोप लग रहे हैं उन से गांधी परिवार पूरी तरह से खुद को अलग रखने में सफल रहा है. गांधी परिवार पर आरोप लगाने के जो काम हुए वे सफल नहीं हुए. ऐसे में हो सकता है कि कांगे्रस मनमोहन सिंह को दांव पर लगा कर नई चाल चल दे. कांगे्रस पार्टी भ्रष्टाचार का ठीकरा मनमोहन सिंह की सरकार पर डाल दे और खुद को पाकसाफ साबित करने की कोशिश करे.’’

राहुल गांधी के लिए अच्छी बात यह है कि कर्नाटक में स्टार प्रचारक के रूप में उन्होंने 9 जिलों में प्रचार किया. इन जगहों पर राहुल गांधी ने 60 से ज्यादा उम्मीदवारों के लिए वोट मांगा. यहां के काफी उम्मीदवार चुनाव जीत भी गए.

उत्तर प्रदेश कांगे्रस की पूर्व अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं, ‘‘भाजपा जिस मोदी फैक्टर की दुहाई पूरे देश में दे रही थी, कर्नाटक में वह ध्वस्त हो गया है. राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने के बाद हुए पहले चुनाव में पार्टी को बड़ी जीत मिली है.’’

कर्नाटक चुनाव से कांगे्रस और भाजपा की ही तरह उत्तर प्रदेश की 2 पार्टियों बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी को भी सबक मिला है. समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार सीपी योगेश्वर चन्नापटना सीट से विजयी हुए हैं.

सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं, ‘‘कर्नाटक में सपा को सीट मिलने का यह मतलब है कि लोकसभा चुनावों में तीसरे मोरचे को वोटर पसंद करने लगे हैं.’’ बसपा सुप्रीमो मायावती के प्रचार के बाद भी बसपा कोई सीट जीतने में सफल नहीं हो पाई. कर्नाटक की कई सीटों पर दलित बड़ी संख्या में हैं. इस के बाद भी मायावती वहां पर अपना प्रभाव नहीं बना पाईं.

दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से हो कर गुजरता है, ऐसा इस राज्य में लोकसभा की सब से ज्यादा सीटें होने के चलते कहा जाता है. भाजपा के लिए दिक्कत यह है कि उस की वहां के वोटरों पर पकड़ ढीली है. इसी प्रदेश के राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष हैं, यदि उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए तो पार्टी को कुछ फायदा जरूर मिलेगा.

पार्टी का कट्टर तबका चाहता है कि हिंदुत्व के चैंपियन नरेंद्र मोदी को प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया जाए और उन की कट्टर छवि को पूरे राज्य में भुनाया जाए.

प्रदेश की मौजूदा सपा सरकार के दौर में भाजपा भावनाओं को भड़काने में सफल होगी, इस में संशय है. गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में संप्रदायवाद पर जातिवाद हावी है और सपा व बसपा इस के शातिर खिलाड़ी वहां मौजूद हैं, जबकि कांगे्र्रस सभी तबकों को साथ ले कर राजनीति करती है.

नारी शक्ति की बात करने वाली भाजपा ने सुषमा स्वराज को लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष तब बनाया जब कांगे्रस ने राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के रूप में महिलाओं को आगे कर दिया था. जब प्रधानमंत्री पद की बात आई तो लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज का नाम कहीं पर भी आगे नहीं किया गया. शिवसेना और खुद लालकृष्ण आडवाणी द्वारा तारीफ किए जाने के बाद भी सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं बनाया गया. नरेंद्र मोदी जैसे विवादास्पद नेता का नाम आगे कर के भाजपा चौतरफा मुश्किलों में घिर गई है. खुद नरेंद्र मोदी की चमक गुजरात के बाहर फीकी पड़ गई है.

कर्नाटक चुनाव ने इस पर अपनी मोहर लगा दी है. ऐसे में कब तक भाजपा प्रधानमंत्री पद की दौड़ में अपने मुख्यमंत्रियों को चुनावी समर में खेत करती रहेगी, यह लाख टके का सवाल है. प्रधानमंत्री बनाने से पहले भाजपा को ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें जीतनी होंगी, इस के लिए मुख्यमंत्रियों का सहयोग जरूरी होगा. जिस तरह से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का गुणगान कर के दूसरे मुख्यमंत्रियों की उपेक्षा की जा रही है, उस से साफ है कि भाजपा ने सबक नहीं सीखा है. भाजपा में एक नेता का न होना उस के लिए मुश्किलें खड़ी करने वाला है.

आम जनता की जीत

लोकसभा का क्वार्टर फाइनल माने जाने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जाहिर तौर पर भले ही सत्तारूढ़ भाजपा हारी और कांगे्रस पार्टी जीती लेकिन वास्तव में यह जीत राज्य के आमजन की है.

कर्नाटकवासियों का मानना है कि लोकतंत्र जीता है और भ्रष्टतंत्र हारा है. भाजपा ने अपने शासन के दौरान घोटाले पर घोटाले किए और उन पर परदा डालने के लिए वह मुख्यमंत्री बदलती रही. सरकार चलाने की उस की नीति दोषपूर्ण रही है. वह संपन्न वर्ग को बढ़ावा देती रही जबकि पिछड़े, गरीब व अल्पसंख्यकों को उस ने उचित तवज्जुह नहीं दी.

कोई और विकल्प न होने के चलते पिछड़े, गरीब व अल्पसंख्यकों ने भारी तादाद में कांगे्रस के पक्ष में मतदान किया. नतीजतन, वह बहुमत से विजयी हुई.

लोकसभा के क्वार्टर फाइनल के बाद इसी वर्ष सेमी फाइनल होना है यानी 4 राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं. इन चुनावी राज्यों में दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं. पहले 2 राज्यों में कांगे्रस की तो दूसरे 2 राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और उन चुनावों के बाद अगले वर्ष लोकसभा का फाइनल होगा यानी देशभर में आम चुनाव होंगे. कर्नाटक की यह हारजीत शायद फाइनल पर अपना असर छोड़े और तब प्रदेश से चुने जाने वाले ज्यादातर सांसद कांगे्रस के ही हों.

-साथ में अशोक कुमार

रेल घूस कांड

मामाभांजे पवन कुमार बंसल और विजय सिंगला की घोटाला ऐक्सप्रैस को घूस कांड के खुलासे ने भले ही पटरी से उतार दिया हो लेकिन इस ऐक्सप्रैस में सवार व मुनाफे में हिस्सेदार रिश्तेदारों, अफसरशाहों और हमराजों पर शिकंजा कसना बाकी है. पढि़ए घूसखोरों के इस पूरे कुनबे की पड़ताल करती रिपोर्ट.

देश के नियोजित और सब से खूबसूरत व आधुनिक शहर चंडीगढ़ की राजनीतिक आबोहवा में इन दिनों भ्रष्टाचार की गंध घुली हुई है. शहर के राजनीतिक हलकों में जबरदस्त गहमागहमी दिखाई दे रही थी. यहां से लोकसभा के लिए चुन कर भेजे गए सांसद व रेल मंत्री पवन कुमार बंसल के भविष्य पर निर्णय की घड़ी का इंतजार था. वजह थी, इस शहर के नुमाइंदे रेल मंत्री के महकमे में प्रमोशन व पोस्टिंग को ले कर खरीदफरोख्त का परदाफाश होना. बंसल के रिश्तेदार बिचौलिए की भूमिका निभाते रंगेहाथों पकड़े गए. मामले में बंसल सहित रिश्तेदारों की गरदन सीबीआई के शिकंजे में फंस गई.

10 मई को शाम के करीब साढ़े 6 बजे चंडीगढ़ प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में मुर्दनी छाई हुई थी तो सैक्टर 33 में मेन मार्केट के सामने स्थित भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय कमलम में बैठे लोगों के चेहरे खिले हुए थे. चंडीगढ़ प्रदेश भाजपा के महासचिव चंद्रशेखर समेत दूसरे पदाधिकारियोें की निगाहें मीटिंग हौल में लगे टैलीविजन सैट पर लगी हुई थीं. ये लोग एक नैशनल न्यूज चैनल पर अपने पूर्व सांसद व राष्ट्रीय लीगल सैल के प्रभारी सत्यपाल जैन को प्रतिद्वंद्वी पवन  कुमार बंसल के खिलाफ जोरदार तर्क देते हुए देख रहे थे.

रेल मंत्री का हटना अंतिम लक्ष्य नहीं

पवन बंसल को मंत्री पद से हटवा कर आप का मकसद पूरा हो गया?
यह हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं था. यह एक पड़ाव है. अब हम चाहते हैं कि सीबीआई बंसल से पूछताछ कर के कठोर कार्यवाही करे.

बंसल के खिलाफ आप जो दस्तावेज पेश कर रहे हैं, क्या उन में उन की गिरफ्तारी के पर्याप्त सुबूत हैं?
देखिए, कई बार सीबीआई सुबूत जुटाने के लिए आरोपी को गिरफ्तार करती है, कई बार सुबूत होने के बाद. यह एक प्रक्रिया है. हम चाहते थे कि पहले रेल मंत्री पद से हटें क्योंकि इस पद पर रहते जांच एजेंसी खुल कर निष्पक्ष तरीके से आरोपियों से पूछताछ नहीं करती. अब जब बंसल हट गए हैं तो सीबीआई रेल मंत्रालय के अधिकरियों और खुद बंसल से बिना किसी हिचक, भय के जबतब पूछताछ करेगी.

पवन बंसल का परिवार और रिश्तेदार उन की राजनीतिक हैसियत का फायदा उठा कर आगे बढ़े और बड़ी संपत्ति इकट्ठा करने में लगे थे?
बंसल शुरू से ही कांग्रेसी रहे हैं. वे भटिंडा के तपामंडी से चंडीगढ़ आए. उन के पिता लाला प्यारेलाल बंसल आढ़त का काम करते थे. पवन बंसल ने यहां हाईकोर्ट में वकालत शुरू की और केंद्र की राजनीति में जगह बनाई. उन के राजनीतिक रुतबे के कारण ही परिवार और रिश्तेदारों की आर्थिक उन्नति हुई है.

तभी न्यूज चैनलों पर पवन बंसल के इस्तीफे की ब्रेकिंग न्यूज चल पड़ी. माहौल और ज्यादा खुशनुमा हो गया था. एक कार्यकर्ता खुशी और जोश में चिल्ला पड़ा, ‘गए बंसल जी’. दूसरा बोला, ‘अभी मामला थोड़ा और चलने देते.’

चंडीगढ़ भाजपा के महासचिव चंद्रशेखर कहते हैं, ‘‘आज ही हम ने प्रैस कौन्फ्रैंस की है जिस में पवन बंसल के खिलाफ सुबूत दिए हैं. सीबीआई के सैक्टर 30 स्थित औफिस में जा कर दस्तावेज भी सौंपे हैं.’’

भाजपा कार्यालय से निकल कर करीब 7 बजे जब हम सैक्टर 28 ए स्थित पवन बंसल की कोठी नंबर 64 के सामने पहुंचे तो 2 पुलिस जिप्सियां, एक बड़ी गाड़ी सहित पचासों पुलिसकर्मी कोठी के आसपास तैनात थे क्योंकि 4-5 मई को विपक्षी भाजपा के नेता और पार्टी की विद्यार्थी इकाई एबीवीपी के कार्यकर्ता बंसल के घर के बाहर प्रदर्शन कर चुके थे. कोठी से 500 मीटर पहले ही कोने पर पुलिस ने बैरीकेड्स लगा रखे थे.

सड़क के दोनों ओर शानदार कोठियों के बावजूद खाकी वरदीधारियों के अलावा कोई भी आमजन नजर नहीं आया. घर के भीतर खामोशी थी. कोई हलचल नहीं. मुख्य दरवाजे के सामने आगंतुकों से मिलने के लिए बना कार्यालय बाहर से स्पष्ट दिख रहा था, पर यहां भी कोई न था. अंदर 3 लग्जरी गाडि़यां जरूर दिखाईर् दे रही थीं.

कोठी के दोनों तरफ तैनात पुलिसकर्मियों से पूछताछ करने पर पता चला कि बंसल की पत्नी और बेटे दिल्ली गए हुए हैं. फिलहाल घर पर बंसल की बहू और बच्चे ही हैं. लगभग 12 फुट लंबे और 6 फुट ऊंचे बेशकीमती लकड़ी के दरवाजे व बाहर दोनों ओर बने चौकीदार कक्ष के साथ 1 हजार वर्गगज में बनी हलके पीले रंग की शानदार कोठी में रहने वालों की समृद्घि का अंदाजा लगाया जा सकता है.

दरअसल, 3 मई को सीबीआई ने चंडीगढ़ के सैक्टर 28 ए स्थित घर और 28 सी स्थित पवन बंसल के भांजे विजय सिंगला के औफिस में छापा मारा और अगले दिन गिरफ्तार कर के उन्हें दिल्ली लाया गया तो राजनीतिक हलकों में भूचाल सा आ गया. आम लोग भी स्तब्ध रह गए.

उधर, रेल मंत्री ने साफ इनकार कर दिया कि उन का अपने भांजे से कोई लेनादेना है. विजय सिंगला पर आरोप था कि उस ने अपने मामा पवन बंसल के रेल महकमे की चौथी सब से बड़ी कुरसी के लिए 10 करोड़ रुपए में सौदा कर लिया था. विजय सिंगला रेलवे बोर्ड के सदस्य महेश कुमार को सदस्य (इलैक्ट्रिकल) बनाना चाहता था. पेशगी के तौर पर 90 लाख रुपए लेते हुए वह पकड़ा गया. बाकी पैसा उसे बाद में मिलने वाला था. मामले में सीबीआई ने बेंगलुरु के व्यवसायी मंजूनाथ, बिचौलिए संदीप गोयल समेत करीब 10 लोगों को भी धर पकड़ा.

विपक्ष भाजपा सहित अन्य दलों ने संसद में सरकार की घेराबंदी शुरू कर दी. संसद नहीं चलने दी गई. विपक्ष पहले से ही कोयला घोटाले में स्टेटस रिपोर्ट बदलने पर कानून मंत्री अश्विनी कुमार के इस्तीफे पर अड़ा हुआ था. अब रेल मंत्री पद से पवन बंसल को हटाने की मांग जोरशोर से उठने लगी. विपक्ष किसी भी तरह नहीं माना तो संसद का बजट सत्र निर्धारित समय से 2 दिन पहले ही 8 मई को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया.

पहले से ही भ्रष्टाचार को ले कर बुरी तरह घिरी मनमोहन सरकार पर आफत और बढ़ गई. मामले की तह खुलने लगी तो मंत्री और उन के रिश्तेदारों की समृद्घि का राज बाहर आने लगा.

भाजपा नेता सत्यपाल जैन ने दस्तावेज पेश किए जिस में पवन बंसल के बेटे अमित बंसल, मनीष और भतीजे राजेश व विक्रम विभिन्न कंपनियों में निदेशक के तौर पर दिखाए गए हैं.

आरोप है कि वर्ष 1991 में चंडीगढ़ से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद पवन बंसल के परिवार और रिश्तेदारों की संपत्तियां तेजी से बढ़ने लगीं. वर्ष 2005 में स्थापित बंसल परिवार की पंचकूला और हिमाचल प्रदेश के बड्डी में स्थित थियोन फार्मास्युटिकल लिमिटेड का टर्नओवर तेजी से बढ़ने लगा. इस कंपनी में पवन बंसल की पत्नी मधु बंसल, बेटे अमित व मनीष डायरैक्टर हैं. इस कंपनी का वर्ष 2008 में टर्नओवर 15.35 करोड़ रुपए का था जो वर्ष 2012 में अप्रत्याशित तौर पर 152 करोड़ रुपए पहुंच गया.

बंसल का अंधविश्वासी टोटका

रेलवे घूस कांड में बुरी तरह फंसे पवन बंसल और उन का परिवार रिश्तेदारों की भ्रष्ट करतूतों के चलते बच नहीं पाया, इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए उन के द्वारा किया गया अंधविश्वासी टोटका भी जगजाहिर हो गया.

10 मई को दिल्ली में अशोक रोड स्थित अपने सरकारी आवास में बकरे का टोटका करते हुए वे टैलीविजन चैनलों की नजरों में चढ़ गए. उन के आवास के बाहर एक सफेद बकरी लाई गई जिसे बंसल ने चारा खिलाया और पीठ पर हाथ फेरा. इस बीच पत्नी मधु बंसल ने पति पर लगी कथित बुरी नजर उतारी.

ये सब हरकतें देख टीवी चैनलों पर चर्चा गरम हो गई कि पवन बंसल ने कुरसी बचाने के लिए बकरे का टोटका किया. लेकिन यह रास नहीं आया. शाम होतेहोते सोनिया गांधी ने पवन बंसल को हटाने का अपना निर्णय सुना दिया.

यही नहीं, इसी बीच इन्होंने इवा हैल्थकेयर और आईएसआईएस पैकेजिंग कंपनी भी बना ली. पवन बंसल का परिवार ही नहीं, रिश्तेदारों ने भी इस दौरान करीब 10 कंपनियां खड़ी कर लीं. सत्यपाल जैन कहते हैं कि कम से कम 10 कंपनियां बंसल के रिश्तेदारों की हैं जिन में वे डायरैक्टर या शेयरहोल्डर हैं. 

42 वर्षीय विजय सिंगला स्वयं 8 कंपनियों में डायरैक्टर हैं. इन कंपनियों में जेटीएल इन्फ्रा लिमिटेड, जगन रीयल्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, बंसी रौनक एनर्जी ग्रुप लिमिटेड, मीराज इन्फ्रा लिमिटेड, जगन इंडस्ट्रीज, चेतन इंडस्ट्रीज प्रमुख हैं.

विजय सिंगला और परिवार मूलत: भटिंडा के हैं. उस के पिता मीठन लाल का यहां छोटा सा व्यवसाय था पर वर्ष 1991 में पवन बंसल के चंडीगढ़ से चुनाव जीतने के बाद से ही विजय सिंगला का आर्थिक उत्थान शुरू हुआ. मामा पवन बंसल की राजनीतिक सत्ता का फायदा उठा कर विजय सिंगला ने रियल एस्टेट, सीमेंट, पैकेजिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर और स्टील व्यवसाय शुरू कर दिए. इन व्यवसायों में वह लगातार आगे बढ़ता गया.

आरोप है कि विजय सिंगला ने महेश कुमार को रेलवे बोर्ड में सदस्य (इलैक्ट्रिकल) बनाने का भरोसा दिलाया था. इस के लिए बेंगलुरु के मंजूनाथ की कंपनी जीजी ट्रौनिक्स 10 करोड़ रुपए देने को तैयार थी. यह कंपनी रेलवे सिगनल प्रोडक्ट और रेलवे कंपोनैंट बनाती है. दूसरे आरोपी संदीप गोयल की कंपनी पिरामिड इलैक्ट्रौनिक्स चंडीगढ़ रेलवे के लिए इलैक्ट्रिक का सामान तैयार करती है.

मंजूनाथ महेश कुमार को इस पद पर इसलिए लाना चाहता था ताकि उस की कंपनी को रेलवे का बड़ा ठेका मिल सके.

संदीप गोयल महेश कुमार और मंजूनाथ के बीच पैसा देने का मुख्य सूत्रधार था. सीबीआई ने दिल्ली के 2 व्यापारी समीर संधीर और राहुल यादव व फरीदाबाद के सुशील डागा को भी गिरफ्तार कर लिया. सुशील डागा मंजूनाथ का सहयोगी था जिस ने 90 लाख रुपए की व्यवस्था की जिसे सिंगला को देने के लिए चंडीगढ़ पहुंचाना था.

असल में इस मामले का खुलासा रेलवे को माल सप्लाई करने वाली औद्योगिक लौबी के बीच प्रतिस्पर्धा का नतीजा है. यह लौबी अपनेअपने उम्मीदवार को आगे लाने और दूसरे को पीछे धकेलना चाहती थी. चूंकि  टैलीकौम, सिगनल के साथसाथ बिजली प्रोजैक्ट रेलवे बोर्ड के सदस्य (इलैक्ट्रिकल) के अधीन रहते हैं और इन से संबंधित निर्णय करने के अधिकार उसे प्राप्त हैं. टैंडर और प्रोजैक्टों को मंजूरी देने का फैसला लेने का अधिकार भी सदस्य (इलैक्ट्रिकल) को होता है. मालूम हो कि माल की आपूर्ति में भारी कमीशन बंधा रहता है.

रेलवे के ठेकेदारों और निर्माता लौबी को इस बात का रंज था कि एक सीनियर और क्लीन व्यक्ति रेलवे बोर्ड में उच्च पद पर नहीं पहुंच पाता. लिहाजा, इस सौदेबाजी का पता चलने पर सीबीआई को सूचना दी गई. नतीजतन, सीबीआई संबंधित लोगों के टैलीफोन को रिकौर्ड करने में लग गई. करीब 2 महीने की मशक्कत के बाद आखिर सीबीआई ने पवन बंसल के रिश्तेदारों को धर दबोचा.

खबर है कि 21 अप्रैल को विजय सिंगला ने रेल मंत्री के दिल्ली स्थित अशोक रोड आवास पर महेश कुमार की पवन बंसल से मुलाकात कराई थी. सरकारी आवास पर इस मुलाकात के बाद महेश कुमार के प्रमोशन की फाइल को पहिए लग गए और 10 दिन बाद ही उसे नई नियुक्ति मिल गई. लेकिन यह पद रेलवे बोर्ड में किसी दूसरे सदस्य (स्टाफ) का था. महेश कुमार यह पद (इलैक्ट्रिकल) चाहता था क्योंकि रेलवे में यह पद अधिक मलाईदार माना जाता है.

रेल मंत्री से रिश्ते के चलते गिरफ्तार पवन बंसल का भांजा विजय सिंगला थोड़े से समय में ही अथाह संपत्ति का मालिक बन बैठा. उस के ठाट देखने लायक हैं. सैक्टर 28 ए के 105-106 नंबर के विशाल स्विस स्टाइल बंगले पर 11 मई को सन्नाटा था. आसपास के बंगले पर नाम व नंबर लिखे थे पर विजय सिंगला  के बंगले से नाम व नंबर शायद हटा दिए गए. बंगले के अंदर बने चौकीदार के केबिन से शीशे के बाहर एक लड़का ?ांक रहा था. पूछने पर उस ने बताया कि यहां कोई नहीं है. हालांकि अंदर लंबीलंबी 3 गाडि़यां खड़ी थीं. 10-10 फुट के करीब 25 फुट के फासले पर बने 2 दरवाजों वाला यह मकान अंगरेजों के शाही महल जैसा दिखाई देता है.

सामने सैक्टर 28 सी में गुरुद्वारे के सामने विजय सिंगला के कई औफिस बने हुए हैं. औफिस छोटेछोटे हैं पर चंडीगढ़ जैसे शहर में करोड़ों की कीमत से कम नहीं हैं. ये उस के पुराने औफिस हैं. चंडीगढ़ शहर और आसपास विजय सिंगला की संपत्ति का विशाल साम्राज्य फैला हुआ है.

दोपहर 1 बजे हम इंडस्ट्रियल एरिया, फेस 1 में, जहां सिंगला का मौल बन रहा है, पहुंचे. चंडीगढ़ रोडवेज डिपो के सामने और वैस्टसाइड मौल के पीछे दोतरफा चौड़ी सड़क पर निर्माणाधीन सिंगला के अक्रोपौलिस मौल को देख कर आंखें चौंधिया गईं. करीब 4 एकड़ में बन रहे सैकड़ों दुकानें व औफिस वाले इस मौल के निर्माण का काम विजय की गिरफ्तारी के बाद भी जारी था.

अंदर काम कर रहे लोगों से पूछा गया कि क्या यह विजय सिंगला का मौल है तो कहा गया कि हमें कुछ पता नहीं है लेकिन रोडवेज निदेशक के कार्यालय के सामने लगा बोर्ड कहता है कि प्लौट नंबर 68 पर स्थित यह मौल मीराज इन्फ्रा लिमिटेड का है. प्लौट चारों तरफ से कवर किया हुआ था.

इस के अलावा विजय सिंगला की डेरा बस्सी में कुछ इकाइयां भी लगी हैं लेकिन यहां रहने वालों में किसी को पता नहीं है कि कौन सी इकाई पवन बंसल के भांजे विजय सिंगला की है. अलबत्ता, उस की कंपनी द्वारा मुख्य रोड के बाईं ओर बनाए जा रहे फ्लैट जरूर नजर आते हैं. सिंगला ने डेरा बस्सी में एक स्कूल के लिए जगह ली थी लेकिन उस पर विवाद चल रहा है.

सत्यपाल जैन कहते हैं कि ये सभी कंपनियां पवन बंसल के दिल्ली की राजनीति में अभ्युदय के बाद अस्तित्व में आई हैं. बंसल के भतीजे चेतन बंसल की कंपनी के पास रेल नीर का ठेका है जो रेलवे को रेल नीर सप्लाई करती है.

पवन बंसल वर्ष 2006 में वित्त राज्यमंत्री बने थे और उन के बेटों ने थियोन फार्मास्युटिकल कंपनी वर्ष 2005 में बनाई थी. बंसल सितंबर 2009 में संसदीय मामलात के राज्यमंत्री और फिर रेल मंत्री बने. वित्त राज्यमंत्री के कार्यकाल में उन्होंने अपने परिवार के औडिटर सुनील गुप्ता को केनरा बैंक का डायरैक्टर बना दिया. इस दौरान सुनील गुप्ता ने परिवार की कंपनियों के लिए वित्त जुटाने का काम किया.

आरोप है कि बंसल परिवार की कंपनी की आयकर रिटर्न से पता चलता है कि वर्ष 2010-2011 के वित्त वर्ष में केनरा बैंक कंपनी का एकमात्र ऋणदाता था.

प्रदेश भाजपा महासचिव चंद्रशेखर कहते हैं कि पवन बंसल से जुड़ी कंपनियों ने वार्षिक बैलेंस शीट में जिन कंपनियों से लोन लिया दर्शाया है, वास्तव में लोन देने वाली कंपनियों ने ऐसा कोई भी लोन देना अपनी बैलेंस शीट में नहीं दर्शाया. मीराज इन्फ्रा लिमिटेड जो पवन बंसल से संबधित है, ने रिद्धि इंडस्ट्रीज से 2.79 करोड़ रुपए का लोन लिया जबकि रिद्धि इंडस्ट्रीज की खुद की कुल संपत्ति ही केवल 1.1 लाख है और कंपनी ने बैलेंस शीट में 31 मार्च, 2012 को ऐसे किसी लोन को नहीं दर्शाया है.

इसी तरह मीराज इन्फ्रा ने अपनी बैलेंस शीट में मोतिया टाउनशिप लिमिटेड से 30 लाख शेयर आवेदन के तौर पर दिखाए हैं, पर मोतिया टाउनशिप लिमिटेड ने अपनी बैलेंस शीट में ऐसे किसी आवेदन को नहीं दर्शाया. मीराज इन्फ्रा ने अपनी बैलेंस शीट में बिहार ट्यूब्स लिमिटेड से शेयर आवेदन के 20 करोड़ रुपए दिखाए हैं जबकि केंद्रीय कंपनी मामलात मंत्रालय की आधिकारिक वैबसाइट पर बिहार ट्यूब्स लिमिटेड नाम से कोई कंपनी पंजीकृत ही नहीं है.

चंडीगढ़ के एक बुजुर्ग कहते हैं कि शहर में पवन बंसल की राजनीतिक जमीन को तैयार करने में यहां के स्थानीय नेताओं ने योगदान दिया. परिणामस्वरूप वे राष्ट्रीय राजनीति में अहम मुकाम हासिल कर सके. उन्हें योगदान देने वाले सभी पीछे रह गए.

वर्ष 1991 में बंसल ने पहला लोकसभा चुनाव जीता. उस के बाद 1996 और 1998 में वे लगातार 2 बार चुनाव हार गए.

गौरतलब है कि पवन बंसल के रिश्तेदारों द्वारा मंत्री की हैसियत का फायदा उठाने का मामला नया नहीं है. लगभग हर मंत्री अपने परिवार और रिश्तेदारों के लिए कुछ न कुछ जरूर करते हैं पर यह अलग बात है कि ज्यादातर मामले उजागर नहीं हो पाते. सत्ता की काली कोठरी की कालिख लगे बिना कोई नेता नहीं रह सकता.

पिछले दिनों शारदा चिटफंड घोटाले में पी चिदंबरम की पत्नी का नाम सामने आया था. इस से पहले कोल ब्लौक आवंटन में श्रीप्रकाश जायसवाल द्वारा अपने रिश्तेदार की कंपनी को कोल ब्लौक आवंटन, केंद्रीय मंत्री रहे संतोष बगडोदिया द्वारा अपने भाई की कंपनी को कोल ब्लौक आवंटन कराने जैसे मामले बाहर आते रहे हैं. शशि थरूर द्वारा आईपीएल की कोच्चि टीम अपनी पत्नी सुनंदा पुष्कर को दिलाने के मामले ने तूल पकड़ा था.

जहां रिश्ते काम नहीं आते, वहां कौर्पोरेट घराने मंत्रियों के रिश्तेदारों से रिश्ते गांठने में कामयाब हो जाते हैं. रक्षा सौदे के घोटाले में पिछले दिनों पूर्व वायुसेना अध्यक्ष एसपी त्यागी के रिश्तेदारों का नाम सामने आया था.

इस से पहले एनडीए सरकार के मुखिया अटल बिहारी वाजपेयी के दामाद रंजन भट्टाचार्य (गोद ली गई बेटी के पति) का नाम सत्ता के बिचौलिए के रूप में सामने आया था.

रेल मंत्रालय में कुरसी की खरीद मामले में पवन बंसल घाघ नेता की तरह सीधे नहीं जुड़े दिखाई पड़ते लेकिन उन के परिवार को मिल रहे फायदे दिखाई दे रहे हैं. असल में यह कमी हमारी सत्ता के सिस्टम में है. किसी व्यापारी को अपना काम कराने के लिए क्यों किसी दलाल के पास जाना पड़े? पद पाने के लिए क्यों घूस देनी पड़े?

तुलसी कुमार

पार्श्वगायिका तुलसी कुमार भले ही बौलीवुड के जानेमाने घराने से ताल्लुक रखती हों पर इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्होंने न सिर्फ कड़ा संघर्ष किया बल्कि अपने पिता गुलशन कुमार के सपनों को साकार भी कर दिखाया.

म्यूजिक कैसेट के माध्यम से संगीत को आम लोगों तक पहुंचाने की मुहिम चला कर ‘टी सीरीज’ को एक खास मुकाम पर पहुंचाने वाले गुलशन कुमार का सपना था कि उन की बेटी तुलसी कुमार गायन में नाम कमाए. पिता के सपनों को पूरा करने के लिए ही तुलसी ने सुरेश वाडेकर से संगीत की तालीम लेनी शुरू कर दी थी. आज तुलसी कुमार को इस बात की खुशी है कि उन्होंने अपने पिता के सपनों को साकार कर दिया है. इन दिनों वे फिल्म ‘आशिकी 2’ में 2 गीतों  ‘हम मर जाएंगे…’ और ‘पिया आए न…’ को ले कर चर्चा में हैं.

अपने कैरियर को किस तरह से देखती हैं?

मु?ो लगता है कि मेरा कैरियर सही दिशा की ओर अग्रसर है. इस की मुख्य वजह यह है कि मैं बहुत ही चुनिंदा काम कर रही हूं. श्रोताओं को जिस तरह के गाने पसंद आ रहे हैं उसी तरह के अर्थपूर्ण और कर्णप्रिय गीतों को गाने की कोशिश कर रही हूं. मैं ने ज्यादातर रोमांटिक गीत ही गाए हैं जिन्हें लोगों ने बहुत सराहा है.

टी सीरीज आप के घर की संगीत कंपनी है. इस के बावजूद पार्श्वगायन के क्षेत्र में आप को अपेक्षित सफलता नहीं मिली?

मु?ा में और दूसरे गायकों में बहुत बड़ा फर्क है. मु?ो खुद की मार्केटिंग करनी नहीं आती. मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देती हूं. मैं नहीं चाहती कि लोग कहें कि सिर्फ टी सीरीज के कारण तुलसी कुमार गायिका बन गई. दूसरे गायकों की तरह मैं न तो स्टेज शो करती हूं और न ही रिऐलिटी शो में हिस्सा लेती हूं.

पर आप ज्यादातर टी सीरीज की फिल्मों में ही गाती हैं?

ऐसा नहीं है. मैं ने टी सीरीज की फिल्मों के अलावा अन्य प्रोडक्शन हाउस की फिल्मों के लिए भी गीत गाए हैं. इन में ‘दबंग 2’, ‘वंस अपौन अ टाइम इन मुंबई’, ‘डैंजरस इश्क’ ‘बिट्टू बौस’ प्रमुख हैं.

रिऐलिटी शो को ले कर आप की राय क्या है?

नए गायकों के लिए यह एक अच्छा प्लेटफौर्म है. जब मैं 12 साल की थी तब रिऐलिटी शो ‘सारेगामापा’ में मेरे पापा जज बने थे. पर वह अलग दौर था. अब रिऐलिटी शो में न तो उस तरह के प्रतिभावान गायक आ रहे हैं और न ही गायकी में गुणवत्ता रह गई है.

आप को नहीं लगता कि ये टैलेंट बेस्ड रिऐलिटी शो युवापीढ़ी को भटका रहे हैं?

मैं ऐसा नहीं मानती. रिऐलिटी शो में किसी को जोड़ने से पहले औडिशन के जरिए उस की प्रतिभा का आकलन किया जाता है. जिन के अंदर प्रतिभा नहीं होती है उन्हें रिऐलिटी शो के साथ नहीं जोड़ा जाता है. ऐसे में वे अन्य क्षेत्र में कोशिश कर सकते हैं. इस में भटकाव कहां हुआ?

फिल्म ‘आशिकी’ का निर्माण आप के पिता गुलशन कुमार ने किया था. उस वक्त की कुछ यादें दिमाग में हैं?

उस वक्त मेरी उम्र 6 साल थी. पापा घर पर रिकौर्डेड गाना ले कर आते थे और हम सभी को सुना कर राय मांगते थे. उस वक्त मेरे पापा ने फिल्म के संगीत पर काफी मेहनत की थी.

गानों का चयन किस आधार पर करती हैं?

हकीकत यही है कि अभी तक मैं उस मुकाम पर नहीं पहुंची जहां मैं खुद गानों का चयन कर सकूं. फिलहाल संगीतकार मेरे पास जिन गानों के औफर ले कर आते हैं उन्हीं में से मैं कुछ बेहतर गीत चुन कर गाती हूं.

आप के म्यूजिक अलबम भी कम आते हैं?

2009 में मेरा एक अलबम ‘लव हो जाए’ आया था. उस के बाद से कोई नया अलबम नहीं आया. वैसे भी हिंदी अलबमों का बाजार अब नहीं रह गया है. लेकिन मेरे अलबम लगातार आ रहे हैं. हाल ही में मेरे तमिल व तेलुगू भाषा में अलबम आए हैं. बहुत जल्द मेरा एक पंजाबी अलबम आने वाला है.

आप को नहीं लगता कि हिंदी अलबमों का बाजार भले खत्म हो गया हो मगर पंजाबी गीतों के अलबमों का बाजार अभी भी बना हुआ है?

इस की मूल वजह यह है कि हिंदी अलबम के गीतों को कोई प्रमोट नहीं करता. टीवी चैनल या रेडियो भी उन्हीं गीतों को बजाते हैं जिन में स्टार होते हैं. इस के अलावा इंटरनैट पर डाउनलोड कर के सुनने वाले हिंदी श्रोता बाजार से अलबम खरीदना नहीं चाहते. मगर पंजाबी अलबम धड़ल्ले से बिक रहे हैं क्योंकि पंजाबी श्रोता अभी भी लौयल हैं. वे आज भी हर अलबम खरीद कर गीत सुनते हैं.

परिवार में आप का सब से बड़ा आलोचक कौन है?

मेरी मां मेरी सब से बड़ी आलोचक हैं. आज मैं जिस मुकाम पर पहुंची हूं वह मां और मेरे भैया भूषण कुमार की हौसलाअफजाई से ही संभव हो पाया है. जब मैं 13-14 साल की थी तभी मेरे पापा नहीं रहे थे. उस के बाद मु?ो मां और भैया का बहुत सहारा मिला. मेरी मां हर गीत को सुनने के बाद कहती हैं कि इस में कुछ कमी है, अभी कुछ और अच्छा हो सकता था.

आप किस गायक की फैन हैं?

लता मंगेशकर, आशा भोंसले व कविता कृष्णामूर्ति के गाने बहुत सुनती हूं. पर मैं ने कभी किसी की नकल नहीं की.

टी सीरीज के साथ संबंध होने के कारण आप किस तरह की बंदिशें महसूस करती हैं?

बंदिशें तो नहीं कह सकती लेकिन बहुत सोचसम?ा कर बोलना पड़ता है. मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूं कि मैं एक संगीतमय परिवार का हिस्सा हूं. मेरे पापा ने संगीत को जनजन तक पहुंचाने के लिए जो रणनीति अपनाई थी, उस की तारीफ लोग आज भी दिल से करते हैं.

‘गिप्पी’

‘गिप्पी’ करण जौहर की पिछली फिल्म ‘स्टुडैंट औफ द ईयर’ का एक्सटैंशन लगती है. फिल्म की कहानी निर्देशिका सोनम नायर ने ही लिखी है. गुरप्रीत कौर उर्फ गिप्पी (रिया विज) शिमला में अपनी मां पप्पी (दिव्या दत्ता) और?भाई के साथ रहती है. उस के पिता दूसरी शादी करने वाले हैं. वह मोटी है, पढ़ाई में फिसड्डी है, 9वीं कक्षा में पढ़ती है. उस का कोई ब्रौयफ्रैंड भी नहीं है. शम्मी कपूर पर फिल्माए गए गाने सुनना और उन गानों पर डांस करना उसे अच्छा लगता है. कक्षा में रोजाना उसे अपनी सहपाठी समीरा (जयती मोदी) से चुनौती मिलती रहती है. एक दिन गिप्पी की मुलाकात अपने से बड़े लड़के अर्जुन (ताहा शाह) से होती है. वह उसे अपना बौयफ्रैंड समझने लगती है लेकिन एक झटके में ही उस की यह गलतफहमी दूर हो जाती है. स्कूल में उसे समीरा से हैडगर्ल बनने की चुनौती मिलती है, जिसे वह स्वीकार कर लेती है. वह हैडगर्ल बन भी जाती है लेकिन उसे लगता है कि वह जैसी है ठीक है. वह खुल कर जीना चाहती है. इसलिए वह हैडगर्ल का खिताब समीरा को दे देती है.

फिल्म की यह कहानी एकदम सीधीसपाट है. कहीं कोई टर्न और ट्विस्ट नहीं हैं. फिल्म की गति भी काफी धीमी है. फिल्म का निर्देशन अच्छा है. फिल्म की खासीयत यही है कि निर्देशिका ने गिप्पी को शरीर से तो यंग दिखाया है, मगर उस की बातें तौरतरीके बच्चों वाले दिखाए हैं. अपने कमरे का दरवाजा बंद कर के शम्मी कपूर पर फिल्माए गए गानों पर उस का डांस करना अच्छा लगता है. लेकिन उस की संवाद अदायगी काफी कमजोर है.

निर्देशिका ने फिल्म शुरू करने से पहले रिया के घर जा कर उस के साथ एक महीना बिताया. इस से उसे रिया को समझने में मदद मिली.

समीरा के किरदार में जयती मोदी का काम भी अच्छा है. उसे एक आत्मविश्वास से भरी लड़की के रूप में दिखाया गया है, जो न सिर्फ समझदार है बल्कि उस में और?भी बहुत सी खूबियां हैं.

इस फिल्म में दर्शकों को शम्मी कपूर की फिल्मों के बहुत से गाने सुनने को मिलेंगे. फिल्म ‘जंगली’ के एक गाने पर रिया विज का स्टेज पर परफौर्म करना सुहाता है. फिल्म का छायांकन अच्छा है.

इस फिल्म को देखने के बाद मातापिताओं को अपने टीनऐजर्स बच्चों को समझने में मदद मिलेगी.

फुरकान की उड़ान

इन दिनों विदेशी धरती पर पलेबढ़े लोगों का बौलीवुड के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है. लगभग हर माह एकदो कलाकार विदेशी धरती से बौलीवुड में कदम रख रहे हैं. अब लंदन में पढ़ाई कर चुके कुवैत निवासी फुरकान मर्चेंट भी बौलीवुड से जुड़ने के लिए मुंबई पहुंच चुके हैं. और फिल्मकार राहत काजमी ने उन्हें अपनी जम्मू में फिल्माई गई फिल्म ‘आइडैंटिटी कार्ड’ में टिया बाजपेयी के साथ हीरो बना दिया है.

 

वीना का डर्टी प्रमोशन

हमेशा विवादों के जरिए सुर्खियों में रहने वाली पाकिस्तानी अभिनेत्री वीना मलिक फिर एक नया विवाद ले कर हाजिर हैं. इस बार वीना 1 मिनट में 10 कपड़े उतारने व पहनने का रिकौर्ड बनाने जा रही हैं. वीना के चुंबन का रिकौर्ड आप को याद होगा. इस बार दो कदम आगे बढ़ कर उन्होंने अपनी आने वाली फिल्म ‘द सिटी दैट नैवर स्लीप्स’ के प्रमोशन का डर्टी आइडिया निकाला है.

यह प्रमोशन गिनीज बुक औफ रिकौर्ड्स में नाम दर्ज कराने को ले कर है. वीना को शायद अपने टैलैंट पर भरोसा नहीं है, इसलिए वे फिल्मों में डर्टी नुस्खे आजमा रही हैं.

सलमान का नया प्यार

सलमान गर्लफ्रैंड बदलने के मामले में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी रखते हैं. सोमी अली, संगीता बिजलानी, जरीन खान को अब तब उन के साथ रोमांस करते देखा जा चुका है.
पिछले कुछ सालों से अटकलें लगाई जा रही थीं कि सल्लू का कैटरीना के साथ इस बार पक्का रोमांस है और जल्द ही दोनों शादी कर लेंगे. पर सलमान तो सलमान हैं, अपनी फितरत से कहां बाज आने वाले हैं. तभी तो सलमान इन दिनों एक नई लड़की आलिया के साथ डेटिंग पर हैं.

आलिया को सलमान के साथ दुबई, मुंबई समेत कई जगह देखा गया. उन के रोमांस के ट्रैक रिकौर्ड को देखते हुए ऐसा लगता तो नहीं है कि सलमान आलिया पर ही थम जाएंगे

 

दीपिका का डबल गेम

दीपिका पादुकोण की फिल्म ‘यह जवानी है दीवानी’ के ट्रेलर लौंच के दौरान दीपिका पादुकोण जिस तरह से रणबीर कपूर के साथ पेश आ रही थीं और जिस तरह से रणबीर कपूर के साथ अपनी कैमिस्ट्री की बातें कर रही थीं, उस से हर किसी को लग रहा?था कि दीपिका और रणबीर के बीच एक बार फिर निजी जीवन में रिश्ता बन गया है. मगर 2 दिन बाद मुंबई से 350 किलोमीटर दूर जब दीपिका व रणवीर सिंह के बीच रोमांस की खिचड़ी पकती है तो मामला उलटा नजर आने लगता है.

दरअसल, रणवीर सिंह फिल्म ‘रामलीला’ में दीपिका के साथ काम कर रहे हैं. शूटिंग के दौरान दोनों की नजदीकियां भी खूब दिखीं. अब इसे क्या समझा जाए?

दशरथ का धर्म राज

रामायण में वर्णित दशरथ राज अंधविश्वास, शकुनअपशकुन और विकृत भोगविलास के जिन आचरणों का पुलिंदा है, वही आचरण वर्तमान की राजनीतिक व सामाजिक दशाओं में अनुकरण की शक्ल में परिलक्षित होते दिख रहे हैं. उस दौर के पाखंडी राज को वर्तमान विसंगतियों की कसौटी पर बेबाकी से तौल रहे हैं

रामायण में वर्णित राज की सदियों से प्रशंसा करते हुए हम नहीं थकते, वस्तुत: उस के न्याय और प्रशासन की स्पष्ट और खुल कर अंदर तक चर्चा की जानी चाहिए कि आखिर कैसा था वह राज और कहीं आज का निरंकुश, भ्रष्ट, अविवेकी, भेदभावपूर्ण व निकम्मा राज उसी की प्रेरणा से तो नहीं चल रहा.
शुरुआत युवा राजा दशरथ से करते हैं. राजा शिकार खेलने जाता है. उस के तीर से वृद्ध, अंधे और असहाय मातापिता का अकेला पुत्र श्रवण कुमार मारा जाता है. वृद्ध बेचारे राजा को श्राप दे कर अपने प्राण त्याग देते हैं और राजा शांतिपूर्वक अपने महल में लौट आता है. राजा तीनों की हत्या का दोषी है पर उस को कोई मलाल नहीं, जैसे आज के शासकों को  हजारों की दंगों, दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों पर नहीं होता. वृद्ध बेचारे राजा को श्राप देने के अलावा कर ही क्या सकते थे? लेकिन राजा ने क्या इस का प्रायश्चित्त किया?

कहते हैं पुराने समय में अपने छोटे से छोटे अपराध का प्रायश्चित्त करने के लिए राजा अपनेआप को विभिन्न प्रकार से दंड देते थे. यहां तक कि वे अपने पुत्र या मंत्री को राजभार सौंप कर वन में चले जाते थे. आज भी कितने ही देशों में इस तरह की परंपरा है जब राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बड़ी गलती कर त्यागपत्र दे देते हैं.

1960 के दशक में लाल बहादुर शास्त्री रेलमंत्री थे. एक रेल दुर्घटना का दोषी स्वयं को मानते हुए उन्होंने रेलमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया लेकिन अब स्थिति विचित्र है. शायद इसलिए कि अब रामायण युग वापस आ गया है.

उस युग में जब यही राजा दशरथ वृद्धावस्था की ओर तेजी से बढ़ रहे थे और उन्हें एक बहुत ही सुंदर नवयौवना, सर्वगुण संपन्न राजकुमारी कैकेयी के बारे में जानकारी मिली तो उस से विवाह करने के लिए उन्होंने उस के पिता के सामने प्रस्ताव रख दिया. दशरथ की तरह ही कुछकुछ आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे नारायण दत्त तिवारी ने वर्तमान दौर में किया.

राजकुमारी कैकेयी के पिता भानुमान और दशरथ दोनों ही विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य के शासक थे और दोनों ही कूटनीति में पारंगत थे.

कैकेयी के पिता ने पहले ही प्रस्ताव रख दिया कि राजकुमारी से उत्पन्न पुत्र ही अयोध्या राज्य का उत्तराधिकारी होगा. दशरथ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.

कैकेयी का पिता जानता था कि राजा दशरथ वृद्ध है. इस की पहले से ही 2 रानियां हैं और दोनों से ही कोई संतान नहीं है अगर राजकुमारी से संतान होती है तो उस नाबालिग राजकुमार के राज्य का संपूर्ण राज्य कैकेय देश का हो जाएगा और अगर राजकुमारी से संतान नहीं होती है तो भी दशरथ के मरने के बाद संपूर्ण आर्यावर्त पर महाराज भानुमान या उन के पुत्र युधाजीत (कैकेयी के भाई) का एकछत्र राज्य होगा.

दूसरी तरफ दशरथ का भी विचार था कि शक्तिशाली साम्राज्य की पुत्री से विवाह कर के उन का राज्य सुरक्षित बना रहेगा.

दशरथ अपने विवाह के उद्देश्य में सफल हो गए लेकिन एक बड़ी समस्या पैदा हो गई.

राजा दशरथ वृद्ध हो चुके थे और उन के कोई संतान नहीं थी. उस समय संतान विभिन्न उपायों के द्वारा प्राप्त की जाती थी. संतान पैदा करने में असमर्थ व्यक्ति ऋषियों के द्वारा संतान पैदा करवा सकते थे जिसे ‘नियोग’ पद्धति कहते थे. लेकिन ऐसी संतान पिता के नाम से ही जानी जाती थी. वसिष्ठ के द्वारा सूर्यवंशियों की कई रानियों को पुत्र की प्राप्ति हुई. कुछ लोगों ने वीर्य दान को ही अपना पेशा बना लिया था, जिस में दीर्घतपा ऋषि प्रसिद्ध थे.

जैसा कि कहा जा चुका है कि राजा दशरथ वृद्ध हो चुके थे. इसलिए संतान प्राप्त करने के लिए या पुत्र प्राप्ति हेतु उन्होंने यज्ञ करवाने का आयोजन किया. ऋष्यशृंग नामक ऋषि को यज्ञ कराने का काम सौंपा गया.

ये ऐसे ऋषि थे जो जंगल में तपस्या करते थे और जिन्हें स्त्री के शरीर तक का ज्ञान न था क्योंकि इन्होंने स्त्री को कभी देखा ही नहीं था. ऐसे ऋषि को फंसाने के लिए वेश्याओं का सहारा लिया गया और इस ऋषिकुमार को पिता की अनुपस्थिति में बहलाफुसला कर वेश्याओं द्वारा नगर में लाया गया. यहां इस नौजवान ऋषि को स्त्री संसर्ग के लिए तैयार किया गया.

ऋषि के द्वारा ‘पुत्रेष्टियज्ञ’ किया गया. यह ‘पुत्रेष्टियज्ञ’ वास्तव में ‘नियोग’ था जिस से तीनों रानियों के 4 पुत्र हुए.

अब कैकेयी और राजा दशरथ की शतरंज की चाल शुरू हो गई. दोनों ही अपनेअपने प्रिय पुत्रों को राजगद्दी देने के सपने देखने लगे. संयोगवश कैकेयी का भाई युधाजीत भरत और शत्रुघ्न को अपने देश ले गया. दशरथ को एक सुंदर अवसर मिल गया और उन्होंने राम को राजा बनाने की घोषणा कर दी. कैकेयी की दासी मंथरा ने सारी स्थिति से कैकेयी को अवगत करा दिया.कैकेयी ने राजा दशरथ को अपने महल में बुलाया और तरहतरह के हावभाव और शृंगार से अपने रूप के मोह में फंसाते हुए अपने प्रस्ताव को उन के सामने रखने का विचार किया.

राजा दशरथ भी बहुत चतुर थे लेकिन अंदर से वे इतनी बुरी तरह डर गए थे जैसे शेरनी को देख कर बूढ़ा हाथी भयभीत हो जाता है. दोनों में काफी प्रेमालाप हुआ और कैकेयी ने दशरथ से अपने दोनों वचनों को पूरा करने को कहा. दशरथ अपने प्रिय पुत्र राम की शपथ खाते हुए तुरंत दोनों वचनों को पूरा करने के लिए तैयार हो गए. लेकिन जब कैकेयी ने भरत को राजगद्दी और राम को 14 वर्ष के वनवास की बात कही तब यह सुन कर राजा के होश उड़ गए और काफी कठोर वार्त्तालाप के बाद राजा ने राम को बुला कर यहां तक कह दिया कि हे राम, तू मु?ो बंदी बना कर जेल में डाल दे और स्वयं गद्दी पर बैठ जा जिस से मेरा वचन भी भंग नहीं होगा और तु?ो राजगद्दी भी प्राप्त हो जाएगी.लेकिन राम कैकेयी की शक्ति और अपने पिता की मजबूरी दोनों को जानता था, इसलिए उन्होंने वन जाना स्वीकार कर लिया.

स्थिति ऐसी थी कि राम या भरत दोनों में से जो भी राजगद्दी पर बैठता उसे प्रजा के विद्रोह का सामना करना पड़ता क्योंकि प्रजा अभी तक राजा द्वारा दिए गए वचनों से अनभिज्ञ थी.

परिणाम यह हुआ कि राम को सीता और लक्ष्मण के साथ वन जाना पड़ा और फिर कुछ समय बाद पुत्र वियोग में दशरथ की तड़पतड़प कर मृत्यु हो गई. राजा दशरथ का यह कैसा धर्म राज था?

राजा दशरथ द्वारा बुढ़ापे में युवतियों से शादी का नतीजा यह हुआ कि आगे चल कर बूढ़े राजा कम उम्र की युवतियों से शादी करने लगे. उन में वृद्ध राजा ययाति का किस्सा मशहूर है.

ययाति की पहले से कई रानियां थीं. एक दिन वे शिकार खेलने जंगल में गए. एक अप्सरा पर वे मोहित हो गए और उस के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया. राजा का प्रस्ताव भला कौन ठुकराता, भले ही वह वृद्ध हो.

वह जरा चंचल और तीखे स्वभाव की थी. महल में आने के कुछ ही दिन बाद उस ने सीधेसीधे शब्दों में राजा से कहा, ‘‘मु?ो तुम्हारे ऐश्वर्य से क्या लेनादेना, तुम किसी भी हालत में मेरी शारीरिक वासना की पूर्ति करो.’’

राजा बुरी तरह बेचैन रहने लगा. उस ने अपनी हैसियत का ध्यान रखते हुए अपने पुत्रों को मातृगामी होने का आदेश दिया. सभी पुत्रों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया पर एक पुत्र तैयार हो गया. नतीजा यह हुआ कि राजा ने आत्मग्लानि से तुंगभद्रा नदी के किनारे जा कर अन्नजल त्याग दिया और अपने प्राण दे दिए.

हालांकि कहा यह गया कि बूढ़े ययाति ने अपने पुत्रों से जवानी उधार ली. वाह, क्या कमाल था. मैडिकल विज्ञान में क्या ऐसा संभव है कि किसी बूढ़े को किसी युवक की जवानी ट्रांसप्लांट कर दी जाए?

असल में यह ढोंग था. वास्तव में ययाति का जवान पुत्र पिता द्वारा लाई गई युवा पत्नी की जिस्मानी जरूरतें पूरी करने लगा था, जो वृद्ध राजा के वश में नहीं था. क्या राजा की करतूतें लंपटों जैसी नहीं थीं?

इस तरह दशरथ के पदचिह्नों पर चल कर वृद्धावस्था में युवा लड़की से शादी का दुष्परिणाम ययाति को भुगतना पड़ा. फर्क इतना था कि वृद्ध दशरथ को राज्य का उत्तराधिकारी चाहिए था. उस समय सामाजिक दशा और विशेषकर स्त्रियों की दशा बहुत दयनीय थी. विवाह के समय उसे ‘दत्ता’ शब्द से संबोधित किया जाता था अर्थात उसे यह शपथ लेनी पड़ती थी कि वह तनमन हर प्रकार से पति की आज्ञा का पालन करेगी. देखिए-

पतिर्ब्रह्मा, पतिर्विष्णु: पतिर्देवो महेश्वर.

पतिश्च निर्गुणाधार: ब्रह्मरूपो         नमोस्तुते…

क्षमस्य भगवन् दोषा: ज्ञानाज्ञानं

कृतम् चयत्…

पत्नी बंधो दयासिंधो,

दासी दोषं क्षमस्व      च…

अर्थात ऐसी महिमा वाले आप पूज्य हैं, हे पत्नी के एकमात्र बांधव, दया सागर, इस दासी से जाने या अनजाने में जो भी अपराध हो गए हों उन्हें आप क्षमा कीजिए.

इस प्रकार स्त्रियों के मन में इस बात को अच्छी तरह बिठा दिया गया कि पति ही सर्वस्व है.

एक बात और देखिए कि सर्वगुण संपन्न पति, मर जाए तो स्त्री उस की संपत्ति पर अधिकार न कर ले, उसे नया रास्ता दिखा कर सती होने के लिए विवश कर दिया गया.

जरा सती का प्रभाव तो देखिए,

तपनस्तायते नूनं दहनोऽपि च दहते

कंपंते सर्वतेजासि दृष्टा पतिव्रंत मह:

यावत्स्वलोमसंख्यास्ति

तावत्कोश्ययुतानि च

भर्ता स्वर्गसुखं भुंडकते रमणमाणा

पतिव्रता.

अर्थात पतिव्रता के तेज को देख कर सूर्य तपने लगता है. दूसरे को जलाने वाले अग्नि देव स्वयं जलने लगते हैं और त्रिभुवन के संपूर्ण तेज सती के सत के प्रभाव से कांपने लगते हैं. उस के शरीर में जितने रोम (बाल) हैं उतने करोड़ वर्षों तक वह स्त्री स्वर्ग में पति के साथ रमण (विहार) करती हुई सुखों का उपभोग करती है.

अब भला इस लौलीपौप को कौन स्त्री लेना पसंद नहीं करेगी. अगर ईश्वर मरने के बाद खरबों वर्ष तक स्त्री को पति सुख दे सकता है तो क्या वह पति को मरने से नहीं रोक सकता? यह कैसा निकम्मा ईश्वर है और क्यों जनता उस पर पागल है?

लेकिन पति का पत्नी के साथ सती होना बिलकुल असंभव था क्योंकि (जैसा प्रमाण दिया गया है) पति की भोग प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है और इसीलिए उसे पत्नी में परमेश्वर के दर्शन नहीं मिलते. सो, विकृत अभिलाषा होने के कारण पति नरकगामी हो सकता है, इसलिए पति का पत्नी के साथ सती होना पूरी तरह निषेध है. चाणक्य कहता है कि स्त्री में भोग प्रवृत्ति पुरुष से चारगुना अधिक होती है.

कितना सरल वह बहानेबाजी का प्रमाण प्रस्तुत किया गया.

स्त्रियों के मन में पतिधर्म और सती होने के संस्कार मजबूती से डालने के लिए उस की बचपन में ही शादी कर दी जाती थी.

सीता का विवाह 6 वर्ष की उम्र में कर दिया गया. सीताहरण के समय सीता अपना परिचय देती हुई रावण से कहती है-

उषित्वा द्वादषसभा इक्ष्वाकुनाम विवषने.

अष्टादश वर्षाणि मम जन्मनि गणव्यते.

अर्थात मैं ने अपने ससुर के राज्य में

12 वर्ष तक सभी भोगों का उपभोग किया. विवाह के समय मेरी अवस्था 6 वर्ष की थी.

इसी प्रकार रामायण में अनेक बालविवाह के उदाहरण दिए गए हैं. इस के लिए सफाई दी गई है कि मासिक धर्म के बाद स्त्री परपुरुष की कामना करती है इसलिए बालिकाओं के गलत रास्ते पर जाने का भय बना रहता है. बाल विवाह ही सरल उपाय है. यह कुरीति आज तक कायम है.

क्या 50-60 वर्ष तक के स्त्रीपुरुष सैक्स की इच्छा नहीं रखते?

रामायण काल में अधिकतर लड़कियां घर के अंदर ही रहती थीं क्योंकि रामायण में लिखा है कि जिस सीता को आकाश में विचरण करने वाले प्राणी भी नहीं देख सकते थे उसे सड़क पर खड़े हुए साधारण मनुष्य देख रहे हैं. (3/38/8)

लेकिन ब्राह्मणों व सैनिकों को स्त्री दर्शन लाभ हो जाए, उस के लिए रामायण में युद्ध कांड में कहा गया है कि यज्ञों में, स्वयंवरों में और युद्ध के समय स्त्रियों को देखना पाप नहीं है. (6/114/28)

दशरथ के युग में रामायण के ही अनुसार, पत्नी को छोड़ कर भाग जाने की भी प्रथा थी.

गौतम ऋषि के आश्रम में इंद्र गौतम ऋषि के वेश में उन की पत्नी अहल्या के पास आया. गौतम अत्यधिक क्रोधित हो कर अपने शिष्यों के साथ पत्नी को छोड़ कर चले जाते हैं और बेचारी अहल्या उस बंजर और निर्जन वन में अकेली रह जाती है.

रामायण काल में कन्या का मूल्य ले कर भी कन्यादान की प्रथा थी. गाधि (विश्वामित्र के पिता) ने एक हजार श्यामवर्ण घोड़े ले कर ऋचीक ऋषि जमदग्नि के पिता को अपनी कन्या दे दी थी.

पुत्री को भी दासदासियों के साथ में दान कर दिया जाता था. दशरथ ने पुत्र यज्ञ कराने वाले ऋष्यशृंग ऋषि को अपनी कन्या शांता दान में दे दी थी.

लड़कियों के स्वयंवर में खुद पति चुनने की आजादी थी पर, स्वयंवर स्वयं-वर नहीं थे. राजा कोई शर्त रख देता था और शर्त को पूरा करने वाले को अपनी कन्या दे देता था, जैसे राम को धनुष भंग करने पर सीता प्राप्त हुई थी. स्त्रियों के पास कोई भी पिता या पति का कुलगोत्र नहीं था और न ही उन का पिता या पति की संपत्ति पर अधिकार था.

राजा दशरथ के इस प्रकार के शासन को क्या कहना चाहेंगे? अंधविश्वास, शकुन- अपशकुन, तंत्रमंत्र और विकृत भोग विलास का युग? क्या वह आज के नेताओं के आचरण के ही जैसा न था? सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, गोपाल कांडा, नारायण दत्त तिवारी, बंगारू लक्ष्मण आदि जनविरोधी काम करते हैं तो क्या कह नहीं सकते कि वे तो रामायण का अनुसरण कर रहे हैं.

संपूर्ण वाल्मीकि रामायण को उठा कर देखें तो हमें अंधविश्वासों का तथा शकुनअपशकुन का पूरा युग ही दिखाई देता है. छोटे से छोटे कार्य के लिए व्यक्ति शकुनअपशकुन देखता था.

पंडेपुरोहित आम जनता को ही नहीं, राजाओं को भी अपने स्वार्थ के लिए मूर्ख बनाते थे. वाल्मीकि रामायण में लिखा है-

‘इस के पश्चात रात बीत गई. प्रात:काल हुआ व सूर्य का उदय हुआ. पुष्य नक्षत्र वाला राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त्त आ गया. तब अपने शिष्यों से घिरे हुए वसिष्ठ ने राज्याभिषेक का सामान ले कर अयोध्यापुरी में प्रवेश किया. अयोध्या के मार्ग सींचने के बाद साफ कर दिए गए थे. नगरी उत्तम पताकाओं से विभूषित थी. जगहजगह विचित्र फूल बिखरे हुए थे व भांतिभांति की मालाएं शोभा बढ़ा रही थीं. अयोध्या प्रसन्न मनुष्यों से युक्त, समृद्ध दुकानों व बाजारों वाली, महान उत्सव के कारण भीड़ से भरी हुई व राम के राज्याभिषेक के लिए भलीभांति उत्सुक थी.’ (अयोध्याकांड, 14वां सर्ग-25-28)

यानी राजा दशरथ ने अपने राजपुरोहितों, वसिष्ठ आदि से शुभ ग्रहनक्षत्र देख कर राम के राज्याभिषेक का शुभ मुहूर्त निकलवाया. फिर भी राम को राज्याभिषेक की जगह वनवास मिला. मतलब राजपुरोहित राजामहाराजाओं और आम जनता को शुभ मुहूर्त, भविष्य के नाम पर सब्जबाग दिखा कर केवल अपना स्वार्थ साधते रहते थे.

रावण और मेघनाद तंत्रशास्त्र के अपने समय के सब से बड़े ज्ञाता माने गए थे. रावण का लिखा हुआ लंकेशतंत्र अब तक मौजूद है जिस से पता चलता है कि उस समय तंत्रमंत्र का भयंकर बोलबाला था. वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में स्थानस्थान पर तंत्रमंत्र का विशेष रूप से वर्णन किया गया है. मेघनाद काले हिरण की बलि यज्ञ में चढ़ाता है. लेकिन अंत में कोई भी तंत्रमंत्र काम न आया और रावण सभी वीरों के साथ मृत्यु को प्राप्त हुआ. रावण के ध्वज का निशान भी मनुष्य का कपाल था जो तंत्रशास्त्र का प्रतीक है.

उस युग में वर्णव्यवस्था व ऊंचनीच का बोलबाला था. राम ने अयोध्या से निकल कर सब से पहले आदिवासी जातियों से संपर्क करना शुरू कर दिया. राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ अयोध्या से जनकपुर तक की यात्रा पहले भी कर चुके थे.

अयोध्या के क्षत्रिय ब्राह्मणों के और वैश्य क्षत्रियों के अनुयायी थे. वहां के शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णों की सेवा करते हुए अपने धर्म के पालन में संलग्न थे.

(वा. रा. बाल. 6 सर्ग-19)

यानी दशरथ के राज में वर्णव्यवस्था को ले कर भेदभाव चरम पर था. क्षत्रिय ब्राह्मणों का हर हुक्म मानते थे. यहां तक कि क्षत्रिय राजा खुद दशरथ भी पुरोहितों के गुलाम थे. उन के कहे बिना कोई भी काम नहीं करते थे. कहना न होगा कि ऐसे में श्ूद्रों की दशा तो बहुत गईगुजरी थी. जाति से बाहर रहने वाले आदिवासियों और अछूतों के बारे में तो न के बराबर लिखा गया है.

सरबजीत सिंह

पाकिस्तानी सीमा में अवैध प्रवेश से शुरू हुआ सरबजीत का सफर यातना भरी सजा, माफी की गुहार और भारत व पाकिस्तान के अस्पष्ट रवैए के उलझे गलियारों से गुजरता हुआ दर्दनाक मौत पर खत्म हुआ. पर क्या यह मौत सच में शहादत थी?

‘‘वह अपने देश जिंदा वापस नहीं लौट सका.’’ भारतीय रक्षा क्षेत्र में बसे एक गांव वाह तारा सिंह में रहने वाले 70 वर्षीय हट्टेकट्टे सरदार गुरदीप सिंह ने 23 साल पहले घटी इस घटना को कुछ इसी तरह बयां किया. गुरदीप सरबजीत के उन खास दोस्तों में हैं जिन के साथ सरबजीत का अधिकांश समय गुजरता था.

अमृतसर से लगभग 40 किलोमीटर दूर स्थित जिला तरनतारन के भिखीविंड गांव का निवासी 24 वर्षीय सरबजीत एक खूबसूरत और हट्टाकट्टा नौजवान था. उस के परिवार में उस के पिता, पत्नी सुखप्रीत कौर, 2 बेटियां स्वप्नदीप कौर व पूनम के अलावा उस की बड़ी बहन दलबीर कौर थी जबकि मां का देहांत हो चुका था. बाद में बेटे के सदमे में पिता की भी मौत हो गई.

जब वह पाकिस्तान सीमा पर नशे की हालत में पकड़ा गया उस समय उस की बड़ी बेटी स्वप्नदीप 3 वर्ष की और छोटी बेटी पूनम 23 दिन की थी. पकड़े जाने के बाद सरबजीत को शुरुआती दिनों में इस बात का पूरा यकीन था कि उसे सरहद पार करने की बड़ी सजा नहीं मिलेगी और वह जल्दी ही छूट कर अपने घर वापस आ जाएगा. लेकिन पाकिस्तान में सरबजीत पर भारतीय जासूस होने का आरोप लगा कर मुकदमा चलाया गया और उस के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया गया.

उसे वर्ष 1990 में फैसलाबाद व लाहौर में हुए सीरियल बम धमाकों का आरोपी मंजीत सिंह बता कर 14 लोगों की मौत का जिम्मेदार ठहराया गया. सरबजीत खुद को निर्दोष बताता रहा लेकिन पुलिस ने उस की एक  नहीं सुनी.

वर्ष 1991 में सरबजीत को फांसी की सजा सुनाई गई. पिछले 23 सालों से वह लाहौर की कोट लखपत जेल में सजा काट रहा था. इस बीच सरबजीत की रिहाई के लिए दाखिल की गई हर दया याचिका को खारिज कर दिया गया. 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी उस की दया याचिका ठुकरा दी. सरबजीत की रिहाई के लिए भारत पाकिस्तान से बात करता रहा.

इस बीच भारत सहित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की सहानुभूति भी सरबजीत के साथ जुड़ चुकी थी. वर्ष 2008 में पाकिस्तान सरकार ने सरबजीत की फांसी पर अनिश्चितकालीन रोक लगा दी थी. शायद इसलिए कि वह जानती थी कि मामला ?ाठा और नकली है.

सरबजीत की रिहाई के लिए उस के परिवार समेत, भारत सरकार व भारतपाक के कई मानवाधिकार संगठन लगातार प्रयास कर रहे थे लेकिन वह रिहा नहीं किया गया. 26 अप्रैल, 2013 को सरबजीत के साथ जेल में सजा काट रहे कैदियों में से 2 कैदियों अमीर आफताब व मुदस्सर ने किसी बात पर कहासुनी के बाद सरबजीत पर ईंट व ब्लेड से जानलेवा हमला कर दिया. इस हमले में सरबजीत के सिर पर गंभीर चोटें आईं और वह कोमा में चला गया. 2 मई को लाहौर के जिन्ना अस्पताल में सरबजीत ने दम तोड़ दिया.

उस के शव को तिरंगे में लपेट कर विशेष भारतीय विमान से स्वदेश लाया गया. पंजाब सरकार द्वारा उस के पैतृक  गांव भिखीविंड में पूरे राजकीय सम्मान के साथ उस का अंतिम संस्कार किया गया और 3 दिन के राजकीय शोक की घोषणा क ी गई. पंजाब सरकार ने उस के परिवार को 1 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद देने व उस की दोनों बेटियों को सरकारी नौकरियां देने का वादा किया.

अपने वादे के मुताबिक 11 मई को पंजाब सरकार ने सरबजीत के परिवार को 1 करोड़ रुपए की राशि का चैक भी दे दिया और बड़ी बेटी को नायब तहसीलदार और छोटी बेटी को टीचर की नौकरी देने की भी घोषणा की गई. प्रधानमंत्री राहत कोष से उस के परिवार को 25 लाख रुपए की मदद देने की घोषणा की गई. गांव में सरबजीत के नाम पर एक सरकारी अस्पताल बनाए जाने पर विचार चल रहा है. राजनीतिक दल लोगों की इन भावनाओं को अपनेअपने पक्ष में भुनाने के प्रयास में सरबजीत को ले कर एक से बढ़ कर एक बयान दे रहे हैं. सत्ता व विपक्ष में बैठी सरकार में इस मुद्दे पर श्रेय लेने की होड़ सी दिखी.

पाकिस्तान पुलिस की बर्बरता

2  मई को एक भारतीय नागरिक सरबजीत की अर्थी भारत की सीमा में लाई गई

 तो 10 मई को एक पाकिस्तानी बाशिंदे सनाउल्लाह का जनाजा पाकिस्तान भेजा गया. सरबजीत पाक जेल में और सनाउल्लाह भारत की जेल में सजा काट रहे थे. दोनों देशों की जेल अधिकारियों की मौजूदगी में उन पर जानलेवा हमले कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया.

दरअसल, हर देश की जेलों में कैदियों के साथ पुलिस व कैदियों द्वारा अमानवीय व्यवहार होते हैं जैसा सरबजीत व सनाउल्लाह के साथ हुआ. हमारे देश में भी ऐसा है. यदि सरबजीत नशीली दवाओं की तस्करी में पकड़ा गया था या गलती से भटक कर पाकिस्तान पहुंच गया था या जासूस था तो उसे अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए थी और उस के बाद उसे रिहा कर देना चाहिए था.

लेकिन पाक पुलिस 23 साल तक उस के साथ बर्बर व्यवहार करती रही. उसे मानसिक व शारीरिक यातनाएं दी गईं. बहन दलबीर बताती हैं कि सरबजीत उन्हें अपनी आपबीती सुनाता था कि किस तरह पुलिस उलटा लटका कर उस के तलवों को डंडों से पीटा करती थी और उसे अधमरी हालत में यों ही लटका हुआ मरने के लिए छोड़ जाते थे. उसे सर्दियों में कंबल नहीं दिया जाता था. कभी सिर में लगाने को तेल नहीं देते थे, साबुन नहीं देते थे. सूखा खाना देते थे जो गले के नीचे नहीं उतरता था.

सरबजीत की बेटी स्वप्नदीप ने बताया कि जब वह वर्ष 2008 में अपने पिता से मिलने गई तो जेल अधिकारियों का रवैया सरबजीत व उन के प्रति अच्छा था. जेल अधिकारियों ने खुद उन्हें बताया था कि सरबजीत अच्छा इंसान है और वे चाहते हैं कि वह जल्द ही छूट कर अपने देश वापस चला जाए. सरबजीत की पत्नी सुखप्रीत के अनुसार, वे जो कुछ सामान भी सरबजीत के लिए भेजतीं अथवा ले कर जातीं, सरबजीत सब को बांट देता था. जेल में वह सब की मदद करता था. जेल के लोग मानते थे कि वह एक अच्छा कारीगर है जो हर काम कर लेता है. सरबजीत के वकील औवेस शेख कहते हैं,‘‘सरबजीत सिंह एक नेक इंसान था. वह बहुत शांत और अच्छे व्यवहारेशा तैयार रहता था.’’

लुधियाना के पुरुषोत्तम सिंह का कहना है कि वर्ष 1973 में वे जासूस के तौर पर सेना में भरती हुए थे. वर्ष 1974 में भिखीविंड कालड़ा छीना पोस्ट से वतन लौटते समय पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. उन्हें कोट लखपत जेल में रखा गया. वर्ष 1986 को उन्हें रिहा कर दिया गया. करीब 12 सालों तक जेल में अनेक यातनाएं सहने वाले पुरुषोत्तम कहते हैं, ‘‘मु?ो वहां अंधेरी कोठरी में रखा जाता था, जहां दिनभर सिर्फ गालियां और 2 रोटियां मिलती थीं.’’

गुरदासपुर के ही कस्बा भैणी मियां खां केगोपाल दास वहां की जेलों में 27 साल कैदी रहे. वर्ष 2011 में रिहा हो कर वे भारत लौटे हैं. वे बताते हैं, ‘‘पाक जेलों में कैदियों के साथ इतना बुरा बरताव किया जाता है कि वे पागल हो जाते हैं.’’

अपना देश हो या विश्व के देश, सभी जेलों में कैदियों के साथ इसी तरह के अमानवीय व्यवहार किए जाते हैं, जिन की घोर निंदा होनी चाहिए.

इधर देशवासी सरबजीत की मौत पर आंसू बहा रहे हैं कि सरबजीत जंग जीत कर चला गया, शहीद हो गया. उस ने पाकिस्तान में एक भारतीय नागरिक होने की सजा भुगती. उस की 60 वर्षीय बहन दलबीर कौर पाकिस्तान के खिलाफ जंग आरंभ करने का आह्वान कर रही हैं और भारत सरकार को कोस रही हैं कि उस ने राष्ट्रीय अस्मिता और जनता की भावनाओं को नहीं सम?ा. पंजाब सरकार ने भी लगे हाथों सरबजीत को शहीद घोषित कर के दलित किसानों की सहानुभूति हासिल कर ली. राष्ट्रीय नेताओं ने सरबजीत को सलामी दी. बस, फिर क्या था, देश की मीडिया ने भी उसे हीरो बना दिया.

सरबजीत की इस तथाकथित शहीदी पर देश की राजनीतिक पार्टियां अपने वोटों की खातिर चुप हैं और जनता पाकिस्तान की हरकतों के कारण आहत व क्रोधित है.

शहीद कौन

देश की रक्षा और उस की अस्मिता की रक्षा के लिए प्राणों की बलि देने वाला सैनिक शहीद कहलाया जाता है. सरबजीत ने अपनी छोटी सी भूल की बड़ी सजा भुगती, पाकिस्तान पुलिस के ?ाठे आरोप और अत्याचार सहे. इसलिए उस के साथ सब की सहानुभूति तो अवश्य होनी चाहिए लेकिन यह सम?ा से परे है कि जिस शख्स के हाथ में न बंदूक थी और न ही सिर पर कफन बांध कर वह देश के लिए लड़ा, महज पाकिस्तान सीमा में अवैध रूप से पकड़े जाने, जेल में 23 साल कैद रहने और पुलिस की बर्बरता सहने से वह शहीद कैसे बन गया?

शहीद कहलाने के लिए इतना ही जरूरी नहीं है कि कोई देशवासी उस देश में मारा गया जिस के साथ हमारे संबंध कभी सौहार्दपूर्ण नहीं रहे. ऐसे में यह राष्ट्रीय अस्मिता और जनता की भावनाओं का मुद्दा कैसे बन गया?

अगर सरकार और देश उसे शहीद मान रहे हैं तो फिर सरकार को यह स्वीकार करने में भी ?ि?ाकना नहीं चाहिए कि वह हमारा जासूस था. उस की पूरी कहानी देश के सामने लानी चाहिए. कब, कैसे और कहां उसे ट्रेनिंग दे कर और किस मिशन के लिए पाकिस्तान भेजा गया था. लेकिन अगर सरकार उसे जासूस नहीं मान रही है तो फिर शहीद किस आधार पर मान बैठी है? उसे पाकिस्तान सरकार के जुल्मों का शिकार माना जा सकता है पर देशसेवा नहीं. सरकार के इन 2 विरोधाभासी विचारों में राजनीतिक दांवपेंच की बू आती है. 

वह भिखीविंड गांव का एक आम दलित किसान था जो यहां के अधिकांश मर्दों की तरह खेतों पर काम करता था और शाम ढलते ही नशा करता था. उसे अपनी इसी गलती का खमियाजा भुगतना पड़ा. यही नहीं, खबरों के मुताबिक वह पाकिस्तान की जेल में अपनी सारी कमाई सिगरेट में उड़ा देता था और अपने साथी कैदियों से पैसे उधार ले कर सिगरेट पीता था.

सरबजीत के पिता उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन विभाग में नौकरी करते थे व अपने परिवार के साथ आगरा में रहते थे. नौकरी से रिटायर्ड होने के बाद वे परिवार के साथ भिखीविंड गांव आ बसे. सरबजीत की बड़ी बहन दलबीर कौर पढ़ीलिखी थी तो खादी ग्रामोद्योग में नौकरी करने लगी लेकिन सरबजीत 10वीं जमात भी पास नहीं कर पाया. फेल हो जाने के बाद उस ने पढ़ाईलिखाई छोड़ दी.

उस के बाद वर्ष 1983 में पड़ोस के गांव की सुखप्रीत कौर से उस की शादी कर दी गई. जल्द ही वह 2 बेटियों का पिता बन गया.

वह गांव के जाट सिख सरदार मजेंदर सिंह के खेतों में मजदूरी करता था. मजेंदर सिंह और सरबजीत हमउम्र होने के कारण अच्छे दोस्त बन गए थे. दोनों का उठनाबैठना, खानापीना आदि साथ होता था. गांव में जाट सिखों की तूती बोलती है. उन की खेती की लंबीचौड़ी जमीनों पर दलित किसान मजदूरी कर के अपना पेट पालते हैं. यहां के ऊंचेऊंचे मकान जाट सिखों की पहचान हैं और कच्चे मकान बदहाल दलित किसानों की कहानी कहते हैं. गांव के कुछ खेत बौर्डर से मिले हैं जहां इस गांव के लोगों क ो सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक खेतों में काम करने की इजाजत मिलती है. यहां के लोगों की जीविका का साधन अधिकतर खेतीबाड़ी ही है.

सरबजीत का परिवार गांव में ही एक किराए के मकान में रहता था. उस की मां का देहांत हो चुका था. वह अपने पिता, बहन, पत्नी व दोनों बेटियों के साथ रहता था.

पंजाब की लस्सी के साथसाथ यहां के लोगों की दारू की लत भी दूरदूर तक मशहूर है. हर घर में शाम ढलते ही मर्द शराब के नशे में चूर हो जाते हैं. स्थानीय लोग कहते हैं कि मनोरंजन आदि के साधनों की यहां कमी है. इसलिए खेतों पर काम कर के थकेहारे किसान थोड़ीबहुत मौजमस्ती के लिए शाम को शराब पीते हैं. गांव की नई पीढ़ी भी इस नशे की चपेट में लगभग पूरी तरह फंस चुकी है. अधिकतर युवा बेरोजगार हैं जो दिनभर खाली घूमते हैं. ऐसे में वे नशे की लत के शिकार आसानी से हो जाते हैं.

शराब के अलावा नशे की अन्य सामग्री तथाकथित तौर पर पंजाब की सरहद से भारत में पहुंचाई जाती है.

संभव है कि इन नशीली सामग्री को कुछ स्थानीय लोगों द्वारा गांव में ला कर बेचा जाता है. यह भी संभव है कि कुछ बेरोजगार युवक इस में लिप्त हों और उन्होंने इसे अपना धंधा बना लिया हो.

 स्थानीय लोग इस नशे के आदी होने के पीछे पाकिस्तान का हाथ बतातेहैं. वे कहते हैं कि पाकिस्तान पंजाब की आने वाली नस्ल को नशे में डुबो देना चाहता है तो क्या किसी दूसरे देश की सरहद में नशे का यह कारोबार दशकों तक एकतरफा चलता आ रहा है? उधर से मुफ्त में गांजा, अफीम, चरस वगैरा इधर फेंका जाता हो, ऐसा संभव नहीं है. अगर वे उधर से नशे की पुडि़यां भारत की सरहद में फेंकते हैं तो इधर से पैसों की पुडि़यां भी अवश्य फेंकी जाती होंगी.

स्थानीय लोगों की मानें तो बौर्डर सिक्योरिटी फोर्स की नाक के नीचे यह सब चलता हो और उन्हें पता भी न चले, यह संभव नहीं, इसलिए उन की मिलीभगत के बिना यह धंधा उस क्षेत्र में पनपना नामुमकिन है, जहां चिडि़या भी पर न मार सके या हम यह मानें कि हम भारतीय सरहद पर भी दलाली खाते हैं और जब कोई नशे में सरहद पार चला जाता है तब हल्ला मचाते हैं और पाकिस्तानी सरकार को बहाना मिल जाता है यह कहने का कि उन्होंने एक गुप्तचर पकड़ लिया. सरबजीत के परिवार का दर्द स्वाभाविक है, लेकिन अब सरबजीत की कैद और मौत से बहन दलबीर भाई की इस तथाकथित शहादत के नाम पर राजनीति में अपने लिए नई राहें भी तलाशने का प्रयास कर रही हैं. कई राजनीतिक पार्टियों की तरफ से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए प्रस्ताव भी मिल रहे हैं जिन पर वे विचार कर रही हैं. भविष्य में वे सरबजीते क ो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने की बात कह रही हैं. लगता है कि वे भविष्य में भी देशवासियों की संवेदनाओं को भुनाती रहना चाहती हैं.

हालांकि दलबीर कौर के लिए राजनीति कोई नई बात नहीं है. वर्ष 1980 में वे कांग्रेस पार्टी से जुड़ी थीं और अपने गांव में कांग्रेस के लिए कार्य करती थीं. इस के बाद कांग्रेस से उन का मोह भंग हुआ और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया.

दलबीर कौर केअनुसार, जब वे कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुईं तो कांग्रेस ने उन से खुन्नस निकालने के लिए उन के परिवार के साथ एक गंदा खेल खेला.

दलबीर के शब्दों में, यदि कांग्रेस ने मेरे परिवार के साथ यह गंदा खेल न खेला होता तो मेरा भाई आज इस तरह घर नहीं लौटता. हालांकि वह गंदा खेल क्या है, इस पर दलबीर कुछ नहीं कहना चाहतीं. लेकिन एक बार फिर वे कांग्रेस के गले लग कर फूटफूट कर रोईं. कांग्रेस ने भी उन्हें सरबजीत के बहाने ही सही, गले लगाने में देर नहीं लगाई. इधर, नरेंद्र मोदी भी सरबजीत के लिए आंसू बहा रहे हैं.

एक तरफ सरबजीत के मुद्दे को विभिन्न राजनीतिक पार्टियां अपनेअपने फायदे के लिए भुनाने में लगी हुई हैं तो दूसरी तरफ दलबीर कौर पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय जनता के आक्रोश का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर रही हैं. करीबी लोगों का कहना है कि दलबीर कौर राजनीति में आ कर सरबजीत जैसे लोगों के लिए कुछ करना चाहती हैं जो पाकिस्तान की जेलों में बंद हैं. सवाल यह है कि इन 23 सालों में सरबजीत की आवाज मीडिया के द्वारा देश ही नहीं पाकिस्तान में भी खूब सुनाई दी लेकिन क्या कभी दलबीर कौर ने सरबजीत के अलावा किसी और बेगुनाह के बारे में बात की जो पाकिस्तान की जेलों में कैद हैं.

सरबजीत के मुद्दे को ले कर सरकार की चुप्पी कई बड़े सवाल खडे़ करती है. आखिर इस मसले पर सरकार इतनी नरम क्यों है? आखिर वह दलबीर कौर के सामने घुटनों के बल क्यों खड़ी है? यदि सरबजीत को शहीद कहा जा रहा है तो वह भारतीय जासूस था और अगर वह  जासूस था तो प्रत्येक  देश अपने देश की जासूसी करने वाले के साथ नरम रुख से पेश नहीं आता. यदि वह मादक पदार्थों की तस्करी में लिप्त था तो वास्तव में वह गैरकानूनी काम कर रहा था. लेकिन यदि यह मान लिया जाए कि वह नशे की हालत में पाकिस्तान की सीमा में घुस गया तो यह सरबजीत की स्वयं की गलती या बेवकूफी है जिस की  सजा उस ने भुगती. इस के लिए कोई और नहीं वह खुद और उस का परिवार दोषी है. इस में राष्ट्रभावना अथवा देश का बहादुर बेटा होने का कोई तुक नहीं.

वैसे, किसी भी बेगुनाह, चाहे वह किसी भी देश का हो, को सजा मिलना न्याय के खिलाफ  और अमानवीय है, इस की कड़े शब्दों में निंदा होनी चाहिए. यदि विश्व का इतिहास देखें तो कितने ही बेगुनाहों ने दूसरे देशों की जेलों में सिर्फ संदेह की बिना पर आजीवन कारावास व मौत की सजाएं भुगती हैं. कोई किसी देश की सरहद में अवैध रूप से दाखिल होता है तो निसंदेह उसे लंबी सजाएं काटनी पड़ती हैं. हाल ही में भारतीय नागरिक चमेल सिंह की पाक जेल में पिटाई के बाद मौत हो गई. इसलिए यह एक अकेले सरबजीत की कहानी नहीं है.

भारत और पाकिस्तान की जेलों में सजा काट रहे सैकड़ों कैदी हैं, इन में कितने गुनाहगार हैं और कितने बेगुनाह, कोई नहीं जानता. विदेशों की ही नहीं, यदि हम अपने देश की जेलों में बंद कैदियों की बात करें तो हजारों कैदी सिर्फ शक के  आधार पर लंबी सजाएं काट रहे हैं. वर्षों उन पर मुकदमे चलते हैं और जब वे बेगुनाह साबित होते हैं तब तक उन की आधे से अधिक जिंदगी जेल की कोठरियों में गुजर चुकी होती है.

कई बार भटक कर लोग गलती से दूसरे देशों की सीमा में पहुंच जाते हैं. उन के साथ कू्रर व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए. पाकिस्तान के एक स्थानीय वकील ने एक मामले को उजागर करते हुए बताया कि किस तरह मानसिक  रूप से विक्षिप्त चंडीगढ़ का एक व्यक्ति अपनी पत्नी से ?ागड़ा करने के बाद पाकिस्तान के पेशावर में पकड़ा गया. वहां पूछताछ में उस ने पुलिस को बताया कि वह अफगानिस्तान जा रहा था. उसे वापस भारत भेज दिया गया.

इसी तरह एक 11 वर्षीय पाकिस्तानी लड़का भारतीय सीमा में पकड़ा गया जो शाहरुख खान से मिलने के लिए भारत आ रहा था. ऐसे हजारों मामले हैं जिन के बारे में कभी किसी को पता ही नहीं चलता और लंबे समय तक बेगुनाह लोग दूसरे देश की जेलों में सड़ते रहते हैं.

हाल ही में पाकिस्तान ने भारत की विभिन्न जेलों में बंद अपने 47 कैदियों को रिहा करने की मांग की है, जिन की सजा पूरी हो चुकी है. भारत व पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के संयुक्त प्रयास से भारतीय जेल में 13 सालों से बंद 3 पाकिस्तानी मछुआरों को मार्च 2013 में रिहा कर दिया गया. इन मछुआरों पर धारा 120बी, 121,121ए, 489 ए, सैक्शन 25ए व फौरनर्स ऐक्ट के तहत आरोप तय किए गए थे.

पूर्व राजनयिक व उपराज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने अपने एक लेख में एक ऐसे व्यक्ति का जिक्र किया है जिसे शक के चलते पिछले 4 सालों से दार्जिलिंग के करेक्शनल होम में रखा गया है. इस लेख में गोपालकृष्ण ने इस करेक्शनल होम में बिताए गए अपने 1 घंटे के अनुभवों को बांटते हुए लिखा है कि साल 2006 में जब उन्होंने इस होम में लगभग 1 घंटा बिताया तो देखा कि यहां 60 लोगों को रखा गया था जिन में अधिकतर अंडरट्रायल थे. इन 60 में से 6 आईएसआई के एजेंट होने के संदिग्ध थे. इन में 2 पाकिस्तानी थे. इन 2 में से 1 हैदराबाद सिंध का था जिस ने अपनी कहानी सुनाते हुए बताया कि वह वैध तरीके से वाघा बौर्डर से भारत अपने रिश्तेदारों से मिलने और अजमेर शरीफ देखने आया था. उस ने बताया कि उस की गलती सिर्फ इतनी थी कि वह वीजा खत्म हो जाने के 1 दिन बाद अपने देश लौट रहा था और इसलिए उसे गिरफ्तार कर लिया गया.

ऐसा भारत या पाकिस्तान में ही नहीं, हर देश में हो रहा है, जहां संदिग्ध लोग सजाएं काट रहे हैं. पुलिस उन के साथ बर्बर व्यवहार करती है. उन का गलत इस्तेमाल कर उन पर अनेक ?ाठे आरोप लगा देती है.

ऐसे बहुत कम मामले हैं जब लोग बेगुनाह होने पर रिहा कर दिए जाते हैं. अधिकांश तो उन्हीं देशों में मर जाते हैं. विश्व के कई हिस्सों में मछलियां पकड़ते समय जलीय सीमा को ले कर असमंजस की स्थिति में मछुआरे दूसरे देश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं जहां उन्हें गिरफ्तार कर के उन के साथ युद्धबंदियों जैसा सुलूक किया जाता है. दो देशों के बीच आपसी रिश्ते मधुर न होने के कारण इन मछुआरों को खोजा नहीं जाता और ये वहां जेलों में सड़ते रहते हैं. पिछले 60 सालों से पाकिस्तान व भारत के मछुआरे भी अनजाने में एकदूसरे की जलीय सीमा में घुस जाते हैं जहां वे कैद कर लिए जाते हैं और लंबा समय जेलों में बिताते हैं.

अपनी जान को जोखिम में डाल कर दूसरी सीमा में मछलियां पकड़ने के लिए निकलना क्या मूर्खता नहीं है. दार्जिलिंग में जो पाकिस्तानी व्यक्ति पिछले 4 सालों से सिर्फ इसलिए कै द है कि वह वीजा खत्म होने के बाद अपने देश लौटने की कोशिश कर रहा था तो इसे सरासर बेवकूफी कहा जाए तो गलत नहीं होगा. 

ऐसे मामले ही सरकार का निकम्मापन दर्शाते हैं. यदि सरकार कठोर प्रयास करती तो सरबजीत व पाकिस्तान जेलों में कैद उस जैसे अन्य कैदी रिहा हो सकते थे. लेकिन सरकार ने इस मुद्दे को कभी गंभीरता से लिया हो, ऐसा लगता नहीं. न्यूयार्क में 16 सितंबर 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की मुलाकात में एक मुद्दा सरबजीत की रिहाई का भी उठा था. मुशर्रफ 5 सालों से परवेज मुशर्रफ से ले कर आसिफ अली जरदारी तक किसी पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने भारत की ओर से की गई अपील पर सुनवाई नहीं की.

बीते साल अप्रैल में भारत आए पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के आग्रह और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भारत ने अजमेर जेल में बंद पाक नागरिक डाक्टर खलील चिश्ती को तो रिहा कर पाकिस्तान भेज दिया लेकिन मनमोहन सिंह व आसिफ अली जरदारी की मुलाकात में सरबजीत पर किए गए भारतीय आग्रह पर पाकिस्तान ने फैसला नहीं किया. वर्ष 2012 में तत्कालीन विदेश मंत्री एस एमात्मक  नतीजे आ सकते हैं. लेकिन भारत की ओर से की गई हर कोशिश नाकाम साबित हुई. पाकिस्तान सरबजीत के मामले में भारत को हर बार गच्चा देता रहा. सरबजीत का परिवार और अधिकांश लोग इस के लिए सरकार के ढुलमुल रवैए को दोषी मानते हैं.

एक दैनिक अखबार के संपादकीय में पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में सरबजीत पर हुए हमले पर लिखा गया, ‘सरबजीत की मौत पर पाकिस्तान यह नहीं कह सकता कि लाहौर की कोट लखपत जेल में उसे गैर सरकारी तत्त्वों ने निशाना बनाया क्योंकि जेल अधिकारियों की मिलीभगत के बगैर उस पर ऐसा संगीन हमला संभव नहीं था.’

संपादकीय में आगे लिखा है, ‘भारत सरकार ने कभी भी ऐसा प्रदर्शित नहीं किया कि सरबजीत की सुरक्षा या उस की रिहाई उस के एजेंडे में है. सरकार अपने नागरिकों की परवा नहीं करती, बल्कि वह अपने मानसम्मान की भी फिक्र नहीं करती तो फिर सीधे तौर पर यह हमारी सरकार की नाकामी है.’

दरअसल, दोनों देशों के हाई कमीशन निकम्मे हैं जो अपने देश के बेगुनाह लोगों के लिए कुछ ठोस उपाय नहीं कर सकते. यदि सरबजीत बेकुसूर था तो 23 सालों के लंबे वक्त में हमारी सरकार के विदेश मंत्रालय ने एक भी ईमानदार पहल क्यों नहीं की? इसे मानवीय पहलू से देखने के बजाय सिर्फ राजनीतिक लाभहानि की दृष्टि से देखा गया. ऐसे मामलों में दोनों देशों की कूटनीतिक विफलता सामने आती है.

जानेमाने स्तंभकार हृदयनारायण दीक्षित सरबजीत के मामले में हीलाहवाली के लिए देश की सरकार को दोषी मानते हैं. उन्होंने लिखा है, ‘‘पाकिस्तान भारत में घुसपैठ कराता है, पाकिस्तान में आतंकी  ट्रेनिंग कैंप हैं, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बात भी स्वत: सिद्ध है, बावजूद इस के भारत निरीह, लाचार, असहाय और बेबस क्यों है?’’

उन्होंने आगे लिखा है, ‘‘पाकिस्तानी जेलें भारत के निर्दोष कैदियों से भरी हुई हैं. कुछ समय पहले तत्कालीन विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने राज्यसभा में बताया था कि पाकिस्तान की जेलों में 793 भारतीय बंद हैं. इन में 582 गरीब मछुआरे हैं, शेष 211 साधारण नागरिक हैं. इन निर्दोष लोगों को पाकिस्तानी जेल में सड़ने देना और भारतपाक शीर्ष वार्त्ताओं में मजे लेना भारतीय राजनयिकों की लत है.’’

वे आगे लिखते हैं, ‘‘सैकड़ों भारतीय कैदी अब भी पाकिस्तान की जेलों में यातनाओं के शिकार हैं. मूलभूत प्रश्न है कि भारत सरकार ने इन के लिए क्या किया? डाक्टर खलील चिश्ती की रिहाई के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भारतीय प्रधानमंत्री से वार्त्ता की थी. सरबजीत के लिए डा. मनमोहन सिंह ने क्या प्रयास किए? असल में भारत की पाक नीति में ही सारा दोष है. दिल्ली के सिंहासन की कमजोरी ने राष्ट्र को आहत किया है.’’

सरबजीत की मौत पर बुद्धिजीवी वर्ग के साथसाथ पूरे देश की यही प्रतिक्रिया है कि सरकार ने यदि ठोस प्रयास किए होते तो सरबजीत की रिहाई मुमकिन थी.  सरबजीत सिंह गुनाहगार था या बेगुनाह, यह कोई नहीं जानता. दोनों देशों के अपनेअपने तर्क हैं. लेकिन सरबजीत अब तथाकथित शहीद है. उसे वह दर्जा दे दिया गया है जो पजांब के स्वतंत्रता सेनानी शहीद भगत सिंह को दिया गया है. अब शहीद सरबजीत सिंह और भगतसिंह में कोई अंतर नहीं है. भविष्य में स्कूलों में शहीद सरबजीत सिंह की जीवनी का भी एक चैप्टर शामिल किया जा सकता है अथवा स्वतंत्रता दिवस पर सरबजीत सिंह की समाधि पर जा कर सरकारी व गैरसरकारी लोग श्रद्धांजलि अर्पित करें तो हैरानी की बात नहीं. यानी समय बदलने के साथसाथ शायद शहीद के माने भी बदल गए हैं.

पाकिस्तानी सीमा में अवैध प्रवेश से शुरू हुआ सरबजीत का सफर यातना भरी सजा, माफी की गुहार और भारत व पाकिस्तान के अस्पष्ट रवैए के उलझे गलियारों से गुजरता हुआ दर्दनाक मौत पर खत्म हुआ. पर क्या यह मौत सच में शहादत थी? पढि़ए बुशरा की यह रिपोर्ट.

भारत व पाकिस्तान की सरहद जिस के दोनों ओर बसे नजदीकी गांवों के लोग जब कभी उसे पार करने की गलती कर बैठते हैं तो उन का सकुशल वापस लौटना मुश्किल होता है.

एक शहीद सैनिक की तरह तिरंगे में लिपटा सरबजीत का शव कई सवाल खड़े करता है.

(बाएं से दाएं) दलबीर कौर (बहन), सुखप्रीत कौर (पत्नी), पूनम व स्वप्नदीप (बेटियां) : नशा करने से पहले सरबजीत ने काश एक बार अपनों के बारे में सोचा होता. क्या भाई की मौत में दलबीर कौर अपना राजनीतिक भविष्य तलाश रही हैं? सरबजीत की अंतिम यात्रा देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि समय बदलने के साथसाथ शहीद के माने भी बदल गए हैं. सरबजीत का दोस्त सरदार मजेंदर सिंह. सरबजीत का दोस्त सरदार मजेंदर सिंह. भिखीविंड स्थित सरबजीत का घर, जहां अब उस की यादें ही रह गई हैं.

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